शुक्रवार, जनवरी 05, 2007

विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास (३)

विदेशी कंपनियों का हड़पो अभियान

गतांक से आगे : दूसरे प्रकार की विदेशी पूंजी-प्रत्यक्ष विदेशी निवेश- वास्तव में देश के अन्दर आती है । इसे दो भागों में बांटा जा सकता है - (एक) विलय और अधिग्रहण ( Merger & Acquisition ) तथा (दो) हरित निवेश ( Greenfield investment ) । भारत में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश का लगभग आधा हिस्सा तो दूसरी कंपनियों के विलय और अधिग्रहण में लग रहा है । अर्थात विदेशी कंपनियां कोई नया कारखाना या नया करोबार शुरु करने के बजाय पहले से चली आ रही देशी कंपनी के कारोबार को खरीद लेती हैं । इससे भी देश में कोई नई उत्पादक गतिविधि नहीं शुरु होती है , रोजगार नहीं बढ़ता है , सिर्फ देश में पहले से चले आ रहे कारोबार के मालिक बदल जाते हैं और उसकी कमाई विदेश जाने लगती है । पारले कंपनी के शीतल पेय व्यवसाय को अमरीका की कोका कोला कंपनी द्वारा खरीदना , टाटा की टोमको कंपनी के साबुन ब्रान्डों तथा साबुन व्य्वसाय को हिन्दुस्तान लीवर द्वारा खरीदना , फ्रांसीसी कंपनी लाफ़ार्ज द्वारा सीमेंट के अनेक कारखानों को खरीदना , इसके कुछ उदाहरण हैं। भारत के सरकारी उपक्रमों के शेयर खरीदकर उन पर अपना वर्चस्व कायम करने को भी इस श्रेणी में रखा जाएगा ( जैसे मारुति कंपनी पर सुज़ुकी नामक जापानी कंपनी का कब्जा)। पूरी दुनिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा विलय और अधिग्रहण की प्रवृत्ति जोरशोर से चल रही है । इससे बाजारों में चन्द बड़ी कंपनियों का एकाधिकारी वर्चस्व कायम हो रहा है । भारत के विभिन्न वस्तुओं के कारोबार में भी विदेशी कंपनियों का कब्जा तेजी से हुआ है । उदारीकरण के इस दौर में विलय , अधिग्रहण अवं एकाधिकार पर पाबन्दियाँ हटाने के बाद यह संभव हुआ है । इसके लिए ' एकाधिकार एवं प्रतिबन्धित व्यापार पद्धतियाँ अधिनियम (MRTP Act) को बदला गया है । इस प्रकार , विदेशी पूंजी के आने से प्रतिस्पर्धा का भी लाभ देश को नहीं मिला है , जिसका बहुत गुणगान किया जा रहा था । बल्कि कई क्षेत्रों में एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ मजबूत हुई हैं ।

    इस प्रकार जिस हरित निवेश से ही देश में उत्पादन , आय और रोजगार बढ़ने की कुछ उम्मीद की जा सकती है , वह देश में आ रही पूंजी का मात्र एक-चौथाई है । इसके बल पर भारत के शासक कैसे देश के विकास की उम्मीद कर रहे हैं , यह एक हैरानी का विषय है । इसे अंधविश्वास या अंधश्रद्धा ही कहा जा सकता है । महाराष्ट्र के प्रगतिशील समूहों ने अंधश्रद्धा निर्मूलन का काम काफी लगन से किया है । अब उन्हें भूमण्डलीकरण की इन अंधश्रद्धाओं के निर्मूलन का भी बीड़ा उठाना चाहिए ।

पूरा देश विदेशी कंपनियों के हवाले

    इसी प्रकार , निजीकरण की नीति पर भी भारत सरकार तथा हमारी राज्य सरकारें अंधे की तरह चल रही हैं  । यूरोप के कई देशों में जितना निजीकरण नहीं हुआ, उससे ज्यादा ज्यादा निजीकरण भारत में हो चुका है । विदेशी कंपनियों के लिए जिस तरह से दरवाजे खोले गए हैं और पूरी छूट दे दी गई है, उस स्थिति में निजीकरण का मतलब विदेशीकरण ही है । अर्थात देर-सबेर विदेशी कंपनियों का वर्चस्व यहाँ कायम हो जाएगा। देश के उद्योग , खेती , खदानें , बैंक , बीमा , शेयर बाजार , बिजली ,हवाई अड्डे , सड़कें , होटल , भवन निर्माण , मीडिया , शिक्षा , चिकित्सा , टेलीफोन , कानूनी सेवाएं , आडिट , पानी व्यवसाय - सबको विदेशियों के लिए खोला जा रहा है और उन्हे दावत दी जा रही है । एक ईस्ट इण्डिया कंपनी के कारण भारत को २०० वर्षों की गुलामी और बरबादी झेलनी पड़ी थी । अब हजारों विदेशी कंपनियाँ देश में पैर जमा रही हैं , तब देश का भविष्य क्या होगा , इसकी चिन्ता सरकार में किसी को नहीं है । विदेशी कंपनियों को प्रवेश देने का सरकार का सबसे ताजा पैकेज खुदरा व्यापार के क्षेत्र में है । यह एक प्रकार से भारत में बढ़ती बेरोजगारी की स्थिति में अंतिम शरणस्थली है । जब कोई और रोजगार नहीं मिला , तो माँ-बाप बेटे के लिए दुकान खोल देते हैं । लेकिन अब वहाँ भी विदेशी कंपनियों का हमला शुरु हो जाएगा ।

    जिसे विनिवेश ( disinvestment ) कहा जा रहा है , उसका भी औचित्य संदेहास्पद है। भारत सरकार हर बजट में सरकारी उद्यमों को बेचने के लक्ष्य रखती है और तेजी से उनको बेचती जा रही है । सरकार का यह काम वैसा ही है , जैसे कोई बिगड़ा हुआ , आवारा , कामचोर बेटा स्वयं कुछ कमाने के बजाय बाप-दादे की कमाइ हुई संपत्ति को बेचता जाए । भारत सरकार ठीक वही कर रही है । इससे बड़ी वित्तीय गैर जिम्मेदारी और क्या हो सकती है , क्योंकि यह संपदा एक न एक दिन तो खतम हो ही जाएगी ? विश्व बैंक के निर्देश पर वित्तीय अनुशासन के लिए भारत सरकार ने 'वित्तीय जिम्मेदारी एवं बजट प्रबंधन अधिनियम ' तो पारित किया है , लेकिन उसमें इसे वितीय गैर-जिम्मेदारी नहीं माना गया है । उसका मतलब तो सिर्फ गरीबों और आम जनता की भलाई के लिए किए जाने वाले खर्चों में कटौती करते जाना है ।

    पहले सरकार ने कहा कि जिन सरकारी उपक्रमों में हानि हो रही है , उन्हें बेचा जाएगा । हानि क्यों हो रही है , उसे कैसे दूर किया जा सकता है , यह विचार तथा कोशिश करने की जरूरत सरकार ने नहीं समझी । कई मामलों में तो स्वयं सरकार या उच्च पदस्थ अफसरों के निर्णयों , नीतियों और लापरवाही के कारण ये हानियाँ हुईं और बढ़ीं । लेकिन अब तो हानि की बात एक तरफ रह गयी है ।सरकार उन सरकारी उद्यमों को बेच रही है, जो मुनाफे में चल रहे हैं । इसका कारण भी स्पष्ट है । देशी-विदेशी कंपनियां उन उपक्रमों को आखिर क्यों खरीदेंगे , जो घाटे में चल रहे हैं ? इसलिए बजट के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अब लाभ वाले सरकारी उपक्रमों को बेचा जा रहा है । अब तो 'नवरत्नों' की बारी भी आ गयी है।[ अगली प्रविष्टी : ' निजीकरण -उदारीकरण के घोटाले ' ]

 

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