शुक्रवार, अगस्त 31, 2007

नारोदनिक,मार्क्स,माओ और गाँव-खेती : ले. सुनील

 

पिछले भाग से आगे :

    दरअसल मार्क्सवादी और पूंजीवादी दोनों प्रकार के चिंतन में खेती व गांव एक पुरानी , पिछड़ी और दकियानूसी चीज है ,  एक पुरानी सभ्यता के अवशेष हैं । संयुक्त राज्य अमेरिका , कनाडा और पश्चिमी यूरोप में राष्ट्रीय आय में और कार्यशील आबादी में खेती का हिस्सा दो - तीन प्रतिशत से ज्यादा नहीं रह गया है । वहाँ तेजी से नगरीकरण हो रहा है । यूरोप के कुछ हिस्सों में तो कई गांव उजड़ चुके हैं या वहां कुछ बूढ़ों के अतिरिक्त कोई नहीं रहता है । हमारे अनेक नेताओं और बुद्धिजीवियों की दृष्टि में यही हमारी भी मंजिल है और इस दिशा में बढ़ने को वे स्वाभाविक व वांछनीय मानते हैं ।

    गांवों और खेती से विस्थापन की शुरुआत पश्चिम यूरोप में पूंजीवाद के आगमन के साथ ही हो गई थी । वहां बड़े पैमाने पर किसानों को जमीन से बेदखल किया गया था । इंग्लैंड में खेतों की जगह वस्त्र उद्योग के लिए बड़े पैमाने पर भेड़ पालन के लिए चारागाह बनाए गए थे । इससे , नवोदित बड़े उद्योगों के लिए सस्ते बेरोजगार मजदूरों की विशाल फौज भी उपलब्ध हुई । औद्योगिक क्रांति की प्रक्रिया का यह एक अनिवार्य व महत्वपूर्ण हिस्सा था । मार्क्स ने बताया कि जमीन से बेदखल इन मजदूरों ने " श्रम की सुरक्षित औद्योगिक फौज " को बढ़ाने का काम किया । मार्क्स ने इस प्रक्रिया को " प्राथमिक पूंजी संचय " का नाम दिया। भारत में आज जो कुछ हो रहा है उसकी तुलना इससे की जा सकती है । क्या सिंगूर नन्दीग्राम भी भारत का ' प्राथमिक पूंजी संचय ' है और पूंजीवाद के आगे बढ़ने की निशानी है ?  क्या इसीलिए बंगाल की वामपंथी सरकार इस प्रक्रिया को 'कष्टदायक किन्तु अनिवार्य' मानकर चल रही है ?

    कार्ल मार्क्स की खूबी यह थी कि पूंजीवाद के विकास के पीछे की इन सारी प्रक्रियाओं को उन्होंने उधेड़कर रख दिया था , और उनका निर्मम विश्लेषण किया था।किन्तु उनकी एक कमी यह थी कि पश्चिम यूरोप की इन तत्कालीन प्रक्रियाओं को उन्होंने इतिहास की अनिवार्य गति माना और यह मान लिया कि पूरी दुनिया में देर-सबेर इन्हीं प्रक्रियाओं को दोहराया जाना है।सांमंतवाद से पूंजीवाद में प्रवेश , फिर पूंजीवाद के अन्तर्विरोधों के परिपक्व होते हुए संकट आना और तब श्रमिक क्रांति के साथ समाजवाद का आगमन , यह इतिहास की अनिवार्य गति है । दुनिया के हर हिस्से को इस प्रक्रिया से गुजरना होगा तथा इसी पूंजीवादी औद्योगीकरण को बायपास करके कोई भी देश सीधे समाजवाद की ओर नहीं जा सकता । रूस के नारोदनिकों के साथ कम्युनिस्टों की बहस का प्रमुख मुद्दा यही था । नारोदनिक  सोचते थे कि जार को हटाकर रूस की पारम्परिक गांव आधारित सामुदायिक व्यवस्था से सीधे समाजवाद की ओर जाया जा सकता है । आज माकपा के महासचिव प्रकाश करात कह रहे हैं कि नन्दीग्राम -  सिंगूर मसले पर बंगाल सरकार की आलोचना करने वाले वामपंथी नारोदनिकों की ही तरह बात कर रहे हैं और सच्चे मार्क्सवादी नहीं हैं ।पूंजीवाद का विकास भी पश्चिम यूरोप की तरह होगा जिसमें बड़े - बड़े उद्योग होंगे तथा उनमें हजारों - हजारों की संख्या में मजदूर काम करेंगे । इन्हीं करखनिया मजदूरों के बढ़ते संगठन तथा उनकी बढ़ती वर्ग चेतना की बदौलत साम्यवादी क्रांति होगी और वे ही क्रांति के हरावल दस्ते होंगे ।

    इस सिद्धान्त में मार्क्स के अनुयायियों का विश्वास इतना गहरा था कि दुनिया के गैर-यूरोपीय हिस्सों में भी वे मानते रहे हैं कि पूंजीवाद का आगमन एवं विकास इतिहास का एक अनिवार्य और प्रगतिशील कदम है तथा औद्योगिक मजदूर ही क्रान्ति के अग्रदूत होंगे । भारत सहित तमाम देशों वहां की जमीनी असलियतों को नजरअन्दाज करते हुए , वे संगठित क्षेत्रों के मजदूरों को ही संगठित करने में लगे रहे । जाहिर है कि इस विचार में किसानों का कोई स्थान नहीं था । जमीन से चिपके होने के कारण किसान ' सर्वहारा ' नहीं हो सकते । सोवियत क्रांति में बोल्शेविकों ने किसानों का समर्थन हासिल किया था और बोल्शेविकों की जीत में इस समर्थन की महत्वपूर्ण भूमिका थी । लेकिन बाद में सोवियत रूस में औद्योगीकरण के एक अनिवार्य कदम के रूप में कृषि उपज की कीमतों में कमी की गयी , तब किसानों ने अपना अनाज बेचने से इंकार कर दिया । तब किसानों से जमीन छीनकर जबरदस्ती सामूहिक फार्म बना दिये गये और विरोध करने वाले लाखों किसानों को स्टालिन राज में मौत के घाट उतार दिया गया या दूरदराज के इलाकों में निष्कासित करके निर्माण कार्यों में मजदूरी पर लगा दिया गया । तभी से किसानों को ' कुलक ' कहकर मार्क्सवादी दुनिया में तुच्छ नजरों से देखा जाता है और आम तौर पर , उन्हें क्रांति-विरोधी माना जाता है । भारत में भी कई बार वामपंथियों द्वारा किसान आन्दोलनों को कुलक आंदोलन कह कर तिरस्कृत किया गया है ।

    चीन की परिस्थितियाँ अलग थीं और रूस जितना सीमित औद्योगीकरण भी वहां नहीं हुआ था । इसलिए माओ के नेतृत्व में चीन की साम्यवादी क्रांति पूरी तरह किसान क्रांति थी । इसलिए प्रारंभ में साम्यवादी चीन का रास्ता अलग भी दिखायी देता है । घर के पिछवाड़े इस्पात भट्टी , नंगे पैर डॉक्टरों और साईकिलों का चीन विकास की एक अलग राह पकड़ता मालूम होता है । लेकिन संभवत: पश्चिमी ढंग के औद्योगीकरण की श्रेष्ठता व अनिवार्यता का विश्वास मार्क्सवादी दर्शन में इतना गहरा था कि चीन के साम्यवादी शासकों ने भी यह मान लिया कि ये सब तो संक्रमणकालीन व्यस्थाएं हैं , अंतत: चीन को भी उसी तरह का औद्योगीकरण करना है , जैसा यूरोप-अमरीका में हुआ । इसी विश्वास और विकास की इसी राह की मजबूरियों आखिरकार साम्यवादी चीन को भी पूरी तरह पूंजीवादी पथ का अनुगामी बना दिया । यहाँ नोट करने लायक बात यह है कि सोवियत संघ के पतन के बाद चीन ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों का मॉ्डल है । बुद्धदेव भट्टाचार्य और मनमोहन सिंह , दोनों चीन का गुणगान और अनुकरण करते नजर आते हैं । विशेष आर्थिक क्षेत्र की अवधारणा भी चीन से ही आई है ।चीन से जो खबरें आ रही हैं , उनसे मालूम होता है कि वहाँ बड़े पैमाने पर विस्थापन , बेदखली , प्रवास और बेरोजगारी का बोलबाला है । कई नन्दीग्राम वहाँ पर भी हो रहे हैं ।

