मंगलवार, जनवरी 30, 2007

गांधी - सुभाष : भिन्न मार्गों के सहयात्री (२)

पिछली प्रविष्टी से आगे : कमरे में प्रवेश करते ही सुभाष को थोड़ा झटका लगा । कमरे में चटाई पर बैठे सभी लोग मोटी खादी के कपड़े पहने हुए थे,और वे खुद विलायत से आई.सी.एस. बन कर लौटे युवक की भाँति परदेशी पोशाक में फब रहे थे ।कदम बढ़ाने में उन्हें जो संकोच हो रहा था , उसे गांधीजी की एक स्मित ने दूर कर दिया ।पहली ही मुलाकात में सुभाषबाबू ने असहयोग आन्दोलन के बारे में प्रश्न किए । उन्हें आशा थी कि गांधीजी के पास ' एक वर्ष में स्वराज पाने का कोई व्यवस्थित क्रमबद्ध कार्यक्रम हो गा । गांधीजी कांग्रेस के सदस्य बनाने , कांग्रेस के लिए चन्दा इकट्ठा करने और गाँव - गाँव में चरखा चलवाने की अपनी कल्पना उनके समक्ष पेश की । सुभाषबाबू को इससे सन्तोष न हुआ । उन्हें किसी खदबदाते कार्यक्रम की भूख थी । सुभाषबाबू गांधीजी के रचनात्मक कार्यों की ठन्डी ताकत की खास कदर कर न सके । सुभाषबाबू की निराशा को गांधीजी भाँप गए । उन्होंने सुभाषबाबू से कलकत्ते जा कर चित्तरंजन दास से मार्गदर्शन लेने की सलाह दी ।चित्तरंजन दास उस समय बंगाल के संभवत: सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे ।सुभाषबाबू ने वैसा ही किया ।हाल ही में चित्तरंजन दास ने असहयोग आन्दोलन को अपनाया था ; हाँलाकि उनकी प्रकृति के मुताबिक किसी भी सीधी कार्रवाई वाले आन्दोलन के नेतृत्व की उनसे आशा करना वृथा था । असहयोग से सन्तुष्ट न होने पर वे फिर से विधानसभा - प्रवेश की ओर झुकने वाले थे । उनसे मार्गदर्शन लेने आए सुभाषचन्द्र के लिए विधानसभा - प्रवेश का कार्यक्रम बहुत फीका था । मार्गदर्शक पाने की सुभाष की खोज मुम्बई या कलकत्ते में पूरी न हो सकी । तब उन्होंने अपना मन कांग्रेस के संगठन की ओर मोड़ा ।

सुभाषबाबू को गांधीजी के साथ अपनी पहली मुलाकात में ही लगा था कि उनके(गांधी के) मन में स्वराज्य-प्राप्ति के लिए कोई क्रमबद्ध कार्यक्रम नहीं है ।उनके अपने मन में कोई चित्र था । किसानों और मजदूरों का संगठन बनाना , स्वयंसेवकों को लश्करी तालीम देना , विदेश से शस्त्र प्राप्त करना , आवश्यकता और अनुकूलता हो तो फौजी मदद भी हासिल करना ,येन केन प्रकारेण देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराना । इसलिए मणिभवन में हुई पहली मुलाकात के वक्त से ही सुभाषबाबू को गांधीजी के कार्यक्रमों के प्रति अरुचि थी ।भारत जैसे किसी बड़े देश को अंग्रेजों की लम्बी गुलामी से मुक्त कराने के लिए जो व्यूहरचना गठित करनी पड़ती ,उसका आदि से अन्त तक एक सिलसिलेवार चौखटा नहीं हो सकता , अपने पक्ष की मजबूती और कमजोरी का अन्दाज , जनता में आ रही जागृति के बारे में ठीक-ठीक अनुमान, सामने वाले पक्ष की ताकत और कमजोरियाँ , दोनों पक्षॊं के साधनों की बाबत अन्दाज , अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति के बारे में कयास, आदि अनेक तत्वों पर विचार करने के बाद ही रणनीति तय होती है । गांधीजी के मन में व्यूहरचना के इन अवयवों के बारे में कुछ कल्पना थी तथा इस सन्दर्भ में उनकी वृत्ति लचीली भी थी इसलिए उसे किसी भी वक्त-जरूरत के हिसाब से बदलने को वे तैयार थे ।फिर बतौर पूंजी उनके पास दक्षिण अफ्रीका की महाप्रयोगशाला में किए गए प्रयोग और भारत में हुए अनेक सत्याग्रहों के अनुभव भी थे । इस बाबत सुभाषबाबू को तजुर्बा नहीं था , अलबत्ता इस विषय में उन्होंने ब्रिटिश लोगों से शिक्षा ली थी तथा उनके मन में मेजिनी , गेरिबाल्डी , आइरिश सिन्फिन आन्दोलन वगैरह का इतिहास भी था । इस सबके बारे में गांधीजी ने ' हिन्द स्वराज ' में विचार कर लिया था और उन्हें खुद द्वारा विकसित सत्याग्रह की रणनीति ही श्रेष्ठ लगती थी । सत्याग्रह की रणनीति सुभाषबाबू के लिए बिलकुल नई थी । सत्याग्रह की रणनीति से देश में पैदा हुई जागृति से वे आकर्षित जरूर थे परन्तु यही रणनीति अन्तिम है , यह विश्वास उनके मन में नहीं बैठा था । अहिंसक लड़ाई और सशस्त्र सेना द्वारा लड़ाई- दोनों परस्पर असंगत विषय हैं - इसकी प्रतीति भी उन्हें नहीं थी । इस बाबत गांधीजी अपने मन में गाँठ बाँध चुके थे ।

