शुक्रवार, सितंबर 29, 2006

क्रांतिकारी दिनेश दासगुप्त :ले. अशोक सेकसरिया

जन्म ५नवंबर १९११ ,
निधन २३ अगस्त २००६
दिनेश दासगुप्त : एक परिचय , लेखक - अशोक सेकसरिया
अगर सच्चे अर्थों में किसी को क्रांतिकारी समाजवादी कहा जा सकता है तो दिनेश दासगुप्त के नाम का स्मरण आयेगा ही . १६ वर्ष की उम्र में वे मास्टरदा सूर्य सेन के क्रांतिकारी दल से जुडे तो अंत तक समाजवादी आंदोलन से . दिनेशदा की राजनीति आजादी के पहले देश को गुलामी से मुक्त करने की थी और आजादी के बाद देश में एक समतावादी समाजवादी समाज स्थापना की . इस संघर्षशील राजनीति में उन्होंने गुलाम भारत में और आजाद भारत में बार - बार कारावास वरण किया .
दिनेश दासगुप्त का जन्म ५ नवंबर १९११ को हुआ . १६ वर्ष की उम्र में वे मास्टरदा सूर्य सेन की इंडियन रिपब्लिकन पार्टी में भर्ती हो गये और अप्रैल १९३० के चट्गांव शस्त्रागार अभियान में सक्रिय रूप से भाग लिया . चटगांव शस्त्रागार अभियान के बाद ब्रिटिश सरकार के खिलाफ धौलाघाट में गुरिल्ला युद्ध में वे ब्रिटिश सेना द्वारा गिरफ़्तार कर लिये गए और उन्हें दस साल की जेल की सजा दे कर १९३२ में अंडमान सेल्यूलर जेल भेज दिया गया . इस जेल में उन्होंने कई बार भूख हडताल की . १९३८ में दिनेशदा और उनके सथी रिहा किए गए तो कुछ साथी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए पर दिनेशदा के मन में अंडमान जेल में रहते सरकार द्वारा अंडमान बंदियों के बीच मार्क्सवादी साहित्य के वितरण और अपने कुछ साथियों के देश की आजादी की लडाई को प्राथमिकता न देने के कारण कम्युनिस्टों के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया और वे कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल न हो कर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गये और चटगांव जिले में कांग्रेस सोशलिस्ट पर्टी का संगठन बनाने में जुट गये . १९४० में रामगढ कांग्रेस से लौटते हुए उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया और १९४६ में कांग्रेस के सारे नेताओं की रिहाई के बाद उन्हें रिहा किया गया . छह साल के कारावास में उन्हें हिजली (मेदनीपुर ) जेल , भूटान के निकट बक्सा किले और ढाका जेल में रखा गया.इस कारावास में भी उन्होंने भूख हडतालें कीं .
आजादी के बाद कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की पश्चिम बंगाल शाखा और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी , संसदीय बोर्ड के सदस्य और सेक्रेटरी व अध्यक्ष के पद पर बैठाये गये . किसी पद पर बैठना दिनेशदा ने कभी नहीं चाहा . पदों के लिए झगडा होने पर उन्हें पद पर बैठना पडता था . १९७७ में जनता पार्टी की सरकार बनी तो कुछ साथियों ने उनसे आग्रह किया कि वे ओडिशा या बिहार का राज्यपाल बनें तो उन्होंने इन साथियों को झिडक कर कहा कि क्या तुम लोग मुझे सफेद हाथी बनाना चाहते हो . दिनेश दा अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो एक साथ नेता और कार्यकर्ता दोनों थे .
जब डॊ. रममनोहर लोहिया ने प्रजा सोशलिअट पार्टी से अलग हो कर सोशलिस्ट पर्टी की स्थापना की तो दिनेश दा उसमें चले आये . सोशलिस्ट पार्टी के सारे आंदोलनात्मक कार्यों में वे मनप्राण से जुटे रहे . इन आंदोलनों में उन्होंने बार - बार कारावास वरण किया . अंग्रेजी हटाओ आंदोलन , दाम बांधो आंदोलन , ट्रेड यूनियन आंदोलन ,मेहतर आंदोलन , आदिवासी आंदोलन आदि में वे लगातार सक्रिय रहे . बांग्ला में लोहिया साहित्य प्रकाशन के लिए उन्होंने राममनोहर लोहिया साहित्य प्रकाशन की स्थापना की .
१९७१ में बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन में वे लगातार सक्रिय रहे . उन्होंने मुक्ति युद्ध के दौरान कई बार बांग्लादेश की गुप्त यात्राएं की . शेख मुजीबुर रहमान तक ने बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन में उनके अवदान की चर्चा की थी . १९७५ में एमरजेन्सी में जेल से रिहा होने के बाद वे जनता पार्टी में शामिल हुए . जनता पार्टी के भंग होने के बाद वे ज्यादातर आदिवासियों के बीच काम करते रहे .
२००४ तक दिनेश दा पूरी तरह सक्रिय रहे . १५ अगस्त २००३ को स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने जो स्वागत समारोह आयोजित किया था,उस उस समारोह में वे सिर्फ इस उद्देश्य से गये थे कि राष्ट्रपति से सीधे निवेदन करें कि अंडमान शहीद पार्क का सावरकर पार्क नामांतरण रद्द किया जाए.उन्होंने राष्ट्रपति को स्पष्ट शब्दों में कहा शहीद पार्क में सावरकर की मूर्ति बैठाना तो शहीदों का घोर अपमान है क्योंकि सावरकर शहीद तो हुए ही नहीं उलटे उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफी मांगकर जेल से मुक्ति पायी और फिर देश के स्वाधीनता संग्राम में भाग ही नही लिया . इसी आशय का एक पत्र उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी लिखा .
२००४ से दिनेश दा बीमार रहने लगे और दो बार तो मरते मरते बचे . आजीवन अविवाहित दिनेश दा की पिछले दस वर्षों से श्री अनाथचन्द्र सरकार ,उनकी पत्नी माया सरकार , दोनों बेटियां चुमकी और पिंकी ने जो सेवा की वह अविस्मरणीय है . सारे समाजवादी ,अनाथचन्द्र सरकार परिवार के प्रति कृतग्य है .
इस २३ अगस्त २००६ को दिनेश दा चले गए लेकिन आजाद भारत में समाजवादी समाज का उनका सपना अभी भी बन हुआ है .

सोमवार, सितंबर 25, 2006

परिचर्चा पर बहस जारी है

कृपया इस प्रविष्टि को नीचे से ऊपर पढें
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खालीपीली
आसक्त

From: चेन्नई
Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीसिर्फ एक ही बात कहना चाहुंगा ! मातृभाषा का सम्मान जरूरी है। हिन्दी का सम्मान करना चाहिये ज्यादा से ज्यादा उपयोग करना चाहिये। लेकिन इसकी आड मे किसी और भाषा का विरोध सही नही है।
आमतौर पर हिन्दी समर्थक अंग्रेजी विरोध पर उतर आते है जो कि गलत है। अंग्रेजी एक अंतराष्ट्रीय भाषा है जो एक सत्य है और हमे इसे स्वीकार करना होगा।
अपने बच्चो को आप जिस भाषा मे भी शिक्षा देना चाहे दिजिये लेकिन उसे मातृभाषा की शिक्षा भी दिजीये। उसे अपनी मातृभाषा के साहित्य से परिचित कराईये। हो सके तो उसे कोई तिसरी या चौथी भाषा भी सिखाईये।


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आशीष
जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं !
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#15 23-09-2006 12:22:54
खालीपीली
आसक्त

From: चेन्नई
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीएक बात और : ये एक भ्रम है कि हिन्दी माध्यम के विद्यार्थीयो को पिछडा समझा जाता है। मैने १२ वी तक हिन्दी माध्यम से शिक्षा प्राप्त की है।
मुझे ऐसा कभी महसूस नही किया है।


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आशीष
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#16 23-09-2006 14:19:31
amit
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From: आकाशगंगा के दूसरे छोर पर
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीअफ़लातून wrote:
अमित भाई,भागना मत,अभी उच्च ग्यान पर भी 'असला' का तसला लिए बैठे हैं.

भागना हमने नहीं सीखा, आपकी बात मैं नहीं जानता, लेकिन इतना है कि अभी हम आराम से बैठे मौज से आप लोगों का आलाप सुन/पढ़ रहे हैं, जब हम शुरू होंगे तो भागने की जगह आपको नहीं मिलेगी ऐसा हमारा मानना है।


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#17 Yesterday 04:39:39
rachana
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भी"सिर्फ एक ही बात कहना चाहुंगा ! मातृभाषा का सम्मान जरूरी है। हिन्दी का सम्मान करना चाहिये ज्यादा से ज्यादा उपयोग करना चाहिये। लेकिन इसकी आड मे किसी और भाषा का विरोध सही नही है।"
आशीष जी, मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ..हिन्दी का सम्मान करने के लिये किसी और भाषा का अपमान करें ये ठीक नही है..और विभीन्न भाषाएँ सीखने की आपने जो बात कही, तो मै समझती हूँ हम भारतीय स्वाभाविक रूप से बहुभाषी होते हैं..आम पढे लिखे भारतीय को सम्भवत: ४ भाषाएँ आती है..हिन्दी,अन्ग्रेजी,अपनी भाषा(घर मे बोली जाने वाली) और जिस प्रदेश मे वह काम करता है..यदि ये सब वह बोल नही पाता तो कम से कम समझ तो लेता ही है..
"एक बात और : ये एक भ्रम है कि हिन्दी माध्यम के विद्यार्थीयो को पिछडा समझा जाता है। "
इस सिलसिले मे पिछ्ले दिनों एक खबर चली थी कि १० वीं मे ९७% अंक मिलने पर भी एक छात्रा को, दिल्ली की एक स्थापित शाला मे प्रवेश से इन्कार कर दिया क्यों कि वो "फर्राटेदार" अन्ग्रेजी बोल पाने मे असमर्थ थी..बाद मे बहुत किरकिरि होने पर उसे प्रवेश दिया गया,,जो शायद उसने ठुकरा दिया..ठीक उसी दिन मैने टी वी पर देखा कि हमारे एक केन्द्रिय मन्त्री "मीडीया" से बात करते हुए कह रहे थे कि उनसे प्रश्न सिर्फ अन्ग्रेजी मे पूछे जाएँ,वो हिन्दी नही समझ पाते!!
और आपने कहा कि आप १२ वी तक हिन्दी मे पढे हैं,मुझे लगता है
कि जिन लोगों कि वजह से भारत मे "बूम" हुई है वे ज्यादातर लोग
१२वी तक हिन्दी मे ही पढे होंगे!

