सोमवार, जून 25, 2007

रघुवीर सहाय : तीन कविताएँ

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बड़ा अफ़सर

इस विषय पर विचार का कोई प्रश्न नहीं

निर्णय का प्रश्न नहीं

फिर से समीक्षा का प्रश्न नहीं

प्रश्न से भागता गया

उत्तर देते हुए इस तरह बड़ा अफ़सर ।

प्रश्न

आमने सामने बैठे थे

रामदास मनुष्य और मानवेन्द्र मंत्री

रामदास बोले आप लोगों को मार क्यों रहे हैं ?

मानवेन्द्र भौंचक सुनते रहे

थोड़ी देर बाद रामदास को लगा

कि मंत्री कुछ समझ नहीं पा रहे हैं

और उसने निडर हो कर कहा

आप जनता की जान नहीं ले सकते

सहसा बहुत से सिपाही वहाँ आ गए ।

हमारी मुठभेड़

कितने अकेले तुम रह सकते हो

अपने जैसे कितनों को खोज सकते हो तुम

हम एक गरीब देश के रहने वाले हैं इसलिए

हमारी मुठभेड़ हर वक्त रहती है ताकत से

देश के गरीब रहने का मतलब है

अकड़ और अश्लीलता का हम पर हर वक्त हमला ।

- रघुवीर सहाय.

( साभार : प्रतिनिधि कविताएँ , राजकमल प्रकाशन , नई दिल्ली )

शुक्रवार, जून 22, 2007

" डबल जियोपार्डी " नारद की राहुल पर

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चिट्ठकार राहुल जन्मना भारतीय है । उस पर भारत का संविधान लागू होता है । भारत के किस्से , कहानियाँ और कहावतें भी । एक किस्सा चर्चित है जिसमें असामी से सजा देने वाले पूछते हैं , ' पाँच किलो प्याज खाओगे या पचास चप्पल ? ' इसमें असामी को सजा पसन्द करने की छूट थी । इस छूट की लम्बी रस्सी में वह उलझ जाता है और दोनों सजाएँ भुगतता है ।

 

    राहुल ने एक पोस्ट आपत्तिजनक , ठेस पहुँचाने वाली शैली में लिखी । धुरविरोधी ने अपनी सौम्य शैली में तथा मैंने उसीकी शैली में पोस्ट पर टिप्पणियाँ की । राहुल का चिट्ठा नारद पर आने से रोक दिया गया । उसने आहत चिट्ठाकारों और पाठकों से खेद प्रकट किया । नारद ने कहा , 'पानी अब सिर के ऊपर से जा रहा है'। एक छोटा अन्तराल बीता है और चूँकि नारद मुनि ने मौन ले लिया है इसलिए अब हमें पता भी नहीं चल रहा है कि पानी अब कहाँ से जा रहा है ?  उसका जलस्तर क्या है ? मौन के ठीक पहले 'नारद उवाच' और धुरविरोधी के चिट्ठों पर उनकी वाणी के बाण चले थे।सिर्फ़ 'हाँ या नहीं में जवाब दीजिए' वाली स्कूल - मास्टर शैली में ।

    नारद की मेज़बानी कोई अमेरिकी जालस्थल करता है । यानी अपना नारद उससे जुड़ा है - नालबद्ध । लाजमीतौर पर उसका प्रतिदावा कहता है ," किसी भी किस्म के विवाद की स्थिति में न्यायालयीन क्षेत्र संयुक्त राज्य अमरीका (USA) रहेगा. "

    इसलिए आज अमेरिकी संविधान और कानून की चर्चा करनी पड़ रही है । अमेरिकी संविधान किसी भी जुर्म के दोहरे अभियोजन और दोहरी सजा पर रोक लगाता हैं । अभियोजन का जोखिम एक बार ही उठाना पड़े।यह रोक अमेरिकी विधि व्यवस्था की एक बहुचर्चित विशिष्टता है । इसके उल्लंघन को Double Jeopardy - डबल जियोपार्डी कहा जाता है ।

    हॉलीवुड की एक जबरदस्त फिल्म थी इसी नाम की - डबल जियोपार्डी । देखी जरूर थी, लेकिन उसका विव्ररण देने का सामर्थ्य जिनमें है उनसे कहूँगा कि इस पर फुरसत में लिखें । चिट्ठाकारी के स्वयंभू जॉर्ज क्लूनी - प्रमोद कुमार , सेरिल मुक्कदस गुप्त , विनय जैन ,सुनील दीपक  अथवा ' बीस साल बाद' के असित सेन की याद दिलाने वाले समीरलाल डबल जियोपार्डी के बारे में सक्षम और रोचक तरीके से बता सकते हैं ।

    अमेरिकी कम्पनियों अथवा जालस्थल द्वारा दुनिया के अन्य भूभाग में जब कोई करतूत की जाती है तो उसके लिए एक अमेरिकी कानून है - विदेशी व्यक्ति क्षतिपूर्ति कानून । अपना राहुल विदेशी हुआ जो 'न्याय-क्षेत्र' नारद के विवादों के निपटारे के लिए मुकर्रर है , उनके हिसाब से । भोपाल गैस काण्ड की कसूरवार लाल एवरेडी बनाने वाली यूनियन कारबाइड ( अब कम्पनी डाओ केमिकल ने खरीद ली है) के तत्कालीन अध्यक्ष एण्डरसन के प्रत्यर्पण और कम्पनी पर क्षति-पूर्ति के  दावे के लिए भोपाल की गैस पीडित महिलाओं ने इसी कानून के तहत अमेरिका में भी एक दावा पेश किया हुआ है ।

  कोलम्बिया स्थित कोकाकोला के बॉटलिंग प्लान्ट के मजदूर नेताओं की हत्याओं पर विचार भी इस कानून के तहत अमेरिका में चल रहा है । इस मसले पर अधिक जानकारी हिन्दी में तथा अँग्रेजी में उप्लब्ध है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की करतूतों के खिलाफ़ लड़ने के दौरान इस कानून के अध्ययन का अवसर मुझे मिला ।