    तो मार्क्सवाद की धारा में पूंजीवाद और ( पश्चिम यूरोप की तरह के) औद्योगीकरण से कोई छुटकारा नहीं है । समाजवाद के पहले पूंजीवाद को आना ही होगा । मार्क्स ने जिन्हें उत्पादन की शक्तियां कहा है , जिन्हें प्रचलित भाषा तकनालाजी कहा जा सकता है , जब तक उनका विकास नहीं होगा  तब तक समाजवाद के आने के लिए स्थिति परिपक्व नहीं होगी। पूरी दुनिया को इसी रास्ते से गुजरना होगा। आधुनिक औद्योगिक विकास का एक वैकल्पिक रास्ता सोवियत संघ का था , जिसमें पूंजी संचय और बड़े उद्योगों के विकास का काम सरकार करती है । किन्तु सोवियत मॉडल के फेल हो जाने के बाद , अब कोई दूसरा रास्ता नहीं है। इसीलिए बंगाल की वामपंथी सरकार ने टाटा और सालेम समूह को आमंत्रित करके ही बंगाल के औद्योगीकरण की योजना बनाई है । देश के अन्य राज्यों के मुख्यमन्त्रियों की तरह ज्योति बसु और बुद्धदेव भट्टाचार्य भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित करने के लिए विदेश यात्राएं करते हैं । जिस टाटा - बिड़ला को कोसे बगैर भारतीय साम्यवादियों का कोई कार्यक्रम पूरा नहीं होता था , उसी टाटा से आज उनकी दोस्ती व प्रतिबद्धता इतनी गहरी हो गयी है कि वे अपने किसानों पर लाठी-गोली चला सकते हैं, लेकिन उनका साथ नहीं छोड़ सकते हैं । यह सब वे बंगाल के औद्योगीकरण के लिए कर रहे हैं । जाहिर है कि औद्योगीकरण में यह आस्था अंधविश्वास की हद तक पहुंच गयी है ।

    दरअसल , उदारवादी या नव उदारवादी तथा मार्क्सवादी दोनों विचारधाराओं में पूंजीवाद के विकास के एक महत्वपूर्ण आयाम को नजरअन्दाज करने से यह गड़बड़ी पैदा हुइ है। वह यह है कि पूंजीवाद के विकास में औपनिवेशिक लूट व शोषण की एक महत्वपूर्ण तथा अनिवार्य भूमिका थी । पूंजी संचय का स्रोत सिर्फ देश के अन्दर किसानों का विस्थापन और मजदूरों का शोषण नहीं था । पूरी दुनिया के किसानों , मजदूरों, करीगरों और पारम्परिक धंधों के शोषण व विनाश पर यूरोप की औद्योगिक क्रांति आधारित थी । यदि इंग्लैंड , फ्रान्स , जर्मनी , स्पेन , हालैन्ड , आदि के पास पूरी दुनिया के उपनिवेश नहीं होते , तो औद्योगिक क्रांति हो ही नहीं सकती थी । असली सर्वहारा तो इन उपनिवेशों के किसान, बुनकर ,करीगर और आदिवासी थे। आज भी नव-औपनिवेशिक तरीकों से पूरी दुनिया को लूटकर व चूसकर ही यूरोप-अमरीका में पूंजीवाद फला-फूल रहा है । भूमंडलीकरण इसी प्रक्रिया का नवीनतम और व्यापकतम रूप है। अमेरिका यूरोप की समृद्धि और एशिया-अफ़्रीका-लातिनी अमेरिका की कंगाली व बदहाली एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।

( जारी )

 

 

मंगलवार, अगस्त 28, 2007

औद्योगीकरण का अन्धविश्वास : ले. सुनील

    सिंगूर और नन्दीग्राम की घटनाओं से और इनके पहले कलिंगनगर तथा दादरी जैसे संघर्षों से इतना जरूर हुआ है कि भूमण्डलीकरण के रास्ते पर दौड़ते मदांध शासक वर्ग के पैर कुछ ठिठके हैं तथा देश में एक बहस छिड़ी है । विशेष आर्थिक क्षेत्रों की मंजूरी कुछ दिनों के लिए रुकी है तथा सरकारें कुछ पुनर्विचार के लिए मजबूर हुई हैं ।

    लेकिन अक्सर यह बहस सतही स्तर पर हो रही है और समस्या के सतही समाधान खोजे जा रहे हैं । विशेष आर्थिक क्षेत्रों और उद्योगों के लिए विस्थापन के कई आलोचक भी ( जिनमें माकपा भी शामिल है ) इस तरह के सूत्र व सुझाव दे रहे हैं । जैसे कहा जा रहा है कि उपजाऊ , तीन फसली या दो फसली जमीन इनके लिए न ली जाए । खाली पड़ी, पड़त , बंजर या कम उपजाऊ भूमि पर उद्योग या विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाये जा सकते हैं। किन्तु  यह कहने से अपेक्षाकृत पिछड़े और समूचे आदिवासी इलाकों में विस्थापन को समर्थन मिल जायेगा । इस नियम से सिंगूर-नन्दीग्राम गलत होगा,किंतु कलिंगनगर- काशीपुर सही हो जाएगा । दरअसल सवाल जमीन की गुणवत्ता का नहीं है । जमीन कैसी भी हो , उस इलाके के बहुसंख्यक लोगों की जिंदगी और जीविका का प्रमुख आधार होती है । इस जमीन को छीन लेने से वहाँ के लोगों के जीवन पर बड़ा संकट आ जाता है । यह भी कहा जा रहा है कि विस्थापन तो हो किन्तु पुनर्वास अच्छा हो , विस्थापितों को रोजगार मिले और नए उपक्रमों में विस्थापितों को शेयर दिये जाएं । भारत सरकार भी एक नई पुनर्वास नीति तैयार करने में जुटी है । लेकिन अपने अनुभव से हम जानते हैं कि पुनर्वास नीति कितनी ही अच्छी क्यों न हो , उस पर अमल नहीं होता तथा विस्थापितों के साथ कभी न्याय नहीं होता । विस्थापितों के मुकाबले परियोजना में निहित बड़ी ताकतों के हित ज्यादा भारी हो जाते हैं । सरदार सरोवर परियोजना का उदाहरण हमारे सामने है ।

    यह भी दलील दी जा रही है कि कंपनियों के लिए सरकारें भूमि का अधिग्रहण न करें कंपनियां स्वयं जमीन किसानों से खरीदें। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के विषय में भारत सरकार का ताजा फैसला यही है । इससे किसानों से जमीन छीन कर कंपनियों को कौड़ियों के मोल सौंपने की प्रक्रिया पर निश्चित ही रोक लगेगी और जमीन के अरबों-खरबों के घोटाले रुकेंगे। लेकिन जहाँ कंपनियों को करों में छूटें और लूट के अवसरों से मुनाफों के पहाड़ दिखाई दे रहे हैं , वहाँ वे किसानों को आकर्षक कीमत देकर भी जमीन खरीद सकती हैं । और नए कंपनी-सरकार राज में किसानों को जमीन बेचने के लिए कई तरह के दबाव और बल का प्रयोग करने में भी कंपनियाँ नहीं चूकतीं हैं । कंपनियों के हाथ में जमीन जाने की प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए हमारी सरकारें भी कई कदम ऊठा रही हैं । भूमि हदबन्दी कानूनों को शिथिल किया जा रहा है और भूमि का बाजार विकसित करने की कोशिश की जा रही है। खेती में जिस तरीके से लगातार नुकसान हो रहा है और वह तेजी से घाटे की खेती बनती जा रही है, उसके चलते कई जगहों पर किसान स्वयं भी जमीन बेचने के लिए तैयार(या मजबूर) हो रहे हैं । लेकिन सवाल यह है कि क्या बड़े पैमाने पर जमीन किसानों के हाथ से निकलकर कंपनियों के हाथ में जाना तथा खेती से निकलकर उद्योगों व अन्य उपयोगों में जाना उचित और वांछनीय है?

