रविवार, दिसंबर 31, 2006

मनुष्यता के मोर्चे पर : राजेन्द्र राजन

मैं जितने लोगों को जानता हूँ
उनमें से बहुत कम लोगों से होती है मिलने की इच्छा
बहुत कम लोगों से होता है बतियाने का मन
बहुत कम लोगों के लिए उठता है आदर-भाव
बहुत कम लोग हैं ऐसे
जिनसे कतरा कर निकल जाने की इच्छा नहीं होती
काम-धन्धे, खाने-पीने, बीवी-बच्चों के सिवा
बाकी चीजों के लिए
बन्द हैं लोगों के दरवाजे
बहुत कम लोगों के पास है थोड़ा-सा समय
तुम्हारे साथ होने के लिए
शायद ही कोई तैयार होता है
तुम्हारे साथ कुछ खोने के लिए

चाहे जितना बढ़ जाय तुम्हारे परिचय का संसार
तुम पाओगे बहुत थोड़े-से लोग हैं ऐसे
स्वाधीन है जिनकी बुद्धि
जहर नहीं भरा किसी किस्म का जिनके दिमाग में
किसी चकाचौंध से अन्धी नहीं हुई जिनकी दृष्टि
जो शामिल नहीं हुए किसी भागमभाग में
बहुत थोड़े-से लोग हैं ऐसे
जो खोजते रहते हैं जीवन का सत्त्व
असफलताएं कर नहीं पातीं जिनका महत्त्व
जो जानना चाहते हैं हर बात का मर्म
जो कहीं भी हों चुपचाप निभाते हैं अपना धर्म
इने-गिने लोग हैं ऐसे
जैसे एक छोटा-सा टापू है
जनसंख्या के इस गरजते महासागर में

और इन बहुत थोड़े-से लोगों के बारे में भी
मिलती हैं शर्मनाक खबरें जो तोड़ती हैं तुम्हें भीतर से
कोई कहता है
वह जिन्दगी में उठने के लिए गिर रहा है
कोई कहता है
वह मुख्यधारा से कट गया है
और फिर चला जाता है बहकती भीड़ की मझधार में
कोई कहता है वह काफी पिछड़ गया है
और फिर भागने लगता है पहले से भागते लोगों से ज्यादा तेज
उसी दाँव-पेंच की घुड़-दौड़ में
कोई कहता है वह और सामाजिक होना चाहता है
और दूसरे दिन वह सबसे ज्यादा बाजारू हो जाता है
कोई कहता है बड़ी मुश्किल है
सरल होने में

इस तरह इस दुनिया के सबसे विरल लोग
इस दुनिया को बनाने में
कम करते जाते हैं अपना योग
और भी दुर्लभ हो जाते हैं
दुनिया के दुर्लभ लोग

और कभी-कभी
खुद के भी काँपने लगते हैं पैर
मनुष्यता के मोर्चे पर
अकेले होते हुए

सबसे पीड़ाजनक यही है
इन विरल लोगों का
और विरल होते जाना

एक छोटा-सा टापू है मेरा सुख
जो घिर रहा है हर ओर
उफनती हुई बाढ़ से

जिस समय काँप रही है यह पृथ्वी
मनुष्यो की संख्या के भार से
गायब हो रहे हैं
मनुष्यता के मोर्चे पर लड़ते हुए लोग ।
- राजेन्द्र राजन .

शनिवार, दिसंबर 30, 2006

भारत भूमि पर विदेशी टापू : ले. सुनील

भारत भूमि पर विदेशी टापू : ले. सुनील

अचानक इस देश में ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ ( Special Economic Zones ) की बाढ़ आ गयी है। हरियाणा व पंजाब से लेकर पश्चिम बंगाल तक और गुजरात से ले कर हिमाचल प्रदेश तक नए - नए ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ के प्रस्ताव स्वीकृत होने और बनने की खबरें आ रही हैं। अभी तक कुल १६४ प्रस्ताव केन्द्र सरकार द्वारा स्वीकृत किए जा चुके हैं। भारत के विकास , समृद्धि व प्रगति के नए सोपान और सबूत के रूप में इन्हें पेश किया जा रहा है। आखिर यह है क्या चीज ?
देश के निर्यात को बढ़ाने के लिए बनाए जा रहे इन क्षेत्रों की कल्पना चीन से आई है। यह चीन की राह का अनुकरण है। पहले भारत ने ‘ निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र ‘ बनाए थे। फिर पिछले दस वर्षों से सुविधाएं और रियायतें बढ़ाते हुए इन्हें ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ का नाम दिया गया। लेकिन इनमें तेजी तब आयी , जब पिछले वर्ष २००५ में देश की संसद में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लिए विधिवत एक कानून बना दिया गया तथा ९ फरवरी २००६ को वाणिज्य मंत्रालय ने इसकी अधिसूचना जारी कर दी।
‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ में स्थापित होने वाले निर्यात - आधारित उद्योगों को देश के करों और कानूनों से अनेक तरह की छूटें , सुविधाएं और मदद दी जाती है। इनकी परिभाषा ही यह है कि वे व्यापार करों व शुल्कों की दृष्टि से ‘ विदेशी क्षेत्र ‘ माने जाएंगे। भारत के नियम , कानून व कर वहाँ लागू नहीं होंगे। वे एक प्रकार से भारत सरकार की संप्रभुता से स्वतंत्र , स्वयम संप्रभू इलाके होंगे। यह माना जा रहा है कि अनेक विदेशी कंपनियाँ इन क्षेत्रों की ओर आकर्षित होंगी और उनके आने से भारत का निर्यात तेजी से बढ़ेगा। विदेशी पूंजी को आकर्षित करने में भारत पिछड़ता जा रहा है। चीन भारत से बहुत आगे है। इन क्षेत्रों के बनने से वह कमी भी दूर हो जाएगी। विशेष आर्थिक क्षेत्रों में करों में रियायतों की सूची लम्बी है। ये रियायतें इन क्षेत्रों में स्थापित होने वाले उद्योगों तथा क्षेत्र का विकास करने वाली कंपनियां , दोनों के लिए होगी। वस्तुओं और सेवाओं , दोनों को प्रदान करने वाली इकाइयों को छूट मिलेगी। आयकर में छूट पन्द्रह वर्ष के लिए होगी , जिसमें पाँच वर्ष तो शत - प्रतिशत छूट होगी और अगले पाँच वर्ष भी ५० प्रतिशत छूट होगी। विदेशों से मंगाए जाने वाले कच्चे माल या उपकरणों पर कोई आयात शुल्क नहीं लगेगा। देश के अन्दर से खरीदी गई चीजों पर उत्पाद शुल्क नहीं लगेगा और केन्द्रीय बिक्री कर की राशि वापस कर दी जाएगी। लाभांश वितरण कर , न्यूनतम वैकल्पिक कर , पूंजीगत लाभ कर , ब्याज पर कर , बिक्री कर , वैट आदि में भी छूट दी गