बुधवार, जनवरी 31, 2007

मैथिली गुप्तजी और पत्रकारिता

करीब ग्यारह घण्टे पहले मुझे यह ई- मेल भेजा गया :

 

श्री अफ़लातून जी;
हम समाचारों से परे, हिन्दी रचनाओं की एक वेबसाईट (
www.cafehindi.com)  बना रहें हैं.

क्या हम आपके ब्लोग रचनायें इस वेबसाईट पर उपयोग कर सकते हैं? इस वेबसाईट का उद्देश्य कोई भी लाभ कमाना नहीं है.

मैंने क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? की समस्त किश्तें पढी.  पढ्ने के बाद आप कम से कम दस मिनट तक गुमसुम तो बैठेंगे ही.

क्या इसे एक ई-बुक का रूप देकर अन्तर्जाल पर डालना उचित नही रहेगा?
आपका
मैथिली गुप्त

    पत्र पा कर मुझे लाजमी तौर पर मैथिलीजी की साइट देखने की उत्सुकता हुई।साइट पर मेरे चिट्ठों की तीन प्रविष्टियों के अलावा अन्य सभी आलेख भी अन्य चिट्ठेकारों के द्वारा अपने-अपने चिट्ठों पर पहले छापे गए ही थे।

    पहली बात तो यह है कि मुख्यधारा से परे होने के बावजूद हिन्दी चिट्ठेकारों की उक्त प्रविष्टियाँ 'समाचारों से परे' नहीं हैं । मैथिलीजी द्वारा उन्हें चुनना भी इसी कारण हुआ है। मैथिलीजी मेरी प्रविष्टियों को अपने जाल-स्थल पर छापने के पहले यदि पूछ लेते तो पत्रकारीय दृष्टि से बेहतर होता ।बहरहाल,उन्हें इन चिट्ठों पर जा कर सार्वजनिक तौर पर यह भूल कबूलनी चाहिए।

    किसी भी पत्र - पत्रिका के लिए लिखना और लिखवाना अहम कार्य होता है।मैथिलीजी दोनों से मुक्त हो कर पत्रकारिता करना चाहते हैं तो यह उनकी भूल है ।चिट्ठेकारों की आम राय से मैथिलीजी यहाँ से रू-ब-रू हो जाँए।

    मैं कॊपीराइट में नहीं मानता हूँ।लेकिन यह सामान्य सी उम्मीद जरूर करता हूँ कि स्रोत का उल्लेख ससम्मान होना चाहिए।

    जहाँ तक सुनील के द्वारा दिए लखनऊ विश्वविद्यालय में दिए गए 'किशन पटनायाक स्मृति व्याख्यान'  का सवाल है ( इसे मेरे चिट्ठे पर ' क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है?' शीर्षक से सात कड़ियों में दिया गया है।) उन्हें ई-किताब के रूप में मैं शीघ्र प्रस्तुत करूँगा। तब तक इस टैग की मदद से उन्हें पढ़ा जा सकता है ।

    मैथिलीजी ने कुछ प्रस्तुतियों में अन्य स्रोतों से चित्रों को जोड़ कर उन्हें कुछ बेहतर ढ़ंग से जरूर पेश किया है।ऒनलाइन पत्रकारीय हुनर तथा एक वेबसाइट के मालिक होने के नाते इतना माद्दा तो उनमें होना जरूरी है।

     मैथिलीजी का उद्देश्य कोई भी लाभ कमाना नहीं है,ऐसा उनका दावा है।फिर भी कोई उद्देश्य उनका जरूर होगा उसे भी उन्हें सार्वजनिक करना चाहिए।

    जहाँ तक मेरे चिट्ठों से ली गई प्रविष्टियों की बात है कि पहले अनुमति न लेने की भूल यदि वे इस चिट्ठे पर कबूलें तो मुझे आपत्ति नहीं रह जाएगी।दो वर्ष पहले अपनी वेबसाइट का पंजीकरण कराने के बावजूद इन्होंने उसे हाल ही में सक्रिय किया है। पत्रकारीय शैशव की इन चूकों से उन्हें आगे के लिए सीख लेनी होगी ।

 

 

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मंगलवार, जनवरी 30, 2007

गांधी - सुभाष : भिन्न मार्गों के सहयात्री (२)

पिछली प्रविष्टी से आगे : कमरे में प्रवेश करते ही सुभाष को थोड़ा झटका लगा । कमरे में चटाई पर बैठे सभी लोग मोटी खादी के कपड़े पहने हुए थे,और वे खुद विलायत से आई.सी.एस. बन कर लौटे युवक की भाँति परदेशी पोशाक में फब रहे थे ।कदम बढ़ाने में उन्हें जो संकोच हो रहा था , उसे गांधीजी की एक स्मित ने दूर कर दिया ।पहली ही मुलाकात में सुभाषबाबू ने असहयोग आन्दोलन के बारे में प्रश्न किए । उन्हें आशा थी कि गांधीजी के पास ' एक वर्ष में स्वराज पाने का कोई व्यवस्थित क्रमबद्ध कार्यक्रम हो गा । गांधीजी कांग्रेस के सदस्य बनाने , कांग्रेस के लिए चन्दा इकट्ठा करने और गाँव - गाँव में चरखा चलवाने की अपनी कल्पना उनके समक्ष पेश की । सुभाषबाबू को इससे सन्तोष न हुआ । उन्हें किसी खदबदाते कार्यक्रम की भूख थी । सुभाषबाबू गांधीजी के रचनात्मक कार्यों की ठन्डी ताकत की खास कदर कर न सके । सुभाषबाबू की निराशा को गांधीजी भाँप गए । उन्होंने सुभाषबाबू से कलकत्ते जा कर चित्तरंजन दास से मार्गदर्शन लेने की सलाह दी ।चित्तरंजन दास उस समय बंगाल के संभवत: सर्वाधिक लोकप्रिय नेता थे ।सुभाषबाबू ने वैसा ही किया ।हाल ही में चित्तरंजन दास ने असहयोग आन्दोलन को अपनाया था ; हाँलाकि उनकी प्रकृति के मुताबिक किसी भी सीधी कार्रवाई वाले आन्दोलन के नेतृत्व की उनसे आशा करना वृथा था । असहयोग से सन्तुष्ट न होने पर वे फिर से विधानसभा - प्रवेश की ओर झुकने वाले थे । उनसे मार्गदर्शन लेने आए सुभाषचन्द्र के लिए विधानसभा - प्रवेश का कार्यक्रम बहुत फीका था । मार्गदर्शक पाने की सुभाष की खोज मुम्बई या कलकत्ते में पूरी न हो सकी । तब उन्होंने अपना मन कांग्रेस के संगठन की ओर मोड़ा ।

सुभाषबाबू को गांधीजी के साथ अपनी पहली मुलाकात में ही लगा था कि उनके(गांधी के) मन में स्वराज्य-प्राप्ति के लिए कोई क्रमबद्ध कार्यक्रम नहीं है ।उनके अपने मन में कोई चित्र था । किसानों और मजदूरों का संगठन बनाना , स्वयंसेवकों को लश्करी तालीम देना , विदेश से शस्त्र प्राप्त करना , आवश्यकता और अनुकूलता हो तो फौजी मदद भी हासिल करना ,येन केन प्रकारेण देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराना । इसलिए मणिभवन में हुई पहली मुलाकात के वक्त से ही सुभाषबाबू को गांधीजी के कार्यक्रमों के प्रति अरुचि थी ।भारत जैसे किसी बड़े देश को अंग्रेजों की लम्बी गुलामी से मुक्त कराने के लिए जो व्यूहरचना गठित करनी पड़ती ,उसका आदि से अन्त तक एक सिलसिलेवार चौखटा नहीं हो सकता , अपने पक्ष की मजबूती और कमजोरी का अन्दाज , जनता में आ रही जागृति के बारे में ठीक-ठीक अनुमान, सामने वाले पक्ष की ताकत और कमजोरियाँ , दोनों पक्षॊं के साधनों की बाबत अन्दाज , अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति के बारे में कयास, आदि अनेक तत्वों पर विचार करने के बाद ही रणनीति तय होती है । गांधीजी के मन में व्यूहरचना के इन अवयवों के बारे में कुछ कल्पना थी तथा इस सन्दर्भ में उनकी वृत्ति लचीली भी थी इसलिए उसे किसी भी वक्त-जरूरत के हिसाब से बदलने को वे तैयार थे ।फिर बतौर पूंजी उनके पास दक्षिण अफ्रीका की महाप्रयोगशाला में किए गए प्रयोग और भारत में हुए अनेक सत्याग्रहों के अनुभव भी थे । इस बाबत सुभाषबाबू को तजुर्बा नहीं था , अलबत्ता इस विषय में उन्होंने ब्रिटिश लोगों से शिक्षा ली थी तथा उनके मन में मेजिनी , गेरिबाल्डी , आइरिश सिन्फिन आन्दोलन वगैरह का इतिहास भी था । इस सबके बारे में गांधीजी ने ' हिन्द स्वराज ' में विचार कर लिया था और उन्हें खुद द्वारा विकसित सत्याग्रह की रणनीति ही श्रेष्ठ लगती थी । सत्याग्रह की रणनीति सुभाषबाबू के लिए बिलकुल नई थी । सत्याग्रह की रणनीति से देश में पैदा हुई जागृति से वे आकर्षित जरूर थे परन्तु यही रणनीति अन्तिम है , यह विश्वास उनके मन में नहीं बैठा था । अहिंसक लड़ाई और सशस्त्र सेना द्वारा लड़ाई- दोनों परस्पर असंगत विषय हैं - इसकी प्रतीति भी उन्हें नहीं थी । इस बाबत गांधीजी अपने मन में गाँठ बाँध चुके थे ।

गांधीजी और सुभाषबाबू के बीच जो मतभेद प्रकट हुए उसके मूल में यह तथा ऐसे अन्य सैद्धान्तिक कारण थे । इतिहास के क्रम में वे और प्रगट होते गए ।

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सुभाषबाबू की १९४० के बाद की जीवन-कथा , उनके जीवन के शायद सबसे साहस की , शूरता की और देशभक्ति की कथा है । सुभाषबाबू की गिरफ्तारी , उनकी बीमारी , नजरबन्दी , गुप्त तौर पर उसमें से भाग निकलना , गुप्त रूप से पहले काबुल जाना , रूस जाने का प्रयास सफल न हो पाने पर जर्मनी पहुँचना , वहाँ हिटलर से अपेक्षित मदद मिलने पर जर्मन नौसेना की पनडुब्बी द्वारा भारी जोखिम उठा कर जापान पहुँचना,जापान पहुँच कर आजाद हिन्द फौज को पुनर्गठित करना तथा अपने नेतृत्व में विश्वयुद्ध में जापान की सेना के आगे-आगे चल कर,भारी संकटों का हिम्मत से सामना करते हुए भारत की सीमा तक पहुँच जाना - इस पूरी कथा को लाखों भारतीय अपने हृदय में सुभाषबाबू को नेताजी के रूप में अमर स्थान देंगे । इतना स्पष्ट था कि सुभाषबाबू की विदेशी मदद ले कर हिन्द की आज़ादी प्राप्त करने की नीति के साथ गांधीजी बिलकुल सहमत नहीं थे।परन्तु उनके देशप्रेम , उनका साहस और उनके बलिदान के बारे में गांधीजी के मन में अत्यन्त सम्मान था । उनका(सुभाषबाबू का ) रास्ता गलत था यह वे निश्चित तौर पर मानते थे। इसके बावजूद उनको गांधीजी ने कहा था कि आपके रस्ते आपको सफलता मिली तो अभिनन्दन का पहला तार सबसे पहले मेरा मिलेगा ।बर्मा की यात्रा के दौरान गांधीजी जब मांडले गए तब उन्होंने वहाँ की जेल में रखे गए महान नेताओं की याद करते वक्त तिलक महाराज और लाला लाजपतराय के साथ-साथ सुभाषबाबू को भी याद किया था और उनकी देशभक्ति , साहस और उनके त्याग की स्तुति की थी ।इसी प्रकार तमाम मतभेदों के बावजूद गांधीजी ने राष्ट्र को राष्ट्र बनाया यह बात सुभाषबाबू लगातार मानते थे । १९४४ जुलाई माह की छठी तारीख ।उस दिन रेडियो पर युद्ध की घोषणा करते वक्त सुभाषबाबू ने गांधीजी को याद किया।" वे ही भारतवर्ष के जनगण के अभ्युत्थान के उद्गाता थे । ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समक्ष प्रथम सत्याग्रह करने वाले वे ही थे । खण्ड-खण्ड हो चुके,विक्षिप्त भारतवासियों को एक प्राण की एकता के सूत्र में बाँधनेवाले वे ही थे। जनता के मन में आज़ादी की मन्शा उन्होंने ही जगाई ।नि:शस्त्र भारतवासियों के मनमें शूरता और दु:खों को झेलने की हिम्मत उन्होंने ही संचालित की। राष्ट्र को गांधीजी ने ऐसा नवजीवन दिया था । वे राष्ट्रपिता हैं । "

गांधीजी को राष्ट्रपिता कहने वाले पहले नेता सुभाषचन्द्र ही थे ।

दूसरे विश्वयुद्ध के बारे में सुभाषबाबू के दो अनुमान गलत साबित हुए। एक तो उनका अनुमान था कि इंग्लैंड बहुत जल्दी धूरी राष्ट्रों की शरण में जा झुकेगा । दूसरा अनुमान था कि रूस और जर्मनी के बीच मित्र-राष्ट्र भेद नहीं डाल पायेंगे। यह दोनों अनुमान गलत साबित हुए इसलिए धूरी राष्ट्रों की मदद से लड़ाई लड़ कर आज़ादी हासिल करने की सुभाषबाबू की मुराद पूरी न हो सकी।

यूँ तो अहिन्सक सत्याग्रह द्वारा अखण्ड भारत को आज़ाद करवाने की गांधीजी की मुराद भी कहाँ पूरी हुई ? दोनों के पराक्रमों को इतिहास उनकी सफलताओं से नहीं,परन्तु उनके महाप्रयास के मानदन्ड से आँकेगा ।

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सोमवार, जनवरी 29, 2007

गांधी - सुभाष : भिन्न मार्गों के सहयात्री ,ले. नारायण देसाई

    मनुष्य की सामाजिक कसौटी,मनुष्य की पारस्परिकता में निहित है , नाते में निहित है । सुभाषचन्द्र बोस के साथ गांधीजी का सम्बन्ध एक ओर तीव्र मतभेदों का तो दूसरी ओर उत्कट प्रेम का , एक तरफ गांधीजी के नेतृत्व को चुनौती देने वाला तो दूसरी तरफ बतौर नेता गांधीजी के प्रति आदरभाव का था । इसमें से जिस नाते का बन्धन बना , वह छूटा उसके बावजूद आखिर तक टिका रहा। यह नाता किसी उपन्यास को रसपूर्ण कथानक प्रदान करने वाला हो सकता है । इस कथानक में दोनों व्यक्तित्वों की भिन्नता , दोनों के आदर्शों की भिन्नता , दोनों के साधनों की भिन्नता के साथ - साथ दोनों का बड़ा कद , दोनों की उत्कट राष्ट्रभक्ति , अपने - अपने साधनों के प्रति दोनों का आग्रह यह सब मिल कर राष्ट्र के जीवन में        मित्रों की भाँति था । इस लेखक के एक जर्मन मित्र ने एक बार कुछ चिढ़कर , हिन्दुस्तानियों की फरियाद करते हुए कहा था , ' मैं यह समझ ही नहीं पाता कि आपके मकानों की दीवालों पर गांधी और सुभाष की तस्वीरें साथ - साथ कैसे टँगी रहती हैं?आप लोगों को सिद्धान्तों की परवाह है अथवा नहीं ? ' भारत के लोग अनेक विरोधाभासों के बीच भी अक्षत रहने वाले गुणों के उपासक हैं , यह बात उसके गले उतारना आसान काम नहीं था । गांधीजी और नेताजी के बीच के नाते को हम एक दीवाल पर टँगी दो तस्वीरों की माफ़िक देख सकते हैं ।

