रविवार, दिसंबर 31, 2006

मनुष्यता के मोर्चे पर : राजेन्द्र राजन

मैं जितने लोगों को जानता हूँ
उनमें से बहुत कम लोगों से होती है मिलने की इच्छा
बहुत कम लोगों से होता है बतियाने का मन
बहुत कम लोगों के लिए उठता है आदर-भाव
बहुत कम लोग हैं ऐसे
जिनसे कतरा कर निकल जाने की इच्छा नहीं होती
काम-धन्धे, खाने-पीने, बीवी-बच्चों के सिवा
बाकी चीजों के लिए
बन्द हैं लोगों के दरवाजे
बहुत कम लोगों के पास है थोड़ा-सा समय
तुम्हारे साथ होने के लिए
शायद ही कोई तैयार होता है
तुम्हारे साथ कुछ खोने के लिए

चाहे जितना बढ़ जाय तुम्हारे परिचय का संसार
तुम पाओगे बहुत थोड़े-से लोग हैं ऐसे
स्वाधीन है जिनकी बुद्धि
जहर नहीं भरा किसी किस्म का जिनके दिमाग में
किसी चकाचौंध से अन्धी नहीं हुई जिनकी दृष्टि
जो शामिल नहीं हुए किसी भागमभाग में
बहुत थोड़े-से लोग हैं ऐसे
जो खोजते रहते हैं जीवन का सत्त्व
असफलताएं कर नहीं पातीं जिनका महत्त्व
जो जानना चाहते हैं हर बात का मर्म
जो कहीं भी हों चुपचाप निभाते हैं अपना धर्म
इने-गिने लोग हैं ऐसे
जैसे एक छोटा-सा टापू है
जनसंख्या के इस गरजते महासागर में

और इन बहुत थोड़े-से लोगों के बारे में भी
मिलती हैं शर्मनाक खबरें जो तोड़ती हैं तुम्हें भीतर से
कोई कहता है
वह जिन्दगी में उठने के लिए गिर रहा है
कोई कहता है
वह मुख्यधारा से कट गया है
और फिर चला जाता है बहकती भीड़ की मझधार में
कोई कहता है वह काफी पिछड़ गया है
और फिर भागने लगता है पहले से भागते लोगों से ज्यादा तेज
उसी दाँव-पेंच की घुड़-दौड़ में
कोई कहता है वह और सामाजिक होना चाहता है
और दूसरे दिन वह सबसे ज्यादा बाजारू हो जाता है
कोई कहता है बड़ी मुश्किल है
सरल होने में

इस तरह इस दुनिया के सबसे विरल लोग
इस दुनिया को बनाने में
कम करते जाते हैं अपना योग
और भी दुर्लभ हो जाते हैं
दुनिया के दुर्लभ लोग

और कभी-कभी
खुद के भी काँपने लगते हैं पैर
मनुष्यता के मोर्चे पर
अकेले होते हुए

सबसे पीड़ाजनक यही है
इन विरल लोगों का
और विरल होते जाना

एक छोटा-सा टापू है मेरा सुख
जो घिर रहा है हर ओर
उफनती हुई बाढ़ से

जिस समय काँप रही है यह पृथ्वी
मनुष्यो की संख्या के भार से
गायब हो रहे हैं
मनुष्यता के मोर्चे पर लड़ते हुए लोग ।
- राजेन्द्र राजन .

