क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (३)
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वैश्वीकरण की एक उपलब्धि के तौर पर यह प्रचारित किया जाता है कि भारत की विकास दर ७ - ८ प्रतिशत तक पहुँच गयी है , ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में इसे नौ व दस प्रतिशत तक पहुंचाया जाएगा । लेकिन यह विकास - दर बहुत भ्रामक है ।सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह ' रोजगार रहित विकास ' (Jobless growth ) है । देश में बेरोजगारी जबरदस्त बढ़ती जा रही है । यह बेरोजगारी सर्वव्यापी है , किंतु भारत के ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में सबसे ज्यादा है , जहाँ से लाखों - करोड़ॊ लोग रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं । वैसे तो विशाल बेरोजगारी भारत के आधुनिक विकास मॊडल में अंतर्निहित है , किंतु वैश्वीकरण के दौर में इस बेरोजगारी में भारी बढ़ोत्तरी के दो प्रमुख कारण हैं : -
(१) खुले व सस्ते आयात के कारण तथा सरकार की नई नीतियों के कारण देश के बहुत सारे छोटे - बड़े , निजी - सरकारी , शहरी - ग्रामीण उद्योग खतम हो गए हैं तथा खेती भी घाटे में जा रही है । जो नए उद्योग या कारोबार उनकी जगह ले रहे हैं , उनमें इस विशाल बेरोजगार फौज को खपाने की क्षमता नहीं है । आखिर , जिस सूचना तक्नालाजी और BPO सेवाओं का इतना हल्ला है , गुड़गाँव और बंगलौर की इतनी चर्चा है , उनमें अधिकतम पाँच - दस लाख से ज्यादा रोजगार नहीं मिल सकता ।
(१) नए माहौल में , अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में टिकने के लिए , प्रत्येक कंपनी या उद्योगपति तेजी से मशीनीकरण , स्वचालन और कम्प्यूटरीकरण की ओर जा रहे हैं तथा मजदूरों - कर्मचारियों की छंटनी कर रहे हैं । सरकारी उपक्रम भी चाहे वह रेलवे हो , SAIL हो , BCCL हो या बैंक , इसी नीति पर चल रहे हैं । इस काम के लिए सरकार उन्हे मदद , अनुदान तथा छूट भी देती है । भारत के श्रम - कानूनों को बदलना तथा ' चाहे जब लगाओ - भगाओ ' (Hire and Fire ) की छूट देना आर्थिक सुधारों के नए दौर ( Second Generation of Reforms ) का प्रमुख अजेण्डा है ।
नतीजा यह हो रहा है कि भारत के गांवों और शहरों दोनों में बेरोजगारों की भयानक समस्या खड़ी हो गयी है । सरकारी उपक्रमों में नई भर्ती बन्द हो गयी है , सरकारी तथा निजी क्षेत्र दोनों में अब स्थायी श्रमिक या कर्मचारी रखने के बजाय काम ठेके पर दिए जा रहे हैं जहाँ पर मजदूर बहुत कम मजदूरी में तथा बहुत खराब हालातों में काम करते हैं , काम की सुरक्षा खतम होती जा रही है , संगठित क्षेत्र का स्थान असंगठित क्षेत्र लेता जा रहा है तथा मजदूरों का शोषण अभूतपूर्व ऊँचाइयों पर पहुंच गया है ।इस मामले में कुछ संघर्ष करने वाला मजदूर आंदोलन भी वैश्वीकरण के पहले झटके में ही बिखर गया है और स्वयं लस्त-पस्त है । मजदूर आंदोलन के नाम पर सिर्फ सफेदपोश कर्मचारियों ( बैंक , बीमा , रेलवे आदि ) के संगठन बचे हैं, जिन्हें सिर्फ अपने वेतन - भत्ते और पेंशन की चिंता है और जो स्वयं अपने उपक्रमों के निजीकरण व छंटनी को भी रोक पाने में असफल साबित हो रहे हैं ।
तो वैश्वीकरण का यह एक और चेहरा है । मजदूरों की छंटनी , गिरती मजदूरी , बढ़ता शोषण , बदतर होती कार्यदशाएं , खतम होता मजदूर आंदोलन , बुनकरों की आत्महत्याएं , बढ़ती बेरोजगारी । यह भी एक दानवी चेहरा है ।रोजगार गारंटी कानून जैसे उपायों से इसमें तात्कालिक राहत मिल सकती है , लेकिन बुनियादी स्थिति नहीं बदलती ।जैसा कि ऊपर कहा गया है यह वैश्वीकरण की व्यवस्था की मांग है और उसका तार्किक परिणाम है ।
यदि विकास की दर ८ - ९ प्रतिशत भी हो जाती है , किंतु यह विकास रोजगार शून्य रहता है , यानी इस विकास के साथ बेरोजगारी कम होने के बजाय बढ़ रही है , तो इसका मतलब है कि यह विकास ज्यादा से ज्यादा लोगों को बहिष्कृत कर रहा है और इस विकास के लाभ थोड़े से लोगों में केन्द्रित हो रहे हैं । ये विषमताएं ( वर्ग , जाति , स्त्री - पुरुष , क्षेत्रीय , गांव - शहर की , अंतर्राष्ट्रीय ) बढ़ रही है । ये विषमताएं पूंजीवाद का एक विशिष्ट गुण है । इन विषमताओं और शोषण से ही पूंजी संचय को बढ़ावा मिलता है । वैश्वीकरण ने इस पूंजी संचय , शोषण और विषमताओं को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया है । ( जारी )
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