    हिन्दुस्तान के पश्चिमी और पूर्वी कोनों से आए इन दोनों अगुवाजनों के स्वभाव , चरित्र और नेतृत्व  में कई अन्तर थे और थोड़ी समानता भी थी । दोनों के बीच उम्र में एक पीढ़ी का अन्तर था । जब पहली बार दोनों सम्पर्क में आए तब एक का प्रौढ़ नेतृत्व देश पर छा चुका था और दूसरे का नेतृत्व अभी मनोरथों में ही था । दोनों जब जुदा हुए तब उनके विचारों और सिद्धान्तों के भेद देश और दुनिया जान चुकी थी । हमारे रास्ते जुदा हैं, यह दोनों अच्छी तरह जान चुके थे । संकट के एक प्रसंग में सुभाष के ' प्रतिस्पर्धी ( पट्टाभि ) की हार, मेरी हार है ', यह गांधीजी कह चुके थे और वही गांधी सुभाष को यह भी चुके थे कि,' यदि अपने मार्ग से तुम सफल हुए तब तुम्हें अभिनन्दन का पहला तार मेरा ही मिलेगा। '

    परस्पर विरोधों के झंझावात के बीच सुभाषबाबू ने गांधीजी के विषय में कहा था ,' लौकिक विषयों के कई क्षेत्रों में महात्मा गांधीजी के साथ एकमत नहीं हो पा रहा हूँ फिर भी उनके व्यक्तित्व के बारे में मेरा आदर किसी से कम नहीं है। मेरे बारे में गांधीजी का अभिप्राय क्या है यह मैं नहीं जानता हूँ। उनका मत चाहे जो भी हो , परन्तु मेरा लक्ष्य तो हमेशा उनका विश्वास सम्पादित करना ही रहा है । इसका एकमात्र कारण है कि बाकी सभी का विश्वास प्राप्त करने में सफल हो जाऊँ और भारत के श्रेष्ठ मानव का विश्वास न पा सकूँ तो वह मुझे कचोटता रहेगा । " ( चट्टोपाध्याय,भवानीप्रसाद, 'गांधीजी ओ नेताजी ',( बांग्ला ) ,पृष्ट ६ )

    यह बात सुभाषबाबू ने १९३९ में कही थी , जब गांधीजी के साथ अनेक बातों में उनका विवाद हो चुका था । गांधीजी ने सुभाषबाबू के बारे में १९२४ में कहा था : " मेरा यह सौभाग्य है कि मैं अपने विरोधियों के दृष्टिकोण से विषय को देख सकता हूँ और इस प्रमाण में उनके दृष्टिकोण का सहभागी भी बन सकता हूँ । मेरा दुर्भाग्य यह है कि अपने दृष्टिकोण से उनसे विचार करवा नहीं सकता । अगर यह मुमकिन होता तो हमारे बीच मतभेद के बावजूद,हम एक आनन्दमय एकमत साध सकते । "

    गांधीजी और सुभाषबाबू में कुछ गुण समान थे ।दोनों को हिन्दुस्तान के प्रति उत्कट प्रेम था । दोनों देश के लिए मर - मिटने के लिए तैयार थे ।दोनों में तीव्र बुद्धिमत्ता थी ।देश और दुनिया की गतिविधियों के बारे में दोनों की अपने - अपने किस्म की समझदारी थी । अलग - अलग ढ़ंग से सही लेकिन दोनों का व्यक्तित्व अत्यंत मोहक था ।दोनों में त्याग करने की असाधारण शक्ति थी ।यज्ञ-कुण्ड में कूद पड़ने का साहस भी दोनों में था ।

    परन्तु कुछ बुनियादी बातों में दोनों का व्यक्तित्व एक - दूसरे से बिलकुल अलग था । गांधीजी के जीवन का अन्तिम लक्ष्य आध्यामिक ( आत्मसाक्षात्कार या खुद शून्यवत हो जाना ) था । सुभाषबाबू का लक्ष्य राजनैतिक था। वे देश को स्वाधीनता दिलाने के लिए ही जीवित थे । दोनों के बीच सबसे बड़ा भेद साधनशुद्धि की बाबत था । गांधीजी साध्य जितना ही आग्रह साधन के विषय में रखते थे , इसलिए उन्हें हिंसा द्वारा स्वराज भी मिल रहा हो तो भी नहीं स्वीकार था । जबकि सुभाषबाबू स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किसी भी साधन के इस्तेमाल करने में यक़ीन रखते थे । गांधीजी के मन में देश का स्वराज भी खुद की आध्यात्मिक साधना के लिए अनिवार्य शर्त के रूप में था , इसलिए वे स्वराज्य प्राप्ति के लिए स्वार्पण के लिए तैयार थे ।सुभाषबाबू के लिए देश का स्वराज्य ही ऐसा उदात्त लक्ष्य था कि जिसके लिए वे अपना बलिदान देने को तैयार थे । गांधीजी के मन में सामाजिक मुक्ति और व्यक्तिगत मुक्ति परस्पर गुँथी हुई थी । सुभाषबाबू के के लिए देश की आजादी का ही एकान्तिक महत्व था ।

    सुभाषबाबू मिले तब गांधीजी का व्यक्तित्व प्रगल्भ था । सुभाषबाबू के व्यक्तित्व से अदम्य उत्साह टपकता था । गांधीजी और सुभाषबाबू जितनी अवधि में साथ रहे उस अवधि में जब - जब गांधीजी ने लोक-आन्दोलन का आह्वान किया तब सुभाषबाबू मनवचन से उनके साथ रहे ; परन्तु जब - जब गांधीजी ने लोक-आन्दोलन की लगाम खींची तब - तब सुभाषबाबू उनसे मन-वचन से जुदा हो जाते थे । इस सन्दर्भ में सुभाषबाबू का गांधीजी से नाता राग-विराग ( love and hate ) का था , ऐसा कहा जा सकता है ।

    गांधीजी की असहयोग की शंखध्वनि सुभाषबाबू ने विलायत में सुनी थी । तब वे आई.सी.एस. की तैयारी कर रहे थे । ' एक वर्ष में स्वराज ' की गांधीजी की पुकार ने तरुणाई से सराबोर सुभाष के हृदय पर खासा असर डाला । आई.सी.एस. की परीक्षा उन्होंने दी और उसमें उत्तीर्ण हुए , परन्तु अंग्रेज सरकार की चाकरी करने का विचार उन्हें असह्य लगा । अपने मन में चल रही इस जद्दोजहद को और बड़े भाई शरत्चंद्र के साथ चले लम्बे पत्रव्यवहार के अंत में मन में निश्चय पक्का कर लिया - पूरा जीवन देश को आज़ाद कराने में लगाना है । यह काम किस मार्ग से और किन तरीकों से होगा यह उन्हें तब स्पष्ट नहीं था। परन्तु जिसे जीवन साहस का पर्याय लगता हो उसे उस जीवन का ध्येय का पता चल जाने के बाद छलांग लगाने में कितनी देर लगती है !

    १६वीं जुलाई १९२१ के दिन सुभाषबाबू का जहाज इंग्लैण्ड से लौटते वक्त मुम्बई के बन्दरगाह पर लगा । मुम्बई पहुँचते ही उन्हों ने गांधीजी के बारे में जानकारी हासिल की तथा गामदेवी में लेबर्नम रोड पर स्थित मणिभवन में उनसे मिलने आ पहुँचे । ( जारी)

 

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रविवार, जनवरी 28, 2007

क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (७)

    वैश्वीकरण के पैरोकार कई बार चीन का उदाहरण देते हैं । चीन ने अब माओ और साम्यवाद का रास्ता लगभग पूरी तरह छोड़ दिया है । ' बाजार समाजवाद ' की जो बात वह करता है , वह पूंजीवाद और वैश्वीकरण की राह ही है । चीन विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बनने के लिए बेचैन है , वह भारत से कई गुना ज्यादा विदेशी पूंजी आकर्षित कर रहा है , उसकी राष्ट्रीय आय में वृद्धि की दर ल्गातार लंबे अरसे से नौ - दस प्रतिशत बनी हुई है , उसके निर्यात तेजी से बढ़ रहे हैं और भारत सहित दुनिया के बाजारों में चीनी वस्तुएं छाई हुई हैं । तीसरी दुनिया के देश कैसे वैश्वीकरण की राह पर चलकर आगे बढ़ सकते हैं , इसकी नवीनतम मिसाल चीन है । इसके पहले अर्जन्तीना , चिली , मेक्सिको , दक्षिण-पूर्वी एशिया आदि का उदाहरण दिया जाता था , लेकिन वे सारे मॊडल एक - एक करके धराशायी हो गए ।

    चीन के बारे में भी तस्वीर का एक ही पहलू हमें दिखाया जाता है । असलियत यह है कि चीन की ज्यादातर नयी औद्योगिक समृद्धि हांगकांग आदि से लगे उसके दक्षिणी व पूर्वी तटीय इलाकों तक सीमित है ।चीन की विशाल मुख्य भूमि में तो बेकारी और कंगाली छाई हुई है और बड़ी संख्या में पलायन हो रहा है ।बड़ी मात्रा में विस्थापन भी हो रहा है ।आमदनी की विषमता भारत से भी ज्यादा हो चुकी है । कारखानों और खदानों में काम की दशाएं बहुत खराब हैं । खदानों में दुर्घटनाओं की दर पूरी दुनिया में संभवत: सबसे ज्यादा है । पूरे चीन में जबरदस्त जन असंतोष खदबदा रहा है , जो तानाशाही के कारण दबा कर रखा गया है । वर्ष २००५ में पूरे चीन में लगभग ८५००० जन-प्रदर्शन हुए , यह आंकड़ा स्वयं चीन सरकार के सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय का है । भविष्य में स्थिति और बिगड़ सकती है ।इसलिए चीन सरकार ने पिछले दिनों गरीबी , बेरोजगारी और सामाजिक सुरक्षा पर कुछ ध्यान देने की कोशिश की है और सरकारी बजट में कुछ घोषणाएं की हैं ।लेकिन यदि चीन की राह वही रही , तो इससे हालात ज्यादा बदलने वाले नहीं हैं, क्योंकि वैश्वीकरण की राह से और ज्यादा शोषण , कंगाली , विस्थापन तथा बेरोजगारी का सृजन होता जाएगा ।

    दूसरे शब्दों में , चीन का उदाहरण भी यही साबित करता है कि ' बाजार समाजवाद ' अपने आप में एक विरोधाभास है । बाजारवाद और समाजवाद साथ-साथ नहीं चल सकते । वैश्वीकरण की इस दुनिया में सबके लिए जगह नहीं है । विकास होगा तो चीन जैसा होगा । कुछ की समृद्धि होगी , बाकी के हिस्से में कंगाली , बदहाली , बेरोजगारी और विस्थापन की त्रासदी आएगी । दरअसल , बहुसंख्यक लोगों के शोषण और विनाश पर ही कुछ लोगों का ऐशोआराम टिका है । पूंजीवादी औद्योगीकरण की प्रकृति ही ऐसी ही है वह पूरी दुनिया के संसाधनों को लूटते और बरबाद करते आगे बढ़ता है । पहले यह लूट उपनिवेशों में होती थी , बाद में नव औपनिवेशिक तरीके विकसित हो गए । बाहरी उपनिवेशों के साथ-साथ देश के अन्दर आंतरिक उपनिवेश विकसित हुए । बिना औपनिवेशिक ( या नव-औपनिवेशिक ) लूट के पूंजीवाद की गाड़ी चल नहीं सकती । वैश्वीकरण इस पूंजीवाद व साम्राज्यवाद का ही एक नया , ज्यादा भयानक दौर है । इस सत्य को हम पहचान लेंगे , तो इसका मानवीय चेहरा ढूंढने या इसके बीच का कोई रास्ता ढूंढने का निरर्थक प्रयास छोड़ देंगे ।

    किशन पटनायक की खासियत यह थी कि इस सत्य को उन्होंने बहुत पहले पहचान लिया था और इसके बारे में बराबर चेतावनी देते रहे । इस मामले में उनका योगदान भुलाया नहीं जा सकेगा ।

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सुनील के अन्य लेख यहाँ देखें ।तीनों कडियों पर ।

 

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क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (६)

 

    अमर्त्य सेन , जोसेफ स्टिगलिट्ज़ आदि कहते हैं कि साक्षरता , शिक्षा , स्वास्थ्य , तकनालाजी आदि पर सरकार पर्याप्त खर्च करे व ध्यान दे तो वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया को मानवीय बनाया जा सकता है और सब लोग इसका लाभ उठा सकते हैं । जो लग इस प्रक्रिया के शिकार होंगे , उनके लिए सामाजिक सुरक्षा तंत्र (safety nets ) बना दिए जाएं। लेकिन कैसे ? यह कहने का मतलब वैश्वीकरण के लूट , शोषण व विनाश के बुनियादी आधार को नजरअंदाज करना है , दुनिया में विभिन्न हितों में बुनियादी टकराव को अनदेखा करता है तथा एक विश्लेषण-रहित कोरे आशावाद( wishful thinking ) का सहारा लेना है । यह वैसा ही है , जैसा कि शेर के आगे मेमने को डाल दिया जाए और यह उम्मीद की जाए कि शेर संत बन जाए व मेमने को न खाए । इसमें दो तथ्य ध्यान देने लायक हैं ।

    (१)    वैश्वीकरण का , नवउदारवादी अर्थशास्त्र का तथा विश्व बैंक , अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि का गरीब देशों की सरकारों पर लगातार दबाव है कि वे अपने बजट का घाटा कम करें और गरीबों को अनुदान कम करें । इन नवउदारवादी नीतियों में करों से सरकार का राजस्व बढ़ाने का विकल्प नहीं है क्योंकि अमीरों व कंपनियों को लगातार करों में छूटें दी जा रही हैं । अब तो विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ ) जैसे कर मुक्त स्वर्ग बनाए जा रहे हैं । ऐसी हालत में शिक्षा , स्वास्थ्य , राशन , सार्वजनिक सुविधाओं पर खर्च लगातार कम हो रहा है और सरकार अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ती जा रही है । भारत में तो 'वित्तीय उत्तरदायित्व एवं बजट प्रबंधन अधिनियम ' बनाकर भारत सरकार ने स्वयं अपने हाथ बांध लिए हैं । इस कानून के तहत भारत सरकार को लगातार अपने बजट घाटे को कम करते हुए पाँच साल में उसे शून्य पर पहुंचाना है । यह बिल्कुल गैरजरूरी , गलत एवं बेवकूफी है ।

    (२)    दूसरी ओर , वैश्वीकरण का पूरा जोर शिक्षा , स्वास्थ्य आदि का भी बाजार विकसित करने पर है । पानी के बाजार की भांति यह भी गरीबों व जनसाधारण के खिलाफ जाता है । बहुत तेजी से शिक्षा व स्वास्थ्य का निजीकरण हो रहा है । शिक्षा व इलाज मंहगे होते जा रहे है ।कोचिंग का मंहगा बाजार तेजी से विकसित हो रहा है । निजी कॊलेजों , विश्वविद्यालयों और शिक्षा संस्थाओं की बाढ़ आ गयी है । डोनेशन का रेट बढ़ता जा रहा है।देशी तथा विदेशी कंपनियां भी शिक्षा के इस बाजार में कूद रही हैं । यहाँ तक सरकार की नीतियाँ भी पूंजीपति व कंपनियाँ बना रही हैं । कुछ समय पहले भारत सरकार ने शिक्षा में सुधार लाने के लिए 'अम्बानी-बिड़ला समिति' बनाई थी , जिसने अपनी रपट भी दी है । यह कमाल वैश्वीकरण के जमाने मे ही हो सकता है कि शिक्षा के बारे में कमेटी शिक्षाविदों या विशेषज्ञों की नहीं पूंजीपतियों और बड़े बनियों की बनाई जाए , जिनके लिए मुनाफे को छोड़कर कोई मूल्य नहीं होते ।इसी प्रकार जिस परिषद के  सारे के सारे सदस्य देश के बड़े पूंजीपति हों , उनमें एक भी बुद्धिजीवी , अर्थशास्त्री , प्रशासक , किसानों या मजदूरों का प्रतिनिधि न हों , फिर भी उसे हम उत्तरप्रदेश को लूटने की परिषद न कहकर 'उत्तरप्रदेश विकास परिषद' कहें - यह भी वैश्वीकरण का कमाल है ! पहले के युग में हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते थे ।

    जब शिक्षण संस्थाएं शिक्षा की दुकानें बन जाएं,अस्पताल मरीजों को लूटने के अड्डे बन जाएं , चिकित्सक के पवित्र कार्य पर पैसा कमाने का जुनून पूरी तरह हावी हो जाए - तो इसे किसी भी तरह से प्रगति नहीं कहा जा सकता । यह तो अध:पतन है । इसी प्रकार संस्कृति , कला , साहित्य , पत्रकारिता सबका तेजी से बाजार बन रहा है । सब 'बाजारू' बन रहे हैं । मुनाफे और पैसे की इस बाजारू दुनिया में मानव-मूल्यों व मानवीयता की जगह दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है । ( जारी)

