गुरुवार, मई 31, 2007

गांधी से प्रभावित किसान नेता के बहाने












[ मुकेश अम्बानी द्वारा सब्जी-फल बेचने के लिए रिलायन्स फ़्रेश नामक एक कम्पनी की शुरुआत हुई है । राँची और इन्दौर में रिलायन्स फ़्रेश की दुकानों पर शहर में पटरियों पर और ठेले पर फल - सब्जी बेचने वाले लोगों ने इसका तीखा प्रतिकार किया ।



चिट्ठालोक में देबाशीष ने इस मसले पर एक परिचर्चा प्रसारित की है । खेती-किसानी और शहरी सभ्यता के हाशिये पर जी रहे लोगों द्वारा देश के सब से बड़े पूँजीपति से लोहा लेने की शुरुआत से हमें एक किसान नेता की करतूतों की याद ताजा हो गयी ।



जोशे बोव्हे के बारे में मेरा यह लेख हिन्दुस्तान के सम्पादकीय पृष्ट पर २३ अक्टूबर , २००३ को छपा था । २२ जनवरी २००४ को कोका कोला के बॉटलिंग संयंत्र के खिलाफ केरल के प्लाचीमाड़ा में चल रहे संघर्ष के अन्तर्गत एक 'विश्व जन जल सम्मेलन ' में मुझे भाग लेने का अवसर मिला तब जोशे बोव्हे से मुलाकात का अवसर मिला था । ]



विश्व के अलग - अलग कोनों में घटित किसान - आक्रोश की इस घटनाओं पर गौर करें - खाद्यान्न उत्पादन की जो प्रक्रिया समूची दुनिया की खेती पर कब्जा करना चाहती है उसकी एक प्रतीक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी ' मैक्डोनाल्ड ' को मानते हुए १२ अगस्त , १९९९ को फ्रांस के एक कस्बे मिलाऊ में किसानों ने कंपनी की निर्माणाधीन दुकान को ध्वस्त कर दिया था । पुलिस को कार्यक्रम की इत्तला दे दी गई थी । कार्यक्रम दिनदहाड़े हुआ । एक दरोगा ने कार्यक्रम के पूर्व किसानों के समक्ष एक प्रस्ताव रखा कि कंपनी के प्रबंधकों से कह कर वह कोई प्रतीक चिह्न रखवा देगा जिसे तोड़ कर किसान अपना कार्यक्रम ' संपन्न ' कर सकते हैं । किसानों ने प्रस्ताव ठुकरा दिया और कंपनी के तमाम खिड़की , दरवाजे और पार्टिशन दो ट्रालियों में लाद कर उन्हें पुलिस मुख्यालय ले जा कर सुपुर्द कर दिया । सड़क के दोनों तरफ जुटी जुटी जनता ने करतल ध्वनि से इस काफ़िले का स्वागत किया । १९९८ में सिएटल में जीन संवर्धित मक्के की फसल को बर्बाद करने के आरोप में कई किसानों को न्यायालय द्वारा दोषी पाया गया । १९९९ में सिएटल में विश्वव्यापार संगठन के सम्मेलन के विरुद्ध हुए प्रदर्शन में सैंकड़ों किसानों ने भी भाग लिया ।



२६ जनवरी , २००१ को ब्राजील के एक कस्बे ' नाओ मी टोक ' में हजारों गरीब किसानों ने जैविक तकनीक और बीजों के उत्पाद से जुड़ी दानवाकार बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसान्टो के प्रयोगों के लिए बने फार्म पर हमला बोल दिया । इस फार्म के करीब तीन एकड़ जमीन में लगी जीन संवर्धित सोयाबीन की फसल को उखाड़ फेंका ।



इस सभी घटनाओं का केन्द्र बिंदु ' किसानों का रॉबिनहुड ' कहे जाने वाले फ्रांसीसी किसान नेता जोशे बोव्हे हैं । जोशे बोव्हे की पृष्टभूमि १९६८ के नववामपंथी रुझान के युवा आक्रोश में शिरकत की रही है परंतु किसान आंदोलन से जुड़ने के बाद अपने आंदोलन को वे ' चे ग्वेवारा से अधिक गांधी से प्रभावित ' मानते हैं । उनकी तुलना आस्ट्रिक्स नामक कार्टून नायक से भी की जाती है जो ताकतवर रोमन साम्राज्य को चुनौती देने वाला चरित्र था। आस्ट्रिक्स साम्राज्यवादी आंधी के समक्ष , डट कर खड़े फ्रांसीसी व्यक्तित्व का भी प्रतीक है । साम्राज्य का केन्द्र रोम से हट कर न्यूयॉर्क और सिएटल के समिति कक्षों में भले चला गया हो लेकिन जोशे बोव्हे के वैश्वीकरण विरोध में ' आस्ट्रिक्स ' का तेवर झलकता है । जमीन से जुड़े इस किसान का कहना है कि स्पेन के गृहयुद्ध के क्रोपटकिन जैसे अराजकतावादियों के अलावा उन पर ' अपने जीवन को बदले बिना दुनिया में बदलाव नहीं लाया जा सकता ' तथा ' सशक्त अहिंसात्मक व प्रतीकात्मक कार्रवाइयों को बड़े जनांदोलनों से समन्वित करने ' की प्रेरणा उन्हें महात्मा गांधी से मिली ।छठे दशक के मार्टिन लूथर किंग के नागरिक अधिकार आंदोलन तथा कैलिफोर्निया के अंगूर बागानों में काम करने वाले गांधीवादी सीजर शावेज से भी उन्हें इसी कारण प्रेरणा मिली।



आस्ट्रिक्स , साभार विकीपीडिया



१९८१ में मितरां के चुने जाने के बाद किसानों के एक तबके में आशा जगी थी । किसान आंदोलन से जुड़े कुछ लोगों का तर्क था कि , ' हमें ऐसा कुछ भी नहीं करना चाहिए जिससे सत्ता में आए 'समाजवादियों ' का नुकसान हो जाए ' । कुछ लोग यह सोचकर दिग्भ्रमित हो गए कि ' समाजवादियों के आने से चीजें बदलेंगी मगरं ऐसा कुछ भी नहीं हुआ ' । पैसा सबसे महत्वपूर्ण माना जाने लगा , व्यवसायीकरण शुरु हो गया तथा सामाजिक प्रश्नों के भी 'व्यक्तिगत समाधान ' ढूंढ़ने की वृत्ति बढ़ने लगी । जोशे बोव्हे के किसान आंदोलन पर इन बातों का प्रभाव ज्यादा नहीं पड़ा । उन्हीं दिनों उन्होंने सघन खेती के विकल्प में छोटे उत्पादकों को संगठित करना शुरु किया तथा तरुणों को आंदोलन से जोड़ा । नब्बे के दशक में सामाजिक सरोकारों के कुछ मुद्दे एक नई ढंग की राजनीति का हिस्सा बन सके । बेघरों के लिए घर का संघर्ष एक ऐसा ही मुद्दा था जो बाद में शुरु हुए वैश्वीकरण विरोधी आन्दोलन का हिस्सा बन गया । सामाजिक प्रश्नों से जुड़े रचनात्मक कार्यक्रमों से जिस शक्ति का निर्माण होता है वह संघर्ष के मौकों पर प्रकट होती है । ' मैकडॉनाल्ड ' के शोरूम को ध्वस्त करने का मुकदमा जब जून २०० में चला तब उसकी सुनवाई के लिए दस हजार समर्थकों की भीड़ जुटती थी । विश्व अर्थव्यवस्था को समझने की वैश्विक दृष्टि से संघर्ष के स्वरूपों में भी बदलाव आए हैं । कारखानों में आंदोलन तथा सरकार से माँग करने वाले आंदोलनों में कोई दम-ख़म नहीं रह गया । विश अर्थव्यवस्था को शत्रु के रूप में देखना जनता के लिए अधिक सरल था । अर्थनीति जब मुख्यधारा की राजनीति से असम्पृक्त हो जाती है तब एक नए किस्म का बेगानापन पैदा होता है । वैश्वीकरण विरोधी आंदोलन में इस बेगानेपन का शिकार बेरोजगार , बेघर और प्रवासी मजदूरों के तबके शामिल हो गए हैं । नवउदारवादीकरण विरोधी संघर्ष इन सामाजिक आंदोलनों से अछूता नहीं है ।



जोशे बोव्हे का मानना है कि सभी देशों को अपनी खेती तथा खाद्य संसाधनों की सुरक्षा हेतु शुल्क निर्धारण का का अधिकार होना चाहिए । ' अपने जरूरत भर खाद्यान अपनी जमीन पर पैदा करना ' - इसे वे एक मौलिक अधिकार मानते हैं । बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा इसके विपरीत मुर्गी तथा सूअर पालन जैसे उद्योग गरीब देशों में स्थानांतरित किए जा रहे हैं जहां श्रम सस्ता है तथा पर्यावरण कानून ढीले - ढाले हैं । स्थानीय जनों की खेती बरबाद करने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा पहले अमीर देशों में प्रचलित भारी अनुदान युक्त सस्ते माल से बाजार को पाट दिया जाता है । जब छोटे किसान इस प्रक्रिया से उजड़ जाते हैं तब कीमतें बढ़ा दी जाती हैं ।