   पन्ना हटाने और नारद द्वारा रोके जाने के बाद भी राहुल त्रृटिपूर्ण आलोचनाओं का शिकार है । 'चिट्ठाकारी की आलोचना छापता था ' ,अपने गैर-प्रतिबन्धित चिट्ठों पर लिखता रहे' और 'नया चिट्ठा पंजीकृत करा ले ,उस पर लिखे' आदि आदि। यह मानसिकता याद दिलाती है कि इतिहास में कभी चार्वाक के प्रति भी ऐसा रवैया रखने वाले लोग हुए थे और इस वजह से चार्वाक दर्शन के बहुत से हिस्से वाँग्मय से ही गायब कर दिए गए । इसी मानसिकता से बुद्ध से बुद्धू और और लुँच मुनि से लुच्चा शब्द बनाया गया । कबीर साहब को होली की गालियों के साथ - ' कबीरा सररर ' में जोड़ दिया गया ।

    मुझे सबसे ज्यादा दु:खद 'रूस गईलं सैयाँ हमार' (मतलब सैयाँ हैज़ गॉन टु रशिया नहीं ) वाली स्थिति लग रही है । मामला मन्ना डे के , 'कैसे समझाऊँ?' - इस गीत के मुखड़े के उत्तरार्ध जैसा हो रहा है । धार्मिक आस्था पर चोट से बड़ी चोट !सभव है आस्थाओं में सूक्ष्मभेद करना लोकतांत्रिक होगा।  पर्यूषण के आखिरी दिन सभी से क्षमा माँगने और क्षमा करने वाली महान जैन परम्परा की याद बार - बार आ रही है। जहाँ जैन आबादी तुलनात्मक रूप से ज्यादा है - राजस्थान ,गुजरात , महाराष्ट्र आदि में इस अवसर पर अखबारों में विज्ञापन भी छपते हैं । इन विज्ञापनों में कुछ ऐसे पद हुआ करते हैं -

क्षमा मैं चाहता सबसे,

मैं भी सबको करूँ क्षमा ,

मैत्री मेरी सभी से हो,

किसी से वैर हो नहीं ।

  कल यह पोस्ट डालनी थी। बिटिया प्योली ने बताया कि संगीत दिवस है ,फिर नारद पर युनुस भाई के पहले श्रव्य कार्यक्रम की सूचना देखी और जीमेल पर नितिन का ऐलान । कविगुरु रवीन्द्रनाथ का एक गीत है , 'भेंगे मोर घरेर चाबी , निए जाबी के आमारे । ओ बन्धु आमार !'। इसका गुजराती अनुवाद (धुन बरकरार रख कर) नारायण देसाई ने किया है - रे मारां घरनां ताळा तोडी वाळा,लई जशे रे !' । हिन्दी में इस धुन पर बप्पी लाहिरी का टूटे खिलौने का एक गीत १९७८ में आया था,बोल अनुदित नहीं थे।फिर भी सुन्दर थे । सोचा था कि कल का दिन चिट्ठे पर गीत डालने के लिए उचित रहेगा , दुर्भाग्य की संजाल पर मिला नहीं । मनीष ,सागर ,विनय , युनुस या मैथिली गाने की कड़ी भेज दें तब जोड़ लूँगा। आज तो सिर्फ़ मुखड़ा चिट्ठाकार राहुल और नारद को समर्पित है ,

नन्हा-सा पंछी रे तू

बहुत बड़ा पिंजरा तेरा,

उड़ना जो चाहा भी

तो न तुझे उड़ने दिया,

लेके तू पिंजरा उड़े

चले कुछ ऐसी हवा । पंछी रे!पंछी रे!