शनिवार, दिसंबर 30, 2006

भारत भूमि पर विदेशी टापू : ले. सुनील

भारत भूमि पर विदेशी टापू : ले. सुनील

अचानक इस देश में ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ ( Special Economic Zones ) की बाढ़ आ गयी है। हरियाणा व पंजाब से लेकर पश्चिम बंगाल तक और गुजरात से ले कर हिमाचल प्रदेश तक नए - नए ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ के प्रस्ताव स्वीकृत होने और बनने की खबरें आ रही हैं। अभी तक कुल १६४ प्रस्ताव केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकृत किए जा चुके हैं। भारत के विकास , समृद्धि व प्रगति के नए सोपान और सबूत के रूप में इन्हें पेश किया जा रहा है। आखिर यह है क्या चीज ?
देश के निर्यात को बढ़ाने के लिए बनाए जा रहे इन क्षेत्रों की कल्पना चीन से आई है। यह चीन की राह का अनुकरण है। पहले भारत ने ‘ निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र ‘ बनाए थे। फिर पिछले दस वर्षों से सुविधाएं और रियायतें बढ़ाते हुए इन्हें ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ का नाम दिया गया। लेकिन इनमें तेजी तब आयी , जब पिछले वर्ष २००५ में देश की संसद में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए विधिवत एक कानून बना दिया गया तथा ९ फरवरी २००६ को वाणिज्य मंत्रालय ने इसकी अधिसूचना जारी कर दी।
‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ में स्थापित होने वाले निर्यात - आधारित उद्योगों को देश के करों और कानूनों से अनेक तरह की छूटें , सुविधाएं और मदद दी जाती है। इनकी परिभाषा ही यह है कि वे व्यापार करों व शुल्कों की दृष्टि से ‘ विदेशी क्षेत्र ‘ माने जाएंगे। भारत के नियम , कानून व कर वहाँ लागू नहीं होंगे। वे एक प्रकार से भारत सरकार की संप्रभुता से स्वतंत्र , स्वयम संप्रभू इलाके होंगे। यह माना जा रहा है कि अनेक विदेशी कंपनियाँ इन क्षेत्रों की ओर आकर्षित होंगी और उनके आने से भारत का निर्यात तेजी से बढ़ेगा। विदेशी पूंजी को आकर्षित करने में भारत पिछड़ता जा रहा है। चीन भारत से बहुत आगे है। इन क्षेत्रों के बनने से वह कमी भी दूर हो जाएगी। विशेष आर्थिक क्षेत्रों में करों में रियायतों की सूची लम्बी है। ये रियायतें इन क्षेत्रों में स्थापित होने वाले उद्योगों तथा क्षेत्र का विकास करने वाली कंपनियां , दोनों के लिए होगी। वस्तुओं और सेवाओं , दोनों को प्रदान करने वाली इकाइयों को छूट मिलेगी। आयकर में छूट पन्द्रह वर्ष के लिए होगी , जिसमें पाँच वर्ष तो शत - प्रतिशत छूट होगी और अगले पाँच वर्ष भी ५० प्रतिशत छूट होगी। विदेशों से मंगाए जाने वाले कच्चे माल या उपकरणों पर कोई आयात शुल्क नहीं लगेगा। देश के अन्दर से खरीदी गई चीजों पर उत्पाद शुल्क नहीं लगेगा और केन्द्रीय बिक्री कर की राशि वापस कर दी जाएगी। लाभांश वितरण कर , न्यूनतम वैकल्पिक कर , पूंजीगत लाभ कर , ब्याज पर कर , बिक्री कर , वैट आदि में भी छूट दी गई है। इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों में सेवा कर भी माफ़ रहेगा। जिन उद्योगों में अभी विदेशी पूंजी निवेश पर सीमा है , जैसे बीमा , दूरसंचार या निर्माण , उनमें १०० प्रतिशत विदेशी शेयरधारिता की अनुमति भी दी जाएगी। लाइसेन्स आदि की झंझटों व प्रतिबन्धों से भी मुक्ति रहेगी। विशेष आर्थिक क्षेत्रों में सस्ते कर्ज की सुविधा मिलेगी , सारी अनुमतियाँ एक जगह देने की एकल - खिड़की व्यवस्था बनाई जाएगी और विभिन्न प्रकार की निगरानी के लिए भी एक ही एजेन्सी होगी। बदले में बस एक ही शर्त रहेगी कि विशेष आर्थिक क्षेत्र की इकाइयों को कुल मिलाकर शुद्ध विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाला होना चाहिए। वे सब आयात भी कर सकती हैं , किंतु उनके निर्यात , आयात से ज्यादा होने चाहिए। राज्य सरकार के करों व शुल्कों से विशेष आर्थिक क्षेत्रों की इकाइयों को मुक्त करने के लिए हरियाणा सरकार ने तो केन्द्रीय कानून की तर्ज पर ‘ हरियाणा विशेष क्षेत्र अधिनियम , २००५ ‘ भी पास कर लिया है।
करों व नियमों में ये छूटें न केवल विशेष आर्थिक क्षेत्रों के उद्योगों को होगी , बल्कि सेवाओं और व्यापार में भी मिलेगी। जैसे सूचना तकनालॊजी में। जो विदेशी बैंक अपनी शाखा वहाँ खोलेंगे , उनके मुनाफे पर टैक्स नहीं लगेगा। कोई कंपनी वहाँ बिजली कारखाना खोलेगी , तो उसे भी कर नही देना पड़ेगा। जो कंपनियाँ या फन्ड्स वहाँ स्थित नहीं हैं , किन्तु जिन्होंने वहाँ पूंजी लगाई है , उनके ब्याज व मुनाफ़े पर भी कर नहीं लगेगा। कुल मिलाकर ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ एक तरह के ‘ कर - स्वर्ग ‘ होंगे , जहाँ सरकार के करों और प्रतिबन्धों से पूरी आजादी होगी।
भारत के कम से कम दो दर्जन कानून विशेष आर्थिक क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे। वहाँ के विवादों और मुकदमों के फैसला करने वाली अदालतें भी अलग होंगी। यद्यपि भारत सरकार ने स्पष्ट किया है कि देश के श्रम , बैंकिंग और शेयर बाजार के कानून वहाँ लागू होंगे , किन्तु देर - सबेर वहाँ श्रम कानूनों में छूट दी जाएगी, यह तय है। चीन के विशेष आर्थिक क्षेत्रों में आने का यह एक प्रमुख आकर्षण था कि चीन के श्रम कानून वहाँ लागू नहीं होते थे। ये कंपनियाँ चाहे जब मजदूरों को लगा व निकाल सकें , ठेका मजदूर या चाहे जिस रूप में मजदूरों को लगा सकें और चाहे जो मजदूरी दें - ये आजादी विशेष आर्थिक क्षेत्र में उनको हो इसकी वकालत भारत में भी की जा रही है . गुजरात और महाराष्ट्र की सरकारों ने तो आसान श्रम कानूनों की योजना बनाई भी है। खबर है कि छ; राज्य सरकारों ने केन्द्रीय श्रम मंत्रालय के पास प्रस्ताव भेजा है कि इन क्षेत्रों में ‘ सरल ‘ श्रम कानूनों की अनुमति दी जाए। भारत के आर्थिक नक्शे पर चमकते हुए ये क्षेत्र मजदूरों के सबसे बुरे शोषण के क्षेत्र भी हो सकते हैं। इसी प्रकार , पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण - रोकथाम के नियमों को भी इन क्षेत्रों में ताक पर रखा जा सकता है।इस प्रकार से अब देश दो भागों में बंट जाएगा। एक ‘घरेलू शुल्क क्षेत्र ‘ जहाँ देश के कानून लागू होंगे ,दो ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ जो देश के कानूनों , नियमों व लोकतांत्रिक प्रशासन से परे व ऊपर होंगे .
ये विशेष आर्थिक क्षेत्र १० हेक्टेयर से ले कर हजारों हेक्टेयर के हो सकते हैं। कोई ऊपरी सीमा नहीं है और रिलायन्स के कुछ विशेष आर्थिक क्षेत्र तो १५ हजार हेक्टेयर तक के विशाल भूभाग में बन रहे हैं। ये विशेष आर्थिक क्षेत्र किसी एक वस्तु या सेवा पर केन्द्रित भी हो सकते हैं और अनेक वस्तुओं या सेवाओं के भी हो सकते हैं। भारत सरकार द्वारा तय नियमों के मुताबिक अनेक वस्तुओं के उद्योगों वाले ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ का न्यूनतम क्षेत्रफल १००० हेक्टेयर होना चाहिए। एक वस्तु या सेवा के क्षेत्र ( जैसे हीरा - जवाहरात या जैव - तक्नालाजी या सूचना तकनालाजी ) न्यूनतम १० हेक्टेयर तक भी हो सकते हैं।