बहरहाल , मेक्सिको के कानकुन शहर में १० से १४ सितम्बर , २००३ को संपन्न हुई विश्वव्यापार संगठन की पांचवीं मंत्रीमंडलीय बैठक में खेती सबसे विवादास्पद विषय था । अंतर्राष्ट्रीय कृषि व्यापार का ' उदारीकरण ' विश्वव्यापार संगठन का एक प्रमुख उद्देश्य है । इन नीतियों फलस्वरूप ग्रामीण समाजों में एक अभूतपूर्व संकट पैदा हुआ है । भूख , बेरोजगारी , गैरबराबरी तथा प्राकृतिक संसाधनों का विनाश दुनिया भर में बढ़ रहा है।अमेरिका और यूरोप के दबाव में ऐसे नियम बनवाये गये हैं जिनकी मदद से अपने अतिरिक्त पैदावार को सस्ते दामों पर गरीब देशों के बाजारों में पाटना जारी है । स्थानीय बाजार और प्रबंधन की व्यवस्थाएं समर्थन मूल्य तथा सार्वजनिक वितरण प्रणालियां ध्वस्त की जा रही हैं । किसानों के बीज पर पारम्परिक अधिकार को जैविक सम्पदा पर पेटेंट द्वारा ध्वस्त किया जा रहा है । इन परिस्थितियों में जोशे बोव्हे जैसे किसान नेता विश्वव्यापार संगठन से खेती और खाद्यान को अलग रखने तथा जैविक संपदा पए पेटेंट के निषेध की बात कर रहे हैं । उनकी अपील है कि ' हम अपनी आशाओं तथा संघर्षों का जगतीकरण करें ' । इसी उद्देश्य से विश्व व्यापार संगठन की कानकुन बैठक के समानान्तर दुनिया भर के किसानों , मछुआरों , खेतीहर मजदूरों व ग्रामीण व ग्रामीण महिलाओं का जमावड़ा भी आयोजित किया गया । जोशे बोव्हे इस पहलकदमी के एक प्रमुख व्यक्ति हैं ।





शनिवार, मई 26, 2007

'खुले विश्व' के बन्द होते दरवाजे

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    [ १८ मई २००७ को 'इंटरनेट की सेंसरशिप पर जोर ' विषयक एक खबर बी बी सी हिन्दी पर आई है । ३० दिसम्बर , २००२ के 'हिन्दुस्तान' के सम्पादकीय पृष्ट पर इस मसले पर मेरा लेख 'खुले विश्व' के बंद होते दरवाजे छपा था । हिन्दुस्तान के संजाल संस्करण के इस तिथि के पुरालेख संजाल पर उपल्ब्ध नहीं हैं ।  यहाँ दे रहा हूँ । ]

    इंटरनेट या विश्वव्यापी मकड़जाल ( वर्ल्ड वाइड वेब ) द्वारा सूचनाओं के आदान - प्रदान की व्यवस्था सूचना क्रान्ति का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । क्रांतियों के महान उद्देश्यों की तरह इंटरनेट की स्थापना के समय से कुछ महान उद्देश्यों को जोड़ा जाता रहा है ।एक लक्ष्य था कि इससे अधिक से अधिक व्यक्ति और समूह अपने विचार और सृजन को प्रकट कर सकेंगे ।विश्व के एक कोने में कम्प्यूटर के एक 'क्लिक' से दूसरे कोने में सृजित वेबसाइट का सम्पर्क स्थापित हो जाएगा , निर्विघ्न और निष्पक्ष सूचना के आदान - प्रदान हेतु । इन आदर्शों को क्रान्तिकारी माना जा सकता है ।फिलहाल इन महान आदर्शों की पूर्ति में कई किस्म की प्रतिक्रांतिकारी वर्जनाएं रोड़ा बनी हुईं हैं । ये वर्जनाएं भाषा , वित्त और तकनीकी संबधी तो हैम ही , सेंसरशिप के कारण भी हैं ।विश्व के बहुत बड़े इलाके के लोगों के लिए सूचना और संचार तकनीकी का लाभ लेना ढांचागत कमियों के कारण असंभव है । उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इन कमियों से बाधित हो जाती है । अफ्रीका के गरीब मुल्कों में प्रति १०,००० व्यक्ति इस मकड़जाल (वेब) से जुड़े सिर्फ दो कम्प्यूटर उपलब्ध हैं  जब्कि सबसे अमीर मुल्कों में इतनी ही आबादी के पीछे १२०० ऐसे कम्प्यूटर उपल्ब्ध हैं । इंटरनेट पर उपलब्ध कुल सूचना का ५२ प्रतिशत अंग्रेजी , ६.९७ प्रतिशत जर्मन , ५.४८ प्रतिशत स्पैनिश , ४.४३ प्रतिशत फ्रेंच , ३.०६ प्रतिशत इटालियन तथा २.७ प्रतिशत पोर्तगीज़ भाषा में उपलब्ध है । इस वजह से गरीब मुल्कों के रंगीन चमड़ी के लोगों के लिए इस क्रान्ति का लाभ पाना बहुत कठिन हो जाता है ।

    इंटरनेट में सेंसरशिप का प्रश्न आजकल अंतर्राष्ट्रीय चर्चा का विषय बना हुआ है । विभिन्न संस्थाएं , संगठन , कंपनियां और देश अपनी भौगोलिक सीमा के अंतर्गत इंटरनेट पर रोक लगा रहे हैं । दरअसल सूचना के स्रोत और सूचना प्राप्त करन के इच्छुक के बीच कई कड़ियों की श्रृंखला होती है । इस श्रृंखला की किसी भी कड़ी द्वारा अगली कड़ी तक सम्प्रेषण से इंकार किया जाना आजकल वृद्धि पर है । वैसे इन कड़ियों से जुड़े कंप्यूटर द्वारा यह दायित्व न निभा पाना कुछ अन्य तकनीकी कारणों से भी होता है । परंतु अन्य किसे व्यक्ति की पहल पर सूचना को छानने , छांतने की प्रक्रिया आजकल पहले से अधिक हो रही है । अस्लालता ,शराब , ड्रग्स आदि से जुड़ी वेब साइट्स से अभिवावक अपने बच्चों को बचाना चाहते हैं । कुछ कंपनियां उत्पादकता बढ़ाने के उद्देश्य से अपने कर्मचारियों द्वारा मनोरंजन और मनसायन की वेबसाइट्स देखने-सुनने पर रोक लगाती हैं । सरकारे अपनी भौगोलिक सीमा के  अंतर्गत कुछ सूचना सामग्रियों को प्रविष्ट नहीं होने देना चाहतीं हैं । इन सबमें एक समान इच्छा होती है कि जो हम अन्य लोगों को नहीं देखने देना चाहते हैं , , उसे छांटा जाए और छाना जाए । निर्विघ्न और निष्पक्ष सूचना पहुंचाने के इंजीनियरिंग के सिद्धान्त को मानने वाले बहुत लोग अब इसे एक राजनीतिक मूल्य मानने लगे हैं । सेक्स , नशा और अपराध की वेबसाइट पर रोक के लिए सार्वजनिक इच्छा के आधार पर एक तकनीक विकसित हो चुकी है । सरकारों द्वारा इंटरनेट में छलनियों ( फिल्टर) का प्रयोग व्यापक हो रहा है । चीन , क्यूबा और सऊदी अरब जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति परंपरागत रूप से प्रतिकूल आचरण वाली सरकारों के अलावा पश्चिमी लोकतंत्र वाले देशों में भी ये तरीके आम हो रहे हैं ।

    आतंकवाद विरोधी अभियान के तहत नए सुरक्षा उपायों के नाम पर ये कदम उठाए गए हैं। उल्लेखनीय है कि इन देशों में चिट्ठी - पत्री की गोपनीयता तथा पत्रकारों द्वारा समाचारों के स्रोत घोषित न करने का अधिकार लंबे संघर्षों के बाद मिला हुआ था । इंटरनेट पर लगाई जाने वाली हर किस्म की छलनी में एक समानता होती है । वह यह है कि सभी प्रकार की छलनियों द्वारा रोकी गयी वेबसाइटों की सूची सार्वजनिक नहीं हो पातीं । इस प्रकार सूचना प्राप्त करने का इच्छुक व्यक्ति यह नहीं जान पाता है कि इच्छित  सूचना उसे क्यों नहीं मिल पा रही है । विभिन्न देशों में इंटरनेट पर सरकारी नियंत्रण का स्वरूप अलग - अलग है । यहाँ एक बानगी प्रस्तुत है ।

    बहरीन प्रशासन द्वारा जिन वेबसाइटों पर रोक है उन्हें ' पक्षपातपूर्ण सूचनाओं , अफवाहों और झूठ का यंत्र ' माना जाता है । बेलारूस में सभी इंटरनेट उपभोक्ताओं को सरकारी ' बेलपाक ' नामक सर्विस प्रोवाइडर ( इंतरनेट सेवा प्रदान करने वाले कंप्यूटर और कंपनी ) का ही प्रयोग करना पड़ता है । कनाडा में दिसंबर , २००१ से लागू आतंकवाद विरोधी कानून द्वारा सभी इलेक्ट्रानिक संचार प्रणालियाँ नियंत्रित की गयी हैं । चीन के इंटरनेट एसोशियेशन ने सभी संबंधित पक्षों से मार्च २००२ से एक समझौते पर हस्ताक्षर करवाए , जिसके द्वारा 'राष्ट्रीय सुरक्षा और स्थिरता के हानि पहुँचाने वाली सूचनाओं को प्रकट नहीं किया जाएगा ।' यूरोपीय संघ की संसद द्वारा ३० मई , २००२ को सभी सदस्य देशों को निर्देश दिया गया कि वे ऐसे कानून बनाएं , जिनके द्वारा सभी इंटरनेट सेवा प्रदान करने वाले तथा टेलीफोन कंपनियों को उनके द्वारा किए गए समस्त संचार - सम्पर्कों का लेखा - जोखा रखना पड़ेगा। फ्रांस की के अदालत ने मई , २०० में 'याहू' ( कंप्यूटर सेवा कंपनी ) को आदेश दिया वह फ्रांस के इंटरनेट उपभोक्ताओं को ऐसी साइट दिखाने पर रोक लगाये , जिनके द्वारा नाज़ी स्मृति चिह्नों को नीलामी द्वारा बेचा जाता है ।इस आदेश के अनुपालन के लिए 'याहू' को फ्रांस के नागरिकों द्वारा उसकी 'सर्च इंजन' प्रयोग पर छलनी लगानी पड़ी । १० अक्टूबर , २००२ को वियतनाम सरकार ने एक नियम बनाया है , जिसके द्वारा इंटरनेट पर सूचना प्रसारित करने वाले हर नागरिक को सर्वप्रथम सूचना और संस्कृति मंत्रालय से लाइसेंस लेना होगा तथा हर वेबसाइट पर सामग्री देने वाले प्रत्येक व्यक्ति की पहचान बतानी होगी ।