गांधीजी और सुभाषबाबू के बीच जो मतभेद प्रकट हुए उसके मूल में यह तथा ऐसे अन्य सैद्धान्तिक कारण थे । इतिहास के क्रम में वे और प्रगट होते गए ।

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सुभाषबाबू की १९४० के बाद की जीवन-कथा , उनके जीवन के शायद सबसे साहस की , शूरता की और देशभक्ति की कथा है । सुभाषबाबू की गिरफ्तारी , उनकी बीमारी , नजरबन्दी , गुप्त तौर पर उसमें से भाग निकलना , गुप्त रूप से पहले काबुल जाना , रूस जाने का प्रयास सफल न हो पाने पर जर्मनी पहुँचना , वहाँ हिटलर से अपेक्षित मदद मिलने पर जर्मन नौसेना की पनडुब्बी द्वारा भारी जोखिम उठा कर जापान पहुँचना,जापान पहुँच कर आजाद हिन्द फौज को पुनर्गठित करना तथा अपने नेतृत्व में विश्वयुद्ध में जापान की सेना के आगे-आगे चल कर,भारी संकटों का हिम्मत से सामना करते हुए भारत की सीमा तक पहुँच जाना - इस पूरी कथा को लाखों भारतीय अपने हृदय में सुभाषबाबू को नेताजी के रूप में अमर स्थान देंगे । इतना स्पष्ट था कि सुभाषबाबू की विदेशी मदद ले कर हिन्द की आज़ादी प्राप्त करने की नीति के साथ गांधीजी बिलकुल सहमत नहीं थे।परन्तु उनके देशप्रेम , उनका साहस और उनके बलिदान के बारे में गांधीजी के मन में अत्यन्त सम्मान था । उनका(सुभाषबाबू का ) रास्ता गलत था यह वे निश्चित तौर पर मानते थे। इसके बावजूद उनको गांधीजी ने कहा था कि आपके रस्ते आपको सफलता मिली तो अभिनन्दन का पहला तार सबसे पहले मेरा मिलेगा ।बर्मा की यात्रा के दौरान गांधीजी जब मांडले गए तब उन्होंने वहाँ की जेल में रखे गए महान नेताओं की याद करते वक्त तिलक महाराज और लाला लाजपतराय के साथ-साथ सुभाषबाबू को भी याद किया था और उनकी देशभक्ति , साहस और उनके त्याग की स्तुति की थी ।इसी प्रकार तमाम मतभेदों के बावजूद गांधीजी ने राष्ट्र को राष्ट्र बनाया यह बात सुभाषबाबू लगातार मानते थे । १९४४ जुलाई माह की छठी तारीख ।उस दिन रेडियो पर युद्ध की घोषणा करते वक्त सुभाषबाबू ने गांधीजी को याद किया।" वे ही भारतवर्ष के जनगण के अभ्युत्थान के उद्गाता थे । ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समक्ष प्रथम सत्याग्रह करने वाले वे ही थे । खण्ड-खण्ड हो चुके,विक्षिप्त भारतवासियों को एक प्राण की एकता के सूत्र में बाँधनेवाले वे ही थे। जनता के मन में आज़ादी की मन्शा उन्होंने ही जगाई ।नि:शस्त्र भारतवासियों के मनमें शूरता और दु:खों को झेलने की हिम्मत उन्होंने ही संचालित की। राष्ट्र को गांधीजी ने ऐसा नवजीवन दिया था । वे राष्ट्रपिता हैं । "

गांधीजी को राष्ट्रपिता कहने वाले पहले नेता सुभाषचन्द्र ही थे ।

दूसरे विश्वयुद्ध के बारे में सुभाषबाबू के दो अनुमान गलत साबित हुए। एक तो उनका अनुमान था कि इंग्लैंड बहुत जल्दी धूरी राष्ट्रों की शरण में जा झुकेगा । दूसरा अनुमान था कि रूस और जर्मनी के बीच मित्र-राष्ट्र भेद नहीं डाल पायेंगे। यह दोनों अनुमान गलत साबित हुए इसलिए धूरी राष्ट्रों की मदद से लड़ाई लड़ कर आज़ादी हासिल करने की सुभाषबाबू की मुराद पूरी न हो सकी।

यूँ तो अहिन्सक सत्याग्रह द्वारा अखण्ड भारत को आज़ाद करवाने की गांधीजी की मुराद भी कहाँ पूरी हुई ? दोनों के पराक्रमों को इतिहास उनकी सफलताओं से नहीं,परन्तु उनके महाप्रयास के मानदन्ड से आँकेगा ।

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