 

     

 

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शनिवार, जनवरी 27, 2007

क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (५)

 

 गत प्रविष्टी से आगे :  ऊपर विदेशी कंपनियों की लूट के जो उदाहरण दिए हैं , उनका संबंध हमारे दो प्राकृतिक संसाधनों - पानी और खनिज - से है । प्राकृतिक संसाधनों का बाजार बनाना , उन पर से स्थानीय लोगों को बेदखल करना और देशी - विदेशी कंपनियों का नियंत्रण कायम करना , अमीर देशों की छोटी-सी अमीर आबादी के हित में उनका बेरहमी से दोहन , शोषण और विनाश करना - वैश्वीकरण के इस दौर की खासियत है ।पर्यावरण का संकट इसका सिर्फ एक खास पहलू और परिणाम है । लेकिन 'पर्यावरण - संकट ' कहने से पूरी तस्वीर साफ नहीं होती और उसके पीछे के असली कारण उजागर नहीं होते । असल में यह प्राकृतिक संसाधनों के हक और उपयोग की लड़ाई है और उन पर पूंजीवादी-सम्राज्यवादी हमले का मसला है । ऐसा नहीं है कि यह हमला नई चीज है या अभी शुरु हुआ है । लेकिन वैश्वीकरण के इस दौर में यह हमला अचानक बढ़ गया है और इसके कारण पैदा हुए संकट भी बढ़ गए हैं । पूंजीवाद ऐसे दौर में पहुँच गया है , जब संसाधनों की उसकी भूख और विनाश की उसकी क्षमता बहुत बढ़ गयी है और जिसके बगैर वह जिंदा नहीं रह सकता है ।

    आज दुनिया में जो संघर्ष हो रहे हैं , उनका प्रमुख संबंध प्राकृतिक संसाधनों की इस छीना-झपटी से है । इराक और अफगानिस्तान पर अमरीकी हमले की जड़ में वहाँ के तेल और प्राकृतिक गैस के भण्डार हैं । वेनेजुएला और बोलीविया से अमरीका के विरोध की बुनियाद में भी वही है ।नाइजीरिया में केन सारो विवा जैसी हस्तियों को फांसी , ईरान से अमरीका का टकराव , रूस व यूक्रेन का झगड़ा आदि की जड़ में भी पेट्रोल है ।अमरीकी लोगों की प्रति व्यक्ति तेल खपत दुनिया में सबसे ज्यादा है ।वे अपना तेल भण्डार बचाते हुए पूरी दुनिया के तेल पर अपना नियंत्रण रखना चाहते हैं । इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं , किसी भी देश को रौंद सकते हैं और हजारों-लाखों इंसानों का कत्ल कर स्कते हैं।वैश्वीकरण का एक वीभत्स, क्रूर तथा साम्राज्यवादी चेहरा इराक व अफगानिस्तान में स्पष्ट दिखाई देता है ।

    भारत में आज जो संघर्ष और आंदोलन चल रहे हैं , उनका भी संबंध प्राकृतिक संसाधनों से ही है । नर्मदा बचाओ ,हरसूद ,महेश्वर ,टिहरी,तवा , पोलावरम , कलिंगनगर , काशीपुर , लांजीगढ़ , प्लाचीमाड़ा , मेंहदीगंज , कालाडेरा ,दादरी , चिपको , श्रीगंगानगर , जम्बूदीप , चिलिका , बालियापाल , गंधमार्दन , नगरनार आदि की लड़ाई अंतत: जल , जंगल , जमीन , खनिज , मछली आदि प्राकृतिक संसाधनों की लड़ाई है । प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा किए बगैर तथा उनका विनाश किए बगैर पूंजीवादी विकास या वैश्वीकरण का रथ अब आगे नहीं बढ़ सकता । इसके लिए किसानों , आदिवासियों ,मछुआरों , पशुपालकों , ग्रामवासियों को बड़े पैमाने पर विस्थापित किया जा रहा है ।वैश्वीकरण और विस्थापन का चोली-दामन का साथ है।

    किशन पटनायक एक ऐसे विचारक थे , जिन्होंने इस लूट व विनाश पर बुनियादी सवाल उठाए । जैसे काशीपुर व लांजीगढ़ के सन्दर्भ में उन्होंने सिर्फ आदिवासियों के विस्थापन का ही विरोध नहीं किया,उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि आखिर इतने बाक्साइट खनन की जरूरत क्या है और एल्युमिनियम का इतना ज्यादा उत्पादन किसके लिए होगा ? यदि यह एल्युमिनियम निर्यात होकर अमरीका-यूरोप के विमानों तथा अस्त्र-शस्त्रों में काम आएगा , तो इसे हम भारत का विकास कहेंगे क्या ?उनके भोग - विलास तथा उनकी साम्राज्यवादी जरूरतों के लिए हम अपना जंगल क्यों नष्ट करें , अपने आदिवासियों को क्यों उजाड़ें और अपना खनिज भण्डार क्यों लुटायें ?क्या ज्यादा खनिज उत्पादन हमेशा विकास व प्रगति का पर्यायवाची होगा ?

    किशन पटनायक ने पानी के बाजार पर भी सवाल उठाया । वैश्वीकरण के उन्मुक्त बाजारवाद ने पानी जैसी सर्वसुलभ चीज को भी नहीं छोड़ा और उसे बहुराष्ट्रीय मुनाफे का सबसे बढ़ता हुआ कारोबार बनाने का कमाल करके दिखाया । बोतलबंद पानी तथा कोक-पेप्सी इस लूट का हिस्सा है । लेकिन विश्व बैंक , एशियाई विकास बैंक , अफ़्रीकी विकास बैंक आदि के द्वारा गरीब देशों को पेयजल , शहरी विकास , सिंचाई आदि के जो कर्ज दिए जा रहे हैं , जो ऊपर से मानवीय परियोजनाएं दिखाई देती हैं , उनमें सब में शर्त होती है कि पानी की दरें बढ़ाई जाएं ,पूरी लागत-वसूली हो और धीरे -धीरे पानी की आपूर्ति का काम निजी कंपनियों को दिया जाए । ( ऐसी ही शर्तें बिजली ,सड़क , शिक्षा हर क्षेत्र की परियोजनाओं में होती हैं) । सरकार किसी भी प्रकार का अनुदान न दे ( या देना हो तो कंपनियों को दे) और हस्तक्षेप न करे । जहाँ-जहाँ विश्व बैंक व एशियाई विकास बैंक की योजनाएं लागू हुई हैं वहाँ पानी की दरें बहुत तजी से बढ़ी हैं और निजी कंपनियों ठेकए दिए गए हैं- वह चाहे भारत का दिल्ली हो , बोलिविया का कोचाबाम्बा हो या दक्षिण अफ़्रीका का केपटाउन हो ।पानी के इस निजीकरण का अंतत: सीधा मतलब  होता है कि बढ़ी हुई दरों पर जो पैसा दे सकेगा ,उसे ही पानी मिलेगा । पैसा नहीं तो पानी नहीं ।गरीब लोग पनी से भी वंचित हो जाएंगे ।इससे अधिक क्रूर व अमानवीय व्यवस्था और कोई नहीं हो सकती । पूरे मानव इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि इंसानों को पानी जैसी चीज से वंचित किया गया हो।जिस मध्ययुग को बर्बरयुग कहा जाता है , उसमें भी ऐसा नहीं हुआ था । वैश्वीकरण का यह युग मानव इतिहास का सबसे बर्बर युग है । 

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शुक्रवार, जनवरी 26, 2007

क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (४)

 

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    " भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र विदेशी पूंजी के लिए खुले हैं । आप आएं और हमारे देश में निवेश करें । " प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने १० अक्टूबर २००६ को लंदन में कहा । सचमुच ही , देश की अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र के सारे दरवाजे विदेशी कंपनियों के लिए खोल दिए गए हैं । एक के बाद एक केन्द्र और प्रान्तों की सरकारें विदेशी पूंजी को बुलाने , आकर्षित करने और खुश करने की होड़ व दौड़ में लगी हैं । दशकों से चले आ रहे कानून , कायदे और नीतियाँ उनकी माँग पर उनके हितों में बदल दिए गए हैं । इसके पीछे विश्वास (या अन्धविश्वास) यह है कि विदेशी पूंजी तथा विदेशी कंपनियों के आने से ही देश का विकास हो सकेगा । इस विश्वास की हम क्या कीमत चुका रहे हैं , इस पर काफी कुछ लिखा गया है । यहाँ कुछ उदाहरणों से हम बात स्पष्ट करना चाहेंगे ।

    लगभग पाँच वर्ष पहले की बात है । भारतीय शेयर बाजार में कारोबार करने वाली कुछ विदेशी कंपनियों की जाँच भारतीय आयकर अधिकारियों ने शुरु की । इन कंपनियों ने अपना पता व पंजीयन मारीशस का बताया था , लेकिन ऐसा समझ में आ रहा था कि ये कंपनियाँ वास्तव में मारीशस की नहीं हैं । सिर्फ भारत - मारीशस के बीच दोहरा करारोपण न लगाने के समझौते का लाभ उठाने के लिए उन्होंने मारीशस में दफ्तर खोला है तथा वे अरबों रुपए के टैक्स की चोरी कर रहीं हैं ।जैसे ही यह जाँच शुरु हुई , इन कंपनियों में हडकम्प मच गया । उन्होंने धमकी दी कि वे भारतीय शेयर बाजार से अपनी पूंजी निकालकर वापस ले जायेंगी । शेयरों के सूचकांक गिरने लगे । तब भारत सरकार के वित्त मंत्री ने इन कंपनियों के दबाव में आकर यह जाँच रुकवा दी । सब कुछ वापस सामान्य हो गया , शेयर बाजार का सूचकांक वापस अपनी जगह पर आ गया और विदेशी कंपनियों की अरबों रुपयों की कर -चोरी पहले की तरह यथावत चलने लगी ।

    इस एक घटना से वैश्वीकरण व्यवस्था के चक्रव्यूह और उसकी मजबूरियों का पता चलता है । कहा जाता है कि वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा की पुत्रवधु भी ऐसी ही एक कंपनी में काम करती थी । लेकिन बात सिर्फ भ्रष्टाचार की नहीं है । विदेशी पूंजी के लिए लालायित , उसके आगमन की आंकड़ों और शेयर बाजार के सूचकांक को ही अपनी सफलता की कसौटी मानने वाली , विदेशी पूंजी की कृपा पर निर्भर , किसी भी गरीब देश की कोई भी सरकार इस प्रकार उनकी बंधक बन सकती है ।यदि विदेशी कंपनियों के गलत-सही कारनामों को बरदाश्त नहीं किया गया , उनके ऊपर किसी प्रकार का बंधन लगाया गया या कार्रवाई की गयी , तो वे हमेशा देश छोड़कर वापस चले जाने की धमकियाँ देती हैं और सरकारें झुक जाती हैं ।

    भारत में जो विदेशी पूंजी आ रही है , उसमें से लगभग आधी तो पोर्टफोलियो निवेश के रूप में शेयर बाजारों में शेयरों का सट्टा करने के लिए आ रही है । यानी वह सही मायने में देश के अन्दर तो आ ही नहीं रही और देश का उत्पादन या रोजगार बढ़ाने में उसका कोई वास्तविक योगदान नहीं होता है । शेयर बाजार में लगने वाली यह पूंजी काफी चंचल और अस्थिर होती है तथा कभी भी उसे देश छोड़कर जाने में कोई वक्त नहीं लगता है । इसे ' उड़न -छू पूंजी' कहा जा सकता है । वह कभी भी पलायन करके देश की अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर सकती है । दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में दस वर्ष पहले जो संकट आया था , उसमें इस तरह की विदेशी पूंजी का बड़ा योगदान था । लेकिन भारत सरकार ने इससे कोई सबक नहीं सीखा  है ।और अब तो वह रुपये की पूर्ण परिवर्तनीयता की बात कर रही है , जिससे यह खतरा और बढ़ जायेगा ।

    शायद इसी तरह की गिरफ्त की मजबूरी है कि कोकाकोला और पेप्सी कंपनियों की बोतलों में नुकसान्देह स्तर तक कीटनाशक पाए जाने के बाद भी सरकार ने न तो उनका कारोबार बंद किया है और न उन पर कोई जुर्माना लगाया है । बोतलबन्द पानी का धन्धा तो विदेशी कंपनियों द्वारा इस देश की लूट का सबसे नायाब उदाहरण है । पानी देश का , पीने वाले देश के और कमाई विदेशी कंपनियों की । यही नहीं , पाँच पैसे का पानी , पचास पैसे की पैकिंग और बिक्री मूल्य दस रुपये ! इससे ज्यादा मुनाफे की दर दुनिया में और कहाँ होगी ? इससे बढ़िया लूट का धन्धा और क्या होगा ?इसके बावजूद भारत सरकार ने न केवल उसे इजाजत दे रखी है , बल्कि उसे बढ़ावा दे रही है और उसे देश की प्रगति तथा विकास की निशानी मान रही है ।

    ऐसे और भी कई उदाहरण हैं । जब भारत का बीमा क्षेत्र विदेशी कंपनियों के लिए खोला गया , तब साथी किशन पटनायक ने एक सवाल उठाया था । उन्होंने कहा कि ये विदेशी बीमा कंपनियाँ विदेश से प्रारंभ में कुछ पूंजी लायेंगीं, लेकिन आखिरकार प्रीमियम तो इसी देश के लोग जमा करेंगे । यानी बचत इस देश की , पैसा इस देश के नागरिकों का और मुनाफा विदेश का ! बैंक और बीमा में विदेशी कंपनियों का प्रवेश बिल्कुल गैरजरूरी है तथा वे वे सिर्फ देश को लूटने का काम करेंगी । यही नहीं , मुनाफे और सिर्फ मुनाफे के लिए बेचैन ये विदेशी बैंक व बीमा कंपनियाँ भारत के वित्तीय क्षेत्र को एक खास जन-विरोधी , अमीर-प्रेमी , अनैतिक तथा व सट्टात्मक दिशा में ले जा रहे हैं । वैश्वीकरण के दौर के पहले बड़े घोटाले - हर्षद मेहता वाले शेयर घोटाले - में विदेशि बैंकों की प्रमुख तथा अग्रणी भूमिका थी।लेकिन विदेशी हितों की बन्धक बनी भारत सरकार ने उनके खिलाफ कोई खास कार्रवाई नहीं की ।

    एक और विदेशी कंपनी 'पोस्को' के साथ जो समझौता हुआ , वह भी विदेशी पूंजी के देश हित के खिलाफ होने की एक मिसाल है । गर्व से बताया गया कि इस कंपनी के द्वारा दुनिया का सबसे बड़ा इस्पात कारखाना उड़ीसा के तट पर लगेगा ,जो भारत में अब तक का सबसे बड़ा विदेशी पूंजी निवेश होगा । पोस्को के साथ ही मित्तल , टाटा , एस्सार आदि के साथ झारखण्ड , छत्तीसगढ़ , उड़ीसा में नए -नए करारों की धूम मची है ।लेकिन यह बात छुपा दी जाती है कि पोस्को ने अपने करार में यह शर्त भी रक्खी है कि उसके कारखाने के लिए जितने लौह अय्स्क की जरूरत होगी, उससे ज्यादा कच्चा लोहा उसे खदानों से निकालने और निर्यात करने का अधिकार होगा ।अब जरा इस बात पर गौर करें ।विकास के , अर्थशास्त्र के प्रचलित मानदण्डों के हिसाब से भी कच्चा खनिज निर्यात कर करना बेवकूफी है ।यदि इस्पात बनाकर बेचेंगे तो देश की राष्ट्रीय आय बढ़ेगी तथा देश में रोजगार मिलेगा । कच्चा खनिज निर्यात करके हम विकास व औद्योगीकरण की सारी प्रगति को छोड़ते हुए वापस प्रारंभिक औपनिवेशिक अवस्था में पहुँच रहे हैं ,जब हम कच्चा माल निर्यात करते थे और तैयार माल आयात करते थे ।और हमें अपनी जरूरतों का तथा अपने भविष्य का कोई ख्याल नहीं है ।यदि पोस्को जैसे दो-चार करार और हो गए , तो भारत का लौह खनिज भण्डार यदि १०० साल चलने वाला था , वह ५० साल में ही खतम हो जाएगा ।