भारत सरकार ने यह भी छूट दी है कि इन ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ के कुल क्षेत्रफल में उद्योगों की इकाइयों का क्षेत्रफल ३५ प्रतिशत से ज्यादा करने की बाध्यता नहीं होगी। दूसरे शब्दों में ६५ प्रतिशत तक जमीन पर आवासीय कालोनी , रेस्तराँ , मल्टीप्लेक्स , मनोरंजन केन्द्र , शापिंग माल , गोल्फ़ कोर्स , हवाई अड्डा , स्कूल , अस्पताल आदि बनाये जा सकते हैं। कहने को तो ये सुविधाएं ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ के अन्दर के उद्योगों व इकाइयों में कार्यरत मजदूरों व कर्मचारियों के लिए होगी , किन्तु क्षेत्र के बाहर के लोगों को भी इनका इस्तेमाल करने से रोकने का कोई तरीका तो नही होगा। इसका मतलब यह भी है कि निर्यात संवर्धन की आड़ में कई अन्य धन्धे भी यहाँ पनप सकते हैं। महानगरों के पास सस्ती जमीन , करों में छूट और बाहर से सीमेन्ट , इस्पात , लिफ्ट , बिजली उपकरण आदि चीजें निशुल्क आयात करने की सुविधा के कारण कई जमीन - जायदाद का धन्धा करने वालि निर्मान कंपनियों के लिए भी ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ का आकर्षण बढ़ गया है। राहेजा , यूनिटेक , डीएलेफ़ , युनिवर्सल आदि ऐसी ही कंपनियां हैं जो ‘ विशेष आर्थि क्षेत्र बनाने तथा विकसित करने के लिए आगे आ गयी हैं।
इसी प्रकार , विशेष आर्थिक क्षेत्र कानून में विनिर्माण की परिभाषा इतनी व्यापक रखी गयी है कि उसमें रेफ्रिजरेशन ( प्रशीतन ) , रंगाई , कटाई , मरम्मत करना , पुननिर्माण , पुन: इंजीनियरिंग आदि को भी विनिर्माण मान लिया गया है। इसका मतलब है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र में वास्तविक उत्पादन न हो कर कहीं और हो , सिर्फ वहाँ एक मामूली गतिविधि की इकाई डालकर तमाम कर-छूटों का लाभ उठाया जा सकता है।
‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ बनाने के लिए कोई भी सरकारी या निजी कंपनी आवेदन कर सकती है। राज्य सरकार से सहमति लेने के बाद केन्द्र सरकार को आवेदन किया जा सकता है। इन आवेदनों पर शीघ्र फैसला लेने के लिए , इसे काफ़ी प्राथमिकता देते हुए भारत सरकार ने रक्षा मन्त्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता मे मन्त्रियों की एक समिति बना दी है , जिसे ‘ मन्त्रियों का अधिकार प्राप्त समूह ‘ नाम दिया गया है। इन ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ के लिए जमीन हासिल करने का काम वैसे तो इन्हें विकसित करने वाली कंपनियों को स्वयं खुले बाजार में करना चाहिए। लेकिन इन्हें सुविधा देने की होड़ में लगी राज्य सरकारें स्वयं भूमि अधिग्रहित करके सस्ती दरों पर इन्हें दे रही हैं। बाजार की प्रचलित दरों से काफी कम दरों पर जमीन मिलने से इन कंपनियों की पौ-बारह हो गयी है।
खूब कमाई , करों से मुक्ति , सस्ती जमीन आदि कारणों से ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’ बनाने के लिए अचानक दौड़ व होड़ मच गयी है। विशेष आर्थिक क्षेत्र का कानून बनने से पहले भारत में पन्द्रह विशेष आर्थिक क्षेत्र काम कर रहे थे - कांडला , सूरत , मुम्बई , कोच्चि , नोएडा , विशाखापत्तनम , इन्दौर , जयपुर , फाल्स , मनिकंचन , साल्ट लेक , और चेन्नई में तीन। अब लगभग १६४ नए प्रस्ताव केन्द्र सरकार स्वीकृत कर चुकी है। इनमें ‘ तेल व प्राकृतिक गैस आयोग ‘ तथा ‘ गुजरात औद्योगिक विकास विगम ‘ के प्रस्तावों को छोड़ कर बकी सब निजी कंपनियों के प्रस्ताव हैं। देश के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी की रिलायंस कम्पनी इनमें सबसे आगे है जिसके द्वारा नवी मुम्बई , हैदराबाद , गुड़गाँव (हरियाणा) और जामनगर (गुजरात) में विशाल विशेष आर्थिक क्षेत्र विकसित किए जा रहे हैं। कलकत्ता के पास बनाने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार से भी उसकी वार्ता चल रही है। एस्सार , भारत फोर्ज , अदारी , विप्रो , सत्यम , बायोकोन , बजाज , नोकिया , केदिला , डा. रेड्डी आदि उद्योग जगत के अनेक बड़े नाम विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने में लग गए हैं। दिल्ली से नजदीकी के कारण हरियाणा व पंजाब में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लगभग ५० प्रस्ताव आ चुके हैं। मात्र गुड़गाँव के पास १२ विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के प्रस्ताव हैम , जिनमें आठ को स्वीकृति मिल चुकी है। गुजरात में १९ विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लगभग ५० प्रस्ताव विचाराधीन हैं। यह दावा किया जा रहा है कि जो १४८ प्रस्ताव पहले स्वीकृत हुए हैं , वे कुल ४०,००० हेक्टेयर (अर्थात एक लाख एकड़) क्षेत्र में फैले हुए होंगे और उनमें १,००,००० करोड़ रुपए का पूंजी निवेश होगा तथा उससे लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा।
‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ के नाम पर ये उम्मीदें , दावे और खुशफ़हमियाँ काफ़ी सन्देहास्पद हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि निर्यात - संवर्धन के नाम पर बनाए जा रहे इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर किसानों और गाँवों की जमीन अधिग्रहित की जा रही है तथा उन्हें उजाड़ा जा रहा है। मुम्बई के पास नवी मुम्बई से लगा ३५००० एकड़ का रिलायन्स का ‘ महामुम्बई विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ तो इतना विशाल है कि यह मुम्बई महानगर के एक तिहाई क्षेत्रफल के बराबर है। इनमें ४५ गाँवों की जमीन अधिग्रहित की जा रही है। एक बार पहले ८० के दशक में ‘नवी मुम्बई’ बनाने के लिए वहाँ विस्थापन हो चुका है। यह दूसरा विस्थापन है। इससे अनेक किसान ,मछुआरे , नमक - मजदूर और अन्य गाँववासी बरबाद हो जाएंगे। उनकी जमीन की कीमत लगभग २० से ४० लाख रुपये प्रति एकड़ है , किन्तु महाराष्ट्र सरकार सवा लाख से लेकर १० लाख रु. एकड़ की दर से उनकी जमीन ले कर रिलायन्स को देने की कोशिश में लगी है। यह कहा जा रहा है कि यह दुनिया क सबसे बड़ा ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ होगा। किन्तु उस क्षेत्र के लोगों के लिए तो यह सबसे बड़ा संकट बन गया है। इस प्रोजेक्ट का विरोध करने के लिए उन्होंने ‘ महामुम्बई शेतकरी संघर्ष समिति ‘ का गठन कर लिया है और विरोध में आन्दोलन शुरु कर दिया है। [ जारी ]