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#18 Yesterday 04:47:16
अफ़लातून
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीभाषा विशेष से चिढने का सवाल नहीं है,न कभी था.शासन और शोषण के औजार के रूप में भाषा के प्रयोग का विरोध है .गांधी और लोहिया भी भाषा के रूप में अंग्रेजी का विरोध नहीं करते थे.उसके स्थान पर जरूर बहस चलाते थे.
"अंग्रेजी आन्तर-राष्ट्रीय व्यापार की भाषा है , वह कूट्नीति की भाषा है,उसका साहित्यिक भंडार बहुत समृद्ध है और वह पश्चिमी विचारों और संस्कृति से हमारा परिचय कराती है .इसलिए हम में से कुछ लोगों के लिए अंग्रेजी भाषा का ग्यान आवश्यक है . वे लोग राष्ट्रीय व्यापार और आन्तर-राष्ट्रीय कूट्नीति के विभाग तथा हमारे राष्ट्र को पश्चिमी साहित्य ,विचार और विग्यान की उत्तम वस्तुएं देने वाला विभाग चला सकते हैं! वह अंग्रेजी का उचित प्रयोग होगा , जब कि आज अंग्रेजी ने हमारे हृदयों में प्रिय सेप्रिय स्थान हडप लिया है और हमारी मतृभाषाओं को अपने अधिकार के स्थान से हता दिया है . अंग्रेजी को जो यह अस्वाभाविक स्थान मिला गया है , उसका कारण है अंग्रेजों के साथ हमारे असमान संबन्ध . अंग्रेजी के ग्यान के बिना भी भारतीयों के दिमाग का ऊंचे से ऊंचा विकास होना चहिए हमारे लडकों और लडकियों को यह सोचने के लिए प्रोत्साहित करना कि अंग्रेजी के ग्यान के बिना उत्तम समाज में प्रवेश नही मिल सकता , भारत के पुरुषत्व और्खास करके स्त्रीत्व की हिंसा करना है. (यंग इंडिया ,२.२.१९२१)
"अंग्रेजी को कहां से हटाना है? इसके बारे में पढे लिखे लोग मजाक कर दिया करते हैं . मैं साफ़ कर देना चाहता हूं कि हमारा यह मक़सद नही है कि इंग्लिस्तान या अमेरिका से अंग्रेजी को हटाया जाए.वहां यह भाषा अच्छी है,बढिया है,कभी कभी मुझे भी वहां बोलने में मज़ा आता है.हिन्दुस्तान में भी इसे पुस्तकालयों से नही हटाना है.पुस्तकालयों में अंग्रेजी भी रहे ,हिन्दुस्तानी के अगल बगल में जर्मन रहे ,रूसी रहे.और ये ही क्यों रहें,चीनी रहे ,अरबी रहे ,फ़ारसी भी रहे.
लेकिन आज सरकार के मालिक बहस को ईमान्दारी से चला नहीं रहे हैं .
...अंग्रेजी को हटाना है अदालत से.अंग्रेजी को हताना है उच्च न्यायालय से,सर्वोच्च न्यायालय से,सरकारी दफ़्तरों से,रेल - तार-पल्टन से,हिन्दुस्तान के हर एक सार्वजनिक काम से-जिसमें कि हिन्दुस्तान का हर एक सार्वजनिक काम अपनी मातृभाषा के माध्यम से हो सके.इस पर बहस करो." लोहिया,हैदराबाद,१९६२
.."साधारण तौर पर देश में अंग्रेजी हटाओ वालों को यह कहके बदनाम किया जाता है कि ये तो हिन्दी वाले हैं.यह बात अब बिलकुल साफ़ हो गयी है कि हम तेलगु वाले भी हैं , हम तमिल वाले भी हैंहम बंगाली वाले भी हैं..अंग्रेजी हटाने का मतलब है हिन्दी को चलाना,तो मै यह ही कहूंगा कि वे जानबूझकर इस धोखेबाजी को फैला रहे हैं." लोहिया,हैदराबाद,१९६२(सागर भाई ,इसी प्रचार के कारण जयललिता जैसे चिढते हैं.बहरहाल अंग्रेजी के कारण होने वाले नुकसान को अब दक्षिण मे भी समझा जा रहा है.हैदराबाद में किसी समय चिकित्सा विग्यान की पूरी पढाई उर्दू मे होती थी.महाराष्ट्र के औरंगाबाद या मराठवाडा इलाके में इसीलिए लोग राज्य के अन्य इलाकों से बेहतर हिन्दुस्तानी समझी-बोली जाती है.)


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समाजवादी जनपरिषद,उ.प्र.
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#19 Yesterday 07:29:23
nahar7772
ज्ञानी आत्मा

From: हैदराबाद, भारत
Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीखालीपीली wrote:
एक बात और : ये एक भ्रम है कि हिन्दी माध्यम के विद्यार्थीयो को पिछडा समझा जाता है। मैने १२ वी तक हिन्दी माध्यम से शिक्षा प्राप्त की है।
मुझे ऐसा कभी महसूस नही किया है।

आशीष भाई
"जाके पैर ना फ़टे बिवाई"........ वाली बात है यह मैने अपनी बात कही थी यह सारे लोगों के लिये लागू नहीं होती और एक घटना तो रचना जी ने बता भी गी है।बाकी अब एक दो घटनाओं का वर्णन चिट्ठे पर करूंगा, जिसमें अंग्रेजी के जानकार किस तरह हिन्दी को दोयम दर्जे की मानते हैं बताने का प्रयास करूंगा।
मैने भी यह नहीं कहा की अंग्रेजी नहीं पढ़ना चाहिये मुझे खुद को अंग्रेजी नहीं जानने का दुख: है, जिसकी वजह मैं आगे लिख भी चुका हुँ, देखें:


कभी कभी यह लगता है कि मुझे अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान तो होना ही चाहिये क्यों कि अन्तरजाल पर जो खजाना भरा पड़ा है उसका मैं पूरा लाभ नहीं उठा पाता।

मैने आगे यह लिखा था देखें:


हमारी शिक्षा का माध्यम हमारे देश की भाषा ही होना चाहिये नहीं कि विदेशी भाषा! साथ में अंग्रेजी भी होनी चाहिये परन्तु पूरक के रूप में,नहीं की मुख्य भाषा के रूप में।

पता नहीं अक्सर यह क्यों होता है कि हिन्दी के समर्थन की बात को अंग्रेजी का विरोध मान लिया जाता है।


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सागर चन्द नाहर

Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीnahar7772 wrote:
पता नहीं अक्सर यह क्यों होता है कि हिन्दी के समर्थन की बात को अंग्रेजी का विरोध मान लिया जाता है।

सागर जी, ऐसा नहीं है कि हिन्दी के समर्थन को अंग्रेज़ी का विरोध माना जाता है, परन्तु जब सीधे सीधे कहा जाए कि अंग्रेज़ी क्यों सीखें और "अंग्रेज़ी सीख कौन सा किला फ़तह कर लिया या कर लोगे" तो उसे और क्या समझा जाए? हिन्दी समर्थन ऐसी टुच्ची टिप्पणियों के बगैर भी किया जा सकता है। गांधी के समय की बात करना हर रूप में जायज़ नहीं है। उनके समय में भारत अंग्रेज़ों का गुलाम था और वे लोग अंग्रेज़ों की प्रत्येक चीज़ का विरोध करते थे, भाषा को क्यों छोड़ते भला? उस समय में भारत उतना विकसित नहीं था जितना आज है।

लोग चीन, जापान, रूस, इस्राईल आदि का उदाहरण देते हैं कि उन्होंने अपनी भाषा के द्वारा ही इतनी तरक्की करी और भारत अंग्रेज़ी के चक्कर में पड़ा यह ना कर पाया। इसे सीधे सीधे अंग्रेज़ी पर बेवजह आघात नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? अंग्रेज़ी भाषा तो नहीं कहती कि हम उसे सीखें और प्रयोग करें, तो उसे उलाहना क्यों? जो लोग इन देशों की तरक्की का ढोल पीटते हुए अपने देश के पिछड़ा होने का दोष अंग्रेज़ी मोह पर लादते हैं क्या उन्हें इतनी समझ नहीं कि चाहे चीन हो या जापान, रूस हो या इस्राईल, इन देशों में जिस कार्य को करने का निर्णय लिया जाता है वह किया जाता है, हमारे देश की तरह लालफ़ीताशाही और नौकरशाही के जाल में फ़ंस वह दम नहीं तोड़ता। चीन तरक्की पर इसलिए है कि वहाँ पर यहाँ की तरह नेता लोग मौज नहीं लेते, हुक्मउदुली की सज़ा वहाँ केवल एक है। चोरी करने जैसे अपराध पर जहाँ गोली मार दी जाती है वहाँ लोग अपना काम करते हैं, टाईमपास नहीं करते। कहने का अर्थ है कि उनकी तरक्की का भाषा से कोई लेना देना नहीं है। यदि ऐसा ही होता तो जापान में लोग आज भी पुराने समय के जैसे किमोनो पहन घूम रहे होते ना कि पश्चिमी कपड़े!!

आसक्त

From: नागौर, राजस्थान
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीnahar7772 wrote:
पता नहीं अक्सर यह क्यों होता है कि हिन्दी के समर्थन की बात को अंग्रेजी का विरोध मान लिया जाता है।

नाहरजी मैं आपकी बात से सहमत हूँ ॰॰॰

कोई भाषा प्रेमी नहीं चाहेगा कि अन्य भाषा का विरोध किया जाये परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि अपनी भाषा का अस्तीत्व खो रहा हो तो उसे बचाने की चेष्ठा भी ना करे। हिन्दी प्रेमी अगर चाहते हैं कि हिन्दी भाषा को भी उतना ही सम्मान मिलें जितना अंग्रेजी भाषा को मिल रहा है तो इसमें बुरा क्या है???

आखीर अपनी भाषा की उन्नति देखना कौन नहीं चाहता???


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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीgrjoshee wrote:
कोई भाषा प्रेमी नहीं चाहेगा कि अन्य भाषा का विरोध किया जाये परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि अपनी भाषा का अस्तीत्व खो रहा हो तो उसे बचाने की चेष्ठा भी ना करे। हिन्दी प्रेमी अगर चाहते हैं कि हिन्दी भाषा को भी उतना ही सम्मान मिलें जितना अंग्रेजी भाषा को मिल रहा है तो इसमें बुरा क्या है???

कोई बुराई नहीं है, लेकिन दूसरी भाषा ने आपका क्या बिगाड़ा है जो उसे भला-बुरा कहा जाए? आपकी भाषा को कोई ऐसे भला-बुरा कहे तो कैसा लगेगा? यकीनन अच्छा नहीं लगेगा, क्यों? तो दूसरी भाषा के साथ भी हमें खुद ऐसा नहीं ना करना चाहिए। अपनी भाषा का प्रचार, उसके अस्तित्व को बचाने के लिए किसी दूसरी भाषा को नीचा दिखाना या उसे भला बुरा कहना कहीं से भी उचित नहीं है।



E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीअमितजी आपकी बातों से हिन्दी विरोधी होने की बू आ रही है ॰॰॰

हमने कभी यह नहीं कहा कि अंग्रेजी का उपयोग जायज नहीं मगर हिन्दी भाषा को हेय दृष्टि से देखा जाए, यह भी सहन नहीं करेंगे ॰॰॰


अफ़लातून
नवीन सदस्य
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भी-"गांधी के समय की बात करना हर रूप में जायज़ नहीं है। उनके समय में भारत अंग्रेज़ों का गुलाम था और वे लोग अंग्रेज़ों की प्रत्येक चीज़ का विरोध करते थे, भाषा को क्यों छोड़ते भला?"
--"इसे सीधे सीधे अंग्रेज़ी पर बेवजह आघात नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? अंग्रेज़ी भाषा तो नहीं कहती कि हम उसे सीखें और प्रयोग करें, तो उसे उलाहना क्यों? जो लोग इन देशों की तरक्की का ढोल पीटते हुए अपने देश के पिछड़ा होने का दोष अंग्रेज़ी मोह पर लादते हैं क्या उन्हें इतनी समझ नहीं कि चाहे चीन हो या जापान, रूस हो या इस्राईल, इन देशों में जिस कार्य को करने का निर्णय लिया जाता है वह किया जाता है, हमारे देश की तरह लालफ़ीताशाही और नौकरशाही के जाल में फ़ंस वह दम नहीं तोड़ता। "
-गांधी अंग्रेज लोगों का विरोध नहीं करते थे.
-उलाहना भाषा को नहीं,भाषा नीति का विरोध होता है जिसकी वजह से किसी देश की शिक्षा का माध्यम,सरकारी और अदालती काम-काज की भाषा आदि गुलाम मानसिकता वाले नीति नियंताओं द्वारा थोपे जाते हैं.
-पिछडेपन का कारण सिर्फ़ भाषा नहीं,विकास-नीति भी है.ज्यादा समय तक गुलाम रहने वाले देशों और कम समय तक या न के बराबर गुलाम रहने वाले देशों के चरित्र मे एक भिन्नता होती है.पहली किस्म के लोग अपने निर्णय से कठिन काम नही कर सकते.गुलाम व्यक्ति आदेश मिलने पर कठिन कार्य करता है,अनिच्छा से करता है,उसमे उसे रस नही मिलता.इस तरह कठिन काम के प्रति अनिच्छा उसका स्वभाव बन जाती है.बाद में जब देश आजाद हो जाता है,तब भी वह कठिन काम,कठोर निर्णय से भागता है.कठिन काम करने में जो रस है तृप्ति है,उसे वह समझ नही पाता.'कठिन' और 'असंभव' को वह कई पर्याय्वाची मानने लगता है.मूल योजना मालिक बनात है.कार्यान्वयन क्र स्तर पर नौकर भी बहुत सारे परिवर्तन और निर्णय करने का अधिकार ले लेता है.सामूहिक गुलामी की आदत सेभी कुछ ऐसा ही स्वभाव पैदा होता है कि योजना की दिशा या मूल सिद्धान्त के बारे में वह सोचना नही चाहता.,उसकी कोशिश भी नही करता.
--गुलामी में एक सुरक्षा है.अनुकरण और निर्भरता में एक सुरक्षा है--खासकर बौद्धिक निर्भरता में.इसलिए उसकी लत लग जाती है.
अमित जैसी गलती करना काफ़ी व्यापक बीमारी है.इसे तर्क्शास्त्र में तर्कदोष या हेत्वाभास (हेतु + आभास ) कहा जाता है.अंग्रेजी में -fallacy. जैसे कुछ भारतीय बुद्धिजीवी कहते हैं कि १८५७ कि क्रान्ति सफल हो जाती तो भारत का बहुत नुकसान हो जाता.
--गुलाम कुशाग्र बुद्धि का हो सकता है जैसे अमित लेकिन जहां विचार से निर्णय निकालना पडता है,वहीं वह आश्चर्यजनक ढंग से तर्क की गलती करता है.
--आखिरकार मानसिक गुलामी एक अस्वाभाविक स्थिति है.