    भारत में भी पोटा द्वारा ई-मेल तथा सभी इलेक्ट्रॉनिक संचार में हस्तक्षेप का शासन को अधिकार मिल चुका है । सऊदी अरब द्वारा समस्त इंटरनेट आदान - प्रदान की प्रणाली सरकार द्वारा घोषित रूप से नियंत्रित है । सरकार द्वारा वेबसाइटों की एक काली सूची बनाई गयी है , जिन्हें देखने का निर्देश कंप्यूटर को देने पर मनाही की सूचना परदे पर प्रकट हो जाती है । अक्टूबर , २००१ में अमेरिका के पैट्रियॉट एक्ट ( राष्ट्रभक्त अधिनियम ) के लागू होने के बाद से कई इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियों ने ' कार्निवोर ' ( मांसभक्षी ) नामक एक सॉफ़्ट्वेयर का प्रयोग शुरु किया है , जिसके द्वारा इलेक्ट्रॉनिक निगरानी (मॉनिटरिंग ) की जाती है ।इसके प्रयोग की एक घटना काफी चर्चित हुई और उल्लेखनीय है । आतंकवादी घतनाओं के सिलसिले में एफ़.बी.आई को किसी ऐसे व्यक्ति जानकारी लेनी थी , जो शौकिया गोताखोर  ( स्कूबा डाइवर ) था । एफ. बी. आई. की मदद के लिए सभी शौकिया डाइवर संघों ने अपने समस्त पंजीकृत सदस्यों के संपूर्ण 'डाटाबेस'(कंप्यूटर और इंटरनेट के व्यवहार के समस्त तथ्य ) प्रदान कर दिए । इसका मतलब हुआ कि सभी सदस्यों के क्रय , विक्रय , टेलीफोन , यात्रा , ई-मेल आदि की विस्तृत जानकारी एफ. बी. आई. के हवाले कर दी गयी । एक डाइवर , जो संयोग से वकील था , को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने इस कदम का प्रतिवाद किया ।अमेरिकी सीनेट द्वारा २० नवंबर, २००२ को पारित होमलैन्ड्स एक्ट ने पूंजीवाद में अभिव्यक्ति की आजादी की मान्यता और वास्तविकता के बीच की खाई के ऊपर से परदा उठा दिया है । पूरे विश्व को मानवाधिकार और लोकतंत्र की सीख देने वाले देश के नागरिक आज सुरक्षा की नाम पर किए गए उपायों से भयभीत हो गए हैं । इस कानून की व्याख्या आउर लागू किए जाने के तरीकों के ऐसे दमनात्मक दुष्परिणाम होंगे , जो शब्द और छवि के मुक्त प्रवाह को ही नहीं , अपितु आम अमेरिकी नागरिक के रोजमर्रा के जीवन में अतिक्रमण करेंगे । ४० अरब डॉलर के बजट आवंटन द्वारा एक नया विभाग सृजित किया गया है जो आगामी वर्ष तक एक लाख ७० हजार कर्मचारियों की फौज के साथ पूर्णरूपेण सक्रिय हो जायेगा ।ये कर्मचारी २२ सरकारी विभागों से नियोजित किए जाएंगे । १९४७ में रक्षा विभाग गठन के बाद हुआ यह सब से बड़ा पुनर्गठन है । मानवाधिकार संगठनों ने इस पर उंगली उठाई है । सुरक्षा सम्बन्धी कम्पनियों को इस कदम से काफ़ी मुनाफा होगा । ९ सितम्बर , २००१ की घटनाओं का एक प्रमुख शिकार इंटरनेट भी बना है ।इंटरनेट और दूरसंचार कम्पनियों द्वारा जनता के ई-मेल आदान-प्रदान व इंटरनेट गतिविधियों की पूरी जानकारी इतनी आसानी से पुलिस व सुरक्षा अजेन्सियों को सौपीं जा रही है कि वे कंपनोयां इन सुरक्षा एजेन्सियों का हथियार बन गयी हैं । सूचना क्रान्ति के इन हथियारों के इस असाधारण दुरुपयोग के फलस्वरूप प्रत्येक अमेरिकी नागरिक सिद्धान्त: संदेह के घेरे में है ।

    पेंटागन ( अमेरिकी रक्षा मन्त्रालय ) की गोपनीयता शोध शाखा द्वारा 'टोटल इंफॉर्मेशन अवेयरनेस' ( पूर्ण सूचना जागरूकता ) नामक एक अभियान चलाया जा रहा है । २० करोड़ डॉलर के बजट से चलने वाले इस अभियान का उद्देश्य इतिहास का सबसे व्यापक इलेक्ट्रॉनिक निगरानी नेटवर्क गठित करना है ।इसके द्वारा प्रत्येक अमेरिकी नागरिक द्वारा इंटरनेट सर्फिंग , पुस्तक रुचि , आय - व्यय , यात्रा - योजना और मानसिक स्वास्थ्य के अभिलेख रखे जाएंगे और उन्हें नियंत्रित किया जाएगा ताकि उनके भविष्य की आचरण का अनुमान लगाया जा सके । रीगन प्रशासन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रह चुके जॉन पोइनडेक्स्टर इस कार्यक्रम के जनक हैं । वे षडयंत्र , संसद को झूठी सूचना देना , सरकार को धोखे में रखना तथा सबूत नष्ट करने के आरोप सिद्ध होने पर पदमुक्त किए गए थे , परंतु १९९० में यह निर्णय पलट दिया गया । इस पद्धति का तकनीकी नाम 'डाटा माइनिंग'(आंकड़ा खनन) है तथा अब तक इसका इस्तेमाल बड़ी कंपनियों द्वारा उपभोक्ताओं के भविष्य के आचरण का पूर्वानुमान लगाने के लिए होता था । एफ. बी. आई. ने जो सूचियाँ बनाईं , उन्हें विश्व भर में इंटरनेट कंपनियों , सरकारों ,तथा एयर लाइंस को दिया गया । इन सूचियों में भूल से शामिल कर लिए गए लोगों की दिक्कतों की कल्पना करना एक आम भारतीय के लिए कठिन है । अपने नाम में 'अट्टा' का कुलनाम (सरनेम) होने के कारण दो निर्दोष भाई इस सूची में शामिल कर लिए गए , चूंकि ११ सितम्बर की आतंकवादी घटनाओं में 'अट्टा' नामक एक व्यक्ति शामिल था । दोनों भाइयों ने जब एफ. बी. आई. से संपर्क किया तब उन्हें बताया गया कि नई सूची से उनका नाम हटा लिए गए हैं परंतु पुरानी सूची जिन इंटरनेट कम्पनियों,सरकारों व एयरलाइंसों आदि को सौंपी गयी थी, उसमें सुधार करवाने में वे तकनीकी कारणों से असमर्थ हैं । व्यक्तिगत जीवन में गोपनीयता (प्राइवेसी) की अमेरिकियों की आम धारणा को बुश प्रशासन ने उलट दिया है । साम्राज्यावादी वैभव के कारण अमेरिका में गरीबी की रेखा का मानदंड बहुत ऊंचा है तथा पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत नागरिक आजादी का  वह झंडाबरदार रहा है ।इस प्रकार भोजन और अभिव्यक्ति , दोनों के सहअस्तित्व को उपलब्धि माना जाता रहा है । समाजवादी नेता किशन पटनायक का सुझाव था कि यह उपलब्धि पूंजीवादी-लोकतांत्रिक व्यवस्था का गुण है या साम्राज्यवादी वैभव का कमाल है , इस पर अनुसंधान होना चाहिए । ११ सितम्बर २००१ की घतनाओं के बाद से अमेरिकी सरकार की इन करतूतों ने कम-से-कम इस अवधारणा को पूर्णरूपेण ध्वस्त कर दिया है कि अधिकारों की व्यवस्था अनंत वैभव में ही फलती-फूलती है ।

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रविवार, मई 20, 2007

ईसाई और मुसलमान क्यों बनते हैं ? - स्वामी विवेकानन्द




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अगर हमारे देश में कोई नीच जाति में जन्म लेता है , तो वह हमेशा के लिए गया - बीता समझा जाता है , उसके लिए कोई आशा - भरोसा नहीं । ( पत्रावली भाग २ , पृ. ३१६ ) आइए , देखिए तो सही , त्रिवांकुर में जहाँ पुरोहितों के अत्याचार भारतवर्ष में सब से अधिक हैं , जहाँ एक एक अंगुल जमीन के मालिक ब्राह्मण हैं,वहाँ लगभग चौथाई जनसंख्या ईसाई हो गयी है ! ( पत्रावली भाग १ , पृ. ३८५ ) यह देखो न - हिंदुओं की सहानुभूति न पाकर मद्रास प्रांत में हजारों पेरिया ईसाई बने जा रहे हैं , पर ऐसा न समझना कि वे केवल पेट के लिए ईसाई बनते हैं । असल में हमारी सहानुभूति न पाने के कारण वे ईसाई बनते हैं । ( पत्रावली भाग ६ , पृ. २१५ तथा नया भारत गढ़ो पृ. १८)


