शुक्रवार, जनवरी 05, 2007

भारत भूमि पर विदेशी टापू (शेष भाग)

गतांक से आगे :
आन्ध्रप्रदेश में काकिनाडा में तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग के विशेष आर्थिक क्षेत्र एवं तेलशोधक कारखाने के लिए १०,००० एकड़ खेती की उपजाऊ भूमि ली जा रही है , जिसे छोड़ने के लिए किसान तैयार नहीं है। हरियाणा में रिलायन्स का विशेष आर्थिक क्षेत्र भी विवादों से घिर गया है। हरियाणा सरकार ने गुड़गाँव के पास लगभग १००० करोड़ रु. की १७०० एकड़ भूमि मुकेश अंबानी को मात्र ३६० करोड़ रु. में दे दी है। इसी प्रकार , पंजाब में अमृतसर के पास डी.एल.एफ़. कम्पनी के विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए भी सस्ती दरों पर भूमि अर्जित करने के कारण काफी विरोध हो रहा है। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री स्वंय इसमें कम्पनी के पक्ष में जोर लगा रहें है तथा वहाँ जा चुके हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के मामलों में जमीन के बड़े-बड़े घोटाले होने की पूरी सम्भावना है। वैश्वीकरण के कई घोटालों में यह एक नया योगदान है। प्रचलित बाजार दरों से काफी कम दरों पर, राज्य सरकारें इन कम्पनियों के हवाले जमीन कर रही है तथा किसानों से बहुत कम दरों पर जमीनें जबरदस्ती ली जा रहीं है। पहले ही बड़े बाँधों,खदानों,कारखानों,फ़ायरिंग रेंजों,राष्ट्रीय उद्यानों व अभ्यारणों से बड़े पैमाने पर गाँवों को उजाड़ा जा रहा है। विशेष आर्थिक क्षेत्र इस विस्थापन की श्रृंखला में एक नई कड़ी बन गए हैं। भारतीय खेती व गाँवों पर वैश्वीकरण का यह एक और हमला है।
विशेष आर्थिक क्षेत्रों का प्रशासन भी इनका विकास करने वाली कम्पनियों के हाथ में होगा। केन्द्र सरकार की तरफ से सिर्फ एक विकास आयुक्त होगा। सम्भवतः कोई ग्राम पंचायत या नगरपालिका जैसी स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ भी नहीं होगी। ये देश के अंदर एक अलग देश होंगे और यहाँ देशी-विदेशी कम्पनियों की ही चलेगी। यह एक विचित्र स्थिति होगी और १९४७ के बाद, गोवा व पांडिचेरी की आजादी के बाद, भारत भूमि पर पहली बार देश की सम्प्रभुता से स्वतंत्र क्षेत्र बनेंगे।
इस बात की पूरी सम्भावना है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र काफी बड़े भ्रष्टाचारों और घोटालों के केन्द्र बनेंगे। विकास आयुक्त से लेकर अन्य अफ़सर केन्द्र सरकार के होंगे। विशेष आर्थिक क्षेत्रों में स्थापित होने वाली इकाइयों और इसमें ढाँचा-निर्माण करने वाली कंपनियों को अनुमति व लाइसेन्स देने की एवज में उनकी जम कर कमाई होगी। आखिर करोड़ों - अरबों रुपए की कर -रियायतों के बदले में कुछ कमीशन उन्हें देने में देशी- विदेशी कंपनियों को कोई दिक्कत नहीं होगी।
यदि संप्रभुता, भ्रष्टाचार, विस्थापन और अन्य विवादों को छोटी - मोटी समस्या तथा विरोधियों का प्रचार कहकर नकार दिया जाए, तो भी भारत के विकास और प्रगति में इन ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ की भूमिका काफी संदिग्ध है। स्वयं उदारीकरण - वैश्वीकरण के समर्थक अर्थशास्त्री भी भारत सरकार की इस योजना पर उंगली उठा रहें हैं। पहली बात तो यह है कि ज्यादा संभावना इस बात की है कि इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों में मिलने वाली जबरदस्त कर- छूटों व अन्य सुविधाओं के कारण, नए उद्योग लगने के बजाय देश के अन्य क्षेत्रों से उद्योग यहाँ स्थानान्तरित हो जायेंगे । विशेष आर्थिक क्षेत्रों में तो पूंजी निवेश, उत्पादन, निर्यात और रोजगार के आंकड़े बढ़ते हुए दिखेंगे, किंतु देश के अन्य विशाल भूभाग में उद्योग बंद होते जाएंगे और मंदी व बेरोजगारी फैलती जाएगी। कुल मिलाकर नतीजा शून्य से ज्यादा नहीं होगा।
उल्टे नुकसान यह होगा कि करों व शुल्कों में भारी रियायतों से भारत सरकार व राज्य सरकारों की आय कम हो जाएगी और वे अपने कर - राजस्व के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से से वंचित हो जाएगी। अनुमान लगाया गया है कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों के कारण सिर्फ भारत सरकार को अगले चार वर्षों में लगभग ९३,००० करोड़ रुपए के कर-राजस्व का नुकसान होगा । एक तरफ तो भारत सरकार पैसे की तंगी का रोना रोती है और अपना घटा व अनुदान कम करने के लिए गरीबों व आम जनता के लिए राशन , बिजली , पानी , खाद , शिक्षा , इलाज आदि को मंहगा करती जा रही है, दूसरी तरफ़ इन कंपनियों को दिल खोल कर करों व शुल्कों से छूट दे रही है । देश की जनता को वंचित करके कंपनियों को लाभ पहुँचाने का काम इन ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ के जरिए होगा ।