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neerajdiwan
समझदार बंधु


Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीएक सवाल - क्या हिन्दी के दम पर विदेश में रहने वाले हमारे भाई रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं? क्या आप मुझे सिर्फ़ हिन्दी के भरोसे इतनी तनख्वाह दे सकते हैं जो फिलवक़्त मैं कमा रहा हूं?

शनिवार, सितंबर 23, 2006

भाषा पर गांधी ,बहस 'परिचर्चा' पर

भाषा पर गांधी और लोहिया भी
September 23rd, 2006 at 7:52 am (Uncategorized)

अब ‘परिचर्चा’ पर चर्चा को डालने के बाद :


बिल्कुल जी बिल्कुल, रुचि है, आप अपने और गांधीजी के विचारों को पूरी तरह से व्यक्त करदें बाद में इस विषय को आगे बढ़ाते हैं।



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सागर चन्द नाहर

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कलम को चलने दें “अफ़लातूनजी”॰॰॰

grjoshee

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अफलातून जी,साधुवाद!! गाँधी जी के भाषा पर विचारों से अवगत कराने के लिये..भाषा की इस उलझन मे मध्यमवर्गीय परिवारोँ के बच्चों को सबसे अधिक नुकसान हो रहा है..क्यों कि कडवी सचाई यह है कि हिन्दी भाषा के अच्छे विद्यालयों के अभाव मे वे अपने बच्चों को गली- गली मे खुल रहे “केम्ब्रिज-कान्वेन्ट ” या “आक्सफोर्ड-कान्वेन्ट ” (जी नही ये नाम मेरे दिमाग की उपज नही है,बल्कि बस से यात्रा करते समय मैने एक ऐसा बोर्ड दो कमरों की,टीन के छप्परवाली शाला के उपर लगा देखा था!) मे भेज रहे हैं.इन शालाओं मे ज्यादातर वे लोग पढा रहे हैं जो कभी अँग्रेजी माध्यम मे नही पढे.तो बच्चे न तो ठीक से हिन्दी जान पा रहे हैं और न ही अन्ग्रेजी.

रचना

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रचना बहन wrote:

…क्यों कि कडवी सचाई यह है कि हिन्दी भाषा के अच्छे विद्यालयों के अभाव मे वे अपने बच्चों को गली- गली मे खुल रहे “केम्ब्रिज-कान्वेन्ट ” या “आक्सफोर्ड-कान्वेन्ट ” (जी नही ये नाम मेरे दिमाग की उपज नही है,बल्कि बस से यात्रा करते समय मैने एक ऐसा बोर्ड दो कमरों की,टीन के छप्परवाली शाला के उपर लगा देखा था!) मे भेज रहे हैं….

उचित शिक्षा एक गम्भीर प्रश्न है तथा इसमें समाज के सभी नागरिकों का योगदान आवश्यक है। इस बात पर में पहले भी लिख चुका हूँ कि हमनें शिक्षा की उपेक्षा की है और आज यह सत्य है शिक्षक बनना कौन चाहता है?

एक बात मैंने अमरीका के विद्यालयों मे देखी वो ये कि यहाँ पर सभी लोग (विशेषकर घरेलू महिलायेँ) विद्यालयों में जाकर नि:शुल्क सेवा करते हैं।
हम सब पढे़-लिखे युवा ही हिन्दी विद्यालयों के शिक्षकों से मिलकर विद्यालयों की स्तिथी सुधार सकते हैं।
जितना कर सकते हैं करें। यह काम आसान नहीं है अत: चुनौतियों के लिये तैयार रहें। मैं भी इस दिशा में कुछ करता रहता हूँ और आपके अनुभवों से सीखकर और अच्छा कर पाऊँ अत: जो आप करते हैं सभी को बतायें

हिमांशु शर्मा

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मैं मानता हुँ कि भाषा कोई भी बुरी नहीं हो सकती, पर जितना सम्मान हिन्दी को मिलना चाहिये उतना नहीं मिल पाता, शायद दुनियाँ का यह एक मात्र देश है जहाँ के कई प्रधानमंत्रीयों, राष्ट्रपतियों,मुख्यमंत्रियों ( डॉ कलाम अपवाद हैं क्यों कि उनका इस देश की उन्न्ती में इतना योगदान है कि एक गुनाह तो माफ़ किया जा ही सकता है, फ़िर भी डॉ कलाम हिन्दी को सम्मान देते ही हैं, और एक जयललिता है जो हिन्दी केर नाम से भड़कती है ) और कई उच्चाधिकारियों को हिन्दी बोलना तो दूर समझ में भी नहीं आती है।
यह बात तो बिल्कुल सही है कि जितनी प्रगती जापान, चीन और इस्रायल ने की है, बगैर अंग्रेजी को अपनाये उतनी हमने हिन्दी को त्यागकर, अंग्रेजी के मोह में पड़ कर, हमने नहीं की है।
मैं गांधीजी के कई विचारों से सहमत नहीं परन्तु इस बात को तो अवश्श्य मानता हुँ कि हमारी शिक्षा का माध्यम हमारे देश की भाषा ही होना चाहिये नहीं कि विदेशी भाषा! साथ में अंग्रेजी भी होनी चाहिये परन्तु पूरक के रूप में नहीं की मुख्य भाषा के रूप में।
कुछ दिनों पहले मैने मेरी समस्या को अपने चिट्ठे पर लिखा था कि मैं इस देश के किस कदर अंग्रेजी मोह की वजह से परेशान हो रहा हुँ, अपने बच्चों को मैं चाह कर भी हिन्दी नहीं पढ़ा पा रहा हुँ क्यों कि इस देश मैं आजकल एक फ़ैशन हो रहा है कि हिन्दी मैं पढ़े छात्र पिछड़े होते हैं जिसका प्रतिदिन बुरा और अपमानजनक अनुभव मैं कर रहा हूँ, क्यों कि यहाँ दक्षिण मैं हिन्दी की बजाय अंग्रेजी या प्रांतीय भाषा को ज्यादा महत्व मिलता है और यहाँ हैदराबाद मैं तो अंग्रेजी- ऊर्दू और तेलुगु को सर्वोपरी माना जाता है।
कभी कभी यह लगता है कि मुझे अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान तो होना ही चाहिये क्यों कि अन्तरजाल पर जो खजाना भरा पड़ा है उसका मैं पूरा लाभ नहीं उठा पाता।

सागर चन्द नाहर

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nahar7772 wrote:

मैं इस देश के किस कदर अंग्रेजी मोह की वजह से परेशान हो रहा हुँ, अपने बच्चों को मैं चाह कर भी हिन्दी नहीं पढ़ा पा रहा हुँ क्यों कि इस देश मैं आजकल एक फ़ैशन हो रहा है कि हिन्दी मैं पढ़े छात्र पिछड़े होते हैं जिसका प्रतिदिन बुरा और अपमानजनक अनुभव मैं कर रहा हूँ, क्यों कि यहाँ दक्षिण मैं हिन्दी की बजाय अंग्रेजी या प्रांतीय भाषा को ज्यादा महत्व मिलता है और यहाँ हैदराबाद मैं तो अंग्रेजी- ऊर्दू और तेलुगु को सर्वोपरी माना जाता है।

कितनी शर्मनाक बात है कि हिन्दोस्तां की मातृ-भाषा होते हुए भी, हिन्दी को आज भी हमारे देश में हीन दृष्टि से देखा जाता है। माता-पिता चाहते है कि बच्चा “अंगरेजी मीडीयम” में पढ़े, नौकरीयों में “कम्यूनिकेशन स्किल” के नाम पर अंगरेजी को ही प्राथमिकता दी जाती है, बच्चों को लगता है कि हिन्दी भाषा बोलने वाले उनके माता-पिता गंवार है, इसलिए दोस्तों को घर लाने में शर्म महसूस होती है।

grjoshee

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क्या सभी बोल लिए? या किसी को अभी कुछ कहना है? जिन लोगों को यह गलतफ़हमी है कि चीन, जापान और इस्राईल ने बिना अंग्रेज़ी को अपनाए अपनी मातृभाषा के कारण तरक्की की है उनको मैं कुछ वास्तविकताओं से अवगत कराना चाहूँगा। पर वह बाद में, अभी किसी और को यह गाना गाना हो तो गा सकता है, हम तो अभी आराम से बैठे मौज ले रहे हैं, बाद में अपना असला निकालेंगे!!



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amit

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लाल बुझक्कड बूझ गए,और ना बूझा कोय
पै्र में चक्की बांध के हिरणा कूदा होय
“ग्यान वगैरहकी बात छोडो और इस सवाल का जवाब दो कि किस देश में रेल ,तार ,पलटन ,सरकारी दफ़्तर ,कालेज, विश्वविद्यालय,न्यायालय ये सब किसी सामन्ती भाषा के जरिए चलते हैं?मैंने विदेशी भाषा नही कहा है.देशी विदेशी का मामला अलग कर दो.मैंने सामन्ती भाषा कहा है.क्योंकि अंग्रेजी को ताकत और दौलत के लिए इस्तेमाल करने वालों की तादाद कुल ४०-५० लाख है.५० लाख एक तरफ़ और ४३ करोड दूसरी तरफ़.” -डॊ.लोहिया,हैदराबाद,१९६२.
अमित भाई,भागना मत,अभी उच्च ग्यान पर भी ‘असला’ का तसला लिए बैठे हैं.

अफ़लातून

कभी इसराइल का नाम लिया जाता है ,कभी ,जापान (गांधी ने विस्तार से लिखा है,बहस नियन्ता पढने का कष्ट करे),कभी चीन का.ऐसे लोगों से कहना है कि बच्चों को बरगलाना ही आप लोगों का धर्म हो गया है?इन देशों मे कौन से काम अंग्रेजी के जरिए होते हैं?इन सब देशों में अंग्रेजी की पढाई लाजमी नही है.हिन्दुस्तान में भाषा के मक़सद को ही नही समझा गया है.भाषा है किस लिए? भाषा होती है एक तो समझने के लिए और दूसरी होती है बोलने और अभिव्यक्ति के लिए.जहां तक साधारण ग्यान है उसको समझने और उसके ऊपर बोलने के लिए अपने देश की भाषाओं का इस्तेमाल करना होगा.लेकिन अगर कोई खास ग्यान जहां जिस भाषा में होगा;रूसी में,अंग्रेजी मे और जर्मन में उसको हम हासिल कर सकेंगे.
एक मिसाल लीजिए.शेक्सपियर का अध्ययन हिन्दुस्तान में पिछले १२५-१५० बरस से चल रहा है.हिन्दुस्तान मे जितने आदमियों ने शेक्सपियर पढा है ,उतना शायद उतना शायद सारी दुनिया के आदमियों ने नही पढा होगा.सिर्फ़ अंग्रेज नही,फ़्रांसीसी,जर्मन न जाने कितने निकलेंगे,जिन्होंने शेक्सपियर पर मूल टीका की है,जिन्हे पढकर मजा आता है.हिन्दुस्तान मे कमबख्त एक निकल आता,जिसने शेक्सपियर पर लिखा होता,तो मैं कहता किसीने कुछ किया.इसका कारण यह है कि जब जर्मन शेक्सपियर को पढता है तो वह अंग्रेजी में पढता जरूर है,ज्यादातर जर्मन अनुवाद द्वारा,लेकिन जब पढकर सोचता है,तो अपनी भाषा में.फ़्रांसीसी फ़्रेंच में लिखता है.तब जा कर उसमें बडे बडे लोग होते हैं.मेक्समूलर का नाम सबने सुना होगा.हिन्दुस्तान के वेदोंक के सिलसिले में वह मशहूर हैं.उसने संस्कृत में वेदों को पढा,लेकिन वह इतना जाहिल नही था कि पढने के बाद इस पर जो टीका लिखी वह भी संस्कृत में लिखने बैठ जाता.–उसने जर्मन मेम लिखा.” –डॊ. लोहिया,हैदराबाद,१९६२



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बुधवार, सितंबर 20, 2006

भाषा पर गांधी जी


हिन्दी दिवस पर मैंने गांधी जी के दो उद्धरण अपने चिट्ठों के अलावा 'गूगल समूह' 'चिट्ठाकार' पर भी डाले थे.सात लोगों ने चर्चा में विचार व्यक्त किये.अन्तत: यह कहा गया कि बहस को 'परिचर्चा' पर डाला जाए.यहां चिट्ठाकार की बहस को दिया जा रहा है.आशा है पाठक बहस को जारी रखेंगे.