बुधवार, जून 20, 2007

प्रतिबन्धित पुस्तिकायें,एक किस्सा और एक खेल

यह तीन पुस्तिकायें लिखी गयीं थीं , ’दु:शासन पर्व’ के दौरान । ’तानाशाही को कैसे समझें’ पुस्तिका छपी, बार-बार छपी , तीन भाषाओं (गुजराती,हिन्दी,अंग्रेजी) में छपी । पुस्तिका के लेखक की गिरफ़्तारी के लिए तीन शहरों में गिरफ़्तारी वॉरण्ट जारी हुए । ’सुरुचि छापशाला’ , बारडोली के संस्थापक मोहन परीख ने बहादुरी से सरकारी दबावों का सामना किया और उन्हें कामयाब न होने दिया ।
’तानाशाही को कैसे समझें ?’ में तानाशाही का विवरण था । हर प्रकार की तानाशही में अहंकार , दर्प , हेकड़ी ,अविश्वास,असहिष्णुता हैं ।इन गुणों का प्रतिफल होता है (१) भय फैलाने,आतंक,खूफिया जाल (२) यह भ्रम फैलाना कि वही तारनहार है।(३)कुछ सुधार कार्यक्रम घोषित करना (४) कानून के समक्ष समानता की धज्जी उड़ाना ताकि न्याय निष्पक्ष न रह जाए आदि अपनाता है ।
’अहिन्सक प्रतिकार पद्धतियाँ’ में ईसा पूर्व ५वीं शताब्दी से तब तक की १७८ पद्धतियों का संक्षिप्त निरूपण किया गया है । यह पुस्तिका जीन शार्प के ’ पॉलिटिक्स ऑफ़ नॉन वॉयलन्ट एक्शन’ नामक ग्रन्थ के आधार पर लिखी गयी है । भारतीय उदाहरण भी लिए गए हैं । तीन नमूने देखिए
१७५.जहाँ गुप्त पुलिस या खूफिया एजेन्सी काम करती है , वहाँ उनका परिचय दे देना,नाम़ जारी करना ।नाजियों के विरुद्ध इसका इस्तेमाल हुआ था । चेकस्लोवाकिया में रूसी चमचों के गाडियों के नम्बर घोषित कर दिए गए थे ।
१५६. ’मिल-इन’ यानी घरभरन धरना । किसी आयोजन या मिलन में बडी संख्या में पहुँच जाऍ , वहाँ मौजूद लोगों से चर्चा शुरु करें,घूमें-फिरें,चक्कर लगायें। इस पद्धति में विघ्न डालने की कल्पना नहीं होती परन्तु अपने मुद्दे के प्रति ध्यान आकर्षित करने तथा उसके प्रचार का मकसद होता है ।
१४२. चीन और रूस की सेना में तनावपूर्ण शान्ति के दौर में न के सैनिकों को आदेश मिला कि रूसी सेना की ओर पीठ कर कतारबन्द हो खड़े हो जाँए और पीछा दिखायें । इस अपमान से रूसी तिलमिला गए। कुछदिन जब यह क्रम चलता रहा तब रूसियों को इस अपमान का प्रतिकार स्दूझा।उन्होंने चीनी सैनिकों के सामने चेयर्मैन माओ की बड़ी बड़ी तसवीरें लगा दीं ।
’प्रतिकारनी कहाणी’ में दो प्रसंगों का विस्तृत हवाला है । नाजियों द्वारा बन्दी बनाये गए शिक्षकों द्वारा अदम्य साहस और सूझबूझ से ईजाद किए गए विरोध तथा चेकोस्लोवाकिया में ’टैंक बनाम लोक” की कथा का विवरण है ।
किस्सा
१९७४ के पहले की बात है ,संभवतया ६९ की । पठानकोट में तरुण शान्ति सेना का प्रशिक्षण शिबिर हुआ था । जेपी मौजूद थे।शिबिर के बाद जेपी की आम सभा का प्रसंग है। ’लोकनायक’ बनने के पहले का।
कश्मीर , नागालैण्ड,तिब्बत जैसे मसलों पर जयप्रकाश के विचार , रवैया और कार्यक्रम काँग्रेस,जनसंघ या भाकपा से अलग होते थे । शेरे कश्मीर शेख अब्दुल्लह को नेहरू सरकार ने बरसों जेल में रखा था । विभाजन के तुरन्त बाद सरहद पार से हुए कबीलाई आक्रमण का मुकाबला करने तथा भारत में विलय का विरोध करने वाले जम्मू नरेश हरि सिंह के विरोध में नेशनल कॉन्फ्रेन्स की भूमिका सराहनीय थी । जिन दलों का जिक्र किया गया है वे सभी ’मजबूत-केन्द्र’ के पक्षधर रहे और हैं ।जयप्रकाश ने अपने सहयोगियों को शेरे कश्मीर से संवाद के लिए भेजा था।
जेपी की पहल पर नागालैण्ड शान्ति मिशन कीस्थापना हुई और इस अ-सरकारी प्रयास से पहली बार युद्ध विराम हुआ।
तिब्बत की निर्वासित जनता के हकों के बारे में जेपी को चिन्ता थी। ’६२ के हमले में देश की हजारों वर्ग मील जमीन पर चीन के कब्जे का मामला संसद में लोहिया,मधु किशन उठाते । संसद के बाहर तिब्बती इन्सान की आत्मा का स्वर जेपी द्वारा मुखरित होता था । बहरहाल, पठानकोट की जनसभा में मु्ष्टिमेय गणवेशधारियों ने नारे लगाये , ’ जयप्रकाश गद्दर है ’। लाहौर किले में दस दिन तक अंग्रेजो द्वारा जागा कर रखे गये अगस्त क्रान्ति के नायक जयप्रकाश ने अत्यन्र शान्त किन्तु दृढ़ आवाज में कहा , ’ जिस दिन जयप्रकाश गद्दार हो जाएगा,इस देश में कोई देश भक्त नहीं बचेगा ।’ जनता ने करतल ध्वनि से स्वागत किया । जेपी की आवाज फिर सुनाई दी , ’तालियाँ मत बजाइये’ । गनवेशधारी ने माहुल देख कर धीरे से खिदक लेना बेहतर समझा ।
खेल
’ तानाशाही को कैसे समझें ?’ पुस्तिका से कुछ अलफ़ाज़ नीचे लिए गए हैं । इन्हें अपने वाक्यों में इस्तेमाल कर टिप्पणी के रूप में भेजें ;
अहंकार , दर्प , हेकड़ी , घमण्ड , अविश्वास, शंका , अशिष्णुता , भय, भ्रम, जासूस,द्वेष,दमन और प्रतिकार ।
’खेल’ से अलग टिप्पणियों का भी हमेशा की तरह स्वागत है ।

मंगलवार, जून 19, 2007

रविजी , आप भी न भूलें,भागिएगा भी नहीं

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पिछले दिनों देबाशीष ने निरंतर पत्रिका के पुराने अंकों के बारे में एक अपील जारी की थी।अगर किसी पाठक ने संभाल कर रखे हों तो उन्हें देबाशीष ने माँगा था । अभी हाल में रविजी ने उन तरीकों के बारे में सूचना दी (कई लोग सूचना को ज्ञान का पर्यायवाची मान लेते हैं) कि संजाल पर खोज अब कितना विकसित हो गई है।

बहरहाल ,रविजी ने कल इन्टरनेट की स्मरण-शक्ति की याद दिलायी लेकिन नमूने उन्हीं पृष्टों के दिए जो आज भी संजाल पर मौजूद हैं । जिस पोस्ट को लेखक ने मेरी आपत्ति के बाद हटाया ,उस पर की गयी मेरी टिप्पणी को छापा ,मूल पोस्ट को न दे पाए।मैंने माँग की है कि वह मूल पोस्ट भी दें ।मेरे पास वह मूल पोस्ट बचा कर रखी हुई है और छाप कर भी।मैं यहाँ उसे नहीं दूँगा क्योंकि वह मुझे सार्वजनिक तौर पर प्रकट करने लायक नहीं लगती। मैंने भाषा की अभद्रता के कारण उस प्रविष्टि पर आपत्ति की थी,लगभग उसी शैली में। और रविजी का मानना था कि 'ऐसी भाषा विरले ही पाते हैं' । बालक को यदि अपनी अभोव्यक्ति और सृजन पर गर्व था तो उसे अपने चिट्ठे से नहीं हटाना चाहिए था।उसने हटा दी ,हटाने की बाद बहस की - जैसे राहुल की पोस्ट हटने के बाद हो रही है । उस लड़के ने मुझसे ईमेल भी चर्चा जारी रखी और गूगल चैट का भी निमन्त्रण दिया। मैं पहले बता चुका हूँ मेला-मेली और चैटा-चैटी का हवाला नहीं देना चाहता।