भारत के गरीबों में इतने मुसलमान क्यों हैं ? यह सब मिथ्या बकवाद है कि तलवार की धार पर उन्होंने धर्म बदला । जमींदारों और पुरोहितों से अपना पिंड छुड़ाने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया , और फलत: आप देखेंगे कि बंगाल में जहाँ जमींदार अधिक हैं , वहाँ हिंदुओं से अधिक मुसलमान किसान हैं । ( पत्रावली भाग ३ , पृ. ३३०, नया भारत गढ़ो, पृ . १८ )


हमने राष्ट्र की हैसियत से अपना व्यक्तिभाव खो दिया है और यही सारी खराबी का कारण है । हमे राष्ट्र में उसके खोये हुए व्यक्तिभाव को वापस लाना है और जनसमुदाय को उठाना है। ( पत्रावली भाग २ , पृ. ३३८ ) भारत को उठाना होगा , गरीबों को भोजन देना होगा , शिक्षा का विस्तार करना होगा और पुरोहित - प्रपंच की बुराइयों का निराकरण करना होगा । सब के लिए अधिक अन्न और सबको अधिकाधिक सुविधाएँ मिलती रहें । ( पत्रावली भाग ३ , पृ ३३४ )


पहले कूर्म अवतार की पूजा करनी चाहिए । पेट है वह कूर्म । इसे पहले ठंडा किये बिना धर्म-कर्म की बात कोई ग्रहण नहीं करेगा । देखते नहीं , पेट की चिन्ता से भारत बेचैन है।धर्म की बात सुनाना हो तो पहले इस देश के लोगों के पेट की चिंता दूर करना होगा । नहीं तो केवल व्याख्यान देने से विशेष लाभ न होगा । (पत्रावली भाग ६ , पृ १२८ ) पहले रोटी और तब धर्म चाहिए । गरीब बेचारे भूखों मर रहे हैं , और हम उन्हें आवश्यकता से अधिक धर्मोपदेश दे रहे हैं ! ( पत्रावली भाग ५ , पृ. ३२२ )


लोगों को यदि आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा न दी जाय तो सारे संसार की दौलत से भी भारत के एक छोटे से गाँव की सहायता नहीं की जा सकती है । ( पत्रावली भाग ६ , पृ ३५० )


लोग यह भी कहते थे कि अगर साधारण जनता में शिक्षा का प्रसार होगा , तो दुनिया का नाश हो जायगा । विशेषकर भारत में , हमें समस्त देश में ऐसे सठियाये बूढे मिलते हैं , जो सब कुछ साधारण जनता से गुप्त रखना चाहते हैं । इसी कल्पना में अपना बड़ा समाधान कर लेते हैं कि वे सारे विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं । तो क्या वे समाज की भलाई के लिए ऐसा कहते हैं अथवा स्वार्थ से अंधे हो कर ? मुट्ठी भर अमीरों के विलास के लिए लाखों स्त्री-पुरुष अज्ञता के अंधकार और अभाव के नरक में पड़े रहें ! क्योंकि उन्हें धन मिलने पर या उनके विद्या सीखने पर समाज डाँवाडोल हो जायगा ! समाज है कौन ? वे लोग जिनकी संख्या लाखों है ? या आप और मुझ जैसे दस - पाँच उच्च श्रेणी वाले !! ( नया भारत गढ़ो , पृ. ३१ )


यदि स्वभाव में समता न भी हो , तो भी सब को समान सुविधा मिलनी चाहिए । फिर यदि किसी को अधिक तथा किसी को अधिक सुविधा देनी हो , तो बलवान की अपेक्षा दुर्बल को अधिक सुविधा प्रदान करना आवश्यक है । अर्थात चांडाल के लिए शिक्षा की जितनी आवश्यकता है , उतनी ब्राह्मण के लिए नहीं । ( नया भारत गढ़ो , पृ . ३८ )


जब तक करोड़ों भूखे और अशिक्षित रहेंगे , तब तक मैं प्रत्येक उस आदमी को विश्वासघातक समझूँगा , जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है , परंतु जो उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता ! वे लोग जिन्होंने गरीबों को कुचलकर धन पैदा किया है और अब ठाठ-बाट से अकड़कर चलते हैं, यदि उन बीस करोड़ देशवासियों के लिए जो इस समय भूखे और असभ्य बने हुए हैं , कुछ नहीं करते , तो वे घृणा के पात्र हैं । ( नया भारत गढ़ो , पृ. ४४ - ४५ )


एक ऐसा समय आयेगा जब शूद्रत्वसहित शूद्रों का प्राधान्य होगा , अर्थात आजकल जिस प्रकार शूद्र जाति वैश्य्त्व अथवा क्षत्रियत्व लाभ कर अपना बल दिखा रही है , उस प्रकार नहीं , वरन अपने शूद्रोचित धर्मकर्मसहित वह समाज में आधिपत्य प्राप्त करेगी । पाश्चात्य जगत में इसकी लालिमा भी आकाश में दीखने लगी है , और इसका फलाफल विचार कर सब लोग घबराये हुए हैं। 'सोशलिज्म' , 'अनार्किज्म','नाइहिलिज्म' आदि संप्रदाय इस विप्लव की आगे चलनेवाली ध्वजाएँ हैं । ( पत्रावली भाग ८ , पृ. २१९-२०, नया भारत गढ़ो पृ. ५६ )




शनिवार, मई 19, 2007

'राष्ट्र की रीढ़' : स्वामी विवेकानन्द




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जिनके रुधिर-स्राव से मनुष्यजाति की यह जो कुछ उन्नति हुई है ,उनके गुणों का गान कौन करता है ? लोकजयी धर्मवीर , रणवीर , काव्यवीर , सब की आँखों पर , सब के पूज्य हैं ; परंतु जहाँ कोई नहीं देखता , जहाँ कोई एक वाह वाह भी नहीं करता , जहाँ सब लोग घृणा करते हैं , वहाँ वास करती है अपार सहिष्णुता , अनन्य प्रीति और निर्भीक कार्यकारिता ; हमारे गरीब घर - द्वार पर दिनरात मुँह बंद करके कर्तव्य करते जा रहे हैं ; उसमें क्या वीरत्व नहीं है ? ( विवेकानन्द साहित्य,भाग ८,पृ.१९० )


ये जो किसान , मजदूर , मोची , मेहतर आदि हैं , इनकी कर्मशीलता और आत्मनिष्ठा तुममें से कइयों से कहीं अधिक है । ये लोग चिरकाल से चुपचाप काम करते जा रहे हैं , देश का धन-धान्य उत्पन्न कर रहे , पर अपने मुँह से शिकायत नहीं करते ।(भाग ६, पृ. १०६ ) माना कि उन्होंने तुम लोगों की तरह पुस्तकें नहीं पढ़ीं हैं , तुम्हारी तरह कोट - कमीज पहनकर सभ्य बनना उन्होंने नहीं सीखा , पर इससे क्या होता है ? वास्तव में वे ही राष्ट्र की रीढ़ हैं ।यदि ये निम्न श्रेणियों के लोग अपना अपना काम करना बंद कर दें तो तुम लोगों को अन्न - वस्त्र मिलना कठिन हो जाय । कलकत्ते में यदि मेहतर लोग एक दिन के लिए काम बंद कर देत हैम तो ' हाय तौबा ' मच जाती है । यदि तीन दिन वे काम बंद कर दें तो संक्रामक रोगों से शहर बरबाद हो जाय । श्रमिकों के काम बंद करने पर तुम्हें अन्न - वस्त्र नहीं मिल सकता । इन्हें ही तुम लोग नीच समझ रहे हो और अपने को शिक्षित मानकर अभिमान कर रहे हो ! ( भाग , पृ. १०६-७ )


इन लोगों ने सहस्र सहस्र वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है , - उससे पायी है अपूर्व सहिष्णुता । सनातन दु:ख उठाया ,जिससे पायी है अटल जीवनीशक्ति । ये लोग मु्ट्ठीभर सत्तू खाकर दुनिया उलट दे सकेंगे ।ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त हैं । और पाया है सदाचार- बल, जो तीनों लोक में नहीं है ।इतनी शांति , इतनी प्रीति , इतना प्यार , बेजबान रहकर दिन रात इतना खटना और काम के वक्त सिंह का विक्रम ! ( भाग ८ , पृ. १६८ )


बड़ा काम आने पर बहुतेरे वीर हो जाते हैं ; दस हजार आदमियों की वाहवाही के सामने कापुरुष भी सहज ही में प्राण दे देता है ; घोर स्वार्हपर भी निष्काम हो जाता है ; परंतु अत्यंत छोटेसे कर्म में भी सब के अज्ञात भाव से जो वैसी ही नि:स्वार्थता , कर्तव्यपरायणता दिखाते हैं , वे ही धन्य हैं -वे तुम लोग हो - भारत के हमेशा के पैरों के तले कुचले हुए श्रमजीवियों ! - तुम लोगों को मैं प्रणाम करता हूँ । ( भाग ८ , पृ. १९० )