From:
अफ़लातून -Date:
Thurs, Sep 14 2006 3:36 pm
मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं , वे आत्महत्या ही करते हैं . यह उन्हें अपने जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित करती है . विदेशी माध्यम से बच्चों पर अनावश्यक जोर पडता है . वह उनकी सारी मौलिकता का नाश कर देता है . विदेशी माध्यम से उनका विकास रुक जाता है और अपने घर और परिवार से अलग पड जाते हैं . इसलिए मैं इस चीज को पहले दरजे का राष्ट्रीय संकट मानता हू . ( विथ गांधीजी इन सीलोन , पृष्ट १०३ )
इस विदेशी भाषा के माध्यम ने बच्चों के दिमाग को शिथिल कर दिया है . उनके स्नायुओं पर अनावश्यक जोर डाला है , उन्हें रट्टू और नकलची बना दिया है तथा मौलिक कार्यों और विचारों के लिए सर्वथा अयोग्य बना दिया है . इसकी वजह से वे अपनी शिक्षा का सार अपने परिवार के लोगों तथा आम जनता तक पहुंचाने में असमर्थ हो गये हैं . विदेशी माध्यम ने हमारे बालकों को अपने ही घर में पूरा विदेशी बना दिया है . यह वर्तमान शिक्षा -प्रणाली का सब से करुण पहलू है . विदेशी माध्यम ने हमारी देशी भाषाओं की प्रगति और विकास को रोक दिया है . अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो , तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिये हमारे लडके और लडकियों की शिक्षा बंद कर दूं और सारे शिक्षकों और प्रोफ़ेसरों से यह यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूं या उन्हें बर्ख़ास्त करा दूं . मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इन्तजार नहीं करूंगा . वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे - पीछे चली आयेंगी . यह एक ऐसी बुराई है , जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिये .
( हिन्दी नवजीवन , २ - ९- '२१ ) https://samatavadi.wordpress.com/



From:
अनुनाद -Date:
Thurs, Sep 14 2006 4:31 pm
Email:
"अनुनाद" anu...@gmail.com

गाँधीजी की बात आज के परिप्रेक्ष्य में और अधिक सत्य है हिंदी और स्वदेशी का सर्वाधिक हित गाँधीजी ने किया; इनको सर्वाधिक नुक़सान पहुँचाने का श्रेय नेहरू को जाता है
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Subject changed: Chitthakar :: हिन्दी पर महात्मा गांधी

--- अफ़लातून ...@gmail.com> wrote: > मेरा यह विश्वास है > कि राष्ट्र के जो बालक > अपनी मातृभाषा के बजाय > दूसरी भाषा में शिक्षा > प्राप्त करते हैं , वे > आत्महत्या ही > करते हैं . यह उन्हें > अपने जन्मसिद्ध अधिकार > से वंचित करती है . विदेशी > माध्यम से बच्चों पर अनावश्यक
> जोर पडता है . वह उनकी > सारी मौलिकता का नाश कर > देता है . विदेशी माध्यम से
> उनका विकास रुक जाता है
यदि वह जीवित होते तो मैं उनसे पूछता अवश्य कि महात्मन यह बताने का कष्ट करें कि क्या आपने भी आत्महत्या की? क्या आप पर भी अनावश्यक ज़ोर पड़ा और क्या आपकी मौलिकता का भी नाश हो गया? आपका विकास रूक गया क्या?
और मैं ऐसा क्यों पूछता? वह इसलिए कि कदाचित्‌ महात्मा भूल गए कि उन्होंने उसी अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा प्राप्त की जिसका वह विरोध कर रहे थे। वे उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए इंग्लैड गए, दक्षिण अफ़्रीका में उसी अंग्रेज़ प्रशासन के अंतर्गत वकालत करने गए। वो तो उनको जब अंग्रेज़ों ने लात मारी तब उनका अहं जागा और उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई!!!
मैं कोई अंग्रेज़ी माध्यम की वकालत नहीं कर रहा लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि खामखां किसी चीज़ को नीचा दिखाया जाए। उनके समय में हमारा लोकल शिक्षा का ढाँचा इतना पिछड़ा हुआ था कि बस पूछो मत। समय के साथ चलना है तथा औरों को हराना है तो आपको उनसे बढ़िया होना होगा। देशभक्ति और ये चीज़े अलग हैं। अपने यहाँ से ही शिक्षा ग्रहण करना देशभक्ति का प्रमाण नहीं है।
cheers Amit
From:
अफ़लातून - view profile
Date:
Fri, Sep 15 2006 10:26 pm
Email:
"अफ़लातून" ...@gmail.com>
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अंग्रेजों से 'लात खाने' के पहले के गांधी के अनुभव -उन्ही के शब्दों में : यहां मैं अपने कुछ अनुभव बता दूं . १२ बरस की उम्र तक मैंने जो भी शिक्षा पाई ,वह अपनी मातृभाषा गुजराती मे पाई थी . उस वक्त गणित , इतिहास और भूगोल का थोडा -थोडा ग्यान था . इसके बाद मैं एक हाई स्कूल में दाखिल हुआ . उसमे भी पहले तीन साल तक तो मातृभाषा ही शिक्षा का माध्यम रही .लेकिन स्कूल-मास्टर का काम तो विद्यार्थियों के दिमाग मेम जबरदस्ती अंग्रेजी ठूसना था .इसलिए हमारा आधे से अधिक समय अंग्रेजी और उसके मनमाने हिज्जों तथा उच्चारण पर काबू पाने मेम लगाया जाता था. ऐसी भाषा का पढना हमारे लिए एक कष्टपूर्ण अनुभव था ,जिसका उच्चारण ठीक उसी तरह नही होता जैसा कि वह लिखी जाती है.हिज्जों को क्ण्ठस्थ करना एक अजीब सा अनुभव था.लेकिन यह तो मैं प्रसन्गवश कह गया .वस्तुत: मेरी दलील से इसका कोई समबंध नहीं है . मगर पहले तीन साल तो तुलनात्मक रूपमें ठीक निकल गये. ज़िल्लत तो चौथे साल से शुरु हुई . अलजबरा (बीजगणित),केमिस्ट्री (रसायनशास्त्र),एस्ट्रॊनॊमी(ज्योतिष),हिस्ट्री(इतिहास),ज्यॊग्राफ़ी(भूगोल) हर एक विषय मातृभाषा के बजाय अंग्रेजी में ही पढना पडा . अंग्रेजी का अत्याचार इतना बडा था कि संस्कृत या फ़ारसी भी मातृभाषा के बजाय अंग्रेजी के ज़रिए सीखनी पडती थी.कक्षा मे अगर कोई विद्यार्थी गुजराती , जिसे कि वह समझता था, बोलता तो उसे सजा दी जाती थी.हां ,अंग्रेजी जिसे न तो वह पूरी समझ सकता था और न शुद्ध बोल सकता था,अगर वह बुरी तरह बोलता तो भी शिक्षक को कोई आपत्ति नही होती थी.शिक्षक भला इस बात कि फ़िक्र क्यों करे ?खुद उसकी ही अंग्रेजी निर्दोष नहीं थी .इसके सिवा और हो भी क्या सकता था?क्योंकि अंग्रेजी उसके लिए भी उसी तरह विदेशी भाषा थी जिस तरह उसके विद्यार्थियों के लिए थी.इससे बडी गडबड होती.हम विद्यार्थियों को अनेक बातें कंठस्थ करनी होती ,हांलाकि हम उन्हें पूरी तरह समझ सकते थे.शिक्षक के हमेंज्यॊमेट्री (रेखागणित) समझाने की भरपूर कोशिश के करने पर मेरा सिर घूमने लगता.सच तो यह है कि यूक्लिड की फली पुस्तक के १३वें साध्य तक जब तक हम न पहुंच गये,मेरी समझ मे ज्यॊमेट्री बिलकुल नहीम आयी.और पाठकों के सामने मुझे यह मंजूर करना ही चाहिये कि मातृभाषा के अपने सारे प्रेम के बावजूद आज भी मैं यह नहीं जानताकि ज्यॊमेट्री,अलजबरा आदि की पारिभाशिक बातों को गुजराती मे क्या खते हैं.हां,यह अब मैं जरूर देखता हूं कि जितना गणित ,रेखागणित,बीजगणित,रसायनशास्त्र और ज्योतिष सीखने मुझे चार साल लगे,अगर अंग्रेजी के बजाय गुजराती मे मैंने उसे पढा होता तो उतना मैं ने एक ही साल मे आसानी से सीख लिया होता.उस हालत मे मैं आसानी और स्पष्टता के साथ इन विषयों को समझ लेता.गुजराती का मेरा शब्दग्यान कहीं समृद्ध हो गया होता,और उस ग्यान का मैने अपने घर में उपयोग किया होता.लेकिन इस अंग्रेजी के माध्यम ने तो मेरे और कुटुंबियों के बीच,को कि अंग्रेजी स्कूलों मे नही पढे थे, एक अगम्य खाई खदी कर दी.मेरे पिता को कुछ पता न था कि मै क्या कर रहा हूं . मैं चाहता तो भी अपने पिताकी इस बात मेम दिलचस्पी पैदा नही कर सकता था कि मैं क्या पढ रहा हूं.क्योंकि यद्यपि बुद्धिकी उनमे कोई कमी न थी, मगर वह अंग्रेजी नही जानते थे.इस प्रकार अपने ही घर मे मैं बडी त्जी के साथ अजनबी बनता जा रहा था.निश्चय ही मैं औरोंसे ऊंचा आदमी बन गया था.यहां तक कि मरी पोशाक भी अपने-आप बदलने लगी .लेकिन मेरा जो हाल हुआ वह कोई असाधारन अनुभव नहीथा,बल्कि अधिकांश का यही हाल होता है. (आगे पढने मे रुचि हो तो बतायें )