पोर्नोग्राफी या अभद्र भाषा की अभिव्यक्ति का मंच 'नारद' बने ,यह बहस फिलहाल नहीं है। रविजी चाहते हों तो चलायें,वह बहस अलग होगी। राहुल की पोस्ट पर भी मैंने उसी शैली में टिप्पणी की थी(वह पृष्ट भी बचा कर रखा है)। मैंने अन्य आपत्ति के अलावा बेंगाणी बन्धुओं के लिए प्रयुक्त अपशब्द से आहत हो उससे पूछा था ,' क्या पानी छूना बन्द कर दिया है ?' मेरा मानना है कि ऐसे दबाव से भी उसे वह पोस्ट हटानी पड़ती और खेद भी प्रकट करना पड़ता । चिट्ठा नहीं हटता।

रविजी , तानाशाही दक्षिणपंथी - वामपंथी या सैनिक हो सकती है - यह मेरी समझ है। कई गुण सामान्य होते हैं - हर प्रकार में पाए जाते हैं ।

उस पोस्ट पर तब जो चर्चा हुई थी , वह यहाँ दे रहा हूँ :

 

बेनाम कहा था...

Banarasi Saand ji
Aap ki aur Jitendra ji kee baten padhi. Samajhne ke liye poochh rahaa hoon- kaun se shabdon par 'charchaa' hai.... ?
mahendra

4 फ़रवरी, 2007 9:47 अपराह्न

 

 

सृजन शिल्पी कहा था...

आशा है आप मुझसे अपरिचित नहीं होंगे। मैं कुछ हद तक आपको जानता हूँ और आपकी उपर्युक्त बातों के तर्काधार को समझ सकता हूँ। मैंने काशीनाथ सिंह के रिपोर्ताज पढ़े हैं और उनकी भाषा पर हिन्दी साहित्य जगत में उठे विवाद से भी अवगत हूँ और मैनेजर पांडेय तो ख़ैर जेएनयू में हमलोगों के प्रोफेसर ही थे।
आप ऊर्जावान पत्रकार तो हैं ही और आपके चिट्ठे पर आपकी कविताओं एवं कमलेश्वर पर श्रद्धांजलि स्वरूप लेखों को पढ़कर कोई भी आपकी साहित्यिक एवं मानवीय संवेदना का कायल हो सकता है।
लेकिन अभी आप हिन्दी चिट्ठाकारी की व्यापक दुनिया से पूरी तरह परिचित नहीं हो पाए हैं। ऑनलाइन जगत में हिन्दी ब्लॉगिंग की शुरुआत करने और उसको लगातार समृद्ध करने में कई व्यक्तियों का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है, जिसमें माइक्रोसॉफ्ट से सम्मानित ब्लॉगर रविशंकर श्रीवास्तव, जिन्होंने आपके चिट्ठे को नारद से जोड़ने की संस्तुति की थी, और जीतेन्द्र चौधरी, जो दुनिया भर के हिन्दी चिट्ठाकारी पर लगातार नजर रखते हैं और उसे नारद के जरिए एकसूत्र में बाँधने का प्रयास करते हैं, का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
हिन्दी चिट्ठाकारी की अहमियत आज इतनी बढ़ गई है कि मुख्यधारा की मीडिया के बहुत से दिग्गज पत्रकार भी इसमें अब सक्रिय होने लगे हैं। इतना ही नहीं, अखबारों और न्यूज चैनलों में भी हिन्दी चिट्ठाकारों की ताकत को समझा जाने लगा है। ऑनलाइन हिन्दी जगत में यदि किसी नए चिट्ठाकार को व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचना है तो नारद से जुड़ना एक तरह से लाजिमी हो जाता है। कहते हैं न, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता।
आप होंगे बहुत बड़े लिक्खाड़। बहुतेरे हैं दुनिया में आप जैसे। आपकी भाषा में थोड़ी विनम्रता और शालीनता का पुट होगा तो उसकी कद्र होगी, नहीं तो आप अपना लिखा खुद ही पढ़ेंगे और अपनी सीमित चौकड़ी को खुद ही लिंक भेजकर पढ़वाएंगे।

5 फ़रवरी, 2007 1:19 पूर्वाह्न
नीरज दीवान कहा था...

होंगे आप लिखंतू-पढ़ंतू. मैनेजर पाण्डेय, राजेन्द्र यादव, काशीनाथ को पढ़ने का ये मतलब नहीं कि मैं उनका दत्तक पुत्र होने का दावा करने लगूं. लिक्खाड़ होने का यह मतलब नहीं कि व्यक्तिगत चरित्र विच्छेदन शुरू कर दिया जाए. और ये किड़िच पों आपने क्या लगा रखा है?? जिस अशुद्धतावाद के आप समर्थक हैं वो हम भलीभांति जानते हैं. उसी अंदाज़ में कहूं तो आप अपनी किड़िच-पों में उंगली डालकर फ्रांसिसी इत्र की ख़ुश्बू लेने की कोशिश कर रहे हैं.

5 फ़रवरी, 2007 3:30 पूर्वाह्न
Raviratlami कहा था...

भाई अभिषेक,
व्यक्तिगत तौर पर मुझे आपकी उपर्युक्त पोस्ट पर कोई आपत्ति नहीं थी, और उस पोस्ट को पढ़ने के बाद ही मैंने नारद पर जोड़ने के लिए कहा था. मुझे आपके उस पोस्ट में मेरे दृष्टिकोण में ऐसी कोई खराबी नजर नहीं आई थी, परंतु समाज के अन्य लोगों के विचार निश्चित रूप से भिन्न हो सकते हैं. नारद एक सार्वजनिक मंच है, जहाँ अन्य तमाम हिन्दी के चिट्ठाकार जुड़े हैं. वह एक चौपाल है, और उसमें जीतू भाई वही करते हैं जो चौपाल के सदस्यगण सम्मिलित निर्णय लेते हैं. भाषा पर किसी का एकाधिकार नहीं होता. मेरा बचपन ऐसे स्थल पर गुजरा है जहाँ एक बच्चा मां की गाली पहले बोलना सीखता है, बजाए मां बोलने के. इसके बावजूद मेरे मुँह से गाली नहीं निकलती. मैं आपके लिखे का मुरीद हूँ, और आपका लिखा पढ़ने में तत्व भी नजर आता है.
मगर आप भी यह समझेंगे कि नारद जैसे सामाजिक सार्वजनिक स्थलों पर भाषा मर्यादामयी रहे तो अच्छा. अब आप ये न समझें मैं आपको भाषा सिखा रहा हूँ. कतई नहीं. आपके जैसे लेखन का तेवर बिरलों को हासिल होता है.
उम्मीद है आप नारद की मजबूरियां समझेंगे. अभी तक हम नारद पर जैसे भी जिस किसी को भी नए हिन्दी चिट्ठों के बारे में पता चलता था, बिना पूछे जोड़ लेते थे. आगे से ध्यान रखेंगे कि चिट्ठाकारों से पूछ लिया जाए. साथ ही, नारद एक सार्वजनिक मंच है, जिसमें अक्षरग्राम, चौपाल चिट्ठाचर्चा इत्यादि सभी सम्मिलित हैं, आपकी भी सक्रिय भागीदारी अपेक्षित है.