इस मामले में , इसके पहले के ‘ निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्रों ‘ का क्या अनुभव रहा , यह भी देखना चाहिए । वर्ष १९९८ की रिपोर्ट में भारत के महाअंकेक्षक एवं लेखा परीक्षक ने टिप्पणी की थी कि ” ४७०० करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा कमाने के लिए ७५०० करोड़ रुपए के आयात शुल्क की हानि हुई तथा ऐसा लगता है कि सरकार ने कोई नफ़ा-नुकसान का विश्लेषण ही नहीं किया। ” हो सकता है कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों का अनुभव भी इससे ज्यादा अलग न हो ।
दरअसल , चीन ने दो दशक पहले जब इस तरह के विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाये थे , तो वहाँ स्थिति काफी अलग थी । एक, चीन के अन्दर काफी समय तक विदेशी कंपनियों को इजाजत नहीं थी तथा चीन की अपनी देशी निजी कंपनियाँ भी नहीं पनपीं थीं । इसलिए इन क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों को चीन में घुसने का एक मौका मिला , वे बड़ी संख्या में आईं और इन क्षेत्रों से चीन को निर्यात बढ़ाने में मदद मिली । जबकि भारत में तो सारे दरवाजे पहले ही खुले हैं तथा भारत के देशी कंपनियां भी काफी विकसित हैं । दूसरा फर्क यह है कि बीस वर्ष पहले सब जगह आयात और निर्यात शुल्क काफी ऊँचे थे तथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों के माध्यम से कंपनियों को ऊँचे शुल्कों की इन दीवारों को भेदने की सुविधा मिलती थी । लेकिन १९९५ में विश्वव्यापार संगठन बनने के बाद से ये शुल्क लगातार कम होते गए हैं और अब शून्य से लेकर दस-पन्द्रह प्रतिशत के बीच में रह गए हैं । इसलिए उत्पादन व निर्यात के लिए कम सीमा-शुल्कों वाले विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने का औचित्य बहुत कम रह गया है । हम चीन के विकास मॊडल की नकल तो करने की कोशिश कर रहे हैम,लेकिन नकल में भी अपनी अकल कम लगा रहे हैं ।
यह भी हो सकता है कि निर्यात के लिए करों में छूट और सुविधाओं को विश्वव्यापार संगठन में कोई देश चुनौती दे या स्वयं अपने देश में उन वस्तुओं पर संतुलित करने वाले शुल्क लगा दे। ऐसी हालत में निर्यात संवर्धन के उद्देश्य को पूरा करने पर भी प्रश्नचिह्न लग जाएगा ।
भारत पिछले कई वर्षों से अपना निर्यात बढाने की कोशिश कर रहा है । निर्यात बढने से ही देश का विकास होगा ,यह पाठ विश्वबैंक,अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वव्यापार संगठन से ले कर वैश्वीकरण समर्थक सभी अर्थशास्त्री पढाते रहे हैं । इसके लिए चीन , दक्षिण कोरिया , मक्सिको व लाटिनी अमेरिका के अन्य देशों का उदाहरण दिया जाता रहा है। निर्यात बढ़ाने के लिए ज्यादा से ज्यादा विदेशी कंपनियों को देश में बुलाना होगा तथा देशी-विदेशी कंपनियों को नियमों और करों में छूट व अनुदान देने होंगे - इस नीति पर भारत सरकार चलती रही है । ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र’ इस शृंखला में सबसे ताजा पैकेज है । किन्तु इन सब कोशिशों के बावजूद भारत को अभी तक इस मोर्चे पर सफलता नहीं मिली है । भारत के निर्यात तो बहुत नहीं बढ़ पाए , आयात उससे ज्यादा बढ़ते गए। पि्छले काफी समय से भारत के विदेश व्यापर में लगातार विशाल घाटा चला आ रहा है ।