Subject changed: Chitthakar :: Re: हिन्दी पर महात्मा गांधी

From:
Pankaj Narula - Date:
Sat, Sep 16 2006 12:53 am
Email:
"Pankaj Narula" ...@gmail.com>
अफलातून भाई जी
मैं आपकी पहली ईमेल का जवाब भी देना चाहता था, पर दे नहीं पाया। ईस्वामी द्वारा लिखे गए विचारों से मैं काफी इत्तेफाक रखता हूँ।
आज कुछ समय है। सबसे पहले तो बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाने की बात। जिस समय गाँधी बाबा ने यह पुस्तक लिखी थी व जिस समय वह पढ़ रहे थे अंग्रेजों का जमाना था। जरा उस समय में अपने आप को डाल कर देखिए। जरूरी नहीं कि उस समय का परिपेक्ष आज भी लागू हो। एक व्यक्तिगत उदाहरण देता हूँ। मैंने पहली से आठवीं तक हिन्दी माध्यम से पढ़ी। उस समय सूएज न पनामा नहर के बारे भूगोल में भी पढ़ा था। उस समय कभी उसकी महत्ता समझ में नहीं आई। रट्टा लगा लिया था। अभी कुछ समय पहले एक पुस्तक पढ़ रहा था उसमें इन नहरों का जिक्र फिर से आया। उत्सुकता हूई व विकीपीडिया पर दोनों नहरों के बारे में फिर से अंग्रेजी में पढ़ा। अब देखिए वह चीज जो मैंने हिन्दी में पढ़ी थी याद नहीं थी पर इतना याद था कि पढ़ी है, फिर अंग्रेजी में पढ़ी व याद आ गई। तो ज्ञान के लिए भाषा केवल माध्यम है।
यहाँ अमरीका में रहते हुए एक और चीज भारतीय मूल के माँ बाप से पैदा हुए अमरीकी भारतीय बच्चों में देखता हूँ। माँ बाप इस बात के लिए बहुत प्रयत्नशील रहते हैं कि बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में जाने। साथ ही बच्चे घर में 3-4 साल तक बढ़ते हुए हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलगू में ही बात करना सीखते हैं। फिर जब स्कूल जाना शुरु करते हैं तो इंग्लिश भी बोलने लगते हैं। इन बच्चों को कभी बात करते देखिएगा आप हैरान रह जाएंगे कि वे कैसे दोनो भाषाओं में इतनी आसानी से स्विच मारते हैं। जो बात मैं कहने चाहता हूँ वह यह कि बच्चों में सीखने की असीमित शक्ति होती है बशर्ते वह उन पर थोपा न जाए। एक और उदाहरण हो दक्षिण भारत में पले बढ़े बंधूओं का। अपने साथ काम करते लोगो में पाया है कि वे लोग तीन चार भाषाएं बोल लेते हैं - जैसे कि तेलगू वालों को तमिल समझते देखा है वहीं तमिल वाले कन्नड भी जानते हैं। किसलिए क्यूंकि जब वे बच्चे थे सभी भाषाओं सुनने बोलने को मिलती थी।
अब आते हैं उन लोगों पर जो कि हिन्दी को हीन समझते हैं व हिन्दी के उत्थान के लिए हिन्दी दिवस मनाना पड़ता है। हर समाज में एक संभ्रात समुदाय होता है जो कि अपने आप को आम जनता से अलग दिखाना चाहता है। व जो आम लोग करता है उस की नजरों में हीन है। यह भावना भारतीय समाज में अंग्रेजों के जमाने से है। थोड़ा और पीछे जाएंगे तो संस्कृत व खड़ी बोली में भी यही रिश्ता पाएंगे। ऐसे लोगों का कुछ किया नहीं जा सकता।
पर एक बात है। अब इसे इतिहास की भूल कहें या कुछ और। अंग्रेजी दूनिया में व्यव्साय की भाषा बन चुकी है। इसलिए यह सभी के अपने हित में है कि इस वसुधैव कुटुम्बकम् या ग्लोबल विलेज में व्यव्साय की भाषा जानें। आप कुछ बनातें हैं क्या आप किसी ग्राहक को वह सिर्फ इस लिए नहीं बेचेंगे कि वह आपकी भाषा नहीं जानता। बढ़िया तो यह होगा कि आप जाने कि वह क्या चाहता है, उसके समाज में कार्य कैसे होते हैं। बुरा यह होगा कि इस दौरान आपको अपनी भाषा तुच्छ लगने लगे।



From:
जीतू Jitu -Date:
Sat, Sep 16 2006 1:02 am
Email:
"जीतू Jitu" ...@gmail.com>
मेरे काफ़ी विचार तो पंकज भाई ने कह दिए है। आइए अब बात करते है, हिन्दी बोलने के ऊपर की :
हिन्दी की दुर्दशा पर तो हर कोई रो लेता है, लेकिन अफलातून भाई (निजी तौर पर मत लीजिएगा, सभी पर लागू है), अपने दिल पर हाथ रखकर बताइए, आपने हिन्दी को आगे बढाने के लिये क्या किया?
हम लोग इन्टरनैट के प्राणी है इसीलिए, हिन्दी को इन्टरनैट पर ज्यादा से ज्यादा देखना चाहते है। उसी के लिये सतत प्रयत्नशील है। मुझे आपके बारे मे नही पता कि आप किस पेशे से जुड़े हुए है, लेकिन जिस भी पेशे से जुड़े हुए हों हम अपनी राष्ट्रभाषा को सम्मान देते रहे और उसके प्रचार प्रसार के लिये प्रयत्नशील रहें। यही हमारी हिन्दी के प्रति सच्चा प्यार होगा।
> अफलातून भाई जी
> मैं आपकी पहली ईमेल का जवाब भी देना चाहता था, पर दे नहीं पाया। ईस्वामी > द्वारा लिखे गए विचारों से मैं काफी इत्तेफाक रखता हूँ।
> आज कुछ समय है। सबसे पहले तो बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाने की बात। जिस समय > गाँधी बाबा ने यह पुस्तक लिखी थी व जिस समय वह पढ़ रहे थे अंग्रेजों का जमाना > था। जरा उस समय में अपने आप को डाल कर देखिए। जरूरी नहीं कि उस समय का परिपेक्ष > आज भी लागू हो। एक व्यक्तिगत उदाहरण देता हूँ। मैंने पहली से आठवीं तक हिन्दी > माध्यम से पढ़ी। उस समय सूएज न पनामा नहर के बारे भूगोल में भी पढ़ा था। उस समय > कभी उसकी महत्ता समझ में नहीं आई। रट्टा लगा लिया था। अभी कुछ समय पहले एक > पुस्तक पढ़ रहा था उसमें इन नहरों का जिक्र फिर से आया। उत्सुकता हूई व > विकीपीडिया पर दोनों नहरों के बारे में फिर से अंग्रेजी में पढ़ा। अब देखिए वह > चीज जो मैंने हिन्दी में पढ़ी थी याद नहीं थी पर इतना याद था कि पढ़ी है, फिर > अंग्रेजी में पढ़ी व याद आ गई। तो ज्ञान के लिए भाषा केवल माध्यम है।
> यहाँ अमरीका में रहते हुए एक और चीज भारतीय मूल के माँ बाप से पैदा हुए > अमरीकी भारतीय बच्चों में देखता हूँ। माँ बाप इस बात के लिए बहुत प्रयत्नशील > रहते हैं कि बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में जाने। साथ ही बच्चे घर में 3-4 > साल तक बढ़ते हुए हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलगू में ही बात करना सीखते हैं। फिर > जब स्कूल जाना शुरु करते हैं तो इंग्लिश भी बोलने लगते हैं। इन बच्चों को कभी > बात करते देखिएगा आप हैरान रह जाएंगे कि वे कैसे दोनो भाषाओं में इतनी आसानी से > स्विच मारते हैं। जो बात मैं कहने चाहता हूँ वह यह कि बच्चों में सीखने की > असीमित शक्ति होती है बशर्ते वह उन पर थोपा न जाए। एक और उदाहरण हो दक्षिण भारत > में पले बढ़े बंधूओं का। अपने साथ काम करते लोगो में पाया है कि वे लोग तीन चार > भाषाएं बोल लेते हैं - जैसे कि तेलगू वालों को तमिल समझते देखा है वहीं तमिल > वाले कन्नड भी जानते हैं। किसलिए क्यूंकि जब वे बच्चे थे सभी भाषाओं सुनने > बोलने को मिलती थी।
> अब आते हैं उन लोगों पर जो कि हिन्दी को हीन समझते हैं व हिन्दी के उत्थान के > लिए हिन्दी दिवस मनाना पड़ता है। हर समाज में एक संभ्रात समुदाय होता है जो कि > अपने आप को आम जनता से अलग दिखाना चाहता है। व जो आम लोग करता है उस की नजरों > में हीन है। यह भावना भारतीय समाज में अंग्रेजों के जमाने से है। थोड़ा और पीछे > जाएंगे तो संस्कृत व खड़ी बोली में भी यही रिश्ता पाएंगे। ऐसे लोगों का कुछ > किया नहीं जा सकता।
> पर एक बात है। अब इसे इतिहास की भूल कहें या कुछ और। अंग्रेजी दूनिया में > व्यव्साय की भाषा बन चुकी है। इसलिए यह सभी के अपने हित में है कि इस वसुधैव > कुटुम्बकम् या ग्लोबल विलेज में व्यव्साय की भाषा जानें। आप कुछ बनातें हैं > क्या आप किसी ग्राहक को वह सिर्फ इस लिए नहीं बेचेंगे कि वह आपकी भाषा नहीं > जानता। बढ़िया तो यह होगा कि आप जाने कि वह क्या चाहता है, उसके समाज में कार्य > कैसे होते हैं। बुरा यह होगा कि इस दौरान आपको अपनी भाषा तुच्छ लगने लगे।

Subject changed: Chitthakar :: हिन्दी पर महात्मा गांधी

From:
rajitsinha@gmail.com -Date:
Sat, Sep 16 2006 2:04 am
Email:
"rajitsi...@gmail.com" ...@gmail.com>
हां तो अमित भिया तुमने अफ़लातून भाई का जवाब तो पढ़ ही लिया होगा और गांधी जी के बारे में तुम्हारी जानकारी भी अद्यतन हो चुकी होगी... अब जरा अपने बारे में भी ज़ानकारी अद्यतन कराओ तो ... 2 मुद्दे की बातें कही है तुमने!!! पहली ,समय के साथ चलना और दूसरी, औरो को हराना... चलो पहले दूसरी से निपटते हैं. हां तो यह बताने का कष्ट करोगे कि अभी तक कितने लोगो को हरा चुके हो इस विदेशी भाषा को सीख कर ????? बिल्कुल नाम बता सकते हो यदि संख्या ज्यादा हो और नाम याद न हो तो गिनती कर के बता देना... हां पर साथ में यह भी बताना कि अब तक कितनो से हार चुके हो अंग्रेजी जानने के बावजूद भी.... और उतनी ही सच्चाई से बताना... ठीक... भैया हार और जीत केवल बच्चों का शगल है या फिर अमेरिका का. ;) चलो अब पहली मुद्दे की बात पे आते है. समय के साथ चलना.... इस समय के साथ चलने के मापद्ण्ड और मायने क्या है ??? किसी के आचरण का उद्द्ण्ड्तापूर्ण अनुकरण या उन्ही के चीज़ों या क़ृतियों का विवश समरूपण? ?? बताओगे ????? समय के साथ चलने का मतलब होता है व्यष्टि व समष्टि दोनो का अपनी सम्पूर्ण् समग्रता*** के साथ अपनी समस्त सम्भावनाओं का निर्धारण ? वह भी पूरी समझदारी से.... ( यह बात अभी तुम्हारी समझ मे नही आने की...) इसे उस घोड़े से समझो जो किसी रथ या तांगे मे जुता होने पर भी उसी रथ से आगे निकलने की कोशिश करता हैं ... और इस उम्मीद मे और ज्यादा तेज दोडता है कि वह इसे हरा भी देगा... वो बेचारा तो अक्क्ल मे कमजोर है ... पर अपन .... :)) हां और अभी तो मुझे बैलगाड़ी के नीचे चलने वाला वो कुत्ता भी नजर आ रहा है जो धूप से बचने के लिये बैलगाड़ी के नीचे चलता है पर बीच मे उसे यह मुगालता( गलत फहमी) हो जाता है कि वोही बैलगाड़ी को खींच भी रहा है और हांक भी रहा है... :)) कहना तो बहुत कुछ था पर अब समय हो गया है .... हां!!!! तुम व तुम्हारी जैसी मानसिकता वाले किसी भी व्यक्ति के जवाब का इंतज़ार रहेगा, भले ही अनिच्छा से ही... पर रहेगा जरूर.....


