बुधवार, अक्तूबर 04, 2006

गांधी पर

संजय बेंगाणी के चिट्ठे पर टिप्पणी :
गांधी की निन्दा अवश्य करें लेकिन कुछ बातों का ध्यान रखें :अपनी आत्मकथा को ‘सत्य के प्रयोग’ कहने वाला यह कहता था कि चूंकि यह प्रयोग है इसलिए यदि मेरे विचारों में एक विषय पर दो परस्पर विरोधी बातें मिलें तो बाद वाली को सही मानना.जैसे जाति प्रथा के बारे में उनके विचारों में परिवर्तन हुआ,खास तौर पर पुणे में बाबासाहब से उपवास के दौरान हुई चर्चा के बाद.दोनों महापुरुषों ने एक दूसरे को समझने की पूरी कोशिश की.‘४६,’४७ आते आते गांधी ने नियम बना लिया कि सवर्ण-अवर्ण शादी न हुई तो शरीक नहीं हूंगा.सेक्स और गुस्से के बारे में शायद कुछ सामने आता अगर ,लोहिया जिसे ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ के द्वन्द्व की घटना मानते थे - वह न होता.यानि हाफ़ पैंट वालों के हिसाब से-’गांधी-वध’. सरदार ने विभाजन का प्रस्ताव नहीं माना,या मानने की जल्दीबाजी नहीं दिखाई -यह एक प्रचार है.अंग्रेजों ने १२ मोटे-मोटे खण्डों में सत्ता हस्तांतरण के तमाम दस्तावेजों को प्रकाशित किया है,खूफ़िया रपटों सहित, उनमें झांका जा सकता है.गांधी के किसी पुत्र ने उनकी मदद से कुछ हासिल नहीं किया.नेहरू -गांधी दृष्टिभेद पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुख्यधारा की सामयिक राजनीति नेहरू के साथ ही गिनी जाएगी.पढाई से भागना अच्छा गुण नहीं है.

सोमवार, अक्तूबर 02, 2006

गांधी - नेहरू चीट्ठेबाजी (पूर्णाहुति , ले. प्यारेलाल से)

गांधी जी पंडित नेहरू को (अक्टूबर,१९४५) :
हमारे दृष्टिकोणमें जो भेद है उसके बारे में मैं लिखना चाहता हूं . यदि वह भेद बुनियादी है तब तो जनता को वह मालूम हो जाना चाहिए . उसे (जनताको) अन्धकारमें रखने से हमारे स्वराज्य के कार्य को हानि पहुंचेगी .
गांधी जी नेहरू को (स्वाधीनता के बाद) :
मेरा विश्वास है कि यदि भारतको सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त करनी है और भारतके द्वारा संसारको भी प्राप्त करनी है,तो आगे-पीछे हमें यह तथ्य स्वीकार करना ही पडेगा कि लोगोंको गांवोंमें न कि शहरोंमें,झोपडोंमें न कि महलोंमें रहना होगा .
— तुम्हे यह नहीं सोचना चाहिए कि मेरी कल्पनामें वही ग्रामीण जीवन है जो आज हम देख रहे हैं.मेरे सपनोंका गांव अभी तक मेरे विचारोंमें ही है.मेरे आदर्श गांवमें बुद्धीमान मानव होंगे. वे जानवरोंकी तरह,गंदगी और अंधकारमें नहीं रहेंगे.उसके नर-नारी स्वतंत्र होंगे और संसारमें किसीके भी सामने डटे रहनेकी क्षमतावाले होंगे.वहां न प्लेग होगा,न हैजा,न चेचक;वहां कोई बेकार नहीं रहेगा,कोई ऐश आराममें डूबा नहीं रहेगा.सबको अपने हिस्सेका शरीर श्रम करना होगा.
—- अगर आज दुनिया ग़लत रास्ते पर जा रही है,तो मुझे उससे डरना नहीं चाहिए. यह हो सकता है कि भारत भी उसी रास्ते पर जाए और कहावतके पतंगेकी तरह अन्तमें उसी दीपककी आगमें जल मरे,जिसके आस-पास वह तांडव-नृत्य करता है.परन्तु मेरा जीवन के अंतिम क्षण तक यह परमधर्म है कि मैं ऐसे सर्वनाशसे भारतकी और भारतके द्वारा समस्त संसारकी रक्षा करने का प्रयत्न करूं.
पंडित नेहरूने उत्तरमें लिखा :
हमारे सामने प्रश्न सत्य बनाम असत्यका या अहिंसा बनाम हिंसा का नहीं है.
मेरी समझमें नहीं आता कि गांव आवश्यक तौर पर सत्य और अहिन्सा का साकार रूप क्यों होना चाहिए.सामान्यत: गांव बुद्धि और संस्कृतिकी की दृष्टि से पिछडा हुआ होता है और पिछडे हुए वातावरणमें कोई प्रगति नही की जा सकती.संकीर्ण विचारोंके लोगोंके लिए(गांव के) असत्यपूर्ण और हिंसक होनेकी बहुत ज्यादा संभावना रहती है.हमें गांवको शहरकी संस्कृतिके अधिक निकट पहुंचनेके लिए प्रोत्साहन देना पडेगा.

रविवार, अक्तूबर 01, 2006

गुलामी का दर्शन ; किशन पटनायक

“गुलामी में एक सुरक्षा है.अनुकरण और निर्भरता में एक सुरक्षा है -खासकर बौद्धिक निर्भरता में.इसलिए इसकी लत लग जाती है.जो लोग,व्यक्ति या समूह लम्बे समय तक गुलाम बने रहते हैं,उनके स्वभाव में कुछ परिवर्तन आ जाता है.ज्यादा समय तक गुलाम रहने वाले देशों और कम समय तक या न के बराबर गुलाम रहने वाले देशों के चरित्र में एक भिन्नता होती है.पहली किस्म के लोग अपने निर्णय से कठिन काम नहीं कर सकते.गुलाम व्यक्ति आदेश मिलने पर कठिन काम करता है,अनिच्छा से करता है,उसमें रस नहीं मिलता.इस तरह कठिन काम के प्रति उसका स्वभाव बन जाती है.बाद में जब वह आज़ाद होता है,तब भी वह कठिन काम,कठोर निर्णय से भागता है.कठिन काम करने में जो रस है ,जो तृप्ती है, उसे वह समझ नही पाता.जो कठिन है वह संभव है,दीर्घकालीन हित के लिये हरेक के लिये आवश्यक है -यह भाव उसके आचरण से गायब हो जाता है.”- किशन पटनायक (विकल्पहीन नहीं है दुनिया,पृष्ट २१,राजकमल प्रकाशन)