    यहीं पर कुछ बुनियादी सवाल आ जाते हैं। वे यह हैं हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था में खेती , उद्योगों और अन्य गतिविधियों का क्या तथा कितना स्थान होगा ? क्या विकास के लिए औद्योगीकरण जरूरी है? यह औद्योगीकरण किस प्रकार का होगा? आखिर माकपा नेताओं ने सिगूर-नन्दीग्राम के सन्दर्भ में यही तर्क तो दिए हैं ! उनका कहना है कि भूमि सुधारों के जरिए खेती के विकास की एक सीमा है जो पश्चिम बंगाल में आ चुकी है । खेती में एक हद से ज्यादा रोजगार नहीं मिल सकता है । अब आगे के विकास के लिए बंगाल का औद्योगीकरण जरूरी है और इसके लिए टाटा , सालेम समूह आदि को बुलाना जरूरी है। "क्या किसान का बेटा किसान ही रहेगा ? " - बुद्धदेव भट्टाचार्य ने यह प्रश्न अपने विरोधियों से पूछा है । इन दलीलों का स्पष्ट जवाब माकपा-विरोधियों को देना होगा और इन प्रश्नों का समाधान खोजना होगा । इन पर एक विस्तृत बहस चलाने का समय आ गया है ।

     यह बहस इसलिए भी जरूरी है , क्योंकि सिंगूर-नन्दीग्राम की घटनाओं पर अनेक प्रतिक्रियाएं वाममोर्चा सरकार के नैतिक पतन , माकपा की गुण्डागर्दी , आदि तक सीमित रही हैं । औद्योगीकरण और विकास की वर्तमान नीति और उसके पीछे की सोच पर पर्याप्त सवाल नहीं उठाए गए हैं । यदि विकास की कोई वैकल्पिक राह नहीं खोजी गयी,तो भूमण्डलीकरण के झोले में से सिंगूर व नन्दीग्राम तो अनिवार्य रूप से निकलेंगे ही।

( जारी )

शुक्रवार, अगस्त 24, 2007

म.प्र. राज्य सुरक्षा अधिनियम : दुरुपयोग द्वारा दमन: ले. सुनील

लेख का उत्तरार्ध यहाँ पढ़ें

    जिस कानून के तहत अनुराग-शमीम को जिला बदर करने का नोटिस दिया है , वह आमतौर पर शातिर अपराधियों , खूंखार अपराधी गिरोहों , जुआरियों , वैश्यावृत्ति का अड्डा चलाने वालों आदि के विरुद्ध इस्तेमाल किया जाता है । उनकी श्रेणी में राजनैतिक कार्यकर्ताओं को रखकर जिला प्रशासन ने इस कानून का दुरपयोग किया है । इसके पहले मध्यप्रदेश के के बड़वानी जिले के जागृत आदिवासी दलित संगठन के आदिवासी नेता एवं पूर्व विधायक विशंभरनाथ पाण्डे के विरुद्ध भी इसी तरह की कार्यवाहियाँ की गयी हैं। हाल ही में,छत्तीसगढ़ के एक अन्य कानून में श्रमिक नेता शहीद शंकर गुहा नियोगी के पूर्व सहयोगी , चिकित्सक और समाजसेवी डॉ. विनायक सेन को गिरफ़्तार करके जेल में रखा गया है । स्पष्ट है किइस प्रकार के कानूनों के मनमाने दुरुपयोग की काफ़ी संभावनाएं छोड़ी गयी हैं ।

    म.प्र. राज्य सुरक्षा अधिनियम , १९९० में भी सबसे बड़ा दोष है कि किसी व्यक्ति के खिलाफ यह कानून इसलिए नहीं लगाया जाता है कि उसने कोई जुर्म किया है। बल्कि इसलिए कि जिला मजिस्ट्रेट 'इस बात से संतुष्ट है' या उसे 'ऐसा प्रतीत होता है' कि वह व्यक्ति कोई अपराध करने वाला है या उसे प्रेरित करने वाला है या करने के लिए आमादा है या वह पुन: अपराध करेगा । इस कानून की धारा ५ का इस्तेमाल तो उन व्यक्तियों के खिलाफ़ भी किया जा सकता है,जिन्होंने पहले कोई जुर्म नहीं किया हो। धारा १६ के तहत स्वयं को निर्दोष साबित करने का भार भी आरोपी पर ही डाल दिया गया है । यह भारतीय न्याय व्यवस्था के आम सिद्धान्त के विपरीत है ,जिसमें व्यक्ति को तब तक निर्दोष माना जाता है , जब तक उसके खिलाफ़ आरोप साबित न हो जाएं । धारा १९ में कहा गया है कि राज्य सरकार को या उसके अफ़सरों को अपनी जानकारी का स्रोत बताने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता ।इसका मतलब है कि सरकारी अफ़सर बिल्कुल काल्पनिक,हवाई या मनगढ़न्त आरोप भी लगा सकते हैं और इस धारा की शरण ले सकते हैं। इस कानून का दुरपयोग करने वाले अफ़सरों को भी धारा ३३ ने अभयदान दे रखा है । इस धारा में प्रावधान है कि इस कानून के तहत 'अच्छे इरादे से की गयी किसी भी कार्यवाही' के लिए किसी भी अफ़सर के खिलाफ़ कोई भी दावा या अभियोग या मुकदमा नहीं चलाया जा सकेगा और न ही कोई हर्जाना मांगा जा सकेगा ।इस कानून के तहत अधिकारियों को आरोपी व्यक्त के खिलाफ़ कोई गवाह या सबूत पेश करने की भी जरूरत नहीं है,क्योंकि यह माना जा रहा है कि उस व्यक्ति ने गवाहों को भी दरा कर रखा है । इस कानून का सबसे बड़ा दोष यह है कि सारी कार्यवाहियाँ जिला मजिस्ट्रेट के हाथ में हैं, तथा पूरा प्रकरण न्यायालय में पेश करने की जरूरत नहीं है ।

    भारतीय संविधान में विधायिका , न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच स्पष्ट विभाजन किया गया है। इस तरह के कानून न्याय का काम  न्यायपालिका से छीनकर कार्यपालिका को देते हैं और इस मायने में संविधान की भावना के खिलाफ़ हैं।संविधान में भारत के हर नागरिक को भारत के किसी भी हिस्से में घूमने , रहने तथा अभिव्यक्ति का अधिकार मिला है , यह कानून उसका भी हनन करता है।

    इस तरह कानून अंग्रेजों ने बनाये थे , ताकि वे भारतीय जनता को मनमाने ढंग से दबाकर व आतंकित करके रख सकें। अंग्रेजी राज समाप्त होने के बाद इन कानूनों की समीक्षा होनी चाहिए थी । लेकिन उल्टे आजाद भारत की सरकारें इस तरह के नए-नए कानून ला रही हैं । लोकतांत्रिक आन्दोलनों व जन असन्तोष का समाधान करने के बजाए उन्हें दबाने के लिए तथा राजनैतिक कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित करने के लिए इन कानूनों का इस्तेमाल किया जा सकता है। एक आज़ाद व लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस तरह के कानूनों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए ।

    आजाद भारत में समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया एवं मधु लिमये ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा १५१ ( शान्ति भंग की आशंका) के मनमाने उपयोग का विरोध किया था और सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। बाद में, आपातकाल के दौरान , मीसा तथा डी आई आर कानूनों में सारे विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया था,तब भी इनके खिलाफ एक माहौल बना था ।लेकिन जेलों में बन्द नेता और उनके दल सत्ता में आने के बाद सब भूल गये व उसी राह पर चलने लगे हैं । हाल ही में, २५ जून को भारतीय जनता पार्टी ने आपातकाल की बरसी मनाई और लगभग उसी समय मध्यप्रदेश में उनकी सरकार शमीम-अनुराग दम्पती को जिला-बदर का नोटिस देने की तैयारी कर रही थी। यदि इस प्रवृत्ति को नहीं थामा गया,तो देश में पिछले दरवाजे से तानाशाही आते देर नहीं लगेगी । कहीं ऐसा न हो कि गरीबों के लिए लड़ने वाले कार्यकर्ताओं को जिला-बदर करते-करते लोकतंत्र का ही देश-निकाला हो जाए ?

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( सुनील समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।)

उनका पता : ग्राम/पोस्ट केसला ,जिला होशंगाबाद,म.प्र.,४६११११

इस मामले में आप एक ऑनलाइन प्रतिवेदन पर हस्ताक्षर कर सकते हैं, यहाँ

गुरुवार, अगस्त 23, 2007

'लोकतंत्र का जिला-बदर' : ले. सुनील

    भारत एक लोकतंत्र है । कई बार हम गर्व करते हैं कि जनसंख्या के हिसाब से यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है । अपने पड़ोसियों की तुलना में हमने लोकतंत्र को बचाकर रखा है। लेकिन इस लोकतंत्र में आम लोगों की इच्छाओं , आकांक्षाओं तथा चेतना को बाधित करने व कुचलने की काफ़ी गुंजाइश रखी गयी है । ऐसा ही एक मामला मध्य - प्रदेश के हरदा जिले के सामने आया है ।

    हरदा जिले के कलेक्टर ने इस जिले में आदिवासियों , दलितों और गरीब तबकों को संगठित करने का काम कर रहे एक दम्पति को जिला बदर करने का नोटिस दिया है। समाजवादी जनपरिषद नामक एक नवोदित दल से जुड़े शमीम मोदी और अनुराग मोदी पर आरोप लगाया है कि वे बार - बार बिना सरकारी अनुमति के बैठकों , रैली , धरना आदि का आयोजन करते हैं तथा आदिवासियों को जंगल काटने और वनभूमि पर अतिक्रमण करने के लिए भड़काते हैं । वे परचे छापते हैं और जबरन चन्दा करते हैं। मध्य-प्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम १९९० की धारा ५ (ख) के तहत एक वर्ष की अवधि के लिए हरदा व निकटवर्ती जिलों होशंगाबाद , सीहोर, देवास , खंडवा तथा बैतूल से जिला बदर करने का नोटिस उन्हें दिया गया है ।

    इस नोटिस से ऐसा प्रतीत होता है कि शमीम और अनुराग मानों कोई खतरनाक गुण्डों और अपराधी गिरोह के सरगना हैं । लेकिन इकहरे बदन वाले दुबले-पतले मोदी दम्पति

से हरदा की सड़कों पर टकरायें,तो दूसरी ही धारणा बनती है। वे लोग गुण्डागर्दी तो क्या करेंगे , लेकिन पिछले कई सालों से सरकारी तंत्र के गुण्डाराज से जरूर टकरा रहे हैं । बरगी बाँध के विस्थापितों के संघर्ष में साथ देने के बाद पिछले दस वर्षों से वे बैतूल , हरदा , और खण्डवा जिलों में आदिवासी तथा गरीब तबकों के साथ हो रहे अन्याय ,अत्याचार व शोषण के खिलाफ उन्हें संगठित करने का काम कर रहे हैं । मूल रूप से हरदा के ही निवासी अनुराग शिक्षा से इंजीनियर हैं। शमीम ने मुंबई के प्रतिष्ठित टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइन्सेज़ से शिक्षा प्राप्त की है।दोनों अपनी नौकरी को लात मारकर इस कठिन काम में आ कूदे हैं । इस कार्य के लिए उन्हें प्रतिष्ठा और मान्यता भी मिली है। आदिवासी वन अधिकार कानून के विषय में बनी संयुक्त संसदीय समिति और योजना आयोग ने समय-समय पर उन्हें आमंत्रित किया है। आज उन्हीं को हरदा जिला प्रशासन समाज - विरोधी तत्व तथा अपराधी गिरोह का सरगना बताकर जिला बदर करने को तुला है। इससे स्वयं मध्य प्रदेश सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा हो गया है।

    शमीम व अनुराग ने आज तक किसी को गाली भी नहीं दी है, मारना या मारने की धमकी देना तो दूर की बात है। उनका हर आन्दोलन अनुशासित और शान्तिपूर्ण होता है। इसके विपरीत , सत्तादल भाजपा-कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की गुण्डागर्दी की खबरें आती रहती हैं। पिछले वर्ष उज्जैन में प्रोफेसर सभरवाल हत्याकाण्ड इसका उदाहरण है । ऐसे लोगों के खिलाफ़ प्रदेश ने जिला बदर की कार्यवाही करने की जरूरत नहीं समझी, बल्कि उन्हें बचाया जाता है ।

    दरअसल देश के आदिवासी इलाकों में विवाद का मुद्दा उस भूमि का है जिस पर वन नहीं है,आदिवासी खेती कर रहे हैं किन्तु सरकारी रिकार्ड में वह 'वनभूमि' के रूप में दर्ज है । इस कारण बड़ी संख्या में आदिवासी अपनी भूमि के जायज हक की मान्यता से वंचित है,अतिक्रमणकर्ता कहलाते हैं और उन पर अत्याचार होता है । इस ऐतिहासिक अन्याय को दुरुस्त करने के लिए पिछले साल संसद में एक कानून भी बनाया गया ।हांलाकि, इस कानून में अनेक खामियाँ रह गयीं हैं । आदिवासियों के इसी हक को मान्यता दिलाने तथा कानून की खामियों दुरुस्त करने के लिए देश भर के जनसंगठनों ने अभियान चलाया था। किन्तु हरदा जिले में यही अभियान 'जुर्म' बन गया । इसी के परचों , बुलेटिनों, बैठकों और सभाओं को जिला प्रशासन ने जिला बदर की कार्यवाही का आधार बनाया है । भारत की संसद जिस हक के लिए को कानूनी मान्यता देती है,उसे भारत के एक जिले का कलेक्टर 'गुनाह' बना देता है। विडम्बना यह है कि इसी वर्ष मध्य प्रदेश सरकार ने १८५७ के विद्रोह में आदिवासियों के योगदान को याद किया , टण्टया भील और बिरसा मुण्डा के नाम से जिले-जिले में समारोह किये। अपने समय में अंग्रेज सरकार की निगाह में टण्टया भील भी 'लुटेरा' और 'डाकू' था। आज आदिवासी हक के लिए संघर्ष करने वाले भी 'समाज-विरोधी' तथा 'अपराधी' हैं। ऐसा लगता है कि डेढ़ सौ साल में कुछ नहीं बदला है।

( जारी)

अनुराग- शमीम के जिला बदर के प्रतिवाद में ज्ञापन पर समर्थन जतायें, यहाँ ।

उक्त प्रतिवेदन पर हिन्दी में हस्ताक्षर और समर्थन वक्तव्य दिया जा सकता है।

रविवार, अगस्त 12, 2007

साल-भर की चिट्ठेकारी

 

 

    यह चिट्ठा १५ अगस्त  २००६ को शुरु किया था । दिसम्बर २००६ तक 'नारद' पर नहीं लिया गया था इसलिए तब सर्च इंजन अथवा अन्य चिट्ठों पर की गयी मेरी टिप्पणियों अथवा ईमेल से मेरे द्वारा भेजी गयी कड़ियों से ही पाठक पहुँचते थे । दिसम्बर २००६ तक केवल ग्यारह टिप्पणियाँ मिलीं , उसके बाद ३३० । कुल प्रविष्टियाँ १२५ हैं। इसके अलावा हिन्दी में 'शैशव' तथा 'यही है वह जगह' नामक दो चिट्ठे और हैं ,जिनका लेखा-जोखा उन पर शीघ्र दूँगा । 'यही है वह जगह' में  ३९ प्रविष्टियाँ और टिप्पणियाँ १३८ तथा 'शैशव' में ६४ प्रविष्टियाँ और १८७ टिप्पणियाँ हैं।इन दोनों चिट्ठों के 'नारद' पर आने में भी करीब चार महीने लग गए ।

    यहाँ 'समाजवादी जनपरिषद' की तमाम प्रविष्टियों के शीषक उनकी कड़ियों-सहित दे रहा हूँ। प्रविष्टियों का वर्गीकरण इस अनुक्रमणिका के लिए किया है। काश, प्रविष्टियाँ छापते वक्त यही वर्गीकरण रखा होता !

   वर्डप्रेस की आँकड़ों के हिसाब से मात्र १३,१९५ बार इन्हें देखा गया । किसी एक दिन में देखने वालों की अधिकतम  तादाद मात्र १९१ थी । साल भर के रियाज का नतीजा असन्तोषजनक लगता है । मेरी चिट्ठेकारी पर आप लोगों की बेबाक राय का खैरम-कदम !

 कविता

आगाज़ :भवानीप्रसाद मिश्र, मनुष्यता के मोर्चे पर : राजेन्द्र राजन , उदय प्रकाश की कविता : एक भाषा हुआ करती है , युद्ध पर तीन कविताएँ , एक अनुवाद ,

शिव कुमार ‘पराग’ के दोहे(साभार-’देश बड़ा बेहाल’) ,

हत्यारों का गिरोह ( राजेन्द्र राजन ) , अखबारनवीसी - सलीम शिवालवी , रघुवीर सहाय : तीन कविताएँ ,

वैश्वीकरण - निजीकरण

पानी की जंग पर राष्ट्रीय सम्मेलन , गुलामी का दर्शन : किशन पटनायक , पानी की जंग , ले.- मॊड बार्लो , टोनी क्लार्क ,

पानी की जंग ( गतांक से आगे ) , पानी की जंग : गोलबन्दिय़ां , शैशव में अतिक्रमण , स्कूलों में शीतल पेय , श्रमिकों की हत्या - उत्पीडन , दोषसिद्ध रंगभेद , कचरा खाद्य : मानकों का कचरा , जंगल पर हक़ जताने का संघर्ष , आदिवासियों ने दिखाई गांधीगिरी , कुछ और विशेष क्षेत्र : ले. राजकिशोर ( सामयिक वार्ता में ) , भारत भूमि पर विदेशी टापू : , ,   , विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास , विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास (२) , , ,  क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? : सुनील : , , , , , , प्लाचीमाडा की महिला नेता मायलम्मा , वाल मार्ट पर लिंगभेद का बड़ा मामला , बातचीत के मुद्दे : किशन पटनायक ,