From:
Vinay -Date:
Sat, Sep 16 2006 4:23 am
Email:
"Vinay" vinaypj...@gmail.com
(इस समूह के लिए यह चर्चा शायद विषयांतर है। मध्यस्थों से निवेदन कि अगर ऐसा लगे तो बता दें। पेशगी माफ़ी।)

Pankaj Narula wrote: > अफलातून भाई जी
> मैं आपकी पहली ईमेल का जवाब भी देना चाहता था, पर दे नहीं पाया। ईस्वामी द्वारा > लिखे गए विचारों से मैं काफी इत्तेफाक रखता हूँ।
> आज कुछ समय है। सबसे पहले तो बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाने की बात। जिस समय > गाँधी बाबा ने यह पुस्तक लिखी थी व जिस समय वह पढ़ रहे थे अंग्रेजों का जमाना > था। जरा उस समय में अपने आप को डाल कर देखिए। जरूरी नहीं कि उस समय का परिपेक्ष > आज भी लागू हो। एक व्यक्तिगत उदाहरण देता हूँ। मैंने पहली से आठवीं तक हिन्दी > माध्यम से पढ़ी। उस समय सूएज न पनामा नहर के बारे भूगोल में भी पढ़ा था। उस समय > कभी उसकी महत्ता समझ में नहीं आई। रट्टा लगा लिया था। अभी कुछ समय पहले एक > पुस्तक पढ़ रहा था उसमें इन नहरों का जिक्र फिर से आया। उत्सुकता हूई व > विकीपीडिया पर दोनों नहरों के बारे में फिर से अंग्रेजी में पढ़ा। अब देखिए वह > चीज जो मैंने हिन्दी में पढ़ी थी याद नहीं थी पर इतना याद था कि पढ़ी है, फिर > अंग्रेजी में पढ़ी व याद आ गई। तो ज्ञान के लिए भाषा केवल माध्यम है। पंकज, मेरा थोड़ा मतभेद है। आपके स्वेज़ और पनामा के बारे में न जानने का भाषा से कोई लेना-देना नहीं। वह तो हमारी शिक्षा-पद्धति की कमज़ोरी है जो विचारों को समझने की बजाय रट्टाबाज़ी पर केन्द्रित है। आप अँगरेज़ी में पढ़ रहे होते तो भी वही हाल होता।
भाषाविद इस बारे में एकमत हैं कि ज्ञान अर्जन की भाषा वही होनी चाहिये जो बच्चे की अपनी भाषा हो। अपनी भाषा यानि अपने परिवेश में बोल-सुनकर या प्राकृतिक रूप से सीखी हुई भाषा। ऐसी एक से ज़्यादा भाषाएँ भी हो सकती हैं। बल्कि भारत में एक से ज़्यादा भाषाएँ बोलते बोलते बड़े होना आम है। पर मुझे नहीं लगता कि भारत में बहुत सारे परिवेश ऐसे होंगे जहाँ बच्चे अँगरेज़ी बोलते-सुनते बड़े होते हों, शहरों को मिला लें तो भी। अँगरेज़ी अभी भी ज़्यादातर लिखने-पढ़ने का साधन है। इसमें आम बोल-चाल तो बमुश्किल ५-६% लोगों तक सीमित होगी। हो सकता है मैं ग़लत होऊँ, पर मेरा कहना यह है कि अगर आप अँगरेज़ी बोल-चाल वाले परिवेश में बड़े नहीं हुए तो आपकी प्रारम्भिक शिक्षा अँगरेज़ी में नहीं होनी चाहिये। या घुमा कर कहें तो, यदि आपके आस-पास, मिसाल के तौर पर, हिंदी और पंजाबी बोली जाती है तो आपकी प्रारम्भिक शिक्षा की निर्देश भाषा इन दोनों में से कोई एक होनी चाहिए। अँगरेज़ी का एक विषय होना अलग बात है। उसकी ज़रूरत से मैं इंकार नहीं करता।
ज्ञान के लिए भाषा एक माध्यम ज़रूर है, पर इस माध्यम का सही होना बहुत ज़रूरी है। गाँधी जी ने जो बात कही (और मैं अफ़लातून जी का शुक्रिया अदा करता चलूँ उसे पोस्ट करने के लिए), वह भले ही उन्होंने अपने अनुभवों से कही हो, उसका वैज्ञानिक आधार सिद्ध हो चुका है।
http://www.ieq.org/pdf/insidestory2.pdf#search=%22learning%20in%20mot... http://www.iteachilearn.com/cummins/mother.htm
> यहाँ अमरीका में रहते हुए एक और चीज भारतीय मूल के माँ बाप से पैदा हुए अमरीकी > भारतीय बच्चों में देखता हूँ। माँ बाप इस बात के लिए बहुत प्रयत्नशील रहते हैं > कि बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में जाने। साथ ही बच्चे घर में 3-4 साल तक > बढ़ते हुए हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलगू में ही बात करना सीखते हैं। फिर जब > स्कूल जाना शुरु करते हैं तो इंग्लिश भी बोलने लगते हैं। इन बच्चों को कभी बात > करते देखिएगा आप हैरान रह जाएंगे कि वे कैसे दोनो भाषाओं में इतनी आसानी से > स्विच मारते हैं। जो बात मैं कहने चाहता हूँ वह यह कि बच्चों में सीखने की > असीमित शक्ति होती है बशर्ते वह उन पर थोपा न जाए। एक और उदाहरण हो दक्षिण भारत > में पले बढ़े बंधूओं का। अपने साथ काम करते लोगो में पाया है कि वे लोग तीन चार > भाषाएं बोल लेते हैं - जैसे कि तेलगू वालों को तमिल समझते देखा है वहीं तमिल > वाले कन्नड भी जानते हैं। किसलिए क्यूंकि जब वे बच्चे थे सभी भाषाओं सुनने > बोलने को मिलती थी। भाषाविद मानते हैं कि शुरूआती वर्षों में बच्चे एक से अधिक भाषाएँ तक आराम से सीख सकते हैं। बाद में यही बहुत मुश्किल और असहज होता है, और वैसी रवानगी भी नहीं आती। ऐसा सिर्फ़ दक्षिण भारत में नहीं, भारत के लगभग हर प्रांत में है। राजस्थान के लोग मारवाड़ी और हिंदी बोल लेते हैं और समझने को पंजाबी, हरयाणवी और गुजराती तक समझ लेते हैं। और आप जानते ही होंगे कि पंजाब में भी अधिकतर लोग भी हिंदी-उर्दू आराम से समझते-बोलते हैं। अमरीका तो फिर भी अधिकांशतया एकभाषी देश है। भारत में तो कहावत के अनुसार हर ९ कोस में बोलियाँ बदलती हैं। इसलिये जहाँ अमेरिका जैसे देश में बहुभाषी होना अपवाद है, वहीं भारत में यह लगभग नियम है।



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Pankaj Narula - view profile
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Sat, Sep 16 2006 10:56 am
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"Pankaj Narula" ...@gmail.com>
विनय जी
आप की बात तर्कसंगत है। इतने स्नेह व प्रेम से समझाने के लिए शु्क्रिया।
पंकज
On 9/15/06, Vinay ...@gmail.com> wrote:

> (इस समूह के लिए यह चर्चा > शायद विषयांतर है। > मध्यस्थों से निवेदन कि अगर > ऐसा लगे तो बता दें। पेशगी > माफ़ी।)

Subject changed: हिन्दी पर महात्मा गांधी

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अफ़लातून - view profile
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Sat, Sep 16 2006 1:48 pm
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"अफ़लातून" ...@gmail.com>
अनुनाद जी, विकास की अवधारणा के बारे में नेहरू और गांधी में जो बुनियादी दृष्टि-भेद था उसके बारे में अलग चर्चा होनी चहिये .गांधी चाहते थे कि देश के विकास की बाबत इन दोनों के बीच जो अन्तर है उसे जनता जाने लेकिन दुर्भाग्य से कम ही लोगों के समक्ष वह पत्राचार प्रसारित हुआ.गांधी के दूसरे सचिव श्री प्यारेलाल की प्रसिद्ध किताब , 'महात्मा गांधी :पूर्णाहुति' मे इसकी विषद चर्चा है. समूह के साथियों को यदि रुचि हो तो उस पत्राचार को भी प्रस्तुत किया जा सकता है.



Subject changed: Chitthakar :: हिन्दी पर महात्मा गांधी

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अफ़लातून - view profile
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Sat, Sep 16 2006 2:22 pm
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भाई अमित,

गांधी के बचपन के अनुभव १५ तारीख की प्रविष्टि में देने की कोशिश है.उस प्रविष्टि का स्रोत छूट गया था.'हरिजनसेवक',दि. ९ जुलाई, १९३८.भाषा को नीचा दिखाने का प्रश्न नहीं है.शासन और शोषण की भाषा का विरोध होना चहिये. 'समय के साथ चलने ' आदि दलीलों की बाबत फिर गांधी का सहारा ले रहा हूं.अंग्रेजी साहित्य की बाबत द्वेष्रहित भाव भी गौरतलब है.--- "अंग्रेजी आन्तर-राष्ट्रीय व्यापार की भाषा है ,वह कूट्नीति की भाषा है .उसका साहित्यिक भंडार बहुत समृद्ध है और वह पश्चिमी और संस्कृति से हमारा परिचय कराती है.इसलिए हम में से कुछ लोगों के लिए अंग्रेजी भाषा का ग्यान आवश्यक है.वे लोग राष्ट्रीय व्यापार और आन्तर -राष्ट्रीय कूट्नीति के विभाग तथा हमारे राष्ट्र को पश्चिमी साहित्य,विचार और विग्यान की उत्तम वस्तुएं देने वाला विभाग चला सकते हैं.वह अंग्रेजी का उचित उपयोग होगा,जब्कि आज अंग्रेजीने हमारे हृदयों में प्रिय से प्रिय स्थान हडप लिया है और हमारी मातृभाषाओं को अपने अधिकार के स्थान से हटा दिया है.अंग्रेजी को जो यह अस्वाभाविक स्थान मिल गया है,उसका कारण है अंग्रेजों के साथ हमारे असमान सम्बन्ध . अंग्रेजी के ग्यान के बिना भी भारतीयों के दिमाग का ऊंचे से ऊंचा विकास होना चाहिये . हमारे लडकों और लडकियों को यह सोचने के लिए प्रोत्साहित करना कि अंग्रेजी के ग्यान के बिना उत्तम समाज में प्रवेश नहीं मिल सकता,भारत के पुरुषत्व और खास करके स्त्रीत्वकी हिन्सा करना है.यह इतना अपमानजनक विचार है,जो सहन्नहीं किया जा सकता.अंग्रेजी के मोह से छूटना स्वराज्य का एक आवस्स्श्यक और अनिवार्य तत्व है. यंग इंडिया, २.२.'२१