बुधवार, दिसंबर 20, 2006

कुछ और विशेष क्षेत्र : ले. राजकिशोर ( सामयिक वार्ता में )

कुछ और विशेष क्षेत्र : ले. राजकिशोर ( सामयिक वार्ता में )
सामयिक वार्ता/नवंबर,२००६ से लिया गया .
व्यंग्य
मुझे लगता है , भारत सरकार हमेशा अधूरा काम करती है . उसने राजनीतिक आजादी दी , पर आर्थिक आजादी देना भूल गयी .दलितों और पिछड़ों को आरक्षण दिया , पर पिछड़े वर्गों को इससे वंचित रखा . हिन्दी को राजभाषा बनाया , पर अंग्रेजी को छुआ तक नहीं . विशेष आर्थिक क्षेत्र , जहाँ पूँजीपतियों के हित में सभी कानूनों को स्थगित कर दिया जाएगा , बना कर सरकार अधूरे काम करने की अपनी परंपरा को ही निभा रही है . बाद में उसे अनेक विशेष क्षेत्र बनाने होंगे , इसका उसे खयाल तक नही है . देशप्रेमी होने के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं उन विशेष क्षेत्रों को अभी से रखांकित कर दूं , जिनका निर्माण करने की जरूरत है .
विशेष राजनीतिक क्षेत्र : राजनीतिक दलों और उनके नेताओं का आचरण देख कर लग रहा है कि देश का वातावरण उनकी भावनाऒं के अनुकूल या काफी नहीं रह गया है . कहीं पुलिस आड़े आ जाती है , कहीं सीबीआई जाँच करने लगती है . कभी लोक सभा से इस्तीफा देना पड़ जाता है , कभी विधान सभा से . ऐसे में कोई राजनीति क्या करेगा ? अत: राजनीतिग्यों के लिए जगह - जगह विशेष क्षेत्र बनाने चाहिए . इन क्षेत्रों में देश का कानून लागू नहीं होगा - आर्म्स एक्ट भी नहीं . यहाँ न थाने होंगे , न न्यायालय . वोट देने - लेने का तो सवाल ही नही उठता . जो सबसे मजबूत होगा , उसी का राज चलेगा . उसी को इस क्षेत्र का जन प्रतिनिधि माना जा सकेगा और वह जब चाहे , संसद में आ-जा सकेगा .
विशेष सांस्कृतिक क्षेत्र : संस्कृति के क्षेत्र में बहुत अराजकता दिखाई दे रही है . कोई सबको गेरुए वस्त्र पहनाना चाहता है , कोई कम से कम कपड़े पहन कर भारत के वस्त्र उद्योग को नष्ट कर रहा है,तो कोई रोज कम से कम एक बलात्कार से कम पर राजी नहीं है . जाहिर है कि इन सभी को विशेष सांस्कृतिक क्षेत्रों की जरूरत है . इन क्षेत्रों में लोगों को अपनी सांस्कृतिक रुचि के अनुसार जीने की पूरी छूट होगी वे चाहें तो दिन भर सड़कों पर घूमते हुए गाएँ - बजाएँ या शराब पी कर धुत रहें . कामुक चित्रों , संगीत , साहित्य , देह प्रदर्शन - किसी भी चीज पर रोक नहीं होगी . यहाँ तक कि नग्न हो कर विचरण करने का भी बुरा नहीं माना जाएगा . लोग चाहें तो ऐसे प्रयोग भी कर सकते हैं जिनके बारे में अभी तक सोचा भी नही गया है . विदेशी पर्यटक यहाँ खूब आएँगे , क्योंकि
यहाँ उन्हें वे आजादियाँ हासिल होंगी जो उनके अपने देश में भी उपलब्ध नहीं हैं . इससे हमारा जीडीपी ०.३४ प्रतिशत बढ़ेगा .
विशेष धार्मिक क्षेत्र : विशेष धार्मिक क्षेत्र का सृजन कर हम देश की अनेक धार्मिक समस्याओं से मुक्त हो सकते हैं . कुछ हिंदुओं को शिकायत है कि भारत की व्यवस्था वेद - शास्त्र के प्रावधानों के मुताबिक नहीं चल रही है . सिखों और इसाइयों की अपनी - अपनी समस्याएँ हैं.इन शिकायतों के निवारण का एक ही तरीका है - विशेष धार्मिक क्षेत्रों की स्थापना . प्रत्येक धर्म के अनुयाइयों को अपना विशेष धार्मिक क्षेत्र बनाने की आजादी होगी . यहाँ का समाज धर्माचार्यों के निर्देशों के अनुसार चलेगा . मसलन हिन्दू क्षेत्र में मनुस्मृति क्षेत्र में चोरी करनेवाले का हाथ काट लिया जाएगा . दोनों क्षेत्रों में स्त्रियों को परदे में रहना होगा . सिख चाहे जितनी नंगी तलवार ले कर चल सकते हैं . इत्यादि - इत्यादि .
विशेष लाल - क्षेत्र : आदि काल से फलते - फूलते आए यौन व्यवसाय पर जब से सरकार ने रोक लगाई है , यौनकर्मियों के साथ - साथ रसिक नागरिकों का सुखपूर्वक जीना दूभर हो गया है . उनका कहना है कि लादा हुआ संयम संयम नही है . यौनकर्मियों का कहना है कि हमारे शरीर पर हमारा ही अधिकार न हो . यह कैसा न्याय विधान है ? कानूनी रोक के कारण बिजनेस तो मंदा नहीं पड़ा है . पर पुलिस वालों और स्थानीय गुण्डों को उनका हिस्सा देना पड़ता है .देश में जगह - जगह विशेष लाल क्षेत्र बना देने से नागरिकों और नागरिकाओं , दोनों का भला होगा . इस क्षेत्र में शारीरिक क्रीड़ा की विभिन्न भंगिमाओं के लिऎ खुली छूट होगी . रात चाहे कितनी गयी हो , किसी नागरिक से यह नहीं पूछा जाएगा कि वह कहाँ से आ रहा है या कहाँ जा रहा है . नागरिकाओं को उनके कंज्यूमर - फ़्रेंडलीनेस के लिए परेशान नही किया जाएगा .