ब्राह्मणों ने ही तो धर्मशास्त्रों पर एकाधिकार जमाकर विधि-निषेधों को अपने ही हाथ में रखा था और भारत की दूसरी जातियों को नीच कहकर उनके मन में विश्वास जमा दिया था कि वे वास्तव में नीच हैं । यदि किसी व्यक्ति को खाते , सोते , उठते , बैठते , हर समय कोई कहता रहे कि ' तू नीच है ' , ' तू नीच है ' तो कुछ समय के पश्चात उसकी यह धारणा हो जाती है कि ' मैं वास्तव में नीच हूँ । ' इसे सम्मोहित ( हिप्नोटाइज ) करना कहते हैं । ( भाग ६ , पृ. १४७ )


भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की संपूर्ण विद्या-बुद्धि राज-शासन और दंभ के बल से मुट्ठी भर लोगों के एकाधिकार में रखी गयी है । ( भाग ६ , पृ. ३१०-३११ )


स्मृति आदि लिखकर , नियम-नीति में आबद्ध करके इस देश के पुरुषों ने स्त्रियों को एकदम बच्चा पैदा करने की मशीन बना डाला है । ( भाग ६ , पृ. १८१ ) फिर अपने देश की दस वर्ष की उम्र में बच्चों को जन्म देनेवाली बालिकाएँ !!! प्रभु , मैं अब समझ रहा हूँ।हे भाई , ' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' - वृद्ध मनु ने कहा है । हम महापापी हैं ; स्त्रियों को ' , 'नरक का द्वार' घृणित कीड़ा' इत्यादि कहकर हम अध:पतित हुए हैं । बाप रे बाप ! कैसा आकाश-पाताल का अंतर है । 'याथात्थ्य्तोsर्थानं व्यदधात' ।( जहाँ जैसा उचित हो ईश्वर वहाँ वैसा कर्मफल का विधान करते हैं । - ईशोपनिषद ) क्या प्रभू झूठी गप्प से भूलनेवाला है ? प्रभु ने कहा है , 'त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी '( तुम्हीं स्त्री हो और तुम्ही पुरुष;तुम्ही क्वाँरे हो और तुम्हीं क्वाँरी ।( - श्वेताश्वतरोपनिषद) इत्यादि और हम कह रहे हैं , 'दूरमपसर रे चाण्डाल' ( रे चाण्डाल , दूर हट ) , 'केनैषा निर्मिता नारी मोहिनी' ( किसने इस मोहिनी नारी को बनाया है ? ) इत्यादि।( भाग २,पृ. ३३६ )


यह जाति डूब रही है। लाखों प्राणियों का शाप हमारे सिर पर है । सदा ही अजस्र जलधारवाली नदी के समीप रहने पर भी तृष्णा के समय पीने के लिए हमने जिन्हें नाबदान का पानी दिया , उन अगणित लाखों मनुष्यों का , जिनके सामने भोजन के भण्डार रहते हुए भी जिन्हें हमने भूखों मार डाला ,जिन्हें हमने अद्वैतवाद का तत्त्व सुनाया पर जिनसे हमने तीव्र घृणा की , जिनके विरोध में हमने लोकाचार का अविष्कार किया , जिनसे जबानी तो यह कहा कि सब बराबर हैं , सब वही एक ब्रह्म है , परंतु इस उक्ति को काम में लाने का तिलमात्र भी प्रयत्न नहीं किया । ( भाग ५ , पृ. ३२१ )


पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है , जो हिंदू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो , और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है , जो हिंदू धर्म के समान गरीबों और नीच जातिवालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो । ( भाग १ , पृ. ४०३) अब हमारा धर्म किसमें रह गया है ? केवल छुआछूत में - मुझे छुओ नहीं , छुओ नहीं ।हम उन्हें छूते भी नहीं और उन्हें 'दुर' 'दुर' कहकर भगा देते हैं । क्या हम मनुष्य हैं ?( भाग २ , पृ. ३१६ )


पुरोहित - प्रपंच ही भारत की अधोगति का मूल कारण है । मनुष्य अपने भाई को पतित बनाकर क्या स्वयं पतित होने से बच सकता है ? .. क्या कोई व्यक्ति स्वयं का किसी प्रकार अनिष्ट किये बिना दूसरों को हानि पहुँचा सकता है ?ब्राह्मण और क्षत्रियों के ये ही अत्याचार चक्रवृद्धि ब्याज के सहित अब स्वयं के सिर पर पतित हुए हैं ,एवं यह हजारों वर्ष की पराधीनता और अवनति निश्चय ही उन्हीं के कर्मों के अनिवार्य फल का भोग है ।( पत्रावली भाग ९ , पृ. ३५६ )


जिन्होंने गरीबों का रक्त चूसा , जिनकी शिक्षा उनके धन से हुई , जिनकी शक्ति उनकी दरिद्रता पर बनी , वे अपनी बारी में सैंकड़ों और हजारों की गिनती में दास बना कर बेचे गये , उनकी संपत्ति हजार वर्षों तक लिटती रही ,और उनकी स्त्रियाँ और कन्याएँ अपमानित की गयीं । क्या आप समझते हैं कि यह अकारण ही हुआ ? ( पत्रावली ३, पृ. ३२९-३३०)


जारी

गुरुवार, मई 17, 2007

"हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था"

गतांश से आगे : गांधी जी के सचिव प्यारेलाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक पूर्णाहुति में सितम्बर , १९४७ में संघ के अधिनायक गोलवलकर से गांधीजी की मुलाकात , विभाजन के बाद हुए दंगों में तथा गांधी - हत्या में संघ की भूमिका का विस्तार से वर्णन किया है । गोलवलकर से गांधी जी के वार्तालाप के बीच में गांधी मंडली के एक सदस्य बोल उठे - ' संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है । उन्होंने अनुशासन , साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है ।' गांधी जी ने उत्तर दिया - ' परन्तु यह न भूलिये कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था ।' उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ' तानाशाही दृष्टिकोण रखनेवाली सांप्रदायिक संस्था बताया । ( पूर्णाहुति , चतुर्थ खंड, पृष्ठ : १७)

अपने एक सम्मेलन में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता ने उन्हें ' हिन्दू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष ' बताया । उत्तर में गांधी जी बोले - 'मुझे हिन्दू होने का गर्व अवश्य है । परन्तु मेरा हिन्दू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी है । हिन्दू धर्म की विशिष्टता जैसा मैंने समझा है , यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है । यदि हिन्दू यह मानते हों कि भारत में अहिन्दुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हें घटिया दरजे से संतोष करना होगा... तो इसका परिणाम यह होगा कि हिन्दू धर्म श्रीहीन हो जायेगा.. मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जाने वाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा ।'

इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उसमें गांधी जी से पूछा गया - ' क्या हिन्दू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता ? यदि नहीं देता , तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है , उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है ?'

गांधी जी ने कहा - ' पहले प्रश्न का उत्तर 'हां' और 'नहीं' दोनों है । मारने का प्रश्न खड़ा होने से पहले हम इस बात का अचूक निर्णय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है ?दूसरे शब्दों में , हमें ऐसा अधिकार तभी मिल सकता है जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जायें । एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने अथवा फांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है ? रही बात दूसरे प्रश्न की । यह मान भी लिया जाये कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है , तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भलीभांति कर सकती है । अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद दोनों एक साथ बन जायें , तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जायेंगे.... उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए , कानून को अपने हाथों में ले कर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए । ( संपूर्ण गांधी वांग्मय खंड : ८९ )

३० नवंबर '४७ के प्रार्थना प्रवचन में गांधी जी ने कहा , ' हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार है कि हिन्दुत्व की रक्षा का एक मात्र तरीका उनका ही है । हिंदू धर्म को बचाने का यह तरीका नहीं है कि बुराई का बदला बुराई से । हिंदू महासभा और संघ दोनों हिंदू संस्थाएं हैं । उनमें पढ़े - लिखे लोग भी हैं । मैं उन्हें अदब से कहूंगा कि किसी को सता कर धर्म नहीं बचाया जा सकता...

'.. कनॉट प्लेस के पास एक मस्जिद में हनुमान जी बिराजते हैं , मेरे लिए वह मात्र एक पत्थर का टुकड़ा है जिसकी आकृति हनुमान जी की तरह है और उस पर सिन्दूर लगा दिया गया है । वे पूजा के लायक नहीं ।पूजा के लिए उनकी प्राण प्रतिष्ठा होनी चाहिए , उन्हें हक से बैठना चाहिए । ऐसे जहां तहां मूर्ति रखना धर्म का अपमान करना है ।उससे मूर्ति भी बिगड़ती है और मस्जिद भी । मस्जिदों की रक्षा के लिए पुलिस का पहरा क्यों होना चाहिये ? सरकार को पुलिस का पहरा क्यों रखना पड़े ? हम उन्हें कह दें कि हम अपनी मूर्तियां खुद उठा लेंगे , मस्जिदों की मरम्मत कर देंगे । हम हिन्दू मूर्तिपूजक हो कर , अपनी मूर्तियों का अपमान करते हैं और अपना धर्म बिगाड़ते हैं ।

...' एक मुसलमान मेरे पास परेशान हो कर आया । वह एक आधा जला कुरान शरीफ अदब से कपड़े में लपेट कर लाया । खोल कर मुझे दिखाया और चला गया । उसकी आंखों में पानी था , पर मुंह से वह कुछ बोला नहीं । जिसने कुरान शरीफ का अपमान करने की कोशिश की , उसने अपने धर्म का अपमान किया । उसके सामने मुसलमान कहीं मारपीट करके कहीं कुरान शरीफ रखना चाहे , तो वे कुरान-शरीफ का अपमान करेंगे । '

' इसलिए हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे जो भी मुझे सुनना चाहते हैं और सिखों को बहुत अदब से कहना चाहूंगा कि सिख अगर गुरु नानक के दिन से सचमुच साफ हो गये , तो हिन्दू अपने आप सफ हो जायेंगे । हम बिगड़ते ही न जायें , हिंदू धर्म को धूल में न मिलायें । अपने धर्म को और देश को हम आज मटियामेट कर रहे हैं । ईश्वर हमें इससे बचा ले '। ( प्रार्थना प्रवचन ,खंड २ , पृ. १४४ - १५० तथा संपूर्ण गांधी वांग्मय , खंड : ९० )

अखिल भारतीय कांग्रेस समिति को अपने अंतिम संबोधन ( १८ नवंबर '४७ ) में उन्होंने कहा , ' मुझे पता चला है कि कुछ कांग्रेसी भी यह मानते हैं कि मुसलमान यहां न रहें । वे मानते हैं कि ऐसा होने पर ही हिंदू धर्म की उन्नति होगी । परंतु वे नहीं जानते कि इससे हिंदू धर्म का लगातार नाश हो रहा है । इन लोगों द्वारा यह रवैया न छोड़ना खतरनाक होगा ... काफी देखने के बाद मैं यह महसूस करता हूं कि यद्यपि हम सब तो पागल नहीं हो गये हैं , फिर कांग्रेसजनों की काफी बडी संख्या अपना दिमाग खो बैठी है..मुझे स्पष्ट यह दिखाई दे रहा है कि अगर हम इस पागलपन का इलाज नहीं करेंगे , तो जो आजादी हमने हासिल की है उसे हम खो बैठेंगे... मैं जानता हूं कि कुछ लोग कह रहे हैं कि कांग्रेस ने अपनी आत्मा को मुसलमानों के चरणों में रख दिया है , गांधी ? वह जैसा चाहे बकता रहे ! यह तो गया बीता हो गया है । जवाहरलाल भी कोई अच्छा नहीं है । रही बात सरदार पटेल की , सो उसमें कुछ है । वह कुछ अंश में सच्चा हिंदू है ।परंतु आखिर तो वह भी कांग्रेसी ही है ! ऐसी बातों से हमारा कोई फायदा नहीं होगा , हिंसक गुंडागिरी से न तो हिंदू धर्म की रक्षा होगी , न सिख धर्म की । गुरु ग्रन्थ-साहब में ऐसी शिक्षा नहीं दी गयी है । ईसाई धर्म भी ये बातें नहीं सिखाता । इस्लाम की रक्षा तलवार से नहीं हुई है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बारे में मैं बहुत-सी बातें सुनता रहता हूं । मैंने यह सुना है कि इस सारी शरारत की जड़ में संघ है । हिंदू धर्म की रक्षा ऐसे हत्याकांडों से नहीं हो सकती । आपको अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी होगी । वह रक्षा आप तभी कर सकते हैं जब आप दयावान और वीर बनें और सदा जागरूक रहेंगे, अन्यथा एक दिन ऐसा आयेगा जब आपको इस मूर्खता का पछतावा होगा , जिसके कारण यह सुंदर और बहुमूल्य फल आपके हाथ से निकल जायेगा । मैं आशा करता हूं कि वैसा दिन कभी नहीं आयेगा । हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि लोकमत की शक्ति तलवारों से अधिक होती है । '

संयुक्त राष्ट्रसंघ के समक्ष तत्कालीन हिंदुस्तानी प्रतिनिधिमण्डल की नेता श्रीमती विजयलक्ष्मी पण्डित की आवाज में आवाज मिलाकर जब पाकिस्तानी प्रतिनिधिमण्डल के नेता विदेश मन्त्री जफ़रुल्ला खां , अमरीका में पाकिस्तान के राजदूत एम. ए. एच. इरफ़ानी ने भी दक्षिण अफ़्रीका में भारतीयों पर अत्याचार का विरोध किया , तब गांधीजी अत्यन्र्त प्रसन्न हुए और १६ नवंबर '४७ को प्रार्थना में उन्होंने यह कहा , ' हिंदुस्तान(अविभाजित) के हिंदू और मुसलमान विदेशों में रहने वाले हिंदुस्तानियों के सवालों पर दो राय नहीं हैं , इससे साबित होता है कि दो राष्ट्रों का उसूल गलत है ।इससे आप लोगों को मेरे कहने से जो सबक सीखना चाहिए , वह यह है कि दुनिया में प्रेम सबसे ऊंची चीज है ।अगर हिंदुस्तान के बाहर हिंदू और मुसलमान एक आवाज से बोल सकते हैं , तो यहां भी वे जरूर ऐसा कर सकते हैं , शर्त यह है कि उनके दिलों में प्रेम हो ... अगर आज हम ऐसा कर सके और बाहर की तरह हिंदुस्तान में भी एक आवाज से बोल सके , तो हम आज की मुसीबतों से पार हो जायेंगे ! ( संपूर्ण गांधी वांग्मय , खण्ड : ९० )

इन सबको याद करना उस भयंकर त्रासदायी व शर्मनाक दौर को याद करना नहीं है , बल्कि जिस दौर की धमक सुनाई दे रही है उसे समझना है । गांधीजी तब भले ही एक व्यक्ति हों , आज तो उनकी बातें कालपुरुष के उद्गार-सी लगती हैं और हमारे विवेक को कोंचती हैं । उस आवाज को तब न सुन कर हमने उस आवाज का ही गला घोंट दिया था । अब आज ? आज तो आवाज भी अपनी ही है और गला भी ! इस बार हमें पहले से भी बड़ी कीमत अदा करनी होगी ।

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बुधवार, मई 16, 2007

हम इस आवाज का मतलब समझें






मेरा यह लेख धर्मयुग , १६ फरवरी १९९१ में छपा था


आज गुजरात के कई गाँवों में 'हिन्दू राष्ट्र नू माणसा गाम'. हिन्दू राष्ट्र का माणसा ( नाम ) ग्राम जैसी तख्तियाँ लगायी गयी हैं । मध्यप्रदेश के बस अड्डों पर ' हिन्दू राज्य ' में आपका स्वागत है !- पोस्टर एक अभियान के तहत लगाये जा रहे हैं । ऐसा एक दौर १९४२ में गांधी जी के समक्ष भी आया था । दिल्ली प्रदेश कंग्रेस कमिटी के तत्कालीन अध्यक्ष आसफ़ अली ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों की बाबत प्राप्त एक शिकायत गांधी जी को भेजी और लिखा था कि शिकायतकर्ता को नजदीकी तौर से जानते हैं , वे सच्चे और निष्पक्ष राष्ट्रीय कार्यकर्ता हैं । ९ अगस्त , १९४२ को हरिजन ( पृष्ट : २६१ ) में गांधी जी ने लिखा :



" शिकायती पत्र उर्दू में है । उसका सार यह है कि आसफ़ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है ( राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ) उसके ३,००० सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं , कवायद के बाद नारा लगाते हैं हिन्दुस्तान हिन्दुओं का है और किसी का नहीं । इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं जिनमें वक्ता कहते हैं - ' पहले अंग्रेजों को निकाल बाहर करो उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे , अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हे मार डालेंगे । ' बात जिस ढंग से कही गयी है , उसे वैसी ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषयवस्तु तो और भी बुरी है ।


" ... नारा गलत और बेमानी है , क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहाँ पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं तक सकते । इसलिए वह जितना हिन्दुओं का है उतना ही पारसियों , यहूदियों , हिंदुस्तानी इसाइयों , मुसलमानों और दूसरे गैर हिंदुओं का भी है । आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं , बल्कि हिन्दुस्तानियों का होगा , और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं , बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा ।


" ... धर्म एक निजी विषय है , जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए , विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गयी है , उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गये हैं । जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जायेगी तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे । अगर अंग्रेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होनेवाली हो तो अंग्रेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता । वह स्वराज्य नहीं होगा । "


विभाजन के बाद हुए व्यापक सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ ' करो या मरो ' की भावना से गांधी जी दिल्ली में डेरा डाले हुए थे । २१ सितम्बर '४७ को प्रार्थना - प्रवचन में 'हिन्दू राष्ट्रवादियों ' के सन्दर्भ में उन्होंने टिप्पणी की ;



' एक अखबार ने बड़ी गंभीरता से यह सुझाव रखा है कि अगर मौजूदा सरकार में शक्ति नहीं है यानी अगर जनता सरकार को उचित काम न करने दे , तो वह सरकार उन लोगों के लिए अपनी जगह खाली कर दे , जो सारे मुसलमानों को मार डालने या उन्हें देश निकाला देने का पागलपन भरा काम कर सके । यह ऐसी सलाह है कि जिस पर चल कर देश खुदकुशी कर सकता है और हिंदू धर्म जड़ से बरबाद हो सकता है । मुझे लगता है ऐसे अखबार तो आजाद हिंदुस्तान में रहने लायक ही नहीं हैं । प्रेस की आजादी का यह मतलब नहीं कि वह जनता के मन में जहरीले विचार पैदा करें । जो लोग ऐसी नीति पर चलना चाहते हैं , वे अपनी सरकार से इस्तीफा देने के लिए भले कहें , मगर जो दुनिया शांति के लिए अभी तक हिंदुस्तान की तरफ ताकती रही है , वह आगे से ऐसा करना बंद कर देगी । हर हालत में जब तक मेरी सांस चलती है , मैं ऐसे निरे पागलपन के खिलाफ अपनी सलाह देना जारी रखूंगा । " ( दिल्ली-डायरी , पृष्ठ ३० )


८ अक्टूबर , '४७ को गांधी जी ने साफगोई से अपनी राय रखी :