वैश्वीकरण : देश रक्षा और शासक पार्टियाँ : किशन पटनायक

जगतीकरण क्या है ? : किशन पटनायकआर्थिक संप्रभुता क्या है ? : किशन पटनायक , बैंक बीमा और पेटेंट : किशन पटनायक , चीन और विदेशी पूंजी : किशन पटनायक , आयात - निर्यात और मीडिया : किशन पटनायक , ‘दो तिहाई आबादी को होगी पानी की किल्लत’ , ये परदेसी जिन्दगी : आप्रवासियों के लिए निजी जेल : दीपा फर्नाण्डीज़ : प्रस्तुति - अफ़लातून , निजी जेल कंपनियों के कारनामे : दीपा फर्नाण्डीज़ : प्रस्तुति - अफ़लातून ,

उपभोक्तावादी संस्कृति :गुलाम मानसिकता की अफ़ीम : सच्चिदानन्द सिन्हा , , , , , , , , , १० , ११

नन्दीग्राम की शहादत से उठे बुनियादी सवाल , क्या, फिर इन्डिया शाइनिंग ? , सेज विरोधी आन्दोलन की नन्दीग्राम में आंशिक सफलता

‘ गन - कल्चर ‘ पर चर्चागांधी से प्रभावित किसान नेता के बहाने ,

व्यक्तित्व , श्रद्धान्जलि

 

रामगोपाल दीक्षित , भाषा पर गाँधी , भाषा पर गांधी जी : एक बहस , भाषा पर गांधी और लोहिया भी , क्रांतिकारी दिनेश दासगुप्त :ले. अशोक सेकसरिया , गुलामी का दर्शन : किशन पटनायकगांधी - नेहरू चीट्ठेबाजी (पूर्णाहुति , ले. प्यारेलाल से) , गांधी पर , राष्ट्रपिता : गुरुदेव ने नहीं नेताजी ने कहा , गांधी पर बहस : प्रियंकर की टिप्पणियां , डॊ. भीमराव अम्बेडकर : परिनिर्वाण दिवस पर , इन्टरनेट पर गांधी , गांधी - सुभाष : भिन्न मार्गों के सहयात्री ,ले. नारायण देसाई : भाग ( २ ) , प्लाचीमाडा की महिला नेता मायलम्मा ,‘विकास’ बनाम वू पिंग का व्यक्तिगत सत्याग्रह ,

गांधी से प्रभावित किसान नेता के बहाने

 

साम्प्रदायिकता/सद्भावना , जाति , महिला

बनारस तुझे सलाम , गांधी पर , गांधी गीता और गोलवलकर , गीता पर गांधी , ' परिचर्चा ' से साभार , ' परिचर्चा ' की जारी बहस , राधा- कृष्णों की फजीहत , जे.पी. और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ , ‘आरक्षण की व्यवस्था एक सफल प्रयोग है’ ,महिला दिवस का ऐलान ,  हम इस आवाज का मतलब समझें , ‘राष्ट्र की रीढ़’ : स्वामी विवेकानन्द , ईसाई और मुसलमान क्यों बनते हैं ? - स्वामी विवेकानन्द"हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फासिस्टों ने भी यही किया था"तीन बागी गायक , गोस्वामी तुलसीदास का छद्म सेक्युलरवाद ,कत विधि सृजी नारि जग माहि ?‘ नारी हानि विसेस क्षति नाहीं ‘

 

चित्र

 

मौन जुलूस , दिनेश दासगुप्त , प्लाचीमाड़ा की महिला नेता मायलम्मा , वॉल मार्ट , सच्चिदानन्द सिन्हा की अनुमति , वूपिंग , प्रार्थना - सभा में गाँधी , पॉल रॉबसन-पीट सीगर-जोन बाएज़ ,

'बातचीत के मुद्दे' , पानी की किल्लतजोशे बोव्हे और अफ़लातून ,

 

अँग्रेजी / भारतीय भाषाएँ

हिन्दी दिवस पर : भाषा पर गाँधी , भाषा पर गांधी जी : एक बहस , भाषा पर गांधी और लोहिया भी , परिचर्चा पर बहस जारी है ,

 

चुनाव , राजनीति

राज्य आयोग का ई-पता , राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक ,

राजनीति में मूल्य (शेष भाग) : किशन पटनायक ,

विधानसभा में विपक्ष में बैठेंगे, हम , पूर्वी उत्तर प्रदेश में चुनावी राजनीति में आई गिरावट , सीख वाले खेल और गैर - जवाबदेह चुनाव आयोग , सलमान खुर्शीद और चुनाव आयोग का मनमानापन , विभेद , मौजूदा चुनाव के लोकतंत्र विरोधी संकेत ,

इन्टरनेट / चिट्ठेकारी / पत्रकारिता

इन्टरनेट पर गांधी , ‘वेब पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल’मैथिली गुप्तजी और पत्रकारिता ,

मेरी चिट्ठाकारी और उसका भविष्य , चिट्ठेकारी सम्मोहक आत्ममुग्धता की जनक , मीडिया प्रसन्न , चिट्ठेकार सन्न ….‘खुले विश्व’ के बन्द होते दरवाजे , चिट्ठे इन्कलाब नहीं लाते ! , अपठित महान : महा अपठित , अकाल तख़्त को माफ़ी नामंजूर ? , रविजी , आप भी न भूलें, भागिएगा भी नहीं , प्रतिबन्धित पुस्तिकायें,एक किस्सा और एक खेल , "डबल जियोपार्डी " नारद की राहुल पर , गीकों की ‘गूँगी कबड्डी’ , ब्लागवाणी क्यों? , ” आप चिट्ठाजगत पर क्या-क्या कर सकते हैं” , ‘चिट्ठाजगत’ का प्रतिदावा , दिल्ली चिट्ठाकार - मिलन : एक अ-रपट ,

गुरुवार, अगस्त 09, 2007

' नारी हानि विसेस क्षति नाहीं '

पिछली तीन प्रविष्टियों में रामचरितमानस का सन्दर्भ आया और स्वस्थ लोगों के बीच चर्चा-बहस हुई । घुघूती बासूती ने स्त्री के दर्द का उदाहरण शूद्र के दर्द से दिया । इष्टदेव संकृत्यायन और अनूप शुक्ला ने मानस में स्त्री विरोधी पंक्तियों के सन्दर्भ में इस बात पर गौर करने का निवेदन किया कि उक्त पंक्तियाँ किस पात्र द्वारा किन परिस्थितियों में कही जा रही हैं , इसे नजरअन्दाज न किया जाए ।

आनन्द , प्रेम और शान्ति के आह्वान के मुख्य प्रयोजन के साथ राममनोहर लोहिया ने रामायण मेला आयोजित करने की संकल्पना की थी । उन्हें लगता था कि आयोजन से हिन्दुस्तान की एकता जैसे साम्प्रतिक लक्ष्य भी प्राप्त किए जाएँगे । कम्बन की तमिल रामायण , एकनाथ की मराठी रामायण , कृत्तिबास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायणों ने अपनी-अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया ऐसा लोहिया मानते थे । उनका विचार था कि रामायण मेला में तुलसी की रामायण को केन्द्रित करके इन सभी रामायणों पर विचार किया जाएगा और बानगी के तौर पर उसका पाठ भी होगा । लोहिया का निजी मत था कि तुलसी एक रक्षक कवि थे ।

'जब चारों तरफ़ से अझेल हमले हों , तो बचाना , थामना , टेका देना , शायद ही तुलसी से बढ़कर कोई कर सकता है । जब साधारण शक्ति आ चुकी हो , फैलाव , खोज , प्रयोग , नूतनता और महाबल अथवा महा-आनन्द के लिए दूसरी या पूरक कविता ढूँढ़नी होगी ।'

लोहिया को लगता था कि , 'नारी को कलंकित करने वाली पंक्तियों को हँस कर टाल देना चाहिए कि ये पंक्तियाँ किसी शोक-संतप्त अथवा नीच पात्र के मुँह में है या ऐसे कवियों की है जो अपरिवर्तनशील युग में था । हमें आशा है कि रामायण मेले में , भाषणों द्वारा और वहाँ के वातावरण से जनता को विवेक बुद्धि मिलेगी , और सच को संगत कोण से देखने का मौका मिलेगा ।' इस चिट्ठे पर हो रही चर्चा में उठे मुद्दों पर लोहिया के विचार और उनकी योजना के प्रासंगिक अंश यहाँ दिए जा रहे हैं ।

" एक कार्यक्रम तुलसी रामायण के नवाह्न पाठ का जरूर होना चाहिए । एक अगुआ दोहा-चौपाई लय से पढ़ेगा और उसको हज़ार , दस हज़ार या लाख , जितने भी लोग हों उसी लय से दोहराने की कोशिश करेंगे । लय से पढ़ने वाले लोगों को अभी से तय करना चाहिए , उनके दिन और समय भी । इन अगुओं में औरतें , शूद्र और अन्य धर्मी जरूर रहें । द्विज तो होंगे ही । हो सकता है कि कुछ हिन्दू सोचें कि हिन्दू धर्म को भ्रष्ट किया जा रहा है और कुछ कट्टर अन्य धर्मी भी सोचें कि उनको खाने और हिन्दू धर्म में खपाने की कोशिश हो रही है ।वास्तविकता यह है कि उन्मुक्त मानव आनन्द और पूरे हिन्दुस्तान की एक राष्ट्रीयता इस तरह के नवाह्न पाठ से जगेंगे । मैं समझता हूँ कि हिन्दुस्तान की साधारण जनता उसको बहुत पसन्द करेगी ।