मंगलवार, दिसंबर 12, 2006

राधा - कृष्णों की फजीहत

गनीमत है कि द्वारिका मोदी के गुजरात में है, मथुरा या बृन्दावन नहीं . मोदी का राज यदि मथुरा-वृन्दावन में होता तब राधा-कृष्ण का क्या हाल होता ? वह भी भारतीय संस्कृति के कथित रक्षकों के हाथों . विडम्बना है कि ‘रक्षकों’ में कुछ गोपियां भी पीछे नही हैं .
काश इन ‘संस्कृति रक्षकों’ का भीम और हिडिम्बा जैसे युगल से कभी सामना हो जाता ,तब समझ में आता.

डॊ. भीमराव अम्बेडकर : परिनिर्वाण दिवस पर

तथागत की सिखाई बौद्ध दर्शन की विशिष्ट शैली में आलोचना का महत्व है , आत्मालोचना का महत्व तो अनुपम है . सामयिक दलित आन्दोलन के वजूद में बाबासाहब का योगदान पितृतुल्य है . आज के दलित आन्दोलन के संकट को समझने के लिए उनकी और गांधी जी की राजनैतिक व दार्शनिक यात्रा की आलोचना मददगार होगी .
गांधी और अम्बेडकर की साफ़ तौर पर अलग अलग दिशा थी . दोनों महापुरुष उत्कट सृजनात्मक व्यग्रता के साथ भारतीय समाज- पटल पर उतरे थे . इतिहास की एक सम्मोहक खूबसूरती होती है कि खण्ड दृष्टि के हम इतने कायल हो जाते हैं कि उसे ही पूर्ण मानने लगते हैं . इन दोनों की उत्कट सामाजिक व्यग्रता के साथ भिडन्त भी हुई थी .
यह गौरतलब है कि तीसरे दशक के प्रारम्भ में हुई इस भिडन्त के फलस्वरूप दोनों की अपनी-अपनी सोच और कार्यक्रमों पर बुनियादी असर पड़ा . इस प्रचन्ड मुठभेड़ के बाद दोनों बदले हुए थे . यह सही है कि अन्त तक एक दूसरे के लिए तीखे शब्दों का प्रयोग दोनों ने नही छोड़ा . एक दूसरे पर पडे प्रभाव की यहां सांकेतिक चर्चा की जा रही है .
गांधी जी के लिए अस्पृश्यता चिन्ता के विषयों में प्रमुख थी. उनके पहले भी कई योगियों और सामाजिक आन्दोलनों की इसपर समझदारी थी लेकिन यह तथ्य है कि भारत की राजनीति में मुद्दे के तौर पर यह गांधी के कारण स्थापित हुआ . राष्ट्रीय - संघर्ष के बडे लक्ष्य के साथ अस्पृष्यता को धार्मिक और आध्यात्मिक तौर पर उन्होंने लिया . अम्बेड़कर ने बातचीत के शुरुआती दौर में ही गांधी को यह स्पष्ट कर दिया था दलित-वर्गों के आर्थिक - शैक्षणिक उत्थान को वे ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं .
अम्बेडकर से मुलाकात के पहले गांधी जाति - प्रथा के रोटी - बेटी के बन्धनों को ‘आध्यामिक प्रगति’ में बाधक नहीं मानते थे .अम्बेडकर से चले संवाद के बाद उन्होंने दलितों के शैक्षणिक - आर्थिक उत्थान के लिए उन्होंने ‘हरिजन सेवक संघ’ बनाया और जाति - प्रथा चोट करने के लिए यह निर्णय लिया कि वे सिर्फ़ सवर्ण - अवर्ण विवाहों में ही भाग लेंगे .
सामाजिक प्रश्न के धार्मिक महत्व को नजर-अन्दाज करने वाले बाबा साहब ने गांधी से संवाद के दौर के बाद इसे अहमियत दी . जाति - प्रथा के नाश हेतु ‘धर्म-चिकित्सा’ और ‘धर्मान्तरण’ को भी जरूरी माना .
भारतीय समाज में सवर्णों में ‘आत्म-शुद्धि’ तथा दलितों में ‘आत्म-सम्मान’-इन दोनों प्रयासों की आवश्यकता है तथा यह परस्पर पूरक हैं .
गांधी के मॊडल से पनपे कांग्रेसी-हरिजन नेतृत्व में एक राष्ट्रवादी राजनैतिक अभिव्यक्ति और प्रयत्न था लेकिन सामाजिक - सांस्कृतिक प्रश्नों पर चुप्पी रहती थी . साठ और सत्तर के दशक में उभरे दलित नेतृत्व ने माना कि कांग्रेस का हरिजन नेतृत्व सामाजिक ढ़ाचे में अन्तर्निहित गैर-बराबरी को ढक-छुपा कर रखता है . इस सांस्कृतिक चुप्पी को नए दलित नेतृत्व ने कायरतापूर्ण और असमानता के वातावरण को अपना लेने वाला माना .
दलित आन्दोलन की कमजोरियों को समझने के लिए १९४४ में जस्टिस पार्टी की मद्रास में हार के बाद एक रात्रि भोज में दिए गए बाबासाहब के भाषण पर गौर करना काफी होगा . लम्बे समय तक सत्ता में रहने के बाद जस्टिस पार्टी बुरी तरह हारी थी .गैर-ब्राह्मणों में भी कईयों ने उसका साथ छोड़ दिया था .
” मेरी दृष्टि में इस हार के लिए दो बातें मुख्यत: जिम्मेदार थीं .
पहला,ब्राह्मणवादी तबकों से उनमें कौन से अन्तर हैं यह वे समझ नही पाये . हांलाकि ब्राह्मणों की विषाक्त आलोचना वे करते थे लेकिन उनमें से कोई क्या यह कह सकता है कि वे मतभेद सैद्धान्तिक थे ? उन्होंने खुद को दूसरे दर्जे का ब्राह्मण मान लिया था . ब्राह्मणवाद को त्यागने की बजाए उसकी आत्मा को आदर्श मान कर वे उससे लिपटे हुए थे .ब्राह्मणवाद के प्रति उनका गुस्सा सिर्फ़ इतना था कि वे ( ब्राह्मण) उन्हें दोयम दर्जा देते हैं .
हार का दूसरा कारण पार्टी का संकीर्ण राजनैतिक कार्यक्रम था . अपने वर्ग के नौजवानों को कुछ नौकरियां दिलवा देना पार्टी का मुख्य मुद्दा बन गया था . मुद्दा पूरी तरह जायज है . परन्तु जिन नौजवानों को सरकारी नौकरियां दिलवाने के लिए पार्टी २० वर्षों तक लगी रही क्या वे वेतन पाने के बाद पार्टी को याद रखते हैं ?इन बीस वर्षों में जब पार्टी सत्ता में रही, उसने गांवों में रहने वाले ,गरीबी और सूदखोरों के चंगुल में फंसे ९० फ़ीसदी गैर-ब्राह्मणों को भुला दिया . “