    कुल मिलाकर , विदेशी पूंजी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ , चाहे वे शेयर बाजार में पोर्टफोलियो निवेश करने वाली हों या देश के अंदर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने वाली हों , असल में इस देश को पूरी तरह लूटने और चूसने के लिए आ रही हैं । वैश्वीकरण की व्यवस्था उनकी इस लूट को प्रशस्त करने तथा इसकी राह की रुकावटें दूर करने का काम करती हैं । इसका मानवीय चेहरा क्या होगा ? ( जारी )

क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (३)

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    वैश्वीकरण की एक उपलब्धि के तौर पर यह प्रचारित किया जाता है कि भारत की विकास दर ७ - ८ प्रतिशत तक पहुँच गयी है , ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में इसे नौ व दस प्रतिशत तक पहुंचाया जाएगा । लेकिन यह विकास - दर बहुत भ्रामक है ।सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह ' रोजगार रहित विकास ' (Jobless growth ) है । देश में बेरोजगारी जबरदस्त बढ़ती जा रही है । यह बेरोजगारी सर्वव्यापी है , किंतु भारत के ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में सबसे ज्यादा है , जहाँ से लाखों - करोड़ॊ लोग रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं । वैसे तो विशाल बेरोजगारी भारत के आधुनिक विकास मॊडल में अंतर्निहित है , किंतु वैश्वीकरण के दौर में इस बेरोजगारी में भारी बढ़ोत्तरी के दो प्रमुख कारण हैं : -

    (१)   खुले व सस्ते आयात के कारण तथा सरकार की नई नीतियों के कारण देश के बहुत सारे छोटे - बड़े , निजी - सरकारी , शहरी - ग्रामीण उद्योग खतम हो गए हैं तथा खेती भी घाटे में जा रही है । जो नए उद्योग या कारोबार उनकी जगह ले रहे हैं , उनमें इस विशाल बेरोजगार फौज को खपाने की क्षमता नहीं है । आखिर , जिस सूचना तक्नालाजी और BPO सेवाओं का इतना हल्ला है , गुड़गाँव और बंगलौर की इतनी चर्चा है , उनमें अधिकतम पाँच - दस लाख से ज्यादा रोजगार नहीं मिल सकता ।

    (१)   नए माहौल में , अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में टिकने के लिए , प्रत्येक कंपनी या उद्योगपति तेजी से मशीनीकरण , स्वचालन और कम्प्यूटरीकरण की ओर जा रहे हैं तथा मजदूरों - कर्मचारियों की छंटनी कर रहे हैं । सरकारी उपक्रम भी चाहे वह रेलवे हो , SAIL हो , BCCL हो या बैंक , इसी नीति पर चल रहे हैं । इस काम के लिए सरकार उन्हे मदद , अनुदान तथा छूट भी देती है । भारत के श्रम - कानूनों को बदलना तथा ' चाहे जब लगाओ - भगाओ ' (Hire and Fire ) की छूट देना आर्थिक सुधारों के नए दौर ( Second Generation of Reforms ) का प्रमुख अजेण्डा है ।

      नतीजा यह हो रहा है कि भारत के गांवों और शहरों दोनों में बेरोजगारों की भयानक समस्या खड़ी हो गयी है । सरकारी उपक्रमों में नई भर्ती बन्द हो गयी है , सरकारी तथा निजी क्षेत्र दोनों में अब स्थायी श्रमिक या कर्मचारी रखने के बजाय काम ठेके पर दिए जा रहे हैं जहाँ पर मजदूर बहुत कम मजदूरी में तथा बहुत खराब हालातों में काम करते हैं , काम की सुरक्षा खतम होती जा रही है , संगठित क्षेत्र का स्थान असंगठित क्षेत्र लेता जा रहा है तथा मजदूरों का शोषण अभूतपूर्व ऊँचाइयों पर पहुंच गया है ।इस मामले में कुछ संघर्ष करने वाला मजदूर आंदोलन भी वैश्वीकरण के पहले झटके में ही बिखर गया है और स्वयं लस्त-पस्त है । मजदूर आंदोलन के नाम पर सिर्फ सफेदपोश कर्मचारियों ( बैंक , बीमा , रेलवे आदि ) के संगठन बचे हैं, जिन्हें सिर्फ अपने वेतन - भत्ते और पेंशन की चिंता है और जो स्वयं अपने उपक्रमों के निजीकरण व छंटनी को भी रोक पाने में असफल साबित हो रहे हैं ।

    तो वैश्वीकरण का यह एक और चेहरा है । मजदूरों की छंटनी , गिरती मजदूरी , बढ़ता शोषण , बदतर होती कार्यदशाएं , खतम होता मजदूर आंदोलन , बुनकरों की आत्महत्याएं , बढ़ती बेरोजगारी । यह भी एक दानवी चेहरा है ।रोजगार गारंटी कानून जैसे उपायों से इसमें तात्कालिक राहत मिल सकती है , लेकिन बुनियादी स्थिति नहीं बदलती ।जैसा कि ऊपर कहा गया है यह वैश्वीकरण की व्यवस्था की मांग है और उसका तार्किक परिणाम है ।

    यदि विकास की दर ८ - ९ प्रतिशत भी हो जाती है , किंतु यह विकास रोजगार शून्य रहता है , यानी इस विकास के साथ बेरोजगारी कम होने के बजाय बढ़ रही है , तो इसका मतलब है कि यह विकास ज्यादा से ज्यादा लोगों को बहिष्कृत कर रहा है और इस विकास के लाभ थोड़े से लोगों में केन्द्रित हो रहे हैं । ये विषमताएं ( वर्ग , जाति , स्त्री - पुरुष , क्षेत्रीय , गांव - शहर की , अंतर्राष्ट्रीय ) बढ़ रही है । ये विषमताएं पूंजीवाद का एक विशिष्ट गुण है । इन विषमताओं और शोषण से ही पूंजी संचय को बढ़ावा मिलता है । वैश्वीकरण ने इस पूंजी संचय , शोषण और विषमताओं को नई ऊँचाइयों पर पहुँचाया है । ( जारी )

गुरुवार, जनवरी 25, 2007

क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (२)

गत प्रविष्टी से आगे :  खेती - किसानी के इस व्यापक तथा गहरे संकट के सन्दर्भ में सरकार की घोषणाएं व पैकेज इसलिए बेकार साबित हो रहे हैं कि वे किसानों की मुसीबत की असली जड़ में नहीं जाते हैं ।असली बात यह है कि भारत का किसान - बढ़ती लागत और उपज के घटते (या पर्याप्त न बढ़ते) दाम - चक्की के इन दो पाटों के बीच बुरी तरह पिस रहा है । खाद , बिजली , डीजल , पानी सबकी दरें बढ़ रहीं हैं , क्योंकि विश्व बैंक , अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष , वैश्वीकरण - समर्थक नव-उदारवादी अर्थशास्त्री , सबका कहना है कि सरकार को किसानों को अनुदान नहीं देना चाहिए , पूरी 'लागत वसूली' करना चाहिए तथा बाजार में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । दूसरी ओर , विश्व व्यापार संगठन की नई व्यवस्था के तहत , भारत की सरहदें सस्ते आयातों के लिए पूरी तरह खोलने के बाद , विदेशों से भारी अनुदान युक्त माल के आयात की बाढ़ आ गयी है , जिसने किसान की उपज के दाम लागत के अनुरूप बढ़ने नहीं दिए । वैश्वीकरण की नई विचारधारा के अनुरूप अब सरकार किसान को पर्याप्त समर्थन - मूल्य प्रदान करने की जिम्मेदारी से भी हाथ खींचना चाहती है तथा खीच रही है । नतीजे में , देश के किसानों को भारी घाटा हो रहा है । वे करजे में डूब रहे हैं । थोड़ी भी फसल बिगड़ जाए , तो उनके सामने आत्महत्या के अलावा कोई चारा दिखाई नहीं देता । संकट के इस बुनियादी कारण को दूर किए बगैर सरकार की कोई भी घोषणाएं बेमानी हैं , उनसे कुछ विशेष हासिल नहीं होने वाला है । लेकिन यह सरकार और यह प्रधानमंत्री इस संकट का हल भी नहीं कर सकते , क्योंकि वैश्वीकरण की इस नई व्यवस्था को भारत में लाने वाले और उसके खास झंडाबरदार तो वे ही हैं । कृषि संकट के जो समाधान वे बता रहे हैं , जैसे दूसरी हरित क्रांति , जैव तकनालाजी , जीन-परिवर्तित बीज , विपणन और खाद्य प्रसंस्करण में विदेशी कंपनियों को बढ़ावा देना आदि , इससे संकट हल होगा नहीं , और ज्यादा गहराएगा ।

    आत्महत्या वाले इलाकों के लिए भारत सरकार के पैकेज का एक प्रमुख हिस्सा किसानों के लिए बैंक ऋणों में बढ़ोतरी है । लेकिन पहले इस सवाल का जवाब खोजना होगा कि बैंक ऋणों में कमी कैसे हुई और किसान सहूकारों के चंगुल में कैसे फंसे ! नई आर्थिक नीति के पहले भारतीय बैंकों के कुल ऋण का १८ प्रतिशत तक कृषि को मिलता था । अब वह घट कर १० प्रतिशत हो गया है । इसका कारण साफ है । उदारीकरण के नए माहौल में हर बैंक पर दबाव है कि वह अपने मुनाफे को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाए तथा डूबत खाते के ऋणों ( NPAs ) को कम करे । किसानों को छोटे - छोटे ऋण देने में ज्यादा झंझट है , प्रशासनिक खर्चे ज्यादा हैं तथा वसूली ज्यादा मुश्किल है । घाटे की खेती के कारण किसानों की हालत भी खराब हो रही है । इसलिए बैंक अब किसानों को कर्ज देने में कतराते हैं । किसान क्रेडिट कार्ड के प्रचार-प्रसार के बावजूद असलियत यही है ।

    मजबूरन किसान को निजी सहूकारों की शरण में जाना पड़ता है । तो यह एक दुष्चक्र बन गया है , जिसे वैश्वीकरण की नीतियों ने पैदा किया है । भारत सरकार की नई घोषणाओं से यह दुष्चक्र टूटेगा नहीं । ज्यादा संभावना यही है कि कृषि - ऋण में बढ़ोतरी के नाम पर किसानों के बजाय बड़े-बड़े फार्म हाउस के मालिकों तथा कृषि - क्षेत्र में कूद रही कंपनियों को ज्यादातर बैंक ऋण दिए जाएंगे ।

    एक तरफ , भारत सरकार अपने किसानों को किसी प्रकार की सुरक्षा न देने की नीति पर चल रही है , दूसरी तरफ दुनिया के अमीर देश अपने कृषि-क्षेत्र को भारी अनुदान दे रहे हैं । विश्व-व्यापार संगठन के तमाम नियम - कानून व समझौतों के बावजूद पिछले दस वर्षों में उनके कृषि अनुदान कम नहीं हुए , बढ़ते गए हैं । इस समय वे एक वर्ष में करीब ३२१ अरब डॊलर क विशाल अनुदान अपने कृषि - क्षेत्र को दे रहे हैं ।इसके माध्यम से वे पूरी दुनिया की खेती , खाद्य-आपूर्ति , कच्चे माल आपूर्ति , राजनीति व कूट्नीति पर अपनी कंपनियों का व अपना वर्चस्व तथा नियंत्रण कायम करके रखते हैं । वैश्वीकरण की विश्व-व्यवस्था कितनी दुरंगी , पाख्ण्डी , अन्यायपूर्ण और विषमतापूर्ण है , इसका सबसे बढ़िया उदाहरण कृषि - क्षेत्र ही है ।

    इसलिए भारत के किसानों की आत्महत्याएं कोई संयोग या तात्कालिक दुर्घटना नहीं है , यह नई व्यवस्था का एक अनिवार्य हिस्सा है । यदि भूमि हदबन्दी कानूनों में चल रहे संशोधनों , कन्ट्रैक्ट खेती के प्रावधानों और कंपनियों के खेती में प्रवेश को साधारण किसानों के इस संकट के साथ मिलाकर देखें , तो योजना साफ हो जाएगी । योजना यह है कि भारत के किसानों के हाथ से खेती निकलकर कंपनियों के हाथ में आ जाए । किसानों की जमीन बिकेगी या नीलाम होगी ( बैंक - ऋण वसूली का काम तहसीलदारों व राजस्व अधिकारियों को सौंपना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है , आगे चलकर निजी ठेकेदारों को वसूली के ठेके दिए जाएंगे और ऋण वसूली का भी एक बाजार बनेगा ) और वे नगरों तथा महानगरों में मजदूर व झुग्गीवासी बनकर आते जाएंगे । यूरोप - अमरीका में यह प्रक्रिया पहले हो चुकी है , लेकिन वे परिस्थितियाँ अलग थीं ।वहाँ की संख्या भी कम थी और तब पूरी दुनिया को लूटने , कब्जा करने व उस पर आधारित औद्योगीकरण का दौर वहाँ चल रहा था । खेती से बेदखल किसान उसमें खप गए । लेकिन भारत की विशाल ग्रामीण आबादी कहाँ जाएगी और कहाँ खपेगी - यह एक विशाल सवाल हमारे सामने खड़ा है ।

    भारत की खेती का अभूतपूर्व संकट और भारत के किसानों का विनाश वैश्वीकरण का एक दानवी चेहरा है । इस चेहरे को कितना भी लीपा-पोता जाए , ढ़का जाए या मुखौटा लगाया जाए , इसे मानवीय चेहरा नहीं बनाया जा सकता । ( जारी )

 

 

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बुधवार, जनवरी 24, 2007

क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? : सुनील

    ( सुनील , राष्ट्रीय महामंत्री , समाजवादी जनपरिषद द्वारा लखनऊ विश्वविद्यालय में 'अर्थ' और 'अमिट' द्वारा आयोजित किशन पटनायक स्मृति व्याख्यान , १७ अक्टूबर २००६ )

    साथी किशन पटनायक आज हमारे बीच नहीं हैं । उनके निधन के दो वर्ष हो चुके हैं । लेकिन वह भारत के उन गिने - चुने चिंतकों में से थे , जिन्होंने वैश्वीकरण की आंधी और चकाचौंध से अप्रभावित रहकर इसके पीछे की ताकतों और इसके खतरों को शुरु से पहचान लिया था । बड़ी प्रखरता से उनका विश्लेषण करते हुए , अंतर्दृष्टि और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए , इसे उन्होंने निरंतर अपने चिंतन , विमर्श और कर्म का हिस्सा बनाया । इसलिए उनको स्मरण व नमन करते हुए ' वैश्वीकरण और उसके मानवीय चेहरे ' की इस चर्चा को हम शुरु करते हैं ।

    'वैश्वीकरण' उस विश्वव्यापी प्रवृत्ति का नाम है , जिसने पिछले कुछ वर्षों से पूरी दुनिया के जनजीवन को प्रभावित किया है और एक खास दिशा में मोड़ा है । भूमंडलीकरण , जगतीकरण , उदारीकरण , आर्थिक सुधार , नई आर्थिक नीति आदि इसके कई नाम हैं।आज इसकी आंच सब महसूस कर रहे हैं और यह पूरी दुनिया में चर्चा , बहस , विवादों तथा संघर्षों का केन्द्र बन चुकी है । इसके गुण - दोषों , लाभ - हानि तथा पक्ष - विपक्ष की लगातार मीमांसा चलती रहती है । वैश्वीकरण की यह प्रवृत्ति इतनी व्यापक है और इतनी ज्यादा हावी हो चुकी है कि इसके दुष्प्रभावों का अहसास होते हुए भी कई लोग यह कहने लगे हैं कि (१) अब वापस पीछे जाना संभव नहीं है और वैश्वीकरण का कोई विकल्प नहीं है( There is no alternative या TINA ) तथा (२) वैश्वीकरण की व्यवस्था को ही ज्यादा बेहतर , ज्यादा मानवीय बनाया जाए । ऐसे लोग ही ' वैश्वीकरण के मानवीय चेहरे ' की बात और तलाश करते हैं । वे वैश्वीकरण के मौजूदा स्वरूप की आलोचना करते हैं , किंतु इसमें बुनियादी परिवर्तन के स्थान पर इसमें सुधार लाने की बात करते हैं ।

    वैश्वीकरण के ऐसे आलोचकों की श्रेणी में कई लोग हैं । विश्व बैंक , विश्व स्वास्थ्य संगठन , UNDP जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ वैश्वीकरण के फायदों और दुष्प्रभावों दोनों को गिनाती हैं । विश्व विकास रपट , विश्व स्वास्थ्य रपट , आदि में यह तो मंजूर किया जाता है कि वैश्वीकरण के लाभों का समान बँटवारा नहीं हो रहा है और काफी लोग इस से बाहर रह जाते हैं , लेकिन इसका इलाज यही है कि वैश्वीकरण को ज्यादा भागीदारी वाला ( Participatory) बनाया जाए , तथा सामाजिक सुरक्षा व्यवस्थाओं ( safety nets ) को ज्यादा व्यापक बनाया जाए । वैश्वीकरण की मूल प्रवृत्तियों और मूल विचारधारा में कोई दोष वे नहीं देखते हैं ।

    भारतीय मूल के अमरीका निवासी नोबल पुरस्कार अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है । वे वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार का विरोध नहीं करते , लेकिन इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि शिक्षा , स्वास्थ्य आदि पर सरकार को काफी ज्यादा खर्च करना चाहिए । यह ' चाहिए ' कैसे आर्थिक - राजनैतिक रूप से संभव होगा , यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है , जिस पर सेन साहब ज्यादा बात नहीं करते हैं । अमर्त्य सेन प्रारंभ में एक वामपंथी अर्थशास्त्री माने जाते थे । लेकिन इधर वैश्वीकरण संबंधी फिजूल की बहसों में वे नहीं पड़ते । इसीलिए भी शायद उन्हें नोबल पुरस्कार का पात्र माना गया ।

    वैश्वीकरण की नीतियों के एक अन्य प्रमुख आलोचक के रूप में एक और नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिट्ज़ भी उभर कर आये हैं। कुछ समय पहले उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की नीतियों के विरोध में उससे इस्तीफा दे दिया । और ' Globalisation and Its Discontents ' नामक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखकर हम सबका दिल खुश कर दिया । हाल ही में उन्होंने एक किताब और लिखी है - ' Making Globalisation Work '।गत २९ सितम्बर को उनका एक साक्षात्कार ' हिन्दू ' अखबार में प्रकाशित हुआ है ,जिससे उनके विचारों की एक झाँकी मिलती है । इस साक्षात्कार में वे वैश्वीकरण की आलोचना तो करते हैं , लेकिन यह भी कहते हैं कि -

    " यदि वैश्वीकरण का प्रबंध ठीक से किया जाए तो उसमें महान संभावनाएं छिपी हैं । किंतु यह तभी होगा , जब जीतने वाले हारने वालों के साथ हिस्सा-बँटवारा करें । "

    यानी वैश्वीकरण के इस खेल में कुछ जीतने वाले और कुछ हारने वाले तो रहेंगे । यह हिस्सा-बँटवारा कैसे संभव होगा , यह ठीक से 'प्रबंध' कैसे होगा - यह एक बड़ा राजनैतिक सवाल है । स्टिगलिट्ज़ 'स्केन्डिनेवियन(स्वीडन-नार्वे) मॊडल' की बात करते हैं , जिसका मतलब है शिक्षा , अनुसंधान और तकनालाजी में भारी निवेश तथा एक मजबूत सामाजिक सुरक्षा का जाल। इसका मतलब यह भी है कि सरकार को आय पर प्रगतिशील दरों से भारी कर लगाना पड़ेगा । स्टिगलिट्ज़ पूर्वी एशियाई देशों- जापान , सिंगापुर , ताईवान , दक्षिण कोरिया और अब चीन- की भी इस बात के लिए तारीफ़ करते हैं कि उन्होंने ज्ञान और तकनालाजी की खाई को पाटने के लिए कदम उठाए तथा शिक्षा व बुनियादी ढ़ांचे पर भारी मात्रा में निवेश किया । तो वैश्वीकरण को सबके लिए लाभकारी और मानवीय बनाने के लिए स्टिगलिट्ज़ के मॊडल ये देश ही हैं ।

    वैश्वीकरण का मूल मंत्र है 'मुक्त बाजार' । यदि बाजार की शक्तियों को खुलकर काम करने दिया जाए , उसमें सरकार का दखल व नियंत्रण न हो ( क्योंकि उनसे विकृतियाँ पैदा होती हैं ), तो अर्थव्यवस्था का विकास होगा और 'अंतत:' सबको उस विकास का लाभ मिलेगा । वैश्वीकरण के बारे में यह विश्वास ( या कहें अंधविश्वास ) अर्थशास्त्र के दो पुराने सिद्धान्तों पर आधारित हैं ।एक तो रिकार्डो का व्यापार का तुलनात्मक लाभ सिद्धांत , जो कहता है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से दोनों पक्षों को लाभ होता है ।दूसरा , विकास का रिसाव सिद्धांत ( Trickle Down Theory ) , जो कहता है कि पहले कुछ देशों और कुछ व्यक्तियों का विकास होगा । फिर धीरे-धीरे इस विकास के लाभ रिसकर सब तक पहुंच जाएंगे । इसीलिए हमारे शासक आम जनता को कहते हैं कि धीरज रखो , विकास और समृद्धि का रिसाव सब तक पहुँचेगा । यदि अभी देश में बेरोजगारी फैल रही है , कई हिस्सों में गरीबी व भुखमरी है , किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो कोई चिंता की बात नहीं है। यह संक्रमण काल है , थोड़े वक्त की समस्या है , फिर सब ठीक हो जाएगा । दिक्कत यह है कि देश के करोड़ों लोगों को यह समझाईश पिछले पचास सालों से दी जा रही है । वैश्वीकरण के दौर में लोगों के कष्ट और ये उपदेश दोनों बढ़ गए हैं ।तो वस्तुस्थिति क्या है ?

    मुक्त बाजार की यह वकालत कोई नई नहीं है । पूंजीवाद के विकास के साथ ही मुक्त व्यापार या Laisez Faire का विचार स्थापित किया गया । मार्क्स , कीन्स , गांधी , लोहिया जैसे अनेक विचारकों ने इसे चुनौती दी । लेकिन अब सोवियत संघ के पतन , चीन द्वारा साम्यवाद का रास्ता छोड़कर पूंजीवाद की राह पकड़ने तथा भारत जैसे देशों में समाजवादी आंदोलन के बिखराव के बाद इसे चुनौती देने वाला कोई नहीं रहा । वैश्वीकरण क यह दौर वास्तव में उन्मुक्त बाजारवाद का दौर है । मानव जीवन के हर क्षेत्र को बाजारवाद के आगोश में लिया जा रहा है , आंका जा रहा है , ढाला जा रहा है । इस उन्मुक्त बाजारवाद के शिकार हुए कुछ लोगों पर एक नज़र डालना उपयुक्त होगा ।

    वैश्वीकरण का सबसे बड़ा शिकार बने हैं भारत के किसान । किसानों की लगातार आत्महत्याएं, आखिरकार, हजारों किसानों की बलि चढ़ जाने के बाद , हमारे राष्ट्रीय विमर्श का बनी हैं । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी पिछली जुलाई में विदर्भ का दौरा करना पड़ा। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने किसानों के लिए पैकेजों की घोषणाएं भी कीं ।लेकिन आत्महत्याओं का सिलसिला नहीं थम रहा है ! प्रधानमंत्री वहाँ विधवाओं के आंसू पोंछ कर आए और ३७५० करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा करके आए , उसके बाद भी आत्महत्याएं रुकने या कम होने की बजाय बढ़ गई ।अभी पिछले ६ तथा ७ अक्टूबर को मात्र दो दिन में विदर्भ में नौ किसानों की आत्महत्याएं हुईं । प्रधानमंत्री के दौरे के बाद ३६० से अधिक किसान खुदकुशी कर चुके हैं ।

    किसानों की आत्महत्याओं के पीछे दरअसल किसानी-खेती का अभूतपूर्व संकट है । वैसे तो किसान और गांव हमेशा से शोषण व उपेक्षा के शिकार रहे हैं । किंतु देश की आजादी के बाद पहली बार ऐसा मौका आया है कि वे हजारों की संख्या में खुदकुशी कर रहे हैं।आत्महत्या एक व्यक्ति के जीवन का आखिरी अतिवादी कदम है जो वह तब उठाता है जब उसे जीवन में उम्मीद की कोई किरण दिखाई नहीं देती । यदि हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं , इसका मतलब है कि लाखों -करोड़ों किसान इस संकट में गले तक फंसे होंगे ।

    किसानों की ये आत्महत्याएं उस आन्ध्रप्रदेश में शुरु हुई , जहाँ का मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू इस देश में विश्व बैंक का सबसे चहेता मुख्यमंत्री था ,जो स्वयं को मुख्यमंत्री कहने के बजाय सीईओ कहना पसंद करता था , तथा जिसकी तारीफ करते क्लिन्टन से लेकर हमारा मीडिया तक अघाता नहीं था । बाद में ये आत्महत्याएं अन्य 'प्रगतिशील राज्यों' - कर्नाटक , महाराष्त्र , गुजरात , केरल व पंजाब में भी फैल गई । इसमें मार्के की बात यह है कि देश के पिछड़े व गरीब माने जाने वाले राज्यों से आत्महत्याओं की खबरें नहीं आयीं ।उन राज्यों में ज्यादा आत्मह्त्याएं हुई , जहाँ आर्थिक सुधार ज्यादा तेजी से लागू हुए, जहाँ की खेती ज्यादा उन्नत मानी जाती थी  और जहाँ खेती में बाजार की घुसपेठ ज्यादा थी । मुक्त बाजार और आत्महत्याओं का एक सीधा संबंध दिखाई देता है । ( जारी )

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मंगलवार, जनवरी 16, 2007

इन्टरनेट पर गांधी

एक भारतीय - मूल के अमरीकी नागरिक ने गांधीजी पर एक ‘व्यंग्य - विडियो ‘ बना कर यू-ट्यूब पर डाल दिया । भारत के कम - से - कम दो टेलिविजन चैनलों ने इस वीडियो को भरपूर दिखाया । इस सन्दर्भ में केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्री प्रियरंजन दासमुंशी ने कहा है कि सरकार यू-ट्यूब के जाल-स्थल पर रोक लगाने पर विचार कर रही है ।यह गौरतलब है कि पिछले साल चन्द ‘विद्वेष फैलाने वाली ‘ और ‘ राष्ट्र-विरोधी ‘ चिट्ठों पर रोक लगाने की मंशा से ब्लॊगर के स्थल को ही कुछ समय के लिए रोक दिया गया था । हाँलाकि , चिट्ठेबाजों ने चन्द ‘उपायों’ और ‘जुगाड़ों’ द्वारा इस रोक को बेमानी कर दिया था ।सूचना की दृष्टि से ‘ खुले विश्व ‘ के दरवाजो को पुन: बन्द करने की कोशिश होगी यदि समूचे यू-ट्यूब जाल-स्थल पर ही भारत सरकार रोक लगा देगी ।इस प्रकरण को प्रेस की आज़ादी से जुड़ा माना जाना चाहिए । १२ जनवरी , १९२२ के ‘ यंग इन्डिया ‘ (पृष्ट २९ )में गांधीजी ने प्रेस की आज़ादी पर अपने विचार बहुत साफ़गोई से रखे हैं । संजाल के हिन्दी पाठकों का यह दुर्भाग्य है कि प्रकाशन विभाग , भारत सरकार द्वारा ‘ सम्पूर्ण गांधी वांग्मय ‘( हिन्दी में ) संजाल पर उपलब्ध नहीं कराया गया है । भारत सरकार ने अपनी प्राथमिकता का इज़हार करते हुए अंग्रेजी में इसे संजाल पर प्रस्तुत किया है ।ब्रिटिश सरकार उस दौर में यह दावा कर रही थी कि उसके द्वारा लागू ‘ सुधार ‘ जन-भावना को रियायत देने वाले तथा ‘अधिक आज़ादी देने वाले ‘ हैं । गांधीजी अपने लेख में बताते हैं कि विपत्ति की परिस्थिति में कैसे सरकारी दावे एक-एक करके खोखले साबित होते जा रहे हैं । इस लेख में गांधीजी कहते हैं कि , ‘वाणी-स्वातंत्र्य का मतलब है कि वह अनाक्रमणीय है ,भले वाणी चोट पहुँचाने वाली हो ; प्रेस की आज़ादी की सही कद्र तब ही मानी जाएगी जब प्रेस को कड़े - से - कड़े शब्दों में टिप्पणी करने और मामलों को ग़लत तरीके से पेश करने की भी छूट हो ।मामलों को ग़लत तरीके से पेश करने पर प्रशासन द्वारा मुँह पर ताला लगाने के मक़सद से प्रेस को बन्द कराने से संरक्षण हो,प्रेस को खुला रखा जाय ,मुजरिम को सज़ा दी जाय ।’जिन अखबारों पर सरकार दण्ड लगाती थी और छापेखाने पर ताला लगा देती थी उसके जवाब में हाथ से लिखे अखबार निकालने की ‘ वीरोचित ‘ सलाह गांधीजी देते थे । सम्पादकों से उनका कहना था कि , ‘ जब तक उनके पास ‘कहने लायक कुछ’ और एक निश्चित पाठक-वर्ग मौजूद है तब तक उसे आसानी से दबाया नहीं जा सकता है , जब तक उनका शरीर मुक्त है । सम्पादक की कैद उसका आखिरी सन्देश हो जाता है । ‘४ अप्रैल , १९२९ के ‘ यंग इंडिया ‘ में गांधीजी मराठी अखबार ‘ नवाकाळ ‘ के सम्पादक श्रीयुत खाडिलकर का हवाला देते हैं,’ जिन्हें अपनी साहसिक पत्रकारिता के फलस्वरूप थोपे गये अर्थ दण्ड भरने के लिए राशि जुटाने के लिए नाटक लिखने पड़ते थे’ ।आपसे हमारी अपील है कि सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए अभिव्यक्ति की आज़ादी से छेड़-छाड़ की कोशिश न करें । गांधी का सन्देश इतना कमजोर नहीं है कि ऐसे विकृत व्यंग्य से डगमगा जाए । गांधी की बाबत जो काम सूचना एवं प्रसारण मंत्री को तत्काल करना चाहिए, वह है हिन्दी में ‘सम्पूर्ण गांधी वांग्मय ‘ को संजाल पर तत्काल पेश करना ।
[ इस सन्दर्भ में सम्बन्धित मंत्री को सम्बोधित याचिका पर आप भी अपनी सहमति और दस्तखत दे सकते हैं,यहाँ ]

शुक्रवार, जनवरी 12, 2007

उदय प्रकाश की कविता : एक भाषा हुआ करती है

एक भाषा हुआ करती है

जिसमें जितनी बार मैं लिखना चाहता हूँ 'आँसू' से मिलता-जुलता कोई शब्द

हर बार बहने लगती है रक्त की धार

एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद और तीसरे दर्जे के जोकर

और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएँ और क्रांतिकारी सब शर्माते हैं

जिसके व्याकरण और हिज्जों की भयावह भूलें ही

कुलशील , वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं

बहुत अधिक बोली -लिखी , सुनी - पढ़ी जाती

गाती - बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा

दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर ,सबसे गरीब और सबसे खूंख्वार ।

सबसे काहिल और सबसे थके - लुटे लोगों की भाषा ,

अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों , नंगों और गरीब लफंगों

की जनसंख्या की भाषा ,

वह भाषा जिसे वक्त जरूरत तस्कर , हत्यारे , नेता ,दलाल ,अफसर ,भँडुए,

रंडियाँ और कुछ जुनूनी नौजवान भी बोला करते हैं

वह भाषा जिसमें लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है

आत्मघात करती हैं प्रतिभाएँ

' ईश्वर ' कहते आने लगती है अकसर बारूद की गंध

जिसमें पान की पीक है , बीड़ी का धुँआ , तम्बाकू का झार

जिसमें सबसे ज्यादा छपते हैं दो कौड़ी के मँहगे लेकिन सबसे ज्यादा लोकप्रिय

अखबार

सिफत मगर यह कि इसी में चलता है कैडबरीज ,सांडे का तेल , सुजुकी , पिजा ,

आटा-दाल और

स्वामी जी और हई साहित्य और सिनेमा और राजनीति का सारा बाजार

एक हौलनाक विभाजक रेखा के नीचे जीनेवाले

सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगों के

आँसू और पसीने और खून में लिथड़ी एक भाषा

पिछली सदी का चिथड़ा हो चुका डाकिया अभी भी जिसमें बाँटता है

सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिट्ठियाँ

वह भाषा जिसमें नौकरी की तलाश में भटकते हैं भूखे दरवेश

और एक किसी दिन चोरी या दंगे के जुर्म में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं

जिसकी लिपियाँ स्वीकार करने से इनकार करता है इस दुनिया का

समूचा सूचना संजाल

आत्मा के सबसे उत्पीड़ित और विकल हिस्से में जहाँ जन्म लेते हैं शब्द

और किसी मलिन बस्ती के अथाह गूँगे कुएँ में डूब जाते हैं चुपचाप

अतीत की किसी कंदरा से किसी अज्ञात सूक्ति को

अपनी व्याकुल थरथराहट में थामे लौटता है कोई जीनियस

और घोषित हो जाता है सार्वजनिक तौर पर पागल

नष्ट हो जाती है किसी विलक्षण गणितज्ञ की स्मृति

नक्षत्रों को शताब्दियों से निहारता कोई महान खगोलविद

भविष्य भर के लिए अंधा हो जाता है

सिर्फ हमारी नींद में सुनाई देती रहती है उसकी अनंत बड़बड़ाहट...मंगल..