5 फ़रवरी, 2007 3:31 पूर्वाह्न
बेनाम कहा था...

तो इस गालियों वाली आम जन की भाषा का प्रयोग आप घर पर ब्च्चों के समक्ष भी करते हैं या केवल इंटेरनेट को ही कृतार्थ कर रहे हैं? यह आम जन की परंपरा समाप्त न हो जाये इसका पूरा ख्याल रखा जाये इसके लिये बच्चों को इस तरह की गालियां सिखाना अत्यंत आवश्यक है।
आपका प्रयास सराहनीय है।

5 फ़रवरी, 2007 4:23 पूर्वाह्न
सृजन शिल्पी कहा था...

अभिषेक जी, यह नहीं समझ लीजिएगा कि हिन्दी चिट्ठा जगत में सेंसरशिप लागू है। चिट्ठाकारों के समूह में इस विषय पर आपसी चर्चा हुई है। आगे से नारद पर यह कोशिश की जाएगी कि यदि किसी पोस्ट पर कुछ आपत्तिजनक नोटिस किया जाता है तो केवल उस पोस्ट को नारद से हटा दिया जाए, पूरे चिट्ठे को नहीं।
बहरहाल यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप नारद से जुड़ना पसंद करते हैं या नहीं। नारद हिन्दी चिट्ठाकारों की एक सामूहिक संस्था है, जिससे 400 के करीबन हिन्दी चिट्ठे जुड़े हैं। इसी तरह गूगल ग्रुप पर चिट्ठाकार नामक समूह है जिसकी मेलिंग लिस्ट में लगभग 300 चिट्ठाकार जुड़े हैं।
चूंकि आपने नारद से जुड़ने के लिए पहले अनुरोध नहीं किया था, इसलिए आप अपनी जगह ठीक ही कह रहे होंगे। यह तो हम हिन्दी चिट्ठाकारों का ही उत्साहातिरेक है कि किसी बंदे को अच्छी हिन्दी में ऑनलाइन जगत में चिट्ठाकारी करते देख खुशी से भर जाते हैं और उसे अपने समूह में बिन बुलाए शामिल कर लेते हैं। आप इस हिन्दी-प्रेम और हिन्दी प्रेमियों से अनुराग की इस भावना को व्यंग्य करने लायक मानते हों तो बात दूसरी है।

5 फ़रवरी, 2007 6:42 पूर्वाह्न
indiaroad कहा था...

फिलहाल इस देश में जहां सब खरीद-फरोख्‍ती के दायरे में हैं, दोस्‍त, मुझे सृजनशिल्‍पी वाला नज़रिया थोडा वाजिब लगता है. अभिव्‍यक्ति व गुस्‍से के बीच भी संवाद का मंच थोडा फैला रहे, यह ज्‍यादा ज़रुरी है.

5 फ़रवरी, 2007 7:47 पूर्वाह्न
indiaroad कहा था...

भाई मेरे, मैं इस विवाद के डिटेल्‍स से तो बहुत परिचित नहीं, अलबत्‍ता तुम्‍हारे गुस्‍से का अंदाज़ हो सकता है. मगर प्‍यारे, जिस तरह हिंदी की दुनिया का कारोबार चलता है, उस कांटेक्‍स्‍ट में मुझे सृजनशिल्‍पी वाला नज़रिया ज्‍यादा वाजिब लगता है. मंच का विस्‍तार बने शायद वह भाव के साथ साथ स्‍ट्रेटिजी की भी बात है, नहीं?

5 फ़रवरी, 2007 7:58 पूर्वाह्न
Shrish कहा था...

सत्यवचन हिन्दी चिट्ठाजगत में नारद जी के आशीर्वाद बिना गति नहीं है। अतः इस बारे में विचार करें।
नहीं तो सृजनशिल्पी जी की बात सच हो जाएगी। ये अंग्रेजी ब्लॉगजगत नहीं कि पाठक गूगल आदि सर्च इंजनों से आएं।

5 फ़रवरी, 2007 1:59 अपराह्न

अभिषेक मीडिया-युग्म और अन्य चिट्ठों पर लिखता है । जैसी भाषा से रविजी को रस मिला वह मैंने रचनाकार भी अभी तक नहीं देखी।

शुक्रवार, जून 15, 2007

अकाल तख़्त को माफ़ी नामंजूर ?

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डेरा  सच्चा सौदा की माफ़ी अकाल-तख्त ने नामंजूर की । गुरु गोविन्दसिंह से क्यों माँगी माफी ? हमसे क्यों नहीं माँगी ? लगता है 'नारद पर प्रतिबन्धित चिट्ठे' के लेखक द्वारा सभी आहत चिट्ठेकारों से खेद प्रकट करने और नारद के फैसले से विरोध जारी रखने में ऐसी ही कोई जिच फँस गयी है । चिट्ठेकार ही पाठक हैं तो सर्वोपरि हुए, गुरु गोविन्दसिंहजी की तरह ।

इस दुर्भाग्यपूर्ण प्रसंग पर कार्रवाई करने में नारद द्वारा जितनी चुस्ती दिखाई गई थी , वह अब नदारद है । नारद से जुड़े चिट्ठों पर स्वस्थ बहस और विचारों की अभिव्यक्ति का गला कैसे - कैसे घोंटा जाता रहा है , पहले की मिसाल पेश है :