आदिवासियों ने दिखाई गांधीगिरी

साभार :दैनिक भास्कर,शनिवार २५ नवम्बर २००६
आदिवासियों ने नर्मदा तट पहुंच पूजा - अर्चना की और गांधीजी के प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना कर आंदोलन शुरु किया
होशंगाबाद. सतपुडा टाइगर रिजर्व क्षेत्र में बसे हजारों आदिवासियों ने जल , जंगल , जमीन के लिए गांधीगिरी अपनाई है . वन अधिकारियों की सदबुद्धि के लिए अनोखा आंदोलन छेड दिया है . आदिवासियों ने नर्मदा की पूजा अर्चना के बाद गांधी प्रतिमा पर प्रार्थना कर रैली निकाली और सतपुडा टाइगर रिजर्व के दफ्तर के सामने कीर्तन कर पूजा अर्चना किया. यह क्रम एक माह तक जारी रहेगा .
जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को वनों से हटाया जा रहा है . इसके विरोध में आदिवासियों ने एक माह का सदबुद्धि आंदोलन शुक्रवार सुबह नर्मदा घाट से शुरु किया . आदिवासियों के इस आंदोलन में किसान आदिवासी संगठन और समाजवादी जनपरिषद के नेताओं के अलावा जैन मुनि विनय सागर भी मौजूद थे . आदिवासियों की मांग है कि सतपुदा राष्ट्रीय उद्यान , बोरी अभयारण्य तथा पचमढ़ी अभयारण्य को मिला कर सतपुडा टाइगर रिजर्व बनाया गया है . तीनों के अन्दर ७५ गांव हैं . इतने ही गांव इनकी सीमा पर हैं . वन विभाग ने पाबंदी लगा कर वहां रहना गैर कानूनी कर दिया है .
इससे हजारों आदिवासियों की जिन्दगी संकट में है . वनों से वनोपज संग्रह , निस्तार , पशुओं की चराई और खेती पर भी रोक लगा दी गयी है . आदिवासी इस पाबंदी को हटवाने के लिए २२ दिसंबर तक होशंगाबाद में आंदोलन करेंगे . आंदोलन को सदबुद्धि सत्याग्रह नाम दिया है . इसके तह्त शुक्रवार को बारधा , बरचापाडा और मरुआपुरा गांव के सैकडों आदिवासी होशंगाबाद के नर्मदा तट पर एकत्रित हुए .यहां नर्मदा की पूज अर्चना के बाद अस्पताल के सामने गांधी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर रैली क्के रूप में सतपुडा टाइगर रिजर्व कर्यालय पहुंचे.यहां सभा के बाद आचार्य विनय सागर के मार्गदर्शन में कीर्तन हुआ . तत्पश्चात आदिवासियों ने ग्यापन सौंपकर अपनी समस्यांए बताइं .उधर सतपुडा टाइगर रिजर्व के क्षेत्र संचालक एस.एस. राजपूत का कहना है कि उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में गैर वानिकी कार्य पूर्णतया प्रतिबंधित है . उच्चतम न्यायालय के आदेश का ही परिपालन किया जा रहा है .
‘मछुआरों का शिकार करना हिंसा नहीं’ -आदिवासियों के आंदोलन में शामिल जैन मुनि विनय सागर ने कहा कि मछुआरों द्वारा मछली मारना वैसे तो हिंसा है किंतु यदि इनके अधिकारों से वंचित किया गया तो त यह मछली मारने से बडी हिन्सा होगी . यदि सरकार आदिवासियों के लिए रोजगार का वैकल्पिक इंतजाम करती है तो मैं मछली मारने को हिन्सा ही मानूंगा और आदिवासियों को मचली ना मारने के लिए प्रेरित करूंगा .