एक दिक्कत उठ सकती है । मान लो,कोई नारी पाठ की अगुआगिरी कर रही है और उसी समय आठ अवगुण वाली नारी के स्वभाव की चौपाई आ पड़े या ' नारी हानि विसेस क्षति नाही" , तब क्या हो? यहीं दृष्टि का सवाल उठता है। सबसे पहली बात तो यह है कि नारी और शूद्र सम्बन्धी और अन्य प्रकार की जितनी भ्रष्ट चौपाइयाँ रामायण में हैं वे ज्यादातर भ्रष्ट पात्रों के मुँह में रखी गयी हैं या किसी पागलपन के मौके पर । महाकाव्य एक महान नाटक होता है । उसमें सैंकड़ों किस्म के पात्र होते हैं ।हर पात्र की कही हुई,हर एक बात,न तो अच्छी ही होती है न चिर सत्य ।

.......इसलिए मैं उम्मीद करूँगा कि अगुआगिरी करने वाली नारी उसी झूम से उन चौपाइयों को पढ़ेगी जैसे दूसरी चौपाइयों को। मन में , जहाँ जैसी जरूरत होगी, वह पात्र पर हँस लेगी या तुलसी पर ।

....दृष्टि-सुधार के लिए इस नर-नारी सम्बन्ध का थोड़ा विश्लेषण और कर दूँ । इस सम्बन्ध में इधर (सं.-मार्च १९६१ का भाषण ) सबसे अच्छी किताब सिमोन दबोव्वार की निकली है । उनका कहना है कि सदा से नर-नारी सम्बन्ध की दो परस्पर विरोधी धुरियाँ रही हैं : एक , कि नर नारी को पूरी तरह अपने क़ब्जे में रखना चाहता है, और दूसरे , कि नारी सजीव और स्वंतंत्र हो , जिससे क़ब्जा मजेदार हो , लेकिन यह सम्भव कैसे। ऐसे क़ब्जे को हम अपनी भाषा में चुलबुला क़ब्जा कह सकते हैं,जो कि फ्रांसीसी और दूसरी भाषाओं में ,इतने कम शब्दों में कहना ,शायद सम्भव नहीं है । अधीन वस्तु सजीव और स्वतंत्र हो,यह है नर दिमाग की विडम्बना । और सिमोन का कहना बिलकुल सही है।

फिर हम तुलसी को याद करें । नारी स्वतंत्रता और समानता की जितनी जानदार कविता मैंने तुलसी की पढ़ी और सुनी उतनी और कहीं नहीं , कम से कम इससे ज्यादा जानदार कहीं नहीं ।अफ़सोस यह है कि नारी हीनता वाली कविता तो हिन्दू नर के मुँह पर चढ़ी रहती है लेकिन नारी सम्मान वाली कविता को वह भुलाये रहता है। मामला यहाँ तक बढ़ गया है कि अगर कुछ दिन पहले रामस्वरूप वर्मा ने मुझे याद नहीं न दिलाया होता तो मैं भी भूल गया था कि " पराधीन सपनेहु सुख नाहीं" का सम्बन्ध नारी से है।

चुलबुला क़ब्जा असम्भव है। निर्जीव क़ब्जा बेमजा है । नर और नारी का स्नेहमय सम्बन्ध बराबरी की नींव पर हो सकता है । ऐसा सम्बन्ध किसी समाज ने अभी तक नहीं जाना। सीता और राम में भी पूरी बराबरी का स्नेह नहीं था। समाज के अन्दर व्याप्त गैरबराबरी का कण उसमें भी पड़ गया। फिर भी, जितना ज्यादा सीता , द्रौपदी और पार्वती इत्यादि को ऊँचे और स्वतंत्र आसन पर बैठाया है ,उससे ज्यादा ऊँचा नारी का स्थान दुनिया में कहीं , और कभी नहीं हुआ । यदि दृष्टि ठीक है तो राम कथा और तुलसी - रामायण की कविता सुनने या पढ़ने से नर - नारी के साथ सम स्नेह की ज्योति मिल सकती है ।

ऐसी दृष्टि , लगता है कि हिन्दुस्तान को बहुत ठोकर खाने के बाद ही मिलेगी । दहेज की रकम बढ़ती चली आ रही है और जब माता - पिता उसे न दे पाएँगे और जब बढ़ेगा जिसे हिन्दुस्तान में अनर्थ कहा जाता है , तब लोग समझेंगे कि नारी को भी इसी तरह खोल दो जैसे नर को । पठन - पाठन और मेलों से कुछ काम जरूर बनता है ।मुझे आशा है कि जो भाषण मेले में होंगे उनसे दृष्टि बनेगी ।

.... शूद्र और पिछड़े वर्गों के मामले में रामायण में काफ़ी अविवेक है । इस सम्बन्ध में एक बात ध्यान में रहे तो बड़ा अच्छा है ।शूद्र को हीन बनाने की जितनी चौपाइयाँ हैं , उनमें से अधिकतर कुपात्रों ने कही हैं , अथवा कुअवसर पर ।इतना जरूर सही है कि द्विज और विप्र को हर मौके पर इतना ऊँचा चढ़ाया गया है कि शूद्र और बनवासी नीचे गिर जाते हैं । इसे भी समय का दोष और कवि को समय का शिकार समझ कर रामायण का रस पान करना चाहिए । मैं उन लोगों में नहीं जो चौपाइयों के अर्थ की खींचतान करते हैं , अथवा १०० चौपाइयों के मुकाबले में केवल विपरीत चौपाई का उदाहरण दे कर अपनी ग़लत बात को मनवाना चाहते हैं । यदि मैं निषाद के प्रसंग का उल्लेख इस सम्बन्ध में करता हूँ तो रामायण की सफ़ाई देने के लिए नहीं बल्कि यह दिखाने के लिए जाति - प्रथा के इस बीहड़ और सड़े जंगल में एक छोटी-सी चमकती पगडंडी है । प्रसंगवश मैं इतना और कह दूँ कि किसी चौपाई के सैंकड़ों मतलब बताने में न तुलसी की प्रतिभा है , न बताने वाले की ।विद्वत्ता तो इसी में है कि सभी सम्भव अर्थों पर टीका करते हुए सबसे सही अर्थ को स्थिर को स्थिर करना ।

निषाद भरत मंडली को लक्षमण की तरह दीखता है ।जिसको छुआ नहीं जाता है ,वह एकाएक राम का छोटा भाई कैसे बन जाता है ? तुलसी के निषाद में यह सब प्रेम का चमत्कार है । प्रेम के सामने सब रीति-रिवाज ढह जाते हैं। मुझे मालूम नहीं कि वाल्मीकि अथवा दूसरी रामायणों में प्रेम को इतनी बड़ी जगह है या नहीं ,जितना तुलसी में। एक और प्रसंग में कहा है,जहाँ भरत और राम का वर्णन है, " भरत अवधि सनेह ममता की , जदपि राम सीम समता की । " राम समता की सीमा हैं ,उनसे बढ़कर समता और कहीं नहीं है । इस समता का ज्यादा निर्देश मन की समता की ओर है , ठंड और गरम अथवा हर्ष और विषाद अथवा जय और पराजय की दोनों स्थितियों में मन की समान भावना ।मन की ऐसी भावना अगर सच है तो बाहरी जगत के प्राणियों के लिए भी छलकेगी। जिस तरह राम की समता छलकती है ,उसी तरह भरत का स्नेह भी छलकता है। दोनों निषाद को गले लगाते हैं । यह सही है कि अब पालागी और गलमिलौवल को साथ-साथ चलना प्रवंचना होगी।पालागी खतम हो और गलमिलौवल रहे ।

...... मुझे एक और दिलचस्प बात मिली है। रावण कुल के अधिकतर नाम मोटी आवाज , तेज बोल पर हैं। रावण खुद कौन है ?जो रव या हल्ला करे। मेघनाद , कुम्भकरण, सूर्पनखा का मृत पति विद्युत जिह्व सब जोर-बोल के नाम हैं।इस कुल के सभी नाम ऐसे क्यों पड़े अथवा कवियों अथवा कहानीकारों ने रव पर ही सब नाम क्यों गढ़े ? खोज का यह एक अच्छा विषय है ।

मंगलवार, अगस्त 07, 2007

कत विधि सृजी नारि जग माहि ?

    तुलसीदास का छद्म सेक्युलरवाद नामक पोस्ट में मैंने एक चौपाई की पहले की पंक्ति और एक की बाद की पंक्ति के बारे में पूछा था । टिप्पणियाँ आईं , जवाब नहीं आया ।कुछ ने पढ़ समझ कर टिप्पणियाँ दीं और कुछ को पढ़ने-समझने का सहूर होता ही नहीं । हिन्दी पढ़ाने वाले मित्र मसिजीवी ने 'छद्म' की अनावश्यकता पर प्रकाश डाला लेकिन चौपाइयों की पद-पूर्ति उन्होंने भी नहीं की ।

  किसी भी तथ्य को तोड़ने-मरोड़ने का इतिहास गोबेल्स के भक्त-समूह के साथ जुड़ा है-नालबद्ध । गाँधी-हत्या के कलंक को धोने-पोछने के निष्फल चक्कर में गाँधीजी शाखा के 'प्रात: स्मरणीय' हो गए लेकिन 'शाखा-पुस्तिका' में अब तक हत्यारों द्वारा 'गाँधी-वध' की जो 'वजह' बतायी जाती है ,उसका उल्लेख भी रहता है ।

    गोलवलकर शताब्दी के अवसर पर प्रकाशित साहित्य में गाँधीजी की तेरही पर 'गुरुजी' द्वारा भेजे गए टेलिग्राम इसका विशेष उल्लेख किया गया है - इसी पोछने वाले क्रम में । गाँधीजी की तस्वीर को जूते में रख कर चाँदमारी में निशानेबाजी करने ( हत्या से पहले ) की सूचना तत्कालीन गृहमन्त्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने गाँधीजी के सचिव प्यारेलाल को दी थी । प्यारेलाल की प्रसिद्ध पुस्तक ' पूर्णाहुति ' में इसका हवाला है ।

    १९९१- '९२ के दौर में 'रामजन्मभूमि' के पक्ष गाँधीजी के फर्जी पत्र को उछालने की कोशिश हुई थी । गाँधीजी के साहित्य का कॉपीराइट धारण करने वाले नवजीवन ट्रस्ट ने इसके फर्जी होने के बारे में वक्तव्य जारी किया था । संघियों की इस नापाक साजिश के बाद इस लेखक ने गाँधीजी के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ,'हिन्दू-राष्ट्र' , मस्जिदों में प्रतिमा रखने तथा सांप्रदायिकता से सम्बन्धित विचार 'धर्मयुग' में प्रकाशित एक लेख में प्रस्तुत किए । वह लेख संजाल पर दो हिस्सों में उपलब्ध है ।

    बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद लालकृष्ण अडवाणी ने 'धोओ-पोछो' तिकड़म के तहत नेता विरोधी दल के पद से इस्तीफा दिया था।

    बहरहाल, "इनकी गाथा छोड़ चलें हम 'मानस' के मैदानों में " और दोनो चौपाइयों की सन्दर्भ सहित पद-पूर्ति करें ।

कत विधि सृजी नारी जग माहि

    " जब पार्वती का विवाह हो गया , तब उनकी माँ मैना विदाई के मौके पर दुखी हो कर समझाने-बुझाने पर संताप की वह बेजोड़ बात कहती है , जो सारे संसार की नारी हृदय की चीख है ।

" कत विधि सृजी नारी जग माहीं ,

   पराधीन सपनेहु सुख नाही । "

" गजब है तुलसी ! क्या ममता , क्या नारी हृदय की चीख , क्या नर-नारी के आदर्श-जीवन की सूचना । आखिर उसने संसार को किस रूप में जाना है,

" सियाराम मय सब जग माहीं । "

                                - डॉ. राममनोहर लोहिया .

चेरी छोड़ न होईंहो रानी

' कोऊ नृप होंय हमे का हानि ,

चेरी छोड़ न होइहों रानी "

    यह गोस्वामीजी मन्थरा के मुँह से कहवाते हैं । मंथरा-वृत्ति आज भी व्याप्त है । इस वृत्ति के लोगों की शातिरी की यह सफलता है कि बाद की पंक्ति चर्चा पहली पंक्ति के साथ नहीं होती । पहली पंक्ति की व्याप्ति अराजनीतिकरण के व्याप्त माहौल में फ़िट बैठ जाती है ।

इष्ट देव सांकृत्यायन ने अपनी दूसरी टिप्पणी में 'मसीद' वाले पद का उल्लेख कर स्पष्ट रूप से तथ्य प्रस्तुत कर दिए हैं ।

शनिवार, अगस्त 04, 2007

गोस्वामी तुलसीदास का छद्म सेक्युलरवाद

काशी के तुलसी घाट की चर्चा करते हुए मैंने तुलसीदास द्वारा अयोध्या में कही गयी :

' माँग के खईबो , मसीद में सोईबो '

इस पंक्ति का जिक्र किया था । 'पंगेबाज' अरुण के गले नहीं उतरा तुलसीदास का अयोध्या में मस्जिद में सोना । टीप दिया कि 'मसीद' के माएने 'मस्ती' होगा । यानी उस पंक्ति के माएने मित्र चिट्ठेबाज के अनुसार हो जाएँगे , ' माँग के खाऊँगा और फिर मस्ती में सो जाऊँगा , बिन्दास ! बिना किसी पंगे के ! '

    अरुण की टीप से छद्म हाफ़ पैन्टी अनुनाद उत्साहित हो गए ।

 

सेक्युलरिज्म के हित में यही है कि मसीद का अर्थ मसजिद मान लिया जाय।

जाकी रही भावना जैसी…

    यानी अनुनाद को लगा कि तुलसीदास की बात का मैंने सेक्युलरीकरण कर दिया । उन्हें छद्म हाफ़ पैन्टी कह रहा हूँ चूँकि वे वास्तव में छद्म न होते तब कहते , ' मसीद ' का मतलब मस्जिद ही तो है । अयोध्या की 'मसीद' में ही मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम प्रकट हुए थे । ऐसे में तुलसी जैसा अनन्य रामभक्त अन्यत्र शयन क्यों करता ?

    भगवान वहाँ तुलसी के जमाने में प्रकट हुए या कलेक्टर नैय्यर के जमाने में यह बहस नई हो जाएगी ।

    बहरहाल , तुलसीदास छद्म सेक्युलरवादी सिर्फ़ इस पंक्ति से नहीं बन जाते । तुलसी भए अक़बर के जमाने में । तब, बाबर के जमाने की तथाकथित ग़लतियों पर चुप्पी क्यों साधे रहे ? अदम गोंडवी के शेर का मिसरा याद कर के?

ग़र ग़लतियाँ बाबर ने की जुम्मन का घर फिर क्यों जले ?

जुम्मन का घर जलाने नहीं गए, ऊपर से कह गए

" परहित सरिस धरम नहि भाई ,

परपीड़ा सम नहि अधमाई "

    परपीड़ा का धर्म उन्होंने हाफ़ पैन्टियों के गुरुणामगुरु हिटलर से नहीं सीखा ?

    यह छद्म सेक्युलरवादी नर - नारी समता और स्त्री - स्वतंत्रता की बातें भी करते हैं ! हिन्दू-राष्ट्र के कल्पना का समाज तो मनु महाराज की संकल्पना के आधार पर होगा !शूद्रों की भाँति स्त्रियों के कान में भी पिघला सीसा डालने वाला ! विद्वान अरुण या छद्म हाफ़ पैन्टी अनुनाद से पूछिए कि गोस्वामीजी ' पराधीन सपनेहु सुख नाहि ' कह गए, किस सन्दर्भ में ? उसका पूवार्ध क्या है ? एक विशिष्ट सोच के धनी महापुरुषों के लिए डॉ. लोहिया कह गए , ' हिन्दू नर इतना नीच हो गया है कि पहले तो इस चौपाई के पूर्वार्ध को भुला देने की कोशिश की और फिर कहीं - कहीं नया पूर्वार्ध ही गढ़ डाला - " कर विचार देखहु मन माहि " ।

    ' पराधीन सपनेहु सुख नाहि ' के वास्तविक पूर्वार्ध से पता चलता है कि किसकी पराधीनता की चर्चा महाकवि ने की है । रामचरितमानस पर विचार करते वक्त 'रामायण मेला' की कल्पना करने वाले राममनोहर लोहिया की इस बात पर भी गौर करें :

" दोहे- चौपाई को समझते समय सामयिक परिस्थिति और चिर सत्य के भेद को दिमाग में रखना चाहिए । धार्मिक कविता का यही सबसे बड़ा दोष है कि क्षणभंगुर समाज और भ्रष्ट पात्रों की भ्रष्ट -चौपाइयों और संसार के सर्वश्रेष्ठ आनन्द अथवा नीति पर एक अच्छत-रोली ,गंगा-जल छिड़क देती हैं, सभी पवित्र हो जाते हैं । "

 अब यह अरुण बताएँगे कि ' कोऊ नृप होए हमे का हानि' किस महान चरित्र का कथन था ? इस पंक्ति को मानने वाले मौजूदा समाज में भी मौजूद हैं । वे यह भी मान कर खुश हो लेते होंगे कि मानस में यह दर्शन है !