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अफ़लातून - view profile
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Sat, Sep 16 2006 7:29 pm
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"अफ़लातून" ...@gmail.com>
राजीतजी ने अमित को उत्तर दिया है और जीतूजी मेरे बारे में कुछ जानने की उत्सुकता जता रहे हैं.उनके बारे में तो मित्र अनूप ने उनके ब्लॊग की सालगिरह पर कुछ खट्टा,कुछ मीठा लिख ही दिया है,अनूप के सुपुत्र को ब्लॊग की सालगिरह पर फोन पर तकादे के बाद. अभी 'समय के साथ चलने वाली' अमित की बात न छूटे इसलिए सर्वप्रथम पुन: राष्ट्रपिता के सहारे : --"रूस ने बिना अंग्रेजी के विग्यान में इतनी उन्नति कर ली है.आज हम अपनी मानसिक गुलामीकी वजह से ही यह मानने लगे हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम नही चल सकता . मैं काम शुरु करने के पहले ही हार मान लेने की इस निराशापूर्ण वृत्ति को कभी स्वीकार नहीं कर सकता."(हरिजनसेवक,२५अगस्त,१९४६) -----"जापान की कुछ बातें सचमुच हमारे लिए अनुकरणीय हैं. जापान के लडकों और लडकियों ने यूरोप से जो कुछ पाया है,अपनी मातृभाषा जापानी के जरिए ही पाया है,अंग्रेजी के ज़रिए नहीं.जापानी लिपि बडी कठिन है,फिर भी जापानियों ने रोमन लिपि को कभी नही अपनाया.उनकी सारी तालीम जापानी लिपि और जापानी भाषा के ज़रिए ही होती है.जो चुने हुए जापानी पश्चिमी देशों से खास प्रकार की शिक्षा के लिए भेजे जाते हैं,वे भी जब आवश्यक ग्यान पा कर लौटते हैं,तो अपना सारा ग्यान अपने देशवासियों को जापानी भाषा के ज़रिए ही देते हैं.अगर वे ऐसा न करते और देश में आकर दूसरे देशों के जैसे स्कूल और कॊलेज अपने यहां भी बना लेते,और अपनी भाषा को तिलांजलि दे कर अंग्रेजी में सब कुछ पढाने लगते,तो उससे बढ कर बेवकूफ़ी और क्या होती? इस तरीके से जापानवाले नई भाषा तो सीखते,लेकिन नया ग्यान न सीख पाते."(हरिजनसेवक,१फ़रवरी,१९४२) "जापानियों ने इतनी तेजी से तरक्की की,इसका कारण यह है कि उन्होंने अपने देशमें पश्चिमी ढंग की शिक्षा को कुछ चुने हुए लोगों तक ही सीमित रखा और उनके द्वारा जापानियों में पश्चिम के नए ग्यान का प्रचार जापानी भाषा के जरिए ही करवाया.यह तो हर कोई आसानी से समझ सकता है कि अगर जापानवाले किसी विदेशी भाषा के ज़रिए यह सारा काम करते,तो वे पश्चिम के नए तरीकों को कभी न अपना पाते."
सेवाग्राम,२७-१-'४२,हरिजनसेवक,१-२-'४२.
~~~~~~~~~~~~~~~~ जीतूजी अब आपकी जिग्यासा पर - पारिवारिक पृष्टभूमि के कारण बचपन से हिन्दी,गुजराती,ऒडिया और बांग्ला पढ ,बोल लेता हूं.लिखता सिर्फ़ हिन्दी में हूं.अनुवाद लेखों और भाषणों का ,इनसे और अंग्रेजी से करता हूं.'धर्मयुग','हिन्दुस्तान';'जनसत्ता'(सम्पादकीय पृष्ट के लेख) और फ़ीचर सेवाओं के जरिए भी लिखता हूं. १९७७ से १९८९ के विश्वविद्यालयी जीवन में काम काज की भाषा के तौर पर हिन्दी के प्रयोग के लिए आग्रह और १९६७ के 'अंग्रेजी हटाओ,भारतीय भाषा लाओ' की काशी की पृश्टभूमि के कारण इस बाबत कुछ सफलता भी मिलती थी.काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग मे हिन्दी में शोध प्रबन्ध जमा किया जा सकता है.१५ अगस्त २००६ से अब तक चार देशों मे रह रहे मात्र २३ लोगों को इंटरनेट पर हिन्दी पढना और लिखना बताया. और रुचि हो तो http://samatavadi.blogspot.com , http://samajwadi.blogspot.com ,http://samatavadi.wordpress.com अथवा अंग्रेजी में aflatoon +samajwadi खोजें.

From:
Amit - Date:
Sat, Sep 16 2006 11:25 pm
Email:
Amit ...@yahoo.com>
यह मेरी इस थ्रेड में आखिरी ईमेल है, इसके बाद मैं इस विषय पर कोई ईमेल नहीं करूँगा। अफ़लातून और रंजीत, दूसरों को भला बुरा बोलने से पहले ये देखो कि अंग्रेज़ी भक्ती का आरोप किस पर लगा रहे हो। यहाँ पर सभी हिन्दी में लिखते हैं, यदि अंग्रेज़ी भक्त होते तो हिन्दी में नहीं लिखते जिसमें कंप्यूटर पर लिखना आज भी अंग्रेज़ी लिखने के मुकाबले अधिक कठिन है।
दूसरे, आप दोनों ने हिन्दी के लिए कितने झंडे गाड़ दिए हैं जो दूसरों पर उंगली उठा रहे हैं? रंजीत बाऊ, मुझे आपकी बात का उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं है, कुछ बोल दिया तो गश खाकर गिर पड़ोगे, क्योंकि दुनिया का सीधा सा उसूल है, दिमाग वाली बातें उन्हीं को समझ नहीं आती जो या तो मूर्ख हैं या दिमाग का प्रयोग नहीं करते।
शब्बाखैर
cheers Amit
From:
अनुनाद -Date:
Sun, Sep 17 2006 3:20 am
Email:
"अनुनाद" ...@gmail.com>
भाई लोग,

कुछ भी कहिए, लेकिन यह चर्चा मुझे तो काफ़ी सार्थक लगी
अगर पचास या सौ साल पहले की बात न करते हुए वर्तमान में भारत और चीन की तुलना करें तो स्वभाषा में शिक्षा का महत्व बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है चीन में भारत की तरह अँगरेज़ी की अंधेरगार्दी नही है, लेकिन वह विज्ञान, टेकनालोजी, राजनय, या किसी अन्य मामले में भारत से आगे ही है कहने में बुरा तो लगता है, ेपर सही है की अपने यहाँ छापने वाले (रिसर्च) पेपर या अन्य शोध प्रबंध कितने मौलिक होते है और कितने में कट- पेस्ट तकनीक का इस्तेमाल होता है? इसमे अँगरेज़ी शिक्षा का योगदान नहीं तो और क्या है?
और जहां तक पनामा नहर(रट्टा मारने) का सवाल है, अंगरेजी के कारण इसको अधिक बढावा मिल रहा है। इसका कारण यह है कि छोटी कक्षाओं के बच्चे अभी अंगरेजी सीख ही रहे होते हैं, उन्हे अंगरेजी में कोई विषय पढ़ाने का मतलब है विषय की कठिनाई के साथ-साथ भाषा की कठिनाई को भी उसमे सम्मिलित कर लेना। ऐसे में अच्छे शिक्षक होने के बावजूद भी बच्चों के सामने रटने के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं होता।



From:
Ravishankar Shrivastava - Date:
Sun, Sep 17 2006 9:50 am
Email:
Ravishankar Shrivastava raviratl...@gmail.com


:) रवि

From:
जीतू Jitu - Date:
Sun, Sep 17 2006 9:54 am
Email:
"जीतू Jitu" ...@gmail.com>
साथियों, चर्चा गम्भीर होती जा रही है, आइए परिचर्चा <http://www.akshargram.com/paricharcha> पर इसे आगे बढाएं, यहाँ सिर्फ़ ६ या ७ लोग ही चर्चा कर रहे है, इसलिए चिट्ठाकार फोरम इसके लिए मुफ़ीद जगह नही। इस चर्चा का अगला थ्रेड परिचर्चा पर ही खोलिए, यहाँ मत करिए। धन्यवाद।
On 17/09/06, Ravishankar Shrivastava ...@gmail.com> wrote:

> :) > रवि -- ---------------------------------------------------------------------------­

गुरुवार, सितंबर 14, 2006

हिन्दी दिवस ( १४ सितंबर ): महात्मा गांधी के विचार

मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं , वे आत्महत्या ही करते हैं . यह उन्हें अपने जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित करती है . विदेशी माध्यम से बच्चों पर अनावश्यक जोर पडता है . वह उनकी सारी मौलिकता का नाश कर देता है . विदेशी माध्यम से उनका विकास रुक जाता है और अपने घर और परिवार से अलग पड जाते हैं . इसलिए मैं इस चीज को पहले दरजे का राष्ट्रीय संकट मानता हू . ( विथ गांधीजी इन सीलोन , पृष्ट १०३ )

इस विदेशी भाषा के माध्यम ने बच्चों के दिमाग को शिथिल कर दिया है . उनके स्नायुओं पर अनावश्यक जोर डाला है , उन्हें रट्टू और नकलची बना दिया है तथा मौलिक कार्यों और विचारों के लिए सर्वथा अयोग्य बना दिया है . इसकी वजह से वे अपनी शिक्षा का सार अपने परिवार के लोगों तथा आम जनता तक पहुंचाने में असमर्थ हो गये हैं . विदेशी माध्यम ने हमारे बालकों को अपने ही घर में पूरा विदेशी बना दिया है . यह वर्तमान शिक्षा -प्रणाली का सब से करुण पहलू है . विदेशी माध्यम ने हमारी देशी भाषाओं की प्रगति और विकास को रोक दिया है . अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो , तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिये हमारे लडके और लडकियों की शिक्षा बंद कर दूं और सारे शिक्षकों और प्रोफ़ेसरों से यह यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूं या उन्हें बर्ख़ास्त करा दूं . मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इन्तजार नहीं करूंगा . वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे - पीछे चली आयेंगी . यह एक ऐसी बुराई है , जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिये .

( हिन्दी नवजीवन , २ - ९- ‘२१ )

सोमवार, सितंबर 11, 2006

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बनारस तुझे सलाम !

मालेगांव में आतंकी घटना के बाद वहां की जनता ने आतंकियों के प्रतिक्रिया फैलाने के मक़सद को अपनी सूझ - बूझ से नाकामयाब कर दिया . उसे सलाम !इस मौके पर काशी में हुए ऐसे ही काण्ड के बाद ‘ साझा संस्कृति मंच ‘ द्वारा निकाले गये जुलूस में वितरित पर्चे को देना उचित है.काशी के बनारसीपन को झकझोरने की एक नापाक कोशिश गत मंगलवार को हुई . अपने विश्वास को संविधान , कानून , राष्ट्र और जनता से ऊपर समझने वाली घिनौनी , आतंकी कार्रवाई का मक़सद निरपराध इंसानों का कत्ल करना होता है ताकि प्रतिहिंसा , साम्प्रदायिकता और विघटन का एक और दौर शुरु हो जाए . बनारसीपन की जीत हुई . पूरा देश काशी की जनता के विवेक , मर्यादा और साहस से अभिभूत है .संकट की इस घडी में आम काशीवासियों की भूमिका पर गौर करें . गोदौलिया के पटरी व्यवसाइयों की मुस्तैदी ने एक और विस्फोट होने से पूर्व ही उसे विफल कर दिया . विस्फोटों में घायल हुए लोगों को अस्पतालों तक पहुंचाने और रक्तदान करने में स्वत:स्फूर्त ढंग से प्रकट बनारस की लोकशक्ति का दर्शन हुआ . सडक पर मौजूद एक एक ऒटोरिक्षा एम्ब्युलेंस बन गया था . बनारसियों के लिए काशी का मतलब हृदय का प्रकाश भी है . यह प्रकाश हमें दैहिक , दैविक और भौतिक सन्ताप से मुक्ति की शक्ति देता है -परहित सरिस धरम नहि भाई , पर पीडा सम नहि अधमाई .गोस्वामी तुलसीदास के इस संदेश के साथ - साथ हर बनारसी कबीर की इस चेतावनी को भी भली भांति समझता है कि -तन फाटे की औषधि , मन फाटे की नाहि .प्रतिवर्ष होली जलाते वक्त हम हिरण्यकश्यप की कुटिल चाल के नाकामयाब होने का स्मरण करते हैं . हिरण्यकश्यप चाहता था कि सब उसे ही भगवान मानें और उसकी पूजा करें . संविधान , क़ानून , राष्ट्र और जनता से ख़ुद को ऊपर समझने वाली हिरण्यकश्यप - वृत्ति आज भी देश की जनता की एकता , सद्भावना , परस्पर विश्वास और लोकतांत्रिक मर्यादाओं पर कुठाराघात का प्रयास कर रही हैं . साम्प्रदायिकता या आतंकवाद उसका आदेश मानने वाली बहिन होलिका की भांति हैं जिसके माध्यम से कई निर्दोष और मासूमों को अपना शिकार बनाने की कोशिशें होती हैं . काशी की जनता भक्त प्रह्लाद की भांति अग्निपरीक्षा में सफल हुई.