शुक्र ,बृहस्पति..सप्तर्षि...अरुंधति..ध्रुव

हम स्वप्न में डरे हुए देखते हैं टूटते उल्का पिंडों की तरह

उस भाषा के अंतरिक्ष से

लुप्त होते चले जाते हैं एक - एक कर सारे नक्षत्र

अपने ही लोगों से अपनी मुंडी बचाने के डर से

शैतान की माँद में छुपा हुआ एक गद्दार कहता है -

पिछले पचास सालों से इस भाषा में नहीं लिखी गई एक भी कविता

नहीं रचा गया कोई साहित्य

भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को

अपनी छाती हिलाने की छूट है

जिसमें दंडनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन से संबंधित विमर्श

प्रतिबंधित है जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियाँ

वर्जित है विचार

वह भाषा जिसमें की गई प्रार्थना तक

घोषित कर दी जाती है सांप्रदायिक

वही भाषा जिसमें किसी जिद में अब भी करता है तप कभी-कभी कोई शम्बूक

और उसे निशाने की ज़द में ले आती है हर तरह की सत्ता की ब्राह्मण बन्दूक

भाषा जिसमें उड़ते हैं वायुयानों में चापलूस

शाल ओढ़ते हैं मसखरे , चाकर टाँगते हैं तमगे

जिस भाषा के अंधकार में चमकते हैं किसी अफसर या हुक्काम या

किसी पंडे के सफेद दाँत और

तमाम मठों पर नियुक्त होते जाते हैं बर्बर बुलडॊग

अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और

पत्नी तक से छुपाता

राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में

दिन भर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ

खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियाँ

और मृत्यु के बाद पारिश्रमिक भेजनेवाले किसी राष्ट्रीय अखबार या मुनाफाखोर

प्रकाशक के लिए

तैयार करता है एक और नई पांडुलिपि

यह वही भाषा है जिसे इस मुल्क में हर बार कोई शरणार्थी,

कोई तिजारती,कोई फिरंग

अटपटे लहजे में बोलता और जिसके व्याकरण को रौंदता

तालियों की गड़गड़ाहट के साथ दाखिल होता है इतिहास में

और बाहर सुनाई देता रहता है वर्षों तक आर्तनाद

सुनो दायोनीसियस , कान खोल कर सुनो

यह सच है कि तुम विजेता हो फिलहाल,एक अपराजेय हत्यारे

तुम फिलहाल मालिक हो कटी हुई जीभों,गूँगे गुलामों और दोगले एजेंटों के

विराट संग्रहालय के ,

तुम स्वामी हो अंतरिक्ष में तैरते उपग्रहों,ध्वनि तरंगों,

संस्कृतियों और सूचनाओं

हथियारों और सरकारों के

लेकिन देखो

हर पाँचवे सेकंड पर इसी पृथ्वी पर जन्म लेता है एक और बच्चा

और इसी भाषा में भरता है किलकारी

और

कहता है - ' माँ ! '

[ 'सामयिक वार्ता ' , नवंबर २००६ से साभार ]

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गुरुवार, जनवरी 11, 2007

विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास (६)

डॊलर -रुपये की लूट
अंतर्राष्ट्रीय विनिमय में अमरीका जैसे देश एक और तरीके से भारत जैसे देशों को लूट रहे हैं । वह है डॊलर और रुपए का विनिमय दर । बीस साल पहले एक डॊलर आठ-दस रुपये का था , आज वह ४८ रुपये का हो गया है। लेकिन क्रयशक्ति समता ( Purchasing Power Parity ) के हिसाब से देखें , अर्थात वस्तुओं और सेवाओं को खरीदने की क्षमता से तुलना करें , तो एक डॊलर आज भी दस रुपये से ज्यादा का नहीं होना चाहिए । इस अत्यधिक गैरबराबर विनिमय दर का मतलब है कि हम अपने आयातों का पांच गुना ज्यादा भुगतान कर रहे हैं। यह जबरदस्त लूट और शोषण है ।
अब बात साफ हो जानी चाहिए । इस जबरदस्त लूट और शोषण को सुविधाजनक बनाने और बढ़ाने के लिए ही अमरीका व दुनिया के अन्य अमीर देश मुक्त व्यापार की हिमायत करते हैं और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाने की वकालत करते हैं । विश्व व्यापार संगठन भी इसीलिए बनाया गया है तथा मुक्त व्यापार के क्षेत्रीय समझौते भी इसीलिए किए जा रहे हैं । दरअसल वैश्वीकरण की यह व्यवस्था नव-औपनिवेशिक शोषण और साम्राज्यवादी लूट का ही नया रूप है,नया औजार है । जैसे विदेशी पूंजी से भारत के विकास की बात वास्तविकता से परे एक अन्धविश्वास है , वैसे ही मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय ढांचे में निर्यातों से देश के विकास को गति मिलेगी,यह भी एक और अन्धविश्वास है ।
इन्हीं आर्थिक अंधविश्वासों के चलते आज भारत की अर्थव्यवस्था एक गहरे संकट में फंस गयी है । भले ही ऊपर बैठे शासक और अर्थशास्त्री ८ प्रतिशत विकास दर की खुशियाँ मनाते रहें , लेकिन देश की विशाल आबादी जबरदस्त बेरोजगारी,कंगाली,कुपोषण और अभावों से जूझ रही है । किसान , बुनकर , कारीगर और छोटे व्यापारी हजारों की संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं । पिछले पन्द्रह वर्षों में देश के पांच लाख छोटे-बड़े उद्योग बंद हो चुके हैं । जिस तरह का औद्योगिक विनाश ( de-industrialisation) डेढ़ सौ वर्ष पहले अंग्रेजों के राज में भारत में हुआ था , उसी तरह का औद्योगिक विनाश बड़े पैमाने पर एक बार फिर आजाद भारत में हो रहा है । तब खेती पर निर्भर आबादी बढ़ गयी थी , अब तथाकथित ‘ सेवाओं’ का हिस्सा बढ़ रहा है । लेकिन खेती , पशुपालन , उद्योग , खदानें , आदि में ही वास्तविक उत्पादन एवं आय सृजन होता है । एक सीमा के बाद सेवा क्षेत्र की वृद्धि भी इन पर निर्भर रहती है ।यदि खेती-उद्योग का विनाश होता है तो मात्र ’ सेवाओं ‘ के दम पर कोई भी अर्थव्यवस्था नहीं चल पाएगी । पूरा देश एक बार फिर बरबादी ,कंगाली और गुलामी की राह पर है ।
देश बचेगा , तो हम बचेंगे
जैसे पुत्रमोह में धृतराष्ट्र अन्धे हो गए थे और सच्चाई व न्याय को नहीं देख पा रहे थे तथा न ही अवश्यंभावी कलह तथा विनाश को देख पाये , वैसे ही आज के शासक भी वैश्वीकरण की चकाचौंध में देश के ऊपर आसन्न संकट को देख नहीं पा रहे हैं। यदि इसे नहीं रोका गया, तो पौराणिक ‘महाभारत’ से ज्यादा बड़ी विनाशलीला होगी । ऐसे भारत का भविष्य अंधकारमय है । और यदि भारत का कोई भविष्य नहीं होगा,तो बी.एस.एन.एल का भी कोई भविष्य नहीं होगा। आज बी.एस.एन.एल. के ऊपर जो संकट आ रहा है, वह वैश्वीकरण की विनाशकारी प्रक्रिया का हिस्सा है । बी.एस.एन.एल. का भविष्य अनिवार्य रूप से देश के भविष्य से जुड़ा है ।
ऐसी हालत में , हम सबको मिलकर देश को बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा । लेकिन यह लड़ाई बी.एस.एन.एल. के कर्मचारी अकेले नहीं लड़ पाएंगे। इसके लिए उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के अन्य कर्मचारियों , किसानों, मजदूरों , बुनकरों,मछुआरों , आदिवासियों ,दलितों आदि के साथ एकता बनाना पड़ेगा। मरा आपसे अनुरोध है कि पगार तथा बोनस की लड़ाई छोड़ें।वे तो छोटी बातें हैं। इस बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हो जाएं । तभी देश बचेगा और तभी बी.एस.एन.एल भी बचेगा ।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
( नेशनल फेडरेशन ओफ़ टेलिकोम एम्प्लाईज़,बी.एस.एन.एल औरंगाबाद जिला शाखा,महाराष्ट्र द्वारा विदेशी पूंजी और बी.एस.एन.एल. का भविष्य पर आयोजित परिसंवाद में सुनील,राष्ट्रीय महामन्त्री,समाजवादी जनपरिषद का भाषण, दिनांक १० फरवरी २००६ )

बुधवार, जनवरी 10, 2007

प्लाचीमाडा की महिला नेता मायलम्मा


" पृथ्वी से अच्छा बरताव करो ।पृथ्वी तुम्हें माँ-बाप ने नहीं दी है,आगे आने वाली पीढियों ने उसे तुम्हे कर्ज के रूप में दिया है ।हमें अपने बच्चों से उधार में मिली है पृथ्वी ।"
आधुनिक औध्योगिक सभ्यता के प्रथम शिकार 'रेड इन्डियन' लोगों की यह प्रसिद्ध कहावत प्लाचीमाडा के कोका-कोला विरोधी आअन्दोलन की जुझारू महिला नेता मायलम्मा की भावना से कितनी मेल खाती है ! मायलम्मा ने कोका-कोला कम्पनी द्वारा भूगर्भ-जल-दोहन के भविष्य के परिणाम के प्रति चेतावनी दे कर कहा था , 'तीन वर्षों में इतनी बर्बादी हुई है तो दस-पन्द्रह वर्षों बाद क्या हालत होगी ? तब हमारे बच्चे हमें कोसते हुए इस बंजर भूमि पर रहने के लिए अभिशप्त होंगे ।'
दो-सौ देशों में फैली बहुराष्ट्रीय कम्पनी के कारखाने के सामने घास-फूस के 'समर-पंडाल' के नीचे प्लाचीमाडा की आदिवासी महिलाओं का अनवरत चला धरना अहिन्सक संघर्ष के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा ।
प्राकृतिक संसाधनों पर हक किसका है ? एक दानवाकार कम्पनी का ?या स्थानीय समुदाय का ? हक़ की इस लड़ाई का नेता कौन होगा ? - इन प्रश्नों को दिमाग में लिए 'मातृभूमि' के सम्पादक और लोक-सभा सदस्य श्री एम.पी. वीरेन्द्रकुमार के निमंत्रण पर पहली बार २१,२२,२३ जनवरी,२००४ को प्लाचीमाडा में आयोजित ' विश्व जन-जल-सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला ।इस सम्मेलन में वैस्वीकरण विरोधी,गांधीजी से प्रभावित,फ़्रान्सीसी किसान नेता जोशे बोव्हे , पानी पर गिद्ध-दृष्टि गड़ाई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रति सचेत करने वाली किताब की लेखिका मॊड बर्लो,यूरोपियन यूनियन के सांसद,मलयालम के वरिष्ठ साहित्यकार सुकुमार अझिकोड़,वासुदेवन नायर,सार जोसेफ़ और केरल विधान-सभा में विपक्ष के नेता अच्युतानन्दन (मौजूदा मख्यमन्त्री ) न भाग लिया था । इन सभी राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय दिग्गजों को पालघाट के इस गाँव की ओर आकर्षित करने वाला एक प्रमुख तत्व मायलम्मा का नेतृत्व था ।
' जिस की लड़ाई उसीका नेतृत्व' जन-आन्दोलनों की इस बुनियादी कसुटी पर प्लाचीमाडा-आन्दोलन मयलम्मा जैसी प्रखर महिला नेता के कारण खरा उतरा था ।
मेंहदीगंज में कोका-कोला विरोधी आन्दोलन को प्लाचीमाडा से प्रेरणा मिली थी । साथी मयलम्मा हमें बता गयीं हैं कि :
(१) प्राकृतिक संसाधनों पर स्थानीय आबादी का प्राथमिक हक़ है।
(२) इस अधिकार के लिए संघर्ष स्थानीय नेतृत्व द्वारा ही चलाया जाएगा ।
संसाधनों पर अधिकार का निर्णय राजनीति द्वारा होता है और इस दौर की नई राजनीति में प्लाचीमाडा की मयलम्मा को याद किया जाएगा ।
- अफ़लातून , अध्यक्ष , समाजवादी जनपरिषद , उत्तर प्रदेश।

मंगलवार, जनवरी 09, 2007

विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास (५)

देश हित से ऊपर विदेशी पूंजी

    विदेशी पूंजी का मोह इतना ज्यादा है कि देश हित , जन स्वास्थ्य , पर्यावरण सबको धता बताई जा रही है । शीतल पेय की कोका कोला - पेप्सी कंपनी की बोतलें नुकसानदायक हैं , यह प्रमाणित हो चुका है । फिर भी उन्हें प्रतिबन्धित करने की हिम्मत भारत सरकार की नही है ।और बोतलबंद पानी का धन्धा तो इन कंपनियों की लूट का बढ़िया उदाहरण है। पाँच पैसे का पानी , पचास पैसे की पैकिंग और दाम दस रुपए !इससे ज्यादा मुनाफा और लूट का धन्धा और क्या होगा ?

    बीमा और बैंकिंग क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को प्रवेश देना भी देशहित के खिलाफ़ है । विदेशी बैंक और विदेशी बीमा कंपनियाँ शुरु में थोड़ी पूंजी विदेश से लाएंगे। लेकिन फिर जमा राशि और प्रीमियम राशि तो इस देश की जनता से ही इकट्ठा करेंगे और उससे अपना धन्धा करेंगे । बचत भारतीय जनता की , पूंजी इस देश की , और उससे कमाई विदेशियों की - यह तो लूट है। इसकी इजाजत हम क्यों दे रहे हैं ?

    विदेशी पूंजी और निर्यात के पागलपन में ही 'पोस्को' जैसे समझौते हो रहे हैं । यह गर्व से बताया जा रहा है कि दुनिया का सबसे बड़ा इस्पात कारखाना भारत में लगेगा और भारत में अब तक का सबसे बड़ा पूंजी निवेश होगा । किंतु कारखाने के लिए जितना लोहा लगेगा , उससे काफी ज्यादा कच्चा लोहा निर्यात करने की अनुमति इस विदेशी कंपनी को दे दी गयी है । यह कहाँ की बुद्धिमानी है ? कच्चा लोहा निर्यात करने के बजाय इस्पात निर्यात करते तो भारत के लोगों को रोजगार मिलता । फिर पोस्को जैसे दो-चार सौदे और हो गए, तो भारत का लौह खनिज भण्डार १०० साल चलने वाला था , वह ५० साल में ही खतम हो जाएगा । भारत की अपनी विकास की जरूरतों का कोई विचार नहीं किया गया ।

    विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों के पक्ष में एक और दलील है कि इनके आने से भारत का निर्यात बढ़ाने में मदद मिलेगी। पिछले कुछ समय से , चीन की नकल पर , भारत सरकार ने ' विशेष आर्थिक क्षेत्र ' (SEZ) बनाना शुरु कर दिए हैं और और उनके लिए एक कानून भी संसद मे पारित किया है । ये विशेष ज़ोन होंगे तो भारत की भूमि पर,किंतु उन पर भारत के कानून लागू नहीं होंगे । इन ज़ोनों में स्थित देशी-विदेशी कंपनियों पर आयकर,सीमाशुल्क आदि नहीं लगेंगे । जमीन मुफ़्त या रियायती दरों पर मिलेगी । भारत के श्रम-कानूनों से भी आगे चल कर इन्हें मुक्त कर दिया जाएगा । भारत के वाणिज्य मन्त्री का कहना है कि इससे विदेशी कंपनियाँ भारत की ओर आकर्षित होंगी तथा भारत के निर्यात काफ़ी बढ़ेंगे। लेकिन क्या ये ज़ोन भारत की सम्प्रभुता के खिलाफ़ नहीं हैं ?