    इस देश की जनता के दिमाग में अच्छी तरह बैठा हुआ है कि राम ने गद्दी का त्याग किया , कुर्सी के लिए ख़ून-खराबा नहीं किया था ।

    स्वामी विवेकानन्द के ' छद्म सेक्युलर ' विचार मैंने जब अपने चिट्ठे पर दिए थे तब सरस्वती शिशु मन्दिर में पढ़े एक मित्र ने लिखा था , '

 

दिक्‍कत ये है कि दक्षिणपंथी हों या वामपंथी सभी इन मुद्दों पर ध्‍यान देने से कतराते हैं, रही बात विवेकानंद का नाम लेकर दुकान चला रहे झंडाबरदारों की, तो वो सिर्फ उतनी ही बातें सामने लाते हैं जिनसे उनकी दुकान जारी रहे । उनके लिये विवेकानंद का जिक्र उत्तिष्‍ठ जागृत से शुरू होता है और अमरीका वाले सम्‍मेलन के जिक्र पर खत्‍म हो जाता है । बस । इससे आगे विवेकानंद की बातें बताना उनके लिए असुविधाजनक हो जाता
है ।

बुधवार, अगस्त 01, 2007

तीन बागी गायक




पूरी दुनिया को वक्त - बेवक्त अभिव्यक्ति की आजादी का पाठ पढ़ाने वाला अमेरिका ! इन तीन अमेरिकी गायक - लेखक - राजनैतिक कर्मियों के जीवन - संघर्ष इस भ्रम को तोड़ते हैं । अपने शैशव में इन तीनों के गीत सुने , उनकी राम - कहानियाँ सुनीं ।

गहन गम्भीर आवाज़ के धनी पॉल रॉब्सन ( १८९८ - १९७६ ) राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी , लेखक , अभिनेता और राजनैतिक कर्मी थे । पिता दासता के चंगुल से भाग कर निकले , पादरी बने और बेटे को पढ़ाया ।वकालत की पढ़ाई के बाद बतौर वकील अपने गोरे मुन्शी को कुछ लिखवाना चाहा । उसने इन्कार कर दिया।इस घटना ने पॉल रॉब्सन के जीवन को मोड़ दिया।अश्वेतों के हकों के लिए संघर्ष का यक़ीन पॉल के हृदय में पक्का हो गया ।पॉल रॉब्सन ने रंगमंच और फिल्मों में उस दौर में काम किया जब हॉलीवुड़ की फिल्मों में काले अभिनेताओं के स्वतंत्र व्यक्तित्व वाली भूमिकाएँ नहीं होती थीं ।
हॉलीवुड का चरित्र इतनी जल्दी नहीं बदलने वाला था सो पॉल ने फिल्मी दुनिया से विदा ली।यह जगप्रसिद्ध अभिनेता सिडनी पोइटियर की ‘गेस हू इज़ कमिंग टु डिनर’ से पहले का दौर था । कोड़े मारने का चलन कुछ सूबों में था जिसके विरुद्ध उन्होंने संगठन बनाया । मजदूर आन्दोलन और अमेरिकी कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बन्ध के कारण उन पर तरह - तरह की बन्दिशें लगीं , पासपोर्ट जब्त हुआ ।पॉल रॉब्सन ने नाजियों और स्पेन के तानाशाह फ्रैंको के खिलाफ संघर्ष किया। मार्टिन लूथर किंग से पहले की अश्वेतों की लड़ाई की पहचान पॉल रॉब्सन से होती है ।
पीट सीगर
‘ जटिल और कठिन काम तो कोई बजरबट्टू भी कर सकता है , सरल काम को मेधावी ही अंजाम दे सकते हैं ।’ यह कहना है लोक गायक ,युद्ध विरोधी और पर्यावरणवादी पीट सीगर का । पीट के पिता संगीतशास्त्र के प्राध्यापक थे और गैर-पाश्चात्य संगीत पर उनका काम था । पीट सीगर अश्वेत नागरिक अधिकार आन्दोलन और युद्ध विरोधी आन्दोलनों में शामिल हुए और इनकी लोकप्रिय आवाज़ बने । पारम्परिक नीग्रो प्रार्थना ‘ हम होंगे कामयाब ‘ को लोकप्रियता दिलाने में पीट सीगर कारण बने। दुनिया भर के जन आन्दोलनों ने इसे अपना लिया। पीट को भी संसदीय - अवमानना की प्रक्रिया झेलनी पड़ी , टे.वि. प्रसारण पर रोक भी लगी। पीट के गीत अत्यन्त सरल और असरकारक होते हैं । मार्टिन लूथर किंग की अगुवाई में चले नागरिक अधिकार आन्दोलन पीट के संगीत समारोह लोकप्रिय हुए। प्रचलित रंगभेद पर व्यंग्यात्मक चोट इन गीतों की विशेषता थी। ‘यदि बस की पिछली सीटों पर मुझे न पाओ तो परेशान न होना,मुझे अगली कतार में बैठा पाओगे’ या ‘तरण-ताल में मुझे गायब पा कर मत चकराना,मिसीसिपी नदी के तट पर आना,मुझे पौड़ता पाओगे ।’ बस की अगली कतार और तरण तालों में अश्वेतों पर रोक पर यह व्यंग्य था।

पीट सीगर के गाए एक पसन्दीदा गीत के भावानुवाद की कोशिश :

क्या - क्या सीख के आये, दुलरुआ ?

स्कूल से क्या - क्या सीख के आये ?

आज तुम क्या - क्या सीख के आये , मेरी आँखों के तारे ?



“ हुकूमत रहे हर दम सशक्त ,

हमेशा सही , कभी न ग़लत,

सन नेता उत्तम इन्सान ,

बार -बार जिता कर हम रखते मान ।”



” वॉशिंग्टन कभी न बोले झूट

मरते हैं फौजी कभी-कदाच,

सीखा कि हम सब हैं आजाद

स्कूल में बोले मेरे उस्ताद ।”



“सीखा कि पुलिस है मेरी दोस्त,

इन्साफ़ कभी न होता पस्त ,

खूनी मरते हैं ,जुर्म के बदले ,

कभी-कदाच हो चूक भले ! “



” इतनी बुरी नहीं है जंग,

किन-किन में हम रहे दबंग,

हम लड़े जर्मनी में और लड़े फ्रान्स में ,

इक दिन आएगा , जब पाऊँगा चान्स मैं ॥ “



मूल गीत सौभाज्ञ से यू ट्यूब पर मौजूद है । ज़रूर सुनिए । पीट सीगर पिछले कुछ वर्षों से हडसन नदी की सफाई के लिए लोक अभियान चला रहे हैं । इस सरोकार के कारण ही वे बनारस भी आए ‘ स्वच्छ गंगा अभियान ‘ के न्यौते पर ।(स्वच्छ गंगा अभियान की पोल पट्टी,फिर कभी)। उनसे मिलने और उन्हें सुनने का अवसर मिला ।मैंने उन्हें ‘हिन्द स्वराज’ की प्रति भेंट दी ।हाँलाकि किताब उनकी पढ़ी हुई थी लेकिन गरिमा के साथ उन्होंने इस प्रशंसक की भेंट को क़बूला । ‘टेक्नॉलॉजी हमे बचा लेगी , हम उससे बचे रहे तब ! ‘ - पीट अपनी चुटीली शैली में कहते हैं ।

जोन बाएज़
जोन बाएज़ - बेहद ख़ूबसूरत आवाज़ की धनी , बेहद ख़ूबसूरत गायिका और आन्दोलनकारी । मेक्सिकी मूल के कारण विभेदकारी व्यवहार झेला। वाणी-स्वातंत्र्य और ,रंगभेद और जंग विरोधी आन्दोलनों में सक्रिय शिरकत। १९६९ में मेरे पिताश्री उनसे मिले थे और ‘ यत्र विश्वं भवत्येकनीड़म’ नामक यात्रा वृत्तान्त में इस मुलाकात का कुछ रूमानी- सा विवरण-वर्णन उन्होंने दिया है। उन्होंने अपने रेकॉर्डों के कई आल्बम हस्ताक्षरित कर पिताजी को भेंट दिए। पिताजी से मुलाकात का विवरण उन्हींके शब्दों में देना उचित होगा , जल्द ही कभी । प्रकाशक के पास किताब नहीं बची,लेखक से प्राप्त की जाएगी। यहाँ उनका गाया एक अत्यन्त सुन्दर गीत दे रहा हूँ ।