सोमवार, दिसंबर 04, 2006

जंगल पर हक़ जताने का संघर्ष

साभार : बी.बी.सी.
फ़ैसल मोहम्मद अली
फ़ैसल मोहम्मद अली
बीबीसी संवाददाता, भोपाल
जंगल पर हक़ जताने का संघर्ष
भारत में ‘बाघ या मानव’ और ‘जंगल या आदिवासी’ की चल रही गर्मागर्म बहस के बीच मध्य प्रदेश के पिपरिया तहसील में आदिवासियों ने अपने अधिकारों की माँग को लेकर ख़ास तरह से विरोध दर्ज किया.
क़रीब पाँच हज़ार की तादाद में पिपरिया पहुँचे आदिवासियों ने जंगल पर उनके अधिकार छीने जाने के विरोध में ज़गली उपजों की बिक्री की.
यह विरोध प्रदर्शन देश के पाँच राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, उड़ीसा और महाराष्ट्र में काम कर रहे आदिवासी संगठनों ने आयोजित किया.
‘पुरखों से नाता जोड़ेंगे, जंगल नहीं छोड़ेंगे’ के नारे लगाते हुए पिछले 16 दिनों की यात्रा के बाद यह आदिवासी समूह पिपरिया पहुँचा.
आदिवासियों की यह यात्रा क़रीब 15 दिनों पहले खंडवा ज़िले के कालीघोड़ी नामक स्थान से शुरू की गई थी जहाँ कभी गोंड राजाओं का शासन था.
पंचमढ़ी के समीप बसा पिपरिया वह इलाका है जहाँ 19वीं शताब्दी में गोंड़ राजा भूभू सिंह ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह छेड़ा या जिसके कारण बाद में उन्हें फ़ाँसी दे दी गई थी.
सन् 1867 में घोषित भारत का पहला संरक्षित जंगल, बोरी भी इसी क्षेत्र में है.
सवाल
विरोध के तौर पर महौल नाम के एक जंगली पेड़ के पत्ते बेच रहे जगत सिंह बताते हैं, “जंगली उपज से हमारा अधिकार छीनने के बाद अब सरकार हमारी बची-खुची थोड़ी सी ज़मीन भी बाघ अभयारण्य के नाम पर छीन लेना चाहती है. ऐसे में हम लोग क्या करेंगे.”
उधर राधाबाई भी अपनी गुहार सुनाती है. राधा कहती हैं, “हम एक गाँव से दूसरे गाँव अपने रिश्तेदारों से मिलने भी नहीं जा सकते क्योंकि अधिकारी इसे जंगली क्षेत्र में घुसपैठ मानते हैं. हम अपने जानवर भी वहाँ नहीं चरा सकते हैं.”
मध्य प्रदेश के होशंगाबाद, बैतूल और छिंदवाड़ा ज़िले में ही आदिवासियों के क़रीब 500 गाँव ऐसे हैं जो कि संरक्षित जंगलों में पड़ते हैं.
राज्य में दर्जनों ऐसे संरक्षित जंगल हैं जहाँ आदिवासियों को ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.
महाराष्ट्र और गुजरात में बड़ी परियोजनाओं के कारण विस्थापित किए गए लोगों और आदिवासियों के मध्य काम कर रही प्रतिभा शिंदे का कहना है कि आर्थिक उदारता और वैश्वीकरण के दौर में पहले के ग्रामीण स्तर के यह झगड़े अब सिर्फ़ गाँव के नहीं रह गए इसीलिए इन्हें व्यापक प्रारूप देने की ज़रूरत है.
अभियान
समाजवादी जन परिषद नाम के एक संगठन से जुड़े सुनील बताते हैं, “जब आदिवासी अपनी ज़मीन के बदले कम मुआवज़ा दिए जाने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं तो पुलिस उन पर गोली चलाती है. जैसा कि उड़ीसा के कलिंगनगर में हुआ था.”
सुनील आगे जोड़ते हैं, “होशंगाबाद में भी बाघों को संरक्षण देने, सेना का शूटिंग रेंज बनाने और तवा बाँध के नाम पर आदिवासी गांवों को बार-बार उजाड़ा जाता रहा है.”
मध्य प्रदेश में विकसित किए जा रहे सतपुड़ा बाघ अभयारण्य से क़रीब-क़रीब 20,000 लोगों के विस्थापन की आशंका है.