' अखबारों का जनता पर जबरदस्त असर होता है । संपादकों का फर्ज है कि वे अपने अखबारों में गलत खबरें न दें या ऐसी खबरें न छापें , जिससे जनता में उत्तेजना फैले । एक अखबार में मैंने पढ़ा कि रेवाड़ी में मेवों ने हिंदुओं पर हमला कर दिया । इस खबर ने मुझे बेचैन कर दिया ।मगर दूसरे दिन अखबारों में यह पढ़ कर मुझे खुशी हुई कि वह खबर गलत थी । ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं ।संपादकों और उप संपादकों को को खबरें छापने और उन्हें खास रूप देने में बहुत ज्यादा सावधानी लेने की जरूरत है । आजादी की हालत में सरकारों के लिए यह करीब - करीब असंभव है कि वे अखबारों पर काबू रखें । जनता का फर्ज है कि वह अखबारों पर कड़ी नजर रखें और उन्हें ठीक रास्ते पर चलायें ।पढ़ी - लिखी जनता को चाहिए कि वह भड़काने वाले या गंदे अखबारों को मदद करने से इनकार कर दें । ( दिल्ली-डायरी , पृश्ठ : ७७)


गत एक वर्ष में काशी विश्वविद्यालय में प्रशासन की अनुमति से परिसर में विश्व हिंदू परिषद के नेताओं के भाषण , विडियो प्रदर्शन , राम शिला पूजन , अस्ति पूजन कराने तथा शाखायें लगाने के अलावा मुस्लिम छात्रों की पीटने , अरबी विभाग में तोड़फोड़ , मुस्लिम शिक्षक , कर्मचारियों को धमकाने की घटनाएं हुई हैं । इस विश्वविद्यालय से जुड़े सर सुन्दरलाल चिकित्सालय में मुस्लिम मरीजों के परिचारकों को पीटा गया । यह अलीगढ़ विश्वविद्यालय की बाबत छपी गलत खबर के बहाने हुआ । महाराज सयाजी राव विश्वविद्यालय वडोदरा के प्रसिद्ध चित्रकार तथा दृश्यकला संकाय के प्रोफेसर गुलाम शेख को विश्वविद्यालय से निकाले जाने की छात्रसंघ द्वारा मांग की गयी क्योंकि उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द के लिए चलाये जा रहे ' वडोदरा शान्ति अभियान ' में हिस्सेदारी की थी । इस सन्दर्भ में गांधी जी २१ जनवरी , १९४२ को काशी विश्वविद्यालय के रजत जन्ती समारोह में दिये गये प्रवचन के उद्धरण मौजू होंगे :



" एक बात और । पश्चिम के हर एक विश्वविद्यालय की अपनी एक-न-एक विशेषता होती है । कैंब्रिज और ऑक्स्फोर्ड को ही लीजिए , इन विश्वविद्यालयों को इस बात का नाज है कि उनके हर एक विद्यार्थी पर उनकी विशेषता की छाप इस तरह लगी रहती है कि वे फौरन पहचाने जा सकते हैं ।हमारे देश के विश्वविद्यालयों की अपनी ऐसी कोई विशेषता होती ही नहीं । वे तो पश्चिमी विश्वविद्यालयों की एक निस्तेज और निष्प्राण नकल भर हैं , अगर हम उनको पश्चिमी सभ्यता का सिर्फ सोख्ता या स्याही-सोख कहें , तो शायद वाजिब होगा । आपके इस विश्वविद्यालय के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि यहां शिल्प - शिक्षा और यंत्र - शिक्षा का यानी इंजिनिरिंग और टेक्नोलॉजी का देशभर में सबसे ज्यादा विकास हुआ है ।और इनका शिक्षा से अच्छा सम्बन्ध है । लेकिन इसे मैं यहां की विशेषता मानने को तैयार नही। तो फिर इसकी विशेषता क्या हो ? मैं इसकी एक मिसाल आपके सामने रखना चाहता हूं । यहां जो इतने हिंदू विद्यार्थी हैं , उनमें से कितनों ने मुसलमान विद्यार्थियों को अपनाया है ? अलीगढ़ के कितने छात्रों को आप अपनी ओर खींच सके हैं ? दरअसल आपके दिल में तो यह भावना पैदा होनी चाहिये कि आप तमाम मुसलमान विद्यार्थियों को यहां बुलायेंगे और उन्हें अपनायेंगे ।


'...जिस तरह गंगा जी में अनेक नदियां आ कर मिलती हैं , उसी तरह इस देसी संस्कृति गंगा में भी अनेक संस्कृति-रूपी सहायक नदियां मिली हैं , यदि इन सबका कोई सन्देश या पैगाम हमारे लिए हो सकता है तो यही कि हम सारी दुनिया को अपनायें और किसी को अपना दुश्मन न समझें । मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह हिंदू विश्वविद्यालय को यह सब करने की शक्ति दे । यही इसकी विशेषता हो सकती है - सिर्फ अंग्रेजी सीखने से यह काम नहीं होगा ।'(बनारस हिंदू विश्वविद्यालय रजत जयंती समारोह , पृष्ठ :४१-४७)


जारी...

बुधवार, मई 09, 2007

मौजूदा चुनाव के लोकतंत्र विरोधी संकेत

उत्तर प्रदेश का जनादेश स्पष्ट है । मुख्यधारा के किसी दल को बहुमत न देने के मामले में जनता भ्रमित नहीं है । १९९३ में सपा - बसपा गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत मिलने के बाद हुए सभी चुनावों के परिणामों से मौजूदा चुनाव अलग नहीं हुए हैं ।

प्रदेश के बड़े शहर होने के कारण आगरा , इलाहाबाद में २२ फ़ीसदी और बनारस में २९ - ३० फ़ीसदी मतदान की खबर मीडिया की मुख्यधारा में भी हल्की - फुल्की चर्चा का विषय जरूर बनी । चुनाव आयोग ने इस पर कहा ,

  1. गत चुनावों से १० - १५ फ़ीसदी ही कम वोट पड़ना चिन्ता की बात नहीं है ।
  2. चुनाव आयोग ने प्रवासी आबादी का जिक्र किया और कहा कि करीब ११ फ़ीसदी लोग अन्य सूबों में रोजगार या रोजी की तलाश में चले जाते हैं ।

नागालैण्ड और काश्मीर के सरहदी सूबों में कई चुनावों में बहिष्कार के आह्वान के बाद अत्यन्त कम मतदान होते थे । असम में केन्द्र की दमनकारी कांग्रेसी सरकार द्वारा नेल्ली जैसे नरसंहार के बाद कराए गए चुनाव का जनता ने बहिष्कार किया था । ६० वोट , १२२ वोट पाने वाले भी विधायक - मन्त्री बने थे और कांग्रेसी सुश्री अनवरा तैमूर मुख्यमंत्री बनी थीं ।जनता द्वारा इच्छित कम भागीदारी वाले इन चुनावों को लोकतंत्र की कमजोरी और कांग्रेस के फासीवादी रुझान का द्योतक माना गया था ।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत से चुनाव आयोग सिर्फ मतदाता परिचय पत्र के आधार पर मतदान कराने की बहादुरी से घोषणा कर रहा था ।अधिसूचना के बाद तक स्थानीय प्रशासन फोटो पहचान पत्र बनवाने में जुटा था । मतदान के बाद भी स्थानीय प्रशासन इस बार " २० फ़ीसदी हुए मतदान में ७३ या ८१ फ़ीसदी लोगों ने परिचय पत्र दिखा कर वोट दिए " जैसी घोषणा कर फूला नहीं समा रहा था ।

सन २००१ से भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा जारी किए जा रहे फोटो पहचान पत्र संभाल कर रखने वाले जो लोग मतदाता सूची में नाम न होने के कारण मतदान से वंचित रहे उन पर स्थानीय प्रशासन और आयोग मौन है , अखबार और टे.वि. चैनल सरसरी तौर पर जिक्र कर कर्त्तव्य की इतिश्री मान ले रहे हैं तथा चुनावी दल पूरी तरह निश्चिन्त रहते हैं कि जिनके नाम हैं उन्हीं की चिन्ता की जाए ।

यह भी उल्लेखनीय है कि कि रोजगार की तलाश में पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों से लोग मुम्बई -दिल्ली जाते हैं , शहरों से कम । जौनपुर और गाजीपुर जिलों की जनगणना रिपोर्ट से प्रवासन साफ झलकता है - इन जिलों में स्त्रियों की आबादी पुरुषों से अधिक है । चुनाव के यह महीने प्रवासियों के गाँव लौटने के भी महीने हैं ।

हिन्सा - मुक्त चुनाव कराने के लिए आयोग और प्रशासन की वाहवाही होना लाजमी है लेकिन मताधिकार से वंचित लाखों लोग जम्हूरियत के कमजोर होने की गवाही देते हैं ।

मतदाता सूची में भारी गड़बड़ियों के अलावा सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया में ऐसा काफी कुछ था जो हमारे जैसे छोटे राजनैतिक दलों के खिलाफ़ था और भ्रष्टाचार और पूँजीपतियों से किए गए अकूत धन-राशि खर्च करने वाले बड़े दलों के हक में । जनता से संवाद के लिए आयोजित जन सभाओं के के लिए अनुमति देने की बाबत ऐसा ही कुछ हुआ । आयोग द्वारा बड़े दलों के बड़े नेताओं की सूची अपनी वेबसाईट पर डाल दी गयी थी । मुमकिन है कि इन दलों से यह सूची माँगी गयी हो । इस सूची में विश्वनाथ प्रताप - राज बब्बर का जनमोर्चा गौरतलब अपवाद था - मान्यताप्राप्त दल न होने के बावजूद इसके नेता भी सूची में थे । सूची में उल्लिखित नेताओं के सभा के लिए अनुमति दी जाती थी । अन्य दलों को दो चरणों के बीच की अवधि में ही सभा की अनुमति दी गयी । मसलन सातवें दौर ( ८ मई ) के चुनाव के लिए छठे दौर ( ३ मई ) के बाद यानी ३ से ६ मई तक ही सभाओं की इजाजत दी गयी। उसके पहले प्रशासन द्वारा यह कह दिया जाता था कि पुलिस बल की कमी के कारण अनुमति नहीं दी जा रही है ।