    फिर,विदेशी पूंजी आने से भारत के निर्यात-आयात मोर्चे पर कोई फायदा नहीं दिखाई दे रहा है । भारत के निर्यात जरूर बढ़े हैं,लेकिन आयातों में उनसे ज्यादा बढोतरी हुई है।नतीजा यह है कि भारत के विदेश व्यापार में लगाता घाटा हो रहा है ।

निर्यात या शोषण का जरिया ?

    लेकिन इससे ज्यादा बुनियादी सवाल यह है कि निर्यात बढ़ाने पर इतना ज्यादा जोर उचित है क्या ? अपनी विशाल आबादी की जरूरतों की उपेक्षा करके विदेशियों के लिए उत्पादन करना क्या विवेक सम्मत है ? 'निर्यातोन्मुखी विकास' का विश्व बैंक का दिया हुआ सूत्र कहीं धोखा तो नहीं है ?

    विश्व बैंक और नव-उदारवादी अर्थशास्त्री दुनिया के सारे गरीब देशों को इसी 'निर्यातोन्मुखी विकास' का पाठ पढ़ा रहे हैं। लेकिन जिसे राह चलता अनपढ़ आदमी भी समझ सकता है , उस तथ्य को हमारे शासक और नीति-निर्माता नहीं समझ रहे हैं कि आखिर सारे देशों में के निर्यात एक साथ कैसे बढ़ सकते हैं? जब सारे गरीब देश एक साथ निर्यात बढाने की कोशिश करेंगे तो दुनिया के बाजार में गलाकाट प्रतिस्पर्धा जन्म लेगी और वे एक-दूसरे के बाजार पर कब्जा करने की कोशिश करेंगे तथा अपनी निर्यात-वस्तुओं की कीमतें गिरांएगे। दूसरे शब्दों में,व्यापार की शर्तें उनके प्रतिकूल होती जाएंगी। आज यही हो रहा है।

    जब बाजार में कीमतें कम होती हैं,तो उसका फायदा उसे मिलता है,जिसके पास खरीदने की ताकत हो,पैसा हो । अंतर्राष्ट्रीय बाजार के संदर्भ में कहें, तो जिसके पास डॊलर हो।गरीब देशों की निर्यात-प्रतिस्पर्धा का लाभ यूरोप-अमरीका को सस्ती चीजें मिलने में हो रहा है।चूंकि डॊलर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा है,अमरीका के लिए तो मौज हो गई है । बहुराष्ट्रीय पूंजी के जरिए पूरी दुनिया अमरीका की सेवा में लगी है। कहीं से उनके लिए पेट्रोल आ रहा है,कहीं से इस्पात-एल्यूमिनियम-तांबा ।कहीं से मांस,कहीं से केला,कहीं से कपड़ा,कहीं से जूता,कहीं से चाय-काफी,कहीं से शक्कर,कहीं से कालीन,कहीं से आभूषण,कहीं से डॊक्टर,कहीं से इन्जीनियर उनके लिए आ रहे हैं। अमरीकियों का जीवन-स्तर सबसे ऊपर इसी तरीके से बनाये रखा गया है ।यह तथ्य भी बहुत कम प्रचारित होता है संयुक्त राज्य अमरीका का विदेश व्यापार का घटा दुनिया में सबसे ज्यादा है ( अर्थात वह निर्यात कम करता है,आयात काफ़ी ज्यादा करता है) और उस पर विदेशी कर्ज भी दुनिया में सबसे ज्यादा है। भारत सहित गरीब देशों की सरकारों को उपदेश देने वाला अमरीका स्वयं जबरदस्त ढंग से ' ऋणम कृत्वा,घृतम पिबेत' के दर्शन पर चल रहा है । ( जारी , अगली प्रविष्टी- डॊलर- रुपए की लूट )

 

 

 

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शनिवार, जनवरी 06, 2007

विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास(४)

« विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास (३)
विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास(४)
निजीकरण-उदारीकरण के घोटाले
निजीकरण के पीछे एक और दलील थी कि सरकारी काम में काफी भ्रष्टाचार है । लेकिन जिस तरीके से निजीकरण और उदारीकरण हो रहा है , उसने तो भ्रष्टाचार की सारी मर्यादाएं तोड़ दी हैं ।पिछले कुछ सालों में इतने घोटाले हुए हैं और इतने बड़े घोटाले हुए हैं कि ‘घोटाला’ शब्द के मायने बदल गये हैं। पहले दो-चार लाख रुपए का गबन होता था तो अखबारों के मुखपृष्ट पर बड़ी खबर बनता था । लेकिन अब करोड़ों ही नहीं , अरबों-खरबों रुपयों के घोटाले होते हैं। इन घोटालों में विदेशी कंपनियाँ बढ़-चढ़ कर भाग लेती हैं। इस देश को लूटने में वे पूरी तरह शामिल हैं ।
उदारीकरण-वैश्वीकरण के इस दौर का पहला बड़ा घोटाला शेयर घोटाला था , जिसमें हर्षद मेहता-हितेन दलाल-भूपेन दलाल जैसों का हाथ था । लगभग १०,००० करोड़ रुपए के इस घोटाले की जाँच संयुक्त संसदीय समिति ने की थी । इस समिति की रिपोर्ट में बताया गया कि घोटाले में सबसे अग्रणी चार विदेशी बैंक थे - स्टेनचार्ट बैंक , ए एन्ड ज़ेड ग्रिन्ड्लेज़ बैंक , सिटी बैंक और बैंक ओफ़ अमेरिका । इनके खिलाफ़ कड़ी कार्रवाई करने की सिफ़ारिश इस समिति ने की थी । लेकिन भारत सरकार ने कुछ विशेष नहीं किया । न उनके लाइसेन्स रद्द किए , न उन पर जुर्माना किया , न उनको भारत छोड़ने को कहा। बल्कि विदेशी बैंकों को और ज्यादा प्रवेश व छूट दी । हमारे देश में , हमारी भूमि पर आकर , विदेशी बैंक घोटाले करें तथा करवाएं और उन पर कार्रवाई न हो - यह सिर्फ हमारे देश में ही सम्भव है। वैश्वीकरण ने हमारे स्वाभीमान को तथा देशहित को कितना गिराया है तथा गुलामी को कितना मजबूत किया है , उसका यह एक और उदाहरण है ।
देश की अस्मिता ,गरिमा तथा हितों के खिलाफ ऐसा ही एक घोटाला मारिशस रूट से हुआ । भारत और मारिशस के बीच एक संधि है , जिसमें एक दूसरे की कंपनियों पर दोहरा करारोपण नहीं करने का समझौता हुआ है । इसका अनुचित लाभ उठाने के लिए , भारत के शेयर बाजार में पूंजी लगाने वाली कई विदेशी कंपनियों ने अपना फर्जी रजिस्ट्रेशन मारिशस में करवा लिया तथा अरबों रुपयों का पूंजी लाभ कर की चोरी द्वारा कमाया।कुछ वर्ष पहले भारत सरकार के आयकर विभाग के कुछ ईमानदार अफसरों ने इन कंपनियों की जाँच शुरु की तो हडकंप मच गया । विदेशी कंपनियों ने धमकी दी कि यदि उनके खिलाफ जाँच नहीं रोकी गयी तो वे अपनी पूंजी वापस ले जाएंगे । शेयर बाजार का सूचकांक नीचे जाने लगा। तब वित्त मन्त्रालय ने हस्तक्षेप किया और आयकर अधिकारियों को आदेश दिया गया कि वे यह जाँच बन्द कर दें ।स्पष्ट है कि भारत सरकार पूरी तरह विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों की बंधक बन गई है तथा कर चोरी और घोटालों को भी अनदेखा करते हुए उन्हें खुश रखना चाहती है।
सेन्टूर हो्टल बिक्री , माडर्न फूड इंडस्ट्रीज की बिक्री,बाल्को की बिक्री जैसे कई मामले हैं,जिनमें घोटालों की गूँज उठी है । महाराष्ट्र में अमरीकी कंपनी एनरोन के बिजली कारखाने के लिए बिना निविदा के जो समझौता हुआ,उसका घोटाला तो काफ़ी चर्चित रहा है । मध्यप्रदेश में सड़कों के निजीकरण का उदाहरण भी काफ़ी मौजू है । म.प्र. सरकार ने ने बी.ओ.टी. (Bulid-Operate-Transfer) योजना के तहत १५ सड़कों का ठेका निजी कंपनियों को देने का फैसला किया। एशियाई विकास बैंक के कर्ज से बनी इस योजना मेम प्रत्येक सड़क के लिए ५० से ६० प्रतिशत अनुदान सरकार ने दिया ।मान लीजिए,एक सड़क की लागत १०० करोड़ आंकी गई है और उसमें ५५ करोड़ का अनुदान है। लेकिन निश्चित रूप से सड़क की वास्तविक लागत बहुत कम होगी,तथा १०० करोड़ की लागत बढ़ा-चढ़ा कर बताई होगी । यदि वास्तविक लागत ८० करोड़ रु. है,तो उस कंपनी को मात्र २५ करोड़ रुपए ही अपने पास से लगाने होगा ।लेकिन टोल टैक्स की वसूली तो वह पूरी करेगी । याने पैसा सरकार का , कमाई कंपनियों की- निजीकरण का मतलब यही है । म.प्र. की सड़कों कि इस बन्दरबाँट में भी विदेशी कंपनियां पीछे नही रही हैं ।इसी तरह टेलीफोन का ढांचा गांव - गांव तक पहुंचाने का काम सरकारी विभाग ने किया और उस पर काफी सार्वजनिक पैसे का विशाल निवेश हुआ । लेकिन जब टेलीफोन से कमाई का समय आया, यो निजी देशी-विदेशी कंपनियाँ मैदान में आ गयीं ।
[अगली प्रविष्टी- देश हित से ऊपर विदेशी पूंजी ]

शुक्रवार, जनवरी 05, 2007

भारत भूमि पर विदेशी टापू (शेष भाग)