बुधवार, सितंबर 06, 2006

रामगोपाल दीक्षित

इस क्रान्ति दिवस ( ९ अगस्त ) पर १९७४ में 'क्रान्ति का बिगुल' बजाने वाले कवि और वरिष्ट गांधीवादी रामगोपाल दीक्षित की ८९ वर्ष की अवस्था में म्रुत्यु हो गयी .सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन के दौर में लाखों की जन - मेदिनी को लोकनायक जयप्रकाश सम्बोधित करते थे.इन सभाओं की शुरुआत दीक्षितजी के क्रान्ति गीत से ही हो यह उनकी फ़रमाइश होती थी . आपातकाल के 'दु:शासन पर्व ' में 'तिलक लगाने तुम्हे जवानों , क्रान्ति द्वार पर आई है ' के रचयिता दीक्षितजी की उत्तर प्रदेश पुलिस को तलाश थी.
लोक शैली में आल्हा सुनाने तथा कथा - वाचन में निपुणता के कारण दीक्षितजी तरुण शान्ति सेना के शिबिरों के लोकप्रिय प्रशिक्षक थे .सच्चे अर्थों में राष्ट्रीयता ( राष्ट्रतोडक राष्ट्रवाद नहीं ), अनुशासन और दायित्व के बोध व निर्वाह के गुणों के कारण वे शान्ति सेना के 'तत्पर शान्ति सैनिक ' थे . सर्वोदय और सम्पूर्ण क्रान्ति से प्रेरित उनके गीत आन्दोलन को शक्ति देते थे और तरुणों के चित्त में त्वरा का संचार कर देते थे . बुन्देलख्ण्ड का होने की वजह से बागियों के आत्मसमर्पण के बाद बने चम्बल शान्ति मिशन से भी वे जुडे थे . तत्काल गीत रच देने और स्वर दे देने मे उन्हें प्रवीणता हासिल थी.
तरुण शान्ति सेना के शिबिरों में दीक्षितजी की कथा और गीतों के अलावा उनके द्वारा कराये जाने वाले खेलों का ज़िक्र भी जरूरी है . यह सभी खेल बिना किसी खर्च के खेले जाते थे तथा मनोविनोद के साथ साथ शारीरिक और मानसिक क्षमताओं को तराशने वाले होते थे .
क़रीब दो वर्ष पहले पांव मे लगी चोट के कारण उन्हें कानपुर में भर्ती कराया गया था . चिकित्सकों का कहना था कि कम से कम छ: महीने उन्हें आराम करना चाहिये . दीक्षितजी ने कहा के वे आश्रित हो कर रहने के आदि नही नही रहे हैं और इसलिये वे हमीरपुर जिले के अपने पैत्रूक गांव मुसकर चले आए और प्रतिदिन दो -तीन किलोमीटर तक पैदल चलना भी शुरु कर दिया.
मुलायमसिंह यादव की सरकार ने ' लोकतंत्र सेनानियों ' को सम्मानित करने का फ़ैसला लिया है . 'लोकतंत्र सेनानियों ' के सबसे बडे सेनापति लोकनायक जयप्रकाश नारायण के निकट सहयोगी और उनके विचारों को अपने गीतों द्वारा तरुणों के ह्रुदय में अंकित कर देने वाले दीक्षितजी की सुध किसी सरकार को नहीं रही और न ही वे सरकारी सुध के मुखापेक्षी थे यद्यपि अन्तिम दौर में आर्थिक कठिनाइयों का सामना उन्हे करना पडा .
अहिन्सक संघर्ष की तालीम मे रामगोपाल दीक्षितजी का योगदान स्थाई है.
(अफ़लातून )
अध्यक्ष, समाजवादी जनपरिषद (उ.प्र.)

क्रान्ति गीत
जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है, तिलक लगाने तुम्हे जवानों क्रान्ति द्वार पर आई है.
आज चलेगा कौन देश से भ्रष्टाचार मिटने को , बर्बरता से लोहा लेने,सत्ता से टकराने को.
आज देख लें कौन रचाता मौत के संग सगाई है. (तिलक लगाने..)
पर्वत की दीवार कभी क्या रोक सकी तूफ़ानों को,क्या बन्दूकें रोक सकेंगी बढते हुए जवानों को?
चूर - चूर हो गयी शक्ति वह , जो हमसे टकराई है .(तिलक लगाने.. )
लाख़ लाख़ झोपडियों मे तो छाई हुई उदासी है,सत्ता - सम्पत्ति के बंगलों में हंसती पूरणमासी है.
यह सब अब ना चलने देंगे,हमने कसमें खाई हैं . (तिलक लगाने..)
सावधान, पद या पैसे से होना है गुमराह नही,सीने पर गोली खा कर भी निकले मुख से आह नही.
ऐसे वीर शहीदों ने ही देश की लाज बचाई है . ( तिलक लगाने..)
आओ क्रुषक , श्रमिक , नगरिकों , इंकलाब का नारा दो-कविजन ,शिक्षक , बुद्धिजीवियों अनुभव भरा सहारा दो.
फ़िर देखें हम सत्ता कितनी बर्बर है बौराई है,तिलक लगाने तुम्हे जवानों क्रान्ति द्वार पर आई है..
- रामगोपाल दीक्षित
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सोमवार, सितंबर 04, 2006

पानी की जंग पर राष्ट्रीय सम्मेलन

साझा संस्कृति मंच तथा जनान्दोलनों के राष्ट्रीय समन्वय द्वारा आयोजित ' पानी की जंग ' विषयक राष्ट्रीय सम्मेलन में पारित लोक संकल्प दिनांक ३० जून ,२००६, स्थान - सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय ,वाराणसी


हमारी अमूल्य जल - निधि को लूटने वाली ,प्रदूषणकारी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से पीडित किसानों ,महिलाओं ,बुनकरों तथा सामाजिक - राजनैतिक कार्यकर्ता , समर्थक समूहों ,शैक्शिकजनों,शोधकर्ता व संस्क्रुतिकर्मियों का समावेश यह लोक संकल्प व्यक्त कर रहा है -

(१) हमारी स्पष्ट मान्यता है कि पानी किसी की सम्पत्ति नहीं , कुदरत की देन है और इसलिये इस पर सबका अधिकार है.हांलाकि सवर्ण जातियों द्वारा दलितों को पानी से वंचित करना इस नज़रिये का दुखद अपवाद रहा है.
(२) हमारे देश का साझा संवैधानिक द्रुष्टिकोण है कि एक कल्याणकारी राज्य की बुनियादी जिम्मेदारी है कि वह सभी नागरिकों के लिये जीने का अधिकार तथा पानी जैसे अनिवार्य साधनों की उपलब्धता सुनिश्चित करे.
(३) भारतीय संविधान के ७४वें संशोधन समेत मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था के अंतर्गत पानी का कामकाज ग्राम पंचायतों व शहरी निकायों द्वारा संचालित होगा.
यह तीनों अवधारणांए भारत में पानी के बाजार के निर्माण तथा मुनाफ़ाखोर कंपनियों के पूर्ण नियंत्रण के आडे आते हैं.जब तक पानी के बारे में यह विचार नही बदलते,पानी का धंधा पूरी तरह से नही चल पायेगा.
पानी की बाबत इन बुनियादी उसूलों पर चोट करने और मुनाफ़ाखोर कम्पनियों की लूट के दरवाजे खोलने के लिये -
(१)विश्व बैंक का जल संसाधन रणनीति मसौदा (मार्च २००२) कहता है : "सुधरी हुई सेवाएं उन बाज़ार आधारित नियमों को आगे बढाएंगी जिनके तहत पानी का अधिकार स्वैच्छि्क रूप से अस्थाई या स्थाई तौर पर कम पैसे वाले उपभोक्ताओं से ज्यादा पैसे वाले उपभोक्ताओं को हस्तान्तरित करना आसान हो जायेगा."
(२)विश्व व्यापार संगठन के सेवाओं के स्वतन्त्र व्यापार हेतु बने नियमों ( गैट्स ) के तहत सदस्य देशों को पानी की आपूर्ति जैसी सार्वजनिक सेवाओं के उदारीकरण के कार्यक्रम के प्रति प्रतिबद्धता जतानी पडती है .पानी आपूर्ति का स्पष्ट उल्लेख न होने के बावजूद गैट्स के तहत ऐसे नियम बना दिये गये हैं जिनकी वजह से नियन्त्रण हटाने और निजीकरण की परिस्थिति बन जाये.मसलन एक नियम के तहत इन विदेशी कम्पनियों के मूल देश हमारे देश के ऐसे कानूनों,नीतियों और कार्यक्रमों को चुनौती दी जा सकती है जिन्हे वे सेवाओं की बिक्री मे बाधा मानते हैं. यह नियम शासन के हर स्तर - राष्ट्रीय, प्रान्तीय अथवा स्थानीय स्तर पर लागू होते है.
(३) एशियाई विकास बैंक के भारत में एक परियोजना दस्तावेज के मुताबिक यह स्पष्ट करना जरूरी है कि - " पानी अब कुदरत की देन नही बल्कि ऐसा संसाधन है जिसका ' चुस्त प्रबन्ध ' होना चाहिये." दरअसल बैंक चाहता है कि पानी का 'बेहतर प्रबन्ध' बहुराष्ट्रीय कम्पनियो के मुनाफ़े के लिये हो.
(४) उत्तर प्रदेश विकास परिषद में देश के एक बडे पूंजीपति अनिल अम्बानी द्वारा प्रदेश के पांच बडे नगरों की जल आपूर्ति व निकासी की व्यवस्था निजी हाथों मे सौंपने के प्रस्ताव पर कार्रवाई शुरु हो चुकी है.
हमारे बुनियादी उसूलों पर लगातार बढ रहे इन हमलों के प्रति सचेत हो कर हम संकल्प करते हैं कि -
(१) पानी के बाजारीकरण , निजीकरण और निगमीकरण के हर आपराधिक प्रयास का कारगर प्रतिरोध किया जायेगा .
(२)जल संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाएगी .संरक्षण , उपयोग और प्रबन्ध का अधिकार पूरी तरह स्थानीय समुदायों का होगा . जल स्वराज्य का यह बुनियादी आधार है तथा इससे छेड-छाड के सभी प्रयास आपराधिक क्रुत्य होंगे. अपने सबसे मूल्यवान संसाधन की जिम्मेदारी हम सरकार में बैठे नौकरशाहों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले कत्तई नही छोड सकते .
(३)कोका कोला और पेप्सी कोला कम्पनियों द्वारा जहरीले उत्पादन और विपणन से पर्यावरण नष्ट हो रहा है तथा स्थानीय समुदायों के जीवन पर खतरा बन गया है . इन्हें रोकने के लिए संघर्ष को व्यापक और धारदार बनाया जाएगा .
(४)मेंहदीगंज , प्लाचीमाडा और कालाडेरा जैसे साहसिक प्रतिरोध बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा हमारे संसाधनों की लूट के विरुद्ध संघर्षों का प्रतीक बन चुके हैं . इन भयानक व्यावसायिक शक्तियों के विरुद्ध संघर्षरत किसानों , महिलाओं , आदिवासियों व कारीगरों के आंदोलनों का हम पूर्ण समर्थन करते हैं तथा पूरी दुनिया से इनके उत्पादों का बहिष्कार करने का आह्वान करते हैं .
(५) शासन की जिम्मेदारी है कि सभी लोगों को पानी मुहैया कराए . पानी उसकी कीमत चुकाने की औकात के आधार पर नही मिलना चाहिये . घरों , बस्तियों के अलावा रेलवे स्टेशनों पर साफ़ , मुफ़्त पेय जल की व्यवस्था हो ताकि लोग पानी खरीदने के लिये मजबूर न हों .
(६) कम्पनियों द्वारा खेती में निरन्तर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर तरीके अपनायें जा रहे हैं . नए बीजों के साथ - साथ नए कीटनाशक , नए उर्वरक और भारी सिंचाई के पैकेज बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सरकारों की मदद से थोपतीं हैं जिसके प्रति सचेत हो कर वैकल्पिक कॄषि के रचनात्मक प्रयासों को आन्दोलनों का स्वरूप दिया जाएगा .
(७) इस सम्मेलन की स्पष्ट राय है कि नदी जोड परियोजना अवैग्यानिक और अलोकतान्त्रिक है . इसके कारण देश के लोगों का बडा नुकसान होगा और नदियां धीरे धीरे मर जाएंगी . इस परियोजना के जो फ़ाएदे गिनाए जा रहे हैं उन्हें साबित करने के लिये सरकार के पास पर्याप्त प्रमाण नही हैं .इस परियोजना के कारण नदियों पर आधारित आबादी के आवास व रोजगार मे भारी कमी होगी .इससे बाढ , जलजमाव , पनी के खारे होने जैसी समस्याएं और ज्यादा होंगी. इस पर बहुत ज्यादा खर्च होगा . इतना खर्च करने के लिये सरकार को अन्तर्राष्ट्रीय संस्थानों तथा निजी क्षेत्र से धन जुटाना होगा . इसका नतीजा होगा जल का निजीकरण और इसकी कीमतों मे भारी व्रुद्धि . जल के निजीकरण का सीधा नतीजा होगा जल और खाद्य सुरक्षा का खातमा . भारी खर्च के लिये भारी विदेशी कर्ज के कारण देश को आर्थिक व राजनैतिक आज़ादी खोनी भी पडेगी .
प्रस्तावक , अफ़लातून (अध्यक्ष , समाजवादी जनपरिषद,(उ.प्र.))