क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (६)
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अमर्त्य सेन , जोसेफ स्टिगलिट्ज़ आदि कहते हैं कि साक्षरता , शिक्षा , स्वास्थ्य , तकनालाजी आदि पर सरकार पर्याप्त खर्च करे व ध्यान दे तो वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया को मानवीय बनाया जा सकता है और सब लोग इसका लाभ उठा सकते हैं । जो लग इस प्रक्रिया के शिकार होंगे , उनके लिए सामाजिक सुरक्षा तंत्र (safety nets ) बना दिए जाएं। लेकिन कैसे ? यह कहने का मतलब वैश्वीकरण के लूट , शोषण व विनाश के बुनियादी आधार को नजरअंदाज करना है , दुनिया में विभिन्न हितों में बुनियादी टकराव को अनदेखा करता है तथा एक विश्लेषण-रहित कोरे आशावाद( wishful thinking ) का सहारा लेना है । यह वैसा ही है , जैसा कि शेर के आगे मेमने को डाल दिया जाए और यह उम्मीद की जाए कि शेर संत बन जाए व मेमने को न खाए । इसमें दो तथ्य ध्यान देने लायक हैं ।
(१) वैश्वीकरण का , नवउदारवादी अर्थशास्त्र का तथा विश्व बैंक , अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि का गरीब देशों की सरकारों पर लगातार दबाव है कि वे अपने बजट का घाटा कम करें और गरीबों को अनुदान कम करें । इन नवउदारवादी नीतियों में करों से सरकार का राजस्व बढ़ाने का विकल्प नहीं है क्योंकि अमीरों व कंपनियों को लगातार करों में छूटें दी जा रही हैं । अब तो विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ ) जैसे कर मुक्त स्वर्ग बनाए जा रहे हैं । ऐसी हालत में शिक्षा , स्वास्थ्य , राशन , सार्वजनिक सुविधाओं पर खर्च लगातार कम हो रहा है और सरकार अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ती जा रही है । भारत में तो 'वित्तीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम ' बनाकर भारत सरकार ने स्वयं अपने हाथ बांध लिए हैं । इस कानून के तहत भारत सरकार को लगातार अपने बजट घाटे को कम करते हुए पाँच साल में उसे शून्य पर पहुंचाना है । यह बिल्कुल गैरजरूरी , गलत एवं बेवकूफी है ।
(२) दूसरी ओर , वैश्वीकरण का पूरा जोर शिक्षा , स्वास्थ्य आदि का भी बाजार विकसित करने पर है । पानी के बाजार की भांति यह भी गरीबों व जनसाधारण के खिलाफ जाता है । बहुत तेजी से शिक्षा व स्वास्थ्य का निजीकरण हो रहा है । शिक्षा व इलाज मंहगे होते जा रहे है ।कोचिंग का मंहगा बाजार तेजी से विकसित हो रहा है । निजी कॊलेजों , विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थाओं की बाढ़ आ गयी है । डोनेशन का रेट बढ़ता जा रहा है।देशी तथा विदेशी कंपनियां भी शिक्षा के इस बाजार में कूद रही हैं । यहाँ तक सरकार की नीतियाँ भी पूंजीपति व कंपनियाँ बना रही हैं । कुछ समय पहले भारत सरकार ने शिक्षा में सुधार लाने के लिए 'अम्बानी-बिड़ला समिति' बनाई थी , जिसने अपनी रपट भी दी है । यह कमाल वैश्वीकरण के जमाने मे ही हो सकता है कि शिक्षा के बारे में कमेटी शिक्षाविदों या विशेषज्ञों की नहीं पूंजीपतियों और बड़े बनियों की बनाई जाए , जिनके लिए मुनाफे को छोड़कर कोई मूल्य नहीं होते ।इसी प्रकार जिस परिषद के सारे के सारे सदस्य देश के बड़े पूंजीपति हों , उनमें एक भी बुद्धिजीवी , अर्थशास्त्री , प्रशासक , किसानों या मजदूरों का प्रतिनिधि न हों , फिर भी उसे हम उत्तरप्रदेश को लूटने की परिषद न कहकर 'उत्तरप्रदेश विकास परिषद' कहें - यह भी वैश्वीकरण का कमाल है ! पहले के युग में हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे ।
जब शिक्षण संस्थाएं शिक्षा की दुकानें बन जाएं,अस्पताल मरीजों को लूटने के अड्डे बन जाएं , चिकित्सक के पवित्र कार्य पर पैसा कमाने का जुनून पूरी तरह हावी हो जाए - तो इसे किसी भी तरह से प्रगति नहीं कहा जा सकता । यह तो अध:पतन है । इसी प्रकार संस्कृति , कला , साहित्य , पत्रकारिता सबका तेजी से बाजार बन रहा है । सब 'बाजारू' बन रहे हैं । मुनाफे और पैसे की इस बाजारू दुनिया में मानव-मूल्यों व मानवीयता की जगह दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है । ( जारी)
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