एक मार्च , २००७ को घुघूती बासूती ने एक जबरदस्त पोस्ट अपने चिट्ठे पर छापी । पोस्ट अभी भी मौजूद है । उस पर टिप्पणीयों में हुई बहस में दो प्रतिक्रियाओं पर आपत्ति आई। चिट्ठाकार भी चाहती थीं कि आपत्तिजनक टिप्पणियाँ हटा दी जाए , अन्य टिप्पणियाँ रहें । उन्हें ऐसा खुद करने में कुछ तकनीकी दिक्कत थी , नतीजन एक जिम्मेदार व्यक्ति ने यह काम कुछ ज्यादा उत्साह में कर दिया , सभी टिप्पणियों को हटा कर । गैर आपत्तिजनक टिप्पणियों के हटने से बहस को धक्का पहुँचा , और पाठक उन्हें पढ़ने से हमेशा के लिए वंचित हो गए । इस दुर्भाग्यपूर्ण कार्रवाई के बाद तीन टिप्पणियाँ उस चिट्ठे पर अंग्रेजी में की गयी हैं , जिनमें से कोई नारद पर प्रदर्शित चिट्ठों का लेखक नहीं है ।

' बाजार पर अतिक्रमण ' को नारद से हटाने के बाद उसी चिट्ठे पर लेखक द्वारा प्रकाशित खेद वक्तव्य की पोस्ट नारद पर प्रकट नहीं हुई है । लेखक ने अन्य चिट्ठे पर भी उसे प्रकाशित किया जो अब तक नारद से नहीं हटाये गये हैं ।

'प्रतिबन्धित चिट्ठे' की कड़ी को आज ही अपने चिट्ठे के ब्लॉग रोल में शामिल करना मेरा प्रथम दायित्व है । उस पर भी कार्रवाई की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। उस प्रविष्टी का विरोध मैंने और अनुभवी चिट्ठाकार आदरणीय धुरविरोधी ने उक्त चिट्ठे पर किया था ।सभी आहत लोग अपनी टिप्पणी दर्ज करते तब भी यह संभव था कि लेखक द्वारा खेद प्रकट कर दिया जाता। अब वह टिप्पणियाँ भी नारद की जल्दबाजी में की गयी कार्रवाई के भेंट चढ़ गयी। ताकि सनद रहे,वक्त पर काम दे हमने उसे अपने पास बचा लिया है। 'प्याज खाओगे या चप्पल खाओगे ?'  वाली सजा में दोनों खाना पड़ता है ।

कुछ चिट्ठेकारों ने ' नारद उवाच ' पर हुई टिप्पणियों में हुई बहस के चलते उक्त पोस्ट को भी हटाने की  माँग कर दी है।   बहस से भाग कर नारद जैसा मंच गलत दिशा में जाए इसकी सम्भावना बनती है।  उक्त टिप्पणी से यह मानसिकता प्रकट हुई है।

२६ जून की तारीख आ रही है जिस दिन १९७५ में सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित करने का दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया गया था । उस दु:शासन पर्व के दिन लदे जब आजादी की कीमत पहचान कर जनता ने उस हुकूमत को पलट दिया। सभी नागरिक आजादीपसन्द चिट्ठाकार उस दिन अपनी निष्ठा और संकल्प को पुख्ता करें । हांलाकि , हम नारद संचालक मण्डल द्वारा तत्काल उस चिट्ठे को बहाल कर दिए जाने की आशा पूरी तरह छोड़ नहीं पा रहे हैं ।

मंगलवार, जून 12, 2007

अपठित महान : महा अपठित

 

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[ चिट्ठाकारी पर पिछली पोस्ट से कुछ अनुदित सामग्री सम्पादित कर प्रस्तुत की जा रही है। हिन्दी चिट्ठेकारों ने विषय में रस लिया और बहस भी चलायी । आज निकोलस कार्र के चिट्ठे से यह बहुचर्चित वक्तव्य यहाँ दिया जा रहा है । ]

मंगलाचरण

    किसी जमाने की बात है चिट्ठालोक नामक एक टापू था जिसके बीचोबीच पत्थर का एक विशाल किला था । किले के चारों ओर मीलों तक टीन , गत्ते और फूस की मड़इयों में रहने वाले किसानों की बस्तियाँ थीं ।

भाग एक

    निरीह कपट का स्वरूप

    मैं जॉन केनेथ गालब्रेथ की लिखी एक छोटी किताब पढ़ रहा था,यूँ कह सकते हैं कि यह एक निबन्ध है -  '  निरीह कपट का अर्थशास्त्र ' ( Economics of Innocent Fraud ) . यह उनकी आखिरी किताब है जिसे उन्होंने अपनी जिन्दगी के नौवें दशक में , मरने के कुछ समय पहले ही पूरा किया । ( गालब्रेथ पूँजीवाद के प्रबल प्रवक्ता , पुरोधा और झण्डाबरदार रहे हैं । - अफ़लातून )। किताब में उन्होंने समझाया है कि अमेरिकी समाज कैसे 'पूँजीवाद' के लिए अब 'बाजार अर्थव्यवस्था' शब्द का इस्तेमाल करने लगा है । नया नाम पहले वाले से कुछ मृदु और नम्र है , मानो यह अन्तर्निहित हो कि अब आर्थिक सत्ता  उपभोक्ता की हाथों में आ गयी है बनिस्पत  पूँजी के मालिकों या  उनका काम करने वाले प्रबन्धकों के । गालब्रेथ इसे निरीह कपट का सटीक उदाहरण मानते हैं ।

  निरीह कपट भी एक झूठ है जो काला नहीं सफ़ेद होता है । यह सभी को खुशफ़हमी में रखता है । यह एक ओर ताकतवर लोगों के मन माफ़िक होता है क्योंकि यह उनकी पूरी सत्ता को ढँक देता है , वहीं सत्ता विहीन लोगों के मन माफ़िक इसलिए होता है कि उनकी सत्ताहीनता को भी आवृत कर देता है ।

    चिट्ठालोक के बारे में हम खुद को कहते हैं कि - नियन्त्रित और नियन्ता जन-सम्प्रेषण माध्यम के मुकाबले यह माध्यम खुला , लोकतांत्रिक और समतामूलक है । ऐसा कहना निरीह कपट है ।