निर्यात-आधारित विकास की इस पूरी संकल्पना पर ही सवाल उठाने का समय आ गया है । सही माएने में देखा जाए, तो यह एक मृग-मरीचिका है और दुनिया के गरीब देशों को लूटने का एक और खेल है । जब दुनिया के सारे गरीब देश निर्यात बढ़ाने की कोशिश करते हैं,तो जाहिर है कि सबका निर्यात एक साथ नहीं बढ़ सकता । कुछ देशों के निर्यात कम होंगे, तो दूसरे देशों के निर्यात बढ़ेंगे । लेकिन निर्यात बढाने की इस होड़ में वे अपने सामानों और सेवाओं को सस्ता करते जाते हैं । अपने देश की बहुसंख्यक गरीब आबादी की जरूरतों की उपेक्षा भी करते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में माल सस्ता होने पर अमीर देशों व उनके नागरिकों व उनके नागरिकों कोफायदा होता है , जिनके पास क्रय शक्ति है ,या यूँ कहें कि जिनके पास डॊलर है । इस प्रकार ‘निर्यातोन्मुखी विकास’ के इस खेल में अमेरिका-यूरोप-जापान की सेवा में पूरी दुनिया के संसाधन लग जाते हैं और उनके लिए चीजें और सेवाएं सस्ती होती चली जाती हैं । यह शोषण का एक जरिया है । साथ ही निर्यात बढ़ाने के लिए विदेशी कंपनियां ही माहिर हैं , इस तर्क के चलते अमीर देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सर्वत्र घुसपैठ हो रही है और उनका वर्चस्व पूरी दुनिया पर पायम होता चला जा रहा है । उनके मुनाफ़े व रायल्टी , गरीब दुनिया के शोषण का एक जरिया है । ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ तो विशेष तौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अड्डे बनेंगे ।
‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ हों , निर्यात आधारित विकास की बात हो , विदेशी पूंजी आकर्षित करने की होड़ हो या वैश्वीकरण का गुणगान हो , चीन की मिसाल बार-बार दी जाती है । चीन आधुनिक भारत के लिए एक मॊडल है ,जिसका वह अनुकरण करना चाहता है । वह मनमोहन सिंह और बुद्धदेव भट्टाचार्य दोनों के लिए मॊडल है।चीन की विकास दर लगातार कई वर्षों से नौ-दस प्रतिशत के आस-पास चल रही है । चीन भारत से तीन-चार गुना ज्यादा विदेशी पूंजी अकर्षित कर रहा है । चीन का निर्यात तेजी से बढ़ रहा है और चीनी वस्तुएं अमरीका से ले कर भारत तक के बाजार में छा गयी हैं । यह सब तो खूब प्रचार होता है । लेकिन चीन की जनता का क्या हाल है ? इस मॊडल के चीन के अन्दर की क्या वस्तुस्थिति है ?
जो जानकारी मिल रही है , उससे पता चलता है कि चीन का विकास और औद्योगीकरण मुख्यरूप से हांग्कांग से लगे चीन के पूर्वी तटीय इलाकों तक सीमित है । चीन के गाँवों में और चीन के विशाल मुख्य भूमि में गरीबी , बेरोजगारी व गैरबराबरी बहुत तेजी से बढ़ रही है तथा बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन हो रहा है । भारत की तरह बड़ी संख्या में आत्महत्याएं भी हो रही हैं । कारखानों और खदानों में काम करने की दशाएं बहुत खराब हैं ।दुनिया में खनन और औद्योगिक दुर्घटनाओं स्बसे ऊँची दर चीन में है । भारत से भी ज्यादा दुर्घटनाएं वहाँ हो रही हैं । संपत्ति व आय के वितरण में भी गैरबराबरी चीन में भारत से ज्यादा हो चुकी है । पूरे चीन में जबरदस्त जन-असंतोष खदबदा रहा है , जिसे केन्द्रीय सत्ता की तानाशाही के चलते दबाकर रखा गया है । वर्ष २००५ में पूरे चीन में ८७,००० विरोध प्रदर्शन हुए , यह आंकड़ा स्वयं चीन सरकार की सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय का है । क्या यही हमारा मॊडल है ?
शायद , वैश्वीकरण की नई व्यवस्था में गरीब देशों का कोई ‘विकास’ हो सकता है,तो वह इसी तरह का होगा । थोड़े लोगों और थोड़े इलाकों में बहुत गतिविधियाँ , स्मृद्धि और शान-शौकत दिखाई देगी । लेकिन बाकी विशाल इलाके की विशाल आबादी कंगाली , जाहिली , बेरोजगारी ,विस्थापन व पलायन की पीड़ा भोगने को अभिशप्त होगी । आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता की यह खूबी की यह खूबी है कि इसमें सबका विकास नहीं हो सकता । लेकिन बाकी लोगों की कीमत पर कुछ लोग व कुछ इलाके विकास व समृद्धि की अभूतपूर्व उचाइयां हासिल कर सकते हैं । इस पूंजीवाद ने पहले दुनिया में बडे-बडे उपनिवेश बनाये थे । फिर उपनिवेश आजाद होने पर नव-औपनवेशिक तरीकों से उनका शोषण जारी रखा । नव-औपनिवेशिक लूट के साथ -साथ देशों के अन्दर भी उपनिवेश बनने की प्रक्रिया निरंतर चल रही है । इससे देश के अंदर भी गैरबराबरी व शोषण तेजी से बढ़ेगा ,जो अन्तर्राष्ट्रीय सम्राज्यवादी शोषण का पूरक होगा और मददगार होगा। ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ भी इस आंतरिक उपनिवेश और बाहरी उपनिवेश वाली द्वन्द्वात्मक व्यवस्था का एक नया औजार है। यही इसका असली रूप और इसकी असली भूमिका है ।

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