पोस्टर - बैनर - दिवाल लेखन पर रोक के कारण महीनों पहले से टेलिविजन , राष्ट्रीय पत्रिकाओं और अखबारों में भारी खर्च वाले विज्ञापन ही जनता को दृष्टिगोचर हुए । छोटे कस्बों के संवाददाताओं को स्पष्ट निर्देश था कि बिना विज्ञापन प्रेस विज्ञप्ति न लें , किसी प्रेस वार्ता में भाग न लें ।

चुनावी प्रक्रिया के बुनियादी अवयवों पर रोक का नतीजा लोकतंत्र को कमजोर करने वाले साधनों को सबल करता है । पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो प्रमुख माफिया गिरोहों के वास्तविक 'चुनाव खर्च' के तरीकों पर गौर करें । मुख्तार अन्सारी के कारिन्दे ज्यादा से ज्यादा शादियों में ' न्यौता देने ' और धन के अलावा अपने आका का सन्देश भी देते , ' जरूरत पड़ने पर और पैसा दिया जाएगा ' । बृजेश सिंह के भतीजे सुशील सिंह धानापुर के कई हार्वेस्टर कब्जे में ले कर मतदाताओं की मुफ़्त में कटनी करवा कर दिल जातना चाहा ।

चुनाव आयोग अथवा न्यायपालिका द्वारा चुनाव प्रक्रिया में कुछ तब्दीलियाँ की जाती रही हैं। सम्पत्ति और आपराधिक मामलों की बाबत शपथ पत्र देना इनमें प्रमुख है । इन पर आपत्ति करते हुए प्रतिवाद न किए जाने तक इन शपथ पत्रों में उल्लिखित तथ्यों की जाँच नहीं की जाती । सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मुलायम सिंह यादव की सम्पत्ति की जाँच सी.बी.आई. द्वारा कराने का निर्देश एक कांग्रेसी की जनहित याचिका पर हुआ है , आयोग के कहने पर नहीं । यह उल्लेखनीय है कि डॉ. लोहिया की मृत्यु के समय उनके पास पार्टी के दौरों में काम आने वाली एक अटैची और किताबें बतौर निजी सम्पत्ति थीं । लोकसभा हेतु चुने के पहले तक लोहिया का निजी बैंक खाता भी नहीं था।

आपराधिक मुकदमों की बाबत जमा किए शपथ पत्रों की बाबत आयोग की गम्भीरता का उदाहरण लीजिए । वाराणसी के लोकसभा प्रतिनिधि राजेश मिश्रा ने नामांकन के वक्त बाहलफ़ कहा था कि उन पर कोई मुकदमें लम्बित नहीं हैं । उम्मेदवारों के शपथ-पत्र स्कैन कराके आयोग अपनी वेबसाइट पर देता है , इसे देखा जा सकता है । राजेश मिश्रा पर उस समय कम से कम बारह ऐसे मुकदमें लम्बित थे जो मुझ पर भी थे । इन अपराधों में हत्या के प्रयास , एक्स्प्लोसिव एक्ट , क्रिमिनल एमेन्डमेंट एक्ट और आगजनी की धारायें प्रमुख थीं। इन गंभीर अपराधों में हम '८६ - '८७ में लिप्त थे । आज तक इन मामलों की एक भी तारीख पर हम अदालत में नहीं गये और न ही इस वजह से हुसैन की तरह हमारी कुर्की का कभी आदेश हुआ । इसका जिक्र सिर्फ़ इसलिए कर रहा हूँ कि यह स्प्ष्ट हो जाए कि आयोग हलफनामों में दिये तथ्यों की जाँच नहीं करता । भारतीय दण्ड संहिता में राजनैतिक/आपराधिक यह दो भाग नहीं किए गए हैं - सभी मामले अपराध की कोटि में आते हैं । दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा १४४ को तोड़ने पर भा.द.सं की धारा १८८ लगायी जाती है - शायद इसे 'राजनैतिक' माना जा सकता है । आन्दोलनों को दबाने के लिए शासन द्वारा फर्जी मुकदमे दायर किए जाते हैं तथा इनमें भा.द.सं की गम्भीर धारायें ही इस्तेमाल की जाती हैं ।

यह कुछ प्रसंग हैं जिनकी शिनाख्त लोकतंत्र के कमजोर होने के लक्षण के रूप में हम करते हैं ।

सोमवार, मई 07, 2007

सलमान खुर्शीद और चुनाव आयोग का मनमानापन , विभेद

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भारत का निर्वाचन आयोग ,

नई दिल्ली .

महाशय ,

२२५ वाराणसी कैन्टोनमेन्ट विधानसभा क्षेत्र में मतदाता सूची से हजारों वैध मतदाताओं के नाम गायब होने के सन्दर्भ में मैंने उप चुनाव आयुक्त,मुख्य निर्वाचन अधिकारी तथा जिला निर्वाचन अधिकारी को मतदान की पूर्व ज्ञापन दिए थे । गत लोक सभा निर्वाचन में वाराणसी जिले की मतदाता सूचियों में व्यापक गड़बड़ियों तथा हजारों मतदाता के आयोग द्वारा जारी परिचय पत्र धारक होने के बावजूद मतदाता सूची में नाम न होने के बारे में आयोग से कई शिकायतें दर्ज करायी गयी थीं ।

लोकसभा निर्वाचन के बाद मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम डाकियों और डाकघर द्वारा कराया गया था । डाकियों द्वारा पतों की पुष्टि प्रमाणित किए जाने के बाद पोस्टमास्टर द्वारा प्रारूप ६ अग्रसारित किए गए थे । यह उल्लेखनीय है कि प्रारूप ६ मं परिवार के उन व्यक्तियों का हवाला भी दिया गया था जिनका सूची में नाम था । मतदाता पुनरीक्षण के इस दौर की पोस्टमास्टर द्वारा हस्ताक्षरित पावतियाँ मौजूद होने के बावजूद अद्यतन मतदाता सूची से हजारों नाम गायब थे । फलस्वरूप हजारों नागरिक मताधिकार से वंचित हो गए ।आयोग का ध्यान इस ओर भी आकर्षित किया गया था कि वाराणसी के स्थानीय दैनिकों में भारी संख्या में भरे हुए प्रारूप ६ जला दिए जाने की खबर छपी थी ।

आज के अखबारों में उत्तर प्रदेश के मुख्य चुनाव अधिकारी के हवाले से सूचित किया गया है कि मतदाता सूची में गड़बड़ी पाए जाने के कारण कायमगंज वि.स. क्षेत्र के ४५ मतदान केन्द्रों में मतदाता सूची की गड़बड़ी को ध्यान में रख कर पुनर्मतदान का आदेश हुआ है।उत्तर प्रदेश के अपर मुख्य निर्वाचन अधिकारी द्वारा यह बताया गया है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष श्री सलमान खुर्शीद तथा उनकी पत्नी श्रीमती लुइस खुर्शीद के नाम भी मतदाता सूची से गायब थे तथा इन मतदान केन्द्रों में भी पुनर्मतदान होगा ।

मैं भारत के निर्वाचन आयोग में पंजीकृत गैर मान्यताप्राप्त राजनैतिक दल समाजवादी जनपरिषद का प्रदेश अध्यक्ष हूँ मेरे हस्ताक्षरों से अधिकृत दल के उम्मीदवार गोरखपुर जिले के धुरियापार तथा कौड़ीराम विधान सभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं ।

२२५ वाराणसी कैन्टोन्मेन्ट विधासभा क्षेत्र की मतदाता सूची से मेरा, मेरी पत्नी डॉ. स्वाति तथा हजारों मतदाताओं के नाम ,आयोग द्वारा जारी मतदाता परिचय पत्र और जमा किए प्रारूप ६ की हस्ताक्षरित पावती रसीदें होने के बावजूद गायब हैं तथा ३ मई को हुए चुनाव में इस प्रशासनिक तृटि के कारण हम मताधिकार का प्रयोग करने से मरहूम हो गए ।

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर आयोग से यह माँग है कि :

  1. २२५ वाराणसी कैन्टोनमेन्ट की मतदाता सूची की गड़बड़ियों,प्रारूप ६ गायब किये/जलाये जाने तथा परिचय पत्र धारक मतदाताओं के नाम सूची में न आने की जाँच हो तथा जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई की जाय ।
  2. त्रृटिपूर्ण मतदाता सूची के आधार पर हुए मतदान को रद्द कर पुनर्मतदान काराया जाए।

ऐसा न किया जाना आयोग द्वारा मनमाने और विभेदपूर्ण कार्रवाई होगी तथा उस स्थिति में न्याय प्राप्ति के अन्य संवैधानिक रास्ते चुनने के लिए हम स्वतंत्र होंगे ।

भवदीय ,

अफ़लातून.

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Aflatoon अफ़लातून ,State President,Samajwadi Janparishad(U.P.),( फोन 0542 - 2575063)
5,Readers Flats,Jodhpur Colony,
Banaras Hindu University,
Varanasi,Uttar Pradesh,INDIA 221005
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