भाग दो

    लम्बी पूँछ वाले चिट्ठाकारों का अकेलापन

    निरीह कपट की विशेषता हाँलाकि यह है कि इसके आर - पार दिखाई पड़ता है , परन्तु अक्सर लोग आर - पार न देखने की कोशिश करते हैं , और कुछ लोगों के लिए कभी - यह कोशिश भी व्यर्थ रह जाती है । कुछ दिनों पहले चिट्ठाकार केन न्यूसम ने सवाल खड़ा किया : " हमारे चिट्ठों के पाठक कौन हैं ? " उसके जवाब में अवसाद की झलक थी :

    चिट्ठालोक में चिट्ठेकारों के बीच ध्यान खींचने की ऐसी होड़ लगी रहती है कि आभास होता है कि यह एक बहुत बड़ी-सी जगह है , मानो मछली बाजार । यह केवल आभास है दरअसल एक बड़े हॉल के आखिरी छोर पर बने एक छोटे से कमरे में हम सब पहुँच जाते हैं। जब लोग संवाद बनाने से इन्कार करते हैं किन्तु किसी हद को पार कर अपने चिट्ठे की कड़ी लगवाना चाहते हैं तब थोड़ा कष्ट जरूर होता है । यह कष्ट तब तक जारी रहता है जब तक मुझे इस बात का अहसास नहीं हो जाता कि , ‘ चलो मेरी बात न सुने भले , वास्तविक जगत में कोई उन्हें भी तो नहीं सुन रहा ‘ ।

    मुझे गलत मत समझिएगा -  लिखने में मुझे रस मिलता है । कभी - कभी जब हम कुछ लिख कर चिट्ठे पर डाल देते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि कोई टिप्पणी आएगी अथवा कोई उस पोस्ट की कड़ी उद्धृत कर देगा , तब एक अजीब  अवसाद-सा तिरता है , माहौल में।

    मूष्टिमेय लोगों ने इस प्रविष्टि पर अपनी राय प्रकट की जिनमें लम्बे समय से चिट्ठाकारी कर रहे सेथ फ़िन्कल्स्टीन भी थे । फ़िन्कल्स्टीन के स्वर में कहीं अधिक निराशा का पुट था।उनकी प्रतिक्रिया में तथ्य को स्वीकार कर लेने के साथ एक कटुता भी देखी जा सकती है जो किसी कपट की पोल खुलने पर प्रकट होती है  :

व्यक्तिगत तौर पर बताऊँ तो यह कह सकता हूँ कि मैं इन कारणों से लिखता था :

  1. मुझे यह कर मूर्ख बनाया गया कि चिट्ठे खुद की आवाज सुनाने के लिए तथा मीडिया का विकल्प के रूप में  होते हैं ।
  2. मुझे भ्रम था कि यह प्रभावशाली है ।
  3. कभी-कदाच ध्यान खींच लेने पर यह बहुत असरकारक साधन लगने लगता है , यथार्थ से बढ़कर ।
  4. यह स्वीकृति कष्टपूर्ण है कि आपने इतना समय और प्रयत्न जाया किया लेकिन कोई आप की सुनता नहीं ।

        चिट्ठाकारी को धार्मिक सुसमाचार (Blog Evangelist) मानने की निष्ठा अत्यन्त क्रूर होती है चूँकि वह लोगों की कुण्ठित उम्मीदों और ख्वाबों का शिकार करती है ।

       मेरा चिट्ठा कुछ दर्जन प्रशंसकों द्वारा पढ़ा जाता है । कई बार बन्द करने की नौबत आई है और आखिरकार वह चरम-बिन्दु भी आ ही जाएगा ।

 

    किसी निरीह कपट के स्थायी हो जाने पर ताकतवर लोगों का बड़ा  दाँव लगा होता है, ताकतहीन लोगों की बनिस्पत । ताकतहीन लोगों द्वारा इस कपट के प्रति अविश्वास को टालते रहने को निलम्बित करने के काफ़ी समय बाद तक ताकतवर इस कपट से लिपटे रहेंगे , सच के विकल्प की अनुगूँज सुनाने वाले एक  कक्ष में एक दूसरे को अन्तहीन समय तक यह सुनाते हुए ।

उपसंहार

        एक दिन एक चिट्ठा-किसान लड़के को अपनी मड़ई के निकट धूल के ढेर में एक स्फटिक का गोला पड़ा मिला । उस गोले में झाँकने पर वह चकित हो गया , उसने एक चलचित्र देखा । व्यापारिक पोतों का एक बेड़ा चिट्ठालोक के बन्दरगाह में प्रवेश कर रहा था।जहाजों पर वे नाम अंकित थे जो टापू भर में हमेशा से घृणा की दृष्टि से देखे जाते थे । टाइम-वॉर्नर और न्यूज कॉर्प और पियरसन और न्यू यॉर्क टाइम्स और वॉल स्ट्रीट जर्नल और कोन्डे नोस्ट और मैक्ग्रॉ हिल । चिट्ठा -किसान तट पर जुट गए , जहाजों पर ताने मारते हुए ,आक्रमणकारियों को ललकारा कि हमारे बड़े किले के ठाकुरों द्वारा तुम्हारा बेड़ा शीघ्र गर्क कर दिया जाएगा । व्यापारिक पोतों के जहाजों के कप्तान सोने से भरे टोकरे ले कर जब किले के द्वार तक पहुँचे , तब उन्हें ठाकुरों  की तोपों का सामना करने के बजाए तुरही-नाद सहित स्वागत मिला । चिट्ठा - किसानों को रात भर महाभोज से आने वाली ध्वनियाँ सुनाई देती रहीं ।

 

 

   

रविवार, जून 10, 2007

चिट्ठे इन्कलाब नहीं लाते !

