क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (७)
७
वैश्वीकरण के पैरोकार कई बार चीन का उदाहरण देते हैं । चीन ने अब माओ और साम्यवाद का रास्ता लगभग पूरी तरह छोड़ दिया है । ' बाजार समाजवाद ' की जो बात वह करता है , वह पूंजीवाद और वैश्वीकरण की राह ही है । चीन विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनने के लिए बेचैन है , वह भारत से कई गुना ज्यादा विदेशी पूंजी आकर्षित कर रहा है , उसकी राष्ट्रीय आय में वृद्धि की दर ल्गातार लंबे अरसे से नौ - दस प्रतिशत बनी हुई है , उसके निर्यात तेजी से बढ़ रहे हैं और भारत सहित दुनिया के बाजारों में चीनी वस्तुएं छाई हुई हैं । तीसरी दुनिया के देश कैसे वैश्वीकरण की राह पर चलकर आगे बढ़ सकते हैं , इसकी नवीनतम मिसाल चीन है । इसके पहले अर्जन्तीना , चिली , मेक्सिको , दक्षिण-पूर्वी एशिया आदि का उदाहरण दिया जाता था , लेकिन वे सारे मॊडल एक - एक करके धराशायी हो गए ।
चीन के बारे में भी तस्वीर का एक ही पहलू हमें दिखाया जाता है । असलियत यह है कि चीन की ज्यादातर नयी औद्योगिक समृद्धि हांगकांग आदि से लगे उसके दक्षिणी व पूर्वी तटीय इलाकों तक सीमित है ।चीन की विशाल मुख्य भूमि में तो बेकारी और कंगाली छाई हुई है और बड़ी संख्या में पलायन हो रहा है ।बड़ी मात्रा में विस्थापन भी हो रहा है ।आमदनी की विषमता भारत से भी ज्यादा हो चुकी है । कारखानों और खदानों में काम की दशाएं बहुत खराब हैं । खदानों में दुर्घटनाओं की दर पूरी दुनिया में संभवत: सबसे ज्यादा है । पूरे चीन में जबरदस्त जन असंतोष खदबदा रहा है , जो तानाशाही के कारण दबा कर रखा गया है । वर्ष २००५ में पूरे चीन में लगभग ८५००० जन-प्रदर्शन हुए , यह आंकड़ा स्वयं चीन सरकार के सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय का है । भविष्य में स्थिति और बिगड़ सकती है ।इसलिए चीन सरकार ने पिछले दिनों गरीबी , बेरोजगारी और सामाजिक सुरक्षा पर कुछ ध्यान देने की कोशिश की है और सरकारी बजट में कुछ घोषणाएं की हैं ।लेकिन यदि चीन की राह वही रही , तो इससे हालात ज्यादा बदलने वाले नहीं हैं, क्योंकि वैश्वीकरण की राह से और ज्यादा शोषण , कंगाली , विस्थापन तथा बेरोजगारी का सृजन होता जाएगा ।
दूसरे शब्दों में , चीन का उदाहरण भी यही साबित करता है कि ' बाजार समाजवाद ' अपने आप में एक विरोधाभास है । बाजारवाद और समाजवाद साथ-साथ नहीं चल सकते । वैश्वीकरण की इस दुनिया में सबके लिए जगह नहीं है । विकास होगा तो चीन जैसा होगा । कुछ की समृद्धि होगी , बाकी के हिस्से में कंगाली , बदहाली , बेरोजगारी और विस्थापन की त्रासदी आएगी । दरअसल , बहुसंख्यक लोगों के शोषण और विनाश पर ही कुछ लोगों का ऐशोआराम टिका है । पूंजीवादी औद्योगीकरण की प्रकृति ही ऐसी ही है वह पूरी दुनिया के संसाधनों को लूटते और बरबाद करते आगे बढ़ता है । पहले यह लूट उपनिवेशों में होती थी , बाद में नव औपनिवेशिक तरीके विकसित हो गए । बाहरी उपनिवेशों के साथ-साथ देश के अन्दर आंतरिक उपनिवेश विकसित हुए । बिना औपनिवेशिक ( या नव-औपनिवेशिक ) लूट के पूंजीवाद की गाड़ी चल नहीं सकती । वैश्वीकरण इस पूंजीवाद व साम्राज्यवाद का ही एक नया , ज्यादा भयानक दौर है । इस सत्य को हम पहचान लेंगे , तो इसका मानवीय चेहरा ढूंढने या इसके बीच का कोई रास्ता ढूंढने का निरर्थक प्रयास छोड़ देंगे ।
किशन पटनायक की खासियत यह थी कि इस सत्य को उन्होंने बहुत पहले पहचान लिया था और इसके बारे में बराबर चेतावनी देते रहे । इस मामले में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकेगा ।
*******
सुनील के अन्य लेख यहाँ देखें ।तीनों कडियों पर ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें