शनिवार, जनवरी 27, 2007

क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (५)

 

 गत प्रविष्टी से आगे :  ऊपर विदेशी कंपनियों की लूट के जो उदाहरण दिए हैं , उनका संबंध हमारे दो प्राकृतिक संसाधनों - पानी और खनिज - से है । प्राकृतिक संसाधनों का बाजार बनाना , उन पर से स्थानीय लोगों को बेदखल करना और देशी - विदेशी कंपनियों का नियंत्रण कायम करना , अमीर देशों की छोटी-सी अमीर आबादी के हित में उनका बेरहमी से दोहन , शोषण और विनाश करना - वैश्वीकरण के इस दौर की खासियत है ।पर्यावरण का संकट इसका सिर्फ एक खास पहलू और परिणाम है । लेकिन 'पर्यावरण - संकट ' कहने से पूरी तस्वीर साफ नहीं होती और उसके पीछे के असली कारण उजागर नहीं होते । असल में यह प्राकृतिक संसाधनों के हक और उपयोग की लड़ाई है और उन पर पूंजीवादी-सम्राज्यवादी हमले का मसला है । ऐसा नहीं है कि यह हमला नई चीज है या अभी शुरु हुआ है । लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर में यह हमला अचानक बढ़ गया है और इसके कारण पैदा हुए संकट भी बढ़ गए हैं । पूंजीवाद ऐसे दौर में पहुँच गया है , जब संसाधनों की उसकी भूख और विनाश की उसकी क्षमता बहुत बढ़ गयी है और जिसके बगैर वह जिंदा नहीं रह सकता है ।

    आज दुनिया में जो संघर्ष हो रहे हैं , उनका प्रमुख संबंध प्राकृतिक संसाधनों की इस छीना-झपटी से है । इराक और अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले की जड़ में वहाँ के तेल और प्राकृतिक गैस के भण्डार हैं । वेनेजुएला और बोलीविया से अमरीका के विरोध की बुनियाद में भी वही है ।नाइजीरिया में केन सारो विवा जैसी हस्तियों को फांसी , ईरान से अमरीका का टकराव , रूस व यूक्रेन का झगड़ा आदि की जड़ में भी पेट्रोल है ।अमरीकी लोगों की प्रति व्यक्ति तेल खपत दुनिया में सबसे ज्यादा है ।वे अपना तेल भण्डार बचाते हुए पूरी दुनिया के तेल पर अपना नियंत्रण रखना चाहते हैं । इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं , किसी भी देश को रौंद सकते हैं और हजारों-लाखों इंसानों का कत्ल कर स्कते हैं।वैश्वीकरण का एक वीभत्स, क्रूर तथा साम्राज्यवादी चेहरा इराक व अफगानिस्तान में स्पष्ट दिखाई देता है ।

    भारत में आज जो संघर्ष और आंदोलन चल रहे हैं , उनका भी संबंध प्राकृतिक संसाधनों से ही है । नर्मदा बचाओ ,हरसूद ,महेश्वर ,टिहरी,तवा , पोलावरम , कलिंगनगर , काशीपुर , लांजीगढ़ , प्लाचीमाड़ा , मेंहदीगंज , कालाडेरा ,दादरी , चिपको , श्रीगंगानगर , जम्बूदीप , चिलिका , बालियापाल , गंधमार्दन , नगरनार आदि की लड़ाई अंतत: जल , जंगल , जमीन , खनिज , मछली आदि प्राकृतिक संसाधनों की लड़ाई है । प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा किए बगैर तथा उनका विनाश किए बगैर पूंजीवादी विकास या वैश्वीकरण का रथ अब आगे नहीं बढ़ सकता । इसके लिए किसानों , आदिवासियों ,मछुआरों , पशुपालकों , ग्रामवासियों को बड़े पैमाने पर विस्थापित किया जा रहा है ।वैश्वीकरण और विस्थापन का चोली-दामन का साथ है।

    किशन पटनायक एक ऐसे विचारक थे , जिन्होंने इस लूट व विनाश पर बुनियादी सवाल उठाए । जैसे काशीपुर व लांजीगढ़ के सन्दर्भ में उन्होंने सिर्फ आदिवासियों के विस्थापन का ही विरोध नहीं किया,उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि आखिर इतने बाक्साइट खनन की जरूरत क्या है और एल्युमिनियम का इतना ज्यादा उत्पादन किसके लिए होगा ? यदि यह एल्युमिनियम निर्यात होकर अमरीका-यूरोप के विमानों तथा अस्त्र-शस्त्रों में काम आएगा , तो इसे हम भारत का विकास कहेंगे क्या ?उनके भोग - विलास तथा उनकी साम्राज्यवादी जरूरतों के लिए हम अपना जंगल क्यों नष्ट करें , अपने आदिवासियों को क्यों उजाड़ें और अपना खनिज भण्डार क्यों लुटायें ?क्या ज्यादा खनिज उत्पादन हमेशा विकास व प्रगति का पर्यायवाची होगा ?

    किशन पटनायक ने पानी के बाजार पर भी सवाल उठाया । वैश्वीकरण के उन्मुक्त बाजारवाद ने पानी जैसी सर्वसुलभ चीज को भी नहीं छोड़ा और उसे बहुराष्ट्रीय मुनाफे का सबसे बढ़ता हुआ कारोबार बनाने का कमाल करके दिखाया । बोतलबंद पानी तथा कोक-पेप्सी इस लूट का हिस्सा है । लेकिन विश्व बैंक , एशियाई विकास बैंक , अफ़्रीकी विकास बैंक आदि के द्वारा गरीब देशों को पेयजल , शहरी विकास , सिंचाई आदि के जो कर्ज दिए जा रहे हैं , जो ऊपर से मानवीय परियोजनाएं दिखाई देती हैं , उनमें सब में शर्त होती है कि पानी की दरें बढ़ाई जाएं ,पूरी लागत-वसूली हो और धीरे -धीरे पानी की आपूर्ति का काम निजी कंपनियों को दिया जाए । ( ऐसी ही शर्तें बिजली ,सड़क , शिक्षा हर क्षेत्र की परियोजनाओं में होती हैं) । सरकार किसी भी प्रकार का अनुदान न दे ( या देना हो तो कंपनियों को दे) और हस्तक्षेप न करे । जहाँ-जहाँ विश्व बैंक व एशियाई विकास बैंक की योजनाएं लागू हुई हैं वहाँ पानी की दरें बहुत तजी से बढ़ी हैं और निजी कंपनियों ठेकए दिए गए हैं- वह चाहे भारत का दिल्ली हो , बोलिविया का कोचाबाम्बा हो या दक्षिण अफ़्रीका का केपटाउन हो ।पानी के इस निजीकरण का अंतत: सीधा मतलब  होता है कि बढ़ी हुई दरों पर जो पैसा दे सकेगा ,उसे ही पानी मिलेगा । पैसा नहीं तो पानी नहीं ।गरीब लोग पनी से भी वंचित हो जाएंगे ।इससे अधिक क्रूर व अमानवीय व्यवस्था और कोई नहीं हो सकती । पूरे मानव इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि इंसानों को पानी जैसी चीज से वंचित किया गया हो।जिस मध्ययुग को बर्बरयुग कहा जाता है , उसमें भी ऐसा नहीं हुआ था । वैश्वीकरण का यह युग मानव इतिहास का सबसे बर्बर युग है । 

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