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[ ' बम और पिस्तौल इन्कलाब नहीं लाते '- शहीदे आजम भगत सिंह का यह बयान जैसे कइयों के गले नहीं उतरता वैसे ही कुंजी-पटल के योद्धा यह सुनना नहीं चाहेंगे कि ' चिट्ठे इन्कलाब नहीं लाते ' । ऐसा मानने वाले कुछ स्थापित चिट्ठेकारों के विचार यहाँ दिए जा रहे हैं । सेथ फिंकल्स्टीन , केन्ट न्यूसम , निकोलस कार आदि कई प्रमुख चि्ट्ठेकार इस मत के हैं । ]

सेथ फिंकलस्टीन

दमनकारी सरकारों द्वारा सेन्सरवेयर ( सेन्सर हेतु इस्तेमाल किए जाने वाले सॉफ़्टवेयर ) का इस्तेमाल अब वैधानिक नीति का हिस्सा बन चुका है । इस बाबत संगोष्ठियाँ आयोजित हो रही हैं , सिफ़ारिशें दी जा रही हैं तथा लेख लिखे जा रहे हैं । वैश्विक - सेन्सरशिप के विरुद्ध लड़ाई में हमारा क्या योगदान हो सकता है ? - इसका जवाब लोग जानना चाहते हैं ।

दुर्भाग्यवश मेरे उत्तर लुभावने नहीं हैं । गैर सरकारी संस्थाओं , थिंक टैंक्स और शैक्षणिक संस्थाओं में श्रेणी बद्धता है तथा इनमें प्रवेश-पूर्व बाधायें भी होती हैं , जिन्हें पार करना पड़ता है । बरसों पहले जब इन्टरनेट का विस्तार कम था तब किसी व्यक्ति द्वारा खुद को सुनाने का मकसद ज्यादा विस्तृत तौर पर पूरा होता था । इन्टरनेट के व्यापक समाज का हिस्सा बन जाने के बाद एक अदद व्यक्ति की हैसियत और असर उसी तरह हाशिए पर पहुँच गया है जितना समाज में व्यक्ति का होता है । ऐसा नहीं कि किसी भी व्यक्ति की आवाज बिलकुल ही न सुनी गई हो - परन्तु यहाँ भी स्थापित सामाजिक संगठनों के ढ़ाँचे की सत्ता आम तौर पर हावी हो जाती है ।

ब्लॉग कोई हल नहीं हैं । धार्मिक सुसमाचारों की तरह ब्लॉगिंग- निष्ठा रखने वालों (Blog evangelists ) की आस्था के विपरीत कई बार ब्लॉग असर डालने में बाधक बन जाते हैं । अत्यन्त विरले जो ब्लॉग्स के जरिए ठोस असर डालने में कामयाब हो जाते हैं - उनकी कहानी को व्यापक तौर पर 'सक्सेस स्टोरी' के तौर पर प्रचार मिलता है । इस परिणाम के दूसरे बाजू की व्यापक चर्चा नहीं हो पाती है - सभी लोग जो अपने हृदय उड़ेल कर चिट्ठे लिखते हैं , एक छोटे से प्रशंसक पाठक वर्ग की दायरे के बाहर कभी पढ़े नहीं जाते हैं ।

ब्लॉग सुसमाचारी इस स्थिति पर आम तौर पर यह कहते पाए जाएँगे कि इन सीमित भक्तों से खुश रहना मुमकिन है । अमूमन वे यह नहीं कहना चाहते कि एक सीमा से आगे न पढ़ा जाना दु:ख का कारण भी हो सकता है । एक चुनिन्दा छोटे समूह की बीच ही अपनी बात कहते रहने के कारण अपने विचारों की पहुँच की बाबत उनके दिमाग में भ्रामक धारणा भी बन सकती है।

केन न्यूसम

किन के लिए लिखते हैं चिट्ठेकार ? आपने खुद से कभी यह सवाल किया है? मैंने कुछ दिनों से इस पर गहराई से सोचना शुरु किया है ।

झटके में इसका जवाब देने वाले कहेंगे - अलग - अलग लोग अलग-अलग कारणों से लिखते हैं । कुछ अपने व्यवसाय के हित में लिखते हैं और कुछ स्वान्त:सुखाय ।

यह सवाल मैं कुछ बुनियादी तौर पर पूछता हूँ । हमारे चिट्ठों के पाठक कौन हैं ? हमने जिन पाठकों को ध्यान में रख कर लिखा है वे नहीं , वास्तविक पढ़ने वाले कौन हैं ?

मेरा जवाब है हम (चिट्ठेकार) अमूमन एक - दूसरे के लिए ही लिखते हैं । हमारे पाठक ज्यादातर चिट्ठेकार ही होते हैं , कभी-कदाच मित्र और रिश्तेदार पढ़ लेते हैं ।

मुझे गलत मत समझिएगा - लिखने में मुझे रस मिलता है । कभी - कभी जब हम कुछ लिख कर चिट्ठे पर डाल देते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि कोई टिप्पणी आएगी अथवा कोई उस पोस्ट की कड़ी उद्धृत कर देगा , तब एक अजीब अवसाद-सा तिरता है , माहौल में।

चिट्ठालोक की क्रिया - प्रतिक्रिया देने की विशिष्टता को अक्सर हम लोग कुछ ज्यादा बढ़ा- चढ़ा कर पेश करते हैं । यह सही है कि चिट्ठे कुछ हद तक क्रिया - प्रतिक्रिया देते हैं लेकिन संवाद स्थापित करने के लिए यहाँ भी आप को कुछ बाधायें पार करनी पड़ती हैं । आप को टिप्पणियाँ देने और असरकारी पोस्ट लिखने के लिए समय लगाना पड़ता है और कोशिश भी करनी पड़ती है । और जब ढेर सारे लोग एक विषय पर अपनी ढ़पली अपने राग में बजाने लगते हैं तब कई बातें इस शोर में गुम भी हो जाती हैं ।

चिट्ठालोक में चिट्ठेकारों के बीच ध्यान खींचने की ऐसी होड़ लगी रहती है कि आभास होता है कि यह एक बहुत बड़ी-सी जगह है , मानो मछली बाजार । यह केवल आभास है दरअसल एक बड़े हॉल के आखिरी छोर पर बने एक छोटे से कमरे में हम सब पहुँच जाते हैं। जब लोग संवाद बनाने से इन्कार करते हैं किन्तु किसी हद को पार कर अपने चिट्ठे की कड़ी लगवाना चाहते हैं तब थोड़ा कष्ट जरूर होता है । यह कष्ट तब तक जारी रहता है जब तक मुझे इस बात का अहसास नहीं हो जाता कि , ' चलो मेरी बात न सुने भले , वास्तविक जगत में कोई उन्हें भी तो नहीं सुन रहा ' ।

( जारी )