गतांक से आगे :
आन्ध्रप्रदेश में काकिनाडा में तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग के विशेष आर्थिक क्षेत्र एवं तेलशोधक कारखाने के लिए १०,००० एकड़ खेती की उपजाऊ भूमि ली जा रही है , जिसे छोड़ने के लिए किसान तैयार नहीं है। हरियाणा में रिलायन्स का विशेष आर्थिक क्षेत्र भी विवादों से घिर गया है। हरियाणा सरकार ने गुड़गाँव के पास लगभग १००० करोड़ रु. की १७०० एकड़ भूमि मुकेश अंबानी को मात्र ३६० करोड़ रु. में दे दी है। इसी प्रकार , पंजाब में अमृतसर के पास डी.एल.एफ़. कम्पनी के विशेष आर्थिक क्षेत्र के लिए भी सस्ती दरों पर भूमि अर्जित करने के कारण काफी विरोध हो रहा है। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री स्वंय इसमें कम्पनी के पक्ष में जोर लगा रहें है तथा वहाँ जा चुके हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के मामलों में जमीन के बड़े-बड़े घोटाले होने की पूरी सम्भावना है। वैश्वीकरण के कई घोटालों में यह एक नया योगदान है। प्रचलित बाजार दरों से काफी कम दरों पर, राज्य सरकारें इन कम्पनियों के हवाले जमीन कर रही है तथा किसानों से बहुत कम दरों पर जमीनें जबरदस्ती ली जा रहीं है। पहले ही बड़े बाँधों,खदानों,कारखानों,फ़ायरिंग रेंजों,राष्ट्रीय उद्यानों व अभ्यारणों से बड़े पैमाने पर गाँवों को उजाड़ा जा रहा है। विशेष आर्थिक क्षेत्र इस विस्थापन की श्रृंखला में एक नई कड़ी बन गए हैं। भारतीय खेती व गाँवों पर वैश्वीकरण का यह एक और हमला है।
विशेष आर्थिक क्षेत्रों का प्रशासन भी इनका विकास करने वाली कम्पनियों के हाथ में होगा। केन्द्र सरकार की तरफ से सिर्फ एक विकास आयुक्त होगा। सम्भवतः कोई ग्राम पंचायत या नगरपालिका जैसी स्थानीय स्वशासन की संस्थाएँ भी नहीं होगी। ये देश के अंदर एक अलग देश होंगे और यहाँ देशी-विदेशी कम्पनियों की ही चलेगी। यह एक विचित्र स्थिति होगी और १९४७ के बाद, गोवा व पांडिचेरी की आजादी के बाद, भारत भूमि पर पहली बार देश की सम्प्रभुता से स्वतंत्र क्षेत्र बनेंगे।
इस बात की पूरी सम्भावना है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र काफी बड़े भ्रष्टाचारों और घोटालों के केन्द्र बनेंगे। विकास आयुक्त से लेकर अन्य अफ़सर केन्द्र सरकार के होंगे। विशेष आर्थिक क्षेत्रों में स्थापित होने वाली इकाइयों और इसमें ढाँचा-निर्माण करने वाली कंपनियों को अनुमति व लाइसेन्स देने की एवज में उनकी जम कर कमाई होगी। आखिर करोड़ों - अरबों रुपए की कर -रियायतों के बदले में कुछ कमीशन उन्हें देने में देशी- विदेशी कंपनियों को कोई दिक्कत नहीं होगी।
यदि संप्रभुता, भ्रष्टाचार, विस्थापन और अन्य विवादों को छोटी - मोटी समस्या तथा विरोधियों का प्रचार कहकर नकार दिया जाए, तो भी भारत के विकास और प्रगति में इन ‘विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ की भूमिका काफी संदिग्ध है। स्वयं उदारीकरण - वैश्वीकरण के समर्थक अर्थशास्त्री भी भारत सरकार की इस योजना पर उंगली उठा रहें हैं। पहली बात तो यह है कि ज्यादा संभावना इस बात की है कि इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों में मिलने वाली जबरदस्त कर- छूटों व अन्य सुविधाओं के कारण, नए उद्योग लगने के बजाय देश के अन्य क्षेत्रों से उद्योग यहाँ स्थानान्तरित हो जायेंगे । विशेष आर्थिक क्षेत्रों में तो पूंजी निवेश, उत्पादन, निर्यात और रोजगार के आंकड़े बढ़ते हुए दिखेंगे, किंतु देश के अन्य विशाल भूभाग में उद्योग बंद होते जाएंगे और मंदी व बेरोजगारी फैलती जाएगी। कुल मिलाकर नतीजा शून्य से ज्यादा नहीं होगा।
उल्टे नुकसान यह होगा कि करों व शुल्कों में भारी रियायतों से भारत सरकार व राज्य सरकारों की आय कम हो जाएगी और वे अपने कर - राजस्व के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से से वंचित हो जाएगी। अनुमान लगाया गया है कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों के कारण सिर्फ भारत सरकार को अगले चार वर्षों में लगभग ९३,००० करोड़ रुपए के कर-राजस्व का नुकसान होगा । एक तरफ तो भारत सरकार पैसे की तंगी का रोना रोती है और अपना घटा व अनुदान कम करने के लिए गरीबों व आम जनता के लिए राशन , बिजली , पानी , खाद , शिक्षा , इलाज आदि को मंहगा करती जा रही है, दूसरी तरफ़ इन कंपनियों को दिल खोल कर करों व शुल्कों से छूट दे रही है । देश की जनता को वंचित करके कंपनियों को लाभ पहुँचाने का काम इन ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ के जरिए होगा ।
इस मामले में , इसके पहले के ‘ निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्रों ‘ का क्या अनुभव रहा , यह भी देखना चाहिए । वर्ष १९९८ की रिपोर्ट में भारत के महाअंकेक्षक एवं लेखा परीक्षक ने टिप्पणी की थी कि ” ४७०० करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा कमाने के लिए ७५०० करोड़ रुपए के आयात शुल्क की हानि हुई तथा ऐसा लगता है कि सरकार ने कोई नफ़ा-नुकसान का विश्लेषण ही नहीं किया। ” हो सकता है कि विशेष आर्थिक क्षेत्रों का अनुभव भी इससे ज्यादा अलग न हो ।
दरअसल , चीन ने दो दशक पहले जब इस तरह के विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाये थे , तो वहाँ स्थिति काफी अलग थी । एक, चीन के अन्दर काफी समय तक विदेशी कंपनियों को इजाजत नहीं थी तथा चीन की अपनी देशी निजी कंपनियाँ भी नहीं पनपीं थीं । इसलिए इन क्षेत्रों में विदेशी कंपनियों को चीन में घुसने का एक मौका मिला , वे बड़ी संख्या में आईं और इन क्षेत्रों से चीन को निर्यात बढ़ाने में मदद मिली । जबकि भारत में तो सारे दरवाजे पहले ही खुले हैं तथा भारत के देशी कंपनियां भी काफी विकसित हैं । दूसरा फर्क यह है कि बीस वर्ष पहले सब जगह आयात और निर्यात शुल्क काफी ऊँचे थे तथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों के माध्यम से कंपनियों को ऊँचे शुल्कों की इन दीवारों को भेदने की सुविधा मिलती थी । लेकिन १९९५ में विश्वव्यापार संगठन बनने के बाद से ये शुल्क लगातार कम होते गए हैं और अब शून्य से लेकर दस-पन्द्रह प्रतिशत के बीच में रह गए हैं । इसलिए उत्पादन व निर्यात के लिए कम सीमा-शुल्कों वाले विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने का औचित्य बहुत कम रह गया है । हम चीन के विकास मॊडल की नकल तो करने की कोशिश कर रहे हैम,लेकिन नकल में भी अपनी अकल कम लगा रहे हैं ।
यह भी हो सकता है कि निर्यात के लिए करों में छूट और सुविधाओं को विश्वव्यापार संगठन में कोई देश चुनौती दे या स्वयं अपने देश में उन वस्तुओं पर संतुलित करने वाले शुल्क लगा दे। ऐसी हालत में निर्यात संवर्धन के उद्देश्य को पूरा करने पर भी प्रश्नचिह्न लग जाएगा ।
भारत पिछले कई वर्षों से अपना निर्यात बढाने की कोशिश कर रहा है । निर्यात बढने से ही देश का विकास होगा ,यह पाठ विश्वबैंक,अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्वव्यापार संगठन से ले कर वैश्वीकरण समर्थक सभी अर्थशास्त्री पढाते रहे हैं । इसके लिए चीन , दक्षिण कोरिया , मक्सिको व लाटिनी अमेरिका के अन्य देशों का उदाहरण दिया जाता रहा है। निर्यात बढ़ाने के लिए ज्यादा से ज्यादा विदेशी कंपनियों को देश में बुलाना होगा तथा देशी-विदेशी कंपनियों को नियमों और करों में छूट व अनुदान देने होंगे - इस नीति पर भारत सरकार चलती रही है । ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र’ इस शृंखला में सबसे ताजा पैकेज है । किन्तु इन सब कोशिशों के बावजूद भारत को अभी तक इस मोर्चे पर सफलता नहीं मिली है । भारत के निर्यात तो बहुत नहीं बढ़ पाए , आयात उससे ज्यादा बढ़ते गए। पि्छले काफी समय से भारत के विदेश व्यापर में लगातार विशाल घाटा चला आ रहा है ।
निर्यात-आधारित विकास की इस पूरी संकल्पना पर ही सवाल उठाने का समय आ गया है । सही माएने में देखा जाए, तो यह एक मृग-मरीचिका है और दुनिया के गरीब देशों को लूटने का एक और खेल है । जब दुनिया के सारे गरीब देश निर्यात बढ़ाने की कोशिश करते हैं,तो जाहिर है कि सबका निर्यात एक साथ नहीं बढ़ सकता । कुछ देशों के निर्यात कम होंगे, तो दूसरे देशों के निर्यात बढ़ेंगे । लेकिन निर्यात बढाने की इस होड़ में वे अपने सामानों और सेवाओं को सस्ता करते जाते हैं । अपने देश की बहुसंख्यक गरीब आबादी की जरूरतों की उपेक्षा भी करते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में माल सस्ता होने पर अमीर देशों व उनके नागरिकों व उनके नागरिकों कोफायदा होता है , जिनके पास क्रय शक्ति है ,या यूँ कहें कि जिनके पास डॊलर है । इस प्रकार ‘निर्यातोन्मुखी विकास’ के इस खेल में अमेरिका-यूरोप-जापान की सेवा में पूरी दुनिया के संसाधन लग जाते हैं और उनके लिए चीजें और सेवाएं सस्ती होती चली जाती हैं । यह शोषण का एक जरिया है । साथ ही निर्यात बढ़ाने के लिए विदेशी कंपनियां ही माहिर हैं , इस तर्क के चलते अमीर देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों की सर्वत्र घुसपैठ हो रही है और उनका वर्चस्व पूरी दुनिया पर पायम होता चला जा रहा है । उनके मुनाफ़े व रायल्टी , गरीब दुनिया के शोषण का एक जरिया है । ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ तो विशेष तौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अड्डे बनेंगे ।
‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ हों , निर्यात आधारित विकास की बात हो , विदेशी पूंजी आकर्षित करने की होड़ हो या वैश्वीकरण का गुणगान हो , चीन की मिसाल बार-बार दी जाती है । चीन आधुनिक भारत के लिए एक मॊडल है ,जिसका वह अनुकरण करना चाहता है । वह मनमोहन सिंह और बुद्धदेव भट्टाचार्य दोनों के लिए मॊडल है।चीन की विकास दर लगातार कई वर्षों से नौ-दस प्रतिशत के आस-पास चल रही है । चीन भारत से तीन-चार गुना ज्यादा विदेशी पूंजी अकर्षित कर रहा है । चीन का निर्यात तेजी से बढ़ रहा है और चीनी वस्तुएं अमरीका से ले कर भारत तक के बाजार में छा गयी हैं । यह सब तो खूब प्रचार होता है । लेकिन चीन की जनता का क्या हाल है ? इस मॊडल के चीन के अन्दर की क्या वस्तुस्थिति है ?
जो जानकारी मिल रही है , उससे पता चलता है कि चीन का विकास और औद्योगीकरण मुख्यरूप से हांग्कांग से लगे चीन के पूर्वी तटीय इलाकों तक सीमित है । चीन के गाँवों में और चीन के विशाल मुख्य भूमि में गरीबी , बेरोजगारी व गैरबराबरी बहुत तेजी से बढ़ रही है तथा बड़े पैमाने पर विस्थापन और पलायन हो रहा है । भारत की तरह बड़ी संख्या में आत्महत्याएं भी हो रही हैं । कारखानों और खदानों में काम करने की दशाएं बहुत खराब हैं ।दुनिया में खनन और औद्योगिक दुर्घटनाओं स्बसे ऊँची दर चीन में है । भारत से भी ज्यादा दुर्घटनाएं वहाँ हो रही हैं । संपत्ति व आय के वितरण में भी गैरबराबरी चीन में भारत से ज्यादा हो चुकी है । पूरे चीन में जबरदस्त जन-असंतोष खदबदा रहा है , जिसे केन्द्रीय सत्ता की तानाशाही के चलते दबाकर रखा गया है । वर्ष २००५ में पूरे चीन में ८७,००० विरोध प्रदर्शन हुए , यह आंकड़ा स्वयं चीन सरकार की सार्वजनिक सुरक्षा मंत्रालय का है । क्या यही हमारा मॊडल है ?
शायद , वैश्वीकरण की नई व्यवस्था में गरीब देशों का कोई ‘विकास’ हो सकता है,तो वह इसी तरह का होगा । थोड़े लोगों और थोड़े इलाकों में बहुत गतिविधियाँ , स्मृद्धि और शान-शौकत दिखाई देगी । लेकिन बाकी विशाल इलाके की विशाल आबादी कंगाली , जाहिली , बेरोजगारी ,विस्थापन व पलायन की पीड़ा भोगने को अभिशप्त होगी । आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता की यह खूबी की यह खूबी है कि इसमें सबका विकास नहीं हो सकता । लेकिन बाकी लोगों की कीमत पर कुछ लोग व कुछ इलाके विकास व समृद्धि की अभूतपूर्व उचाइयां हासिल कर सकते हैं । इस पूंजीवाद ने पहले दुनिया में बडे-बडे उपनिवेश बनाये थे । फिर उपनिवेश आजाद होने पर नव-औपनवेशिक तरीकों से उनका शोषण जारी रखा । नव-औपनिवेशिक लूट के साथ -साथ देशों के अन्दर भी उपनिवेश बनने की प्रक्रिया निरंतर चल रही है । इससे देश के अंदर भी गैरबराबरी व शोषण तेजी से बढ़ेगा ,जो अन्तर्राष्ट्रीय सम्राज्यवादी शोषण का पूरक होगा और मददगार होगा। ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ भी इस आंतरिक उपनिवेश और बाहरी उपनिवेश वाली द्वन्द्वात्मक व्यवस्था का एक नया औजार है। यही इसका असली रूप और इसकी असली भूमिका है ।

विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास (३)

विदेशी कंपनियों का हड़पो अभियान

गतांक से आगे : दूसरे प्रकार की विदेशी पूंजी-प्रत्यक्ष विदेशी निवेश- वास्तव में देश के अन्दर आती है । इसे दो भागों में बांटा जा सकता है - (एक) विलय और अधिग्रहण ( Merger & Acquisition ) तथा (दो) हरित निवेश ( Greenfield investment ) । भारत में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश का लगभग आधा हिस्सा तो दूसरी कंपनियों के विलय और अधिग्रहण में लग रहा है । अर्थात विदेशी कंपनियां कोई नया कारखाना या नया करोबार शुरु करने के बजाय पहले से चली आ रही देशी कंपनी के कारोबार को खरीद लेती हैं । इससे भी देश में कोई नई उत्पादक गतिविधि नहीं शुरु होती है , रोजगार नहीं बढ़ता है , सिर्फ देश में पहले से चले आ रहे कारोबार के मालिक बदल जाते हैं और उसकी कमाई विदेश जाने लगती है । पारले कंपनी के शीतल पेय व्यवसाय को अमरीका की कोका कोला कंपनी द्वारा खरीदना , टाटा की टोमको कंपनी के साबुन ब्रान्डों तथा साबुन व्य्वसाय को हिन्दुस्तान लीवर द्वारा खरीदना , फ्रांसीसी कंपनी लाफ़ार्ज द्वारा सीमेंट के अनेक कारखानों को खरीदना , इसके कुछ उदाहरण हैं। भारत के सरकारी उपक्रमों के शेयर खरीदकर उन पर अपना वर्चस्व कायम करने को भी इस श्रेणी में रखा जाएगा ( जैसे मारुति कंपनी पर सुज़ुकी नामक जापानी कंपनी का कब्जा)। पूरी दुनिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा विलय और अधिग्रहण की प्रवृत्ति जोरशोर से चल रही है । इससे बाजारों में चन्द बड़ी कंपनियों का एकाधिकारी वर्चस्व कायम हो रहा है । भारत के विभिन्न वस्तुओं के कारोबार में भी विदेशी कंपनियों का कब्जा तेजी से हुआ है । उदारीकरण के इस दौर में विलय , अधिग्रहण अवं एकाधिकार पर पाबन्दियाँ हटाने के बाद यह संभव हुआ है । इसके लिए ' एकाधिकार एवं प्रतिबन्धित व्यापार पद्धतियाँ अधिनियम (MRTP Act) को बदला गया है । इस प्रकार , विदेशी पूंजी के आने से प्रतिस्पर्धा का भी लाभ देश को नहीं मिला है , जिसका बहुत गुणगान किया जा रहा था । बल्कि कई क्षेत्रों में एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ मजबूत हुई हैं ।

    इस प्रकार जिस हरित निवेश से ही देश में उत्पादन , आय और रोजगार बढ़ने की कुछ उम्मीद की जा सकती है , वह देश में आ रही पूंजी का मात्र एक-चौथाई है । इसके बल पर भारत के शासक कैसे देश के विकास की उम्मीद कर रहे हैं , यह एक हैरानी का विषय है । इसे अंधविश्वास या अंधश्रद्धा ही कहा जा सकता है । महाराष्ट्र के प्रगतिशील समूहों ने अंधश्रद्धा निर्मूलन का काम काफी लगन से किया है । अब उन्हें भूमण्डलीकरण की इन अंधश्रद्धाओं के निर्मूलन का भी बीड़ा उठाना चाहिए ।

पूरा देश विदेशी कंपनियों के हवाले

    इसी प्रकार , निजीकरण की नीति पर भी भारत सरकार तथा हमारी राज्य सरकारें अंधे की तरह चल रही हैं  । यूरोप के कई देशों में जितना निजीकरण नहीं हुआ, उससे ज्यादा ज्यादा निजीकरण भारत में हो चुका है । विदेशी कंपनियों के लिए जिस तरह से दरवाजे खोले गए हैं और पूरी छूट दे दी गई है, उस स्थिति में निजीकरण का मतलब विदेशीकरण ही है । अर्थात देर-सबेर विदेशी कंपनियों का वर्चस्व यहाँ कायम हो जाएगा। देश के उद्योग , खेती , खदानें , बैंक , बीमा , शेयर बाजार , बिजली ,हवाई अड्डे , सड़कें , होटल , भवन निर्माण , मीडिया , शिक्षा , चिकित्सा , टेलीफोन , कानूनी सेवाएं , आडिट , पानी व्यवसाय - सबको विदेशियों के लिए खोला जा रहा है और उन्हे दावत दी जा रही है । एक ईस्ट इण्डिया कंपनी के कारण भारत को २०० वर्षों की गुलामी और बरबादी झेलनी पड़ी थी । अब हजारों विदेशी कंपनियाँ देश में पैर जमा रही हैं , तब देश का भविष्य क्या होगा , इसकी चिन्ता सरकार में किसी को नहीं है । विदेशी कंपनियों को प्रवेश देने का सरकार का सबसे ताजा पैकेज खुदरा व्यापार के क्षेत्र में है । यह एक प्रकार से भारत में बढ़ती बेरोजगारी की स्थिति में अंतिम शरणस्थली है । जब कोई और रोजगार नहीं मिला , तो माँ-बाप बेटे के लिए दुकान खोल देते हैं । लेकिन अब वहाँ भी विदेशी कंपनियों का हमला शुरु हो जाएगा ।

    जिसे विनिवेश ( disinvestment ) कहा जा रहा है , उसका भी औचित्य संदेहास्पद है। भारत सरकार हर बजट में सरकारी उद्यमों को बेचने के लक्ष्य रखती है और तेजी से उनको बेचती जा रही है । सरकार का यह काम वैसा ही है , जैसे कोई बिगड़ा हुआ , आवारा , कामचोर बेटा स्वयं कुछ कमाने के बजाय बाप-दादे की कमाइ हुई संपत्ति को बेचता जाए । भारत सरकार ठीक वही कर रही है । इससे बड़ी वित्तीय गैर जिम्मेदारी और क्या हो सकती है , क्योंकि यह संपदा एक न एक दिन तो खतम हो ही जाएगी ? विश्व बैंक के निर्देश पर वित्तीय अनुशासन के लिए भारत सरकार ने 'वित्तीय जिम्मेदारी एवं बजट प्रबंधन अधिनियम ' तो पारित किया है , लेकिन उसमें इसे वितीय गैर-जिम्मेदारी नहीं माना गया है । उसका मतलब तो सिर्फ गरीबों और आम जनता की भलाई के लिए किए जाने वाले खर्चों में कटौती करते जाना है ।

    पहले सरकार ने कहा कि जिन सरकारी उपक्रमों में हानि हो रही है , उन्हें बेचा जाएगा । हानि क्यों हो रही है , उसे कैसे दूर किया जा सकता है , यह विचार तथा कोशिश करने की जरूरत सरकार ने नहीं समझी । कई मामलों में तो स्वयं सरकार या उच्च पदस्थ अफसरों के निर्णयों , नीतियों और लापरवाही के कारण ये हानियाँ हुईं और बढ़ीं । लेकिन अब तो हानि की बात एक तरफ रह गयी है ।सरकार उन सरकारी उद्यमों को बेच रही है, जो मुनाफे में चल रहे हैं । इसका कारण भी स्पष्ट है । देशी-विदेशी कंपनियां उन उपक्रमों को आखिर क्यों खरीदेंगे , जो घाटे में चल रहे हैं ? इसलिए बजट के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अब लाभ वाले सरकारी उपक्रमों को बेचा जा रहा है । अब तो 'नवरत्नों' की बारी भी आ गयी है।[ अगली प्रविष्टी : ' निजीकरण -उदारीकरण के घोटाले ' ]