शुक्रवार, दिसंबर 01, 2006

गांधी पर बहस : प्रियंकर की टिप्पणियां

बाबा रामदेव योग के बड़े आचार्य हैं . इस पारम्परिक विद्या के समर्थ साधक हैं और इसके प्रचार-प्रसार के लिए उनकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है .
पर ऎतिहासिक और राजनैतिक परिदृश्य के टिप्पणीकार के रूप में उनकी पृष्ठभूमि और योग्यता संदिग्ध है . अपनी प्रसिद्धि के प्रभाववश अब वे अपने कार्यक्षेत्र और गतिविधि के ‘स्पेस’ के बाहर जाकर कुछ ज्यादा ही अहमन्य टिप्पणियां करने लगे हैं . इसका नुकसान उस बड़े लक्ष्य — योग के प्रचार-प्रसार — को ही होगा जिसे वे लेकर चले थे .
सब काम सबके लिए नहीं बने हैं . जैसे बाबा रामदेव योग के साथ प्रवचन तो देते ही थे, बाद में सम्भवतः मुरारी बापू के रसवर्षा करने वाले गायन से प्रेरणा लेकर वे गाने भी लगे . यकीन मानिये इतना बेसुरा गाते हैं कि क्या कहा जाये. लय-ताल तो इस योगगुरु के आस-पास भी नहीं फ़टकती . भई योग सिखाने आये हो योग सिखाओ , इस गाने के लफ़ड़े में फंस कर फ़ज़ीती क्यों कराते हो ? पर नहीं साब अब हम प्रसिद्ध हो गये हैं जनता हमारा कच्चा-पक्का सब बर्दास्त कर लेगी .
रही बात गांधी की , तो उन पर क्या-क्या नहीं कहा गया और क्या-क्या नहीं लिखा गया . हम अपने व्यक्तित्व के अनुरूप छोटे-छोटे पैमानों से गांधी जैसे महामानव को मापते हैं . मापते रहें . गांधी कोई बताशा तो हैं नहीं कि आलोचना की बारिश में घुल जायेंगे .
अभी नेहरू के प्रति उनकी विशेष कमजोरी की चर्चा होती है. अगर वे सरदार पटेल को प्रधानमंत्री के लिये प्रस्तावित कर देते तो इतिहास इस बात पर चर्चा करता रहता कि कैसे एक गुजराती ने गुजराती का अनुचित समर्थन किया . तब उन्हें प्रान्तीयतावादी कहा जाता .
देश आज़ाद हुआ . दिल्ली में चमक-दमक ,उत्साह और आतिशबाज़ी के बीच नेहरू समेत सभी कांग्रेसी नेता आनंद के हिंडोले में झूल रहे थे . अपनी उपलब्धि से निस्पृह गांधी सांप्रदायिक सद्भाव के लिये अपनी ‘वन मैन आर्मी’ के साथ अकेले नोआखाली के हिंसक अंधेरे में अपना काम कर रहे थे . भाई सृजन शिल्पी उनमें मह्त्वाकांक्षा ढूंढ रहे हैं . अगर वे चाहते तो उन्हें इस देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री होने से कौन रोक सकता था . और मित्र सृजनशिल्पी उनमें महत्वाकांक्षा ढूंढ रहे हैं .
हमने आज़ादी के बाद गांधी को पूरी तरह भुला दिया . गांधी की तरफ पीठ किये देश पूरी तरह ‘नेहरूवियन मॉडल’ पर चल रहा था, पर हर छोटी-बड़ी गलती के लिये गालियां गांधी को पड़ती रहीं .
अविनय,कृतघ्नता और घनघोर अज्ञान का साक्षात मानवीकरण देखना हो तो हमारे देश में कमी नहीं . एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं की तर्ज़ पर . एक क्षेत्र विशेष में अपने महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद बाबा रामदेव ने भी अपना नाम उन्हीं में लिखवा लिया है. गांधी कोई सत्ताधारी नहीं थे जो अपने लिये ‘लालू चालीसा’ लिखवा लेते . लोक गीत किसी देश और समाज की ‘सामूहिक स्मृति’ का हिस्सा होते हैं . इतने सामूहिक कि उनका कोई लेखक खोज पाना भी मुश्किल, बल्कि असम्भव होता है . जनुश्रुतियों और लोकगीतों का हिस्सा कोई कब और कैसे बनता है और उसमें असंख्य लोग कैसे और किस तरह अपना योगदान देते हैं , यह अभी बाबा रामदेव की समझ के बाहर है . यह चापलूसी और विपणन का समय है और वे वही समझते हैं
गांधी पर सही टिप्पणी कोई मंडेला कर सकता है जो इस हिंसक और व्याभिचारी समय में भी उनके बताये कठिन और अव्यवहारिक कहे जाने वाले रास्ते पर चलने का साहस करे और एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर विजय पाये . और यही नहीं — विजय पाने के उपरांत महज़ कुछ ही समय राष्ट्रपति रहने के उपरांत वह राष्ट्रपति पद अपने साथी को किसी पुष्प स्तवक की तरह भेंट कर दे . यह है गांधी होने का अर्थ . अगर पृथ्वी पर मंडेला हैं, तो समझिये गांधी जीवित हैं और प्रासंगिक हैं . पर इस अर्थ को समझने के लिये वैसा अकुंठ मन भी तो चाहिये .
तरह-तरह के पूर्वग्रहों , अर्धसत्यों और संदेहों से घिरे अविश्वासी मन में गांधी किसी संवाद की तरह नहीं, विवाद की तरह ही रह पायेंगे . पर वे हमारे मन में एक आलोड़न की तरह रहेंगे यह सत्य अटल है .
एक राष्ट्रनायक के रूप में गांधी की मानवसुलभ कमजोरियों पर या उनकी तथाकथित गलतियों पर भी चर्चा होनी चाहिये और होती रही है . पर मानवता की जाज्वल्यमान मशाल के रूप में उनका नाम लेते समय उस गरिमा का — उस आभा का — थोड़ा-बहुत नूर हममें भी झलकना चाहिये .
मन बहुत अशांत है अब समाप्त करता हूं .
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प्रिय भाई सृजनशिल्पी जी ,
इंटरनेट पर हो रही बहसें सामान्यतः मानविकी , विशेषकर इतिहास के किसी भी गम्भीर अध्ययन से रहित देश के उच्च मध्य वर्ग के बीच में प्रचलित अधकचरे और सुने सुनाये तथ्यों का ही प्रस्फुटन होता है . पर यह इस माध्यम के लोकतांत्रिक होने का एक प्रमाण भी है . अतः सामान्यतः मैं इस तरह के तथ्यों को नजरअंदाज ही करता हूं क्योंकि उन्हें कोई विशेष तवज्जो नहीं देता .
पर चूंकि यह प्रतिक्रिया सृजनशिल्पी जैसे प्रबुद्ध रचनाकार की कलम से आई थी तो थोडा दुख हुआ और प्रतिक्रिया देने का मन हुआ . पर आपका का ‘रिजोइंडर’ पढ कर बेहद सुकून मिला और बेचैनी दूर हुई . आपसे तो वैचारिक मतभेद रखना भी तोष देगा . दिक्कत बौद्धिक बहस और मतभेद से नहीं है, बद्धमूल पूर्वग्रहों और अविचार से है .
नरेन्द्र मोदी की छाया तले बैठकर , अपने व्यसाय के हानि-लाभ के मद्देनजर, गांधी को गरियाना एक बात है और उन पर गंभीर बहस करना दूसरी बात है . जब गांधी को उनके देश में — उस देश में जिसके लिये उन्होंने क्या-क्या नहीं सहा — गालियां पड रही हों तो उनका कुछ हिस्सा इस अदने से नागरिक को भी मिले तो यह उसके होने की सार्थकता नहीं तो और क्या है .
और फिर अब तो विवादी होना ही लोकप्रिय होना है . अतः जिस महापुरुष और आस्था के प्रतीक का जितना मानभंजन और मानमर्दन किया जा सके उतना देशत्वबोध और राष्ट्रबोध की चूलें हिलाने के लिये अच्छा है . यही पोस्ट-माडर्न और सबाल्टर्न के तहत हो रहा है .
अब बाजार देश और राष्ट्र की सीमाएं और राष्ट्रबोध विलुप्त कर देगा . नये आदमी की आस्था का केन्द्र बाजार होगा . और बाजार के लिये गांधी और गांधी के विचार न केवल गैरजरूरी हैं वरन उनके हितसाधन और लूट में बाधक भी हैं . अतः यह देखना भी रोचक होगा कि अधिकतर गांधीविरोधी क्या इस बाजारू लूट के आंशिक हिस्सेदार या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मोटी तनख्वाह पाने वाले मुलाजिम हैं ? उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में एक कहावत है जो इन दिनों बार-बार याद आती हैः
‘ जैसा खावे अन्न , वैसा होवे मन ‘
मन बहुत तेजी से बदल रहा है . यह तो स्पष्ट दिख रहा है . हमारी सदाशयता से भरी बौद्धिक बहस भी यदि उस बाजार के ही हितसाधन का उपकरण बन जाये तो आश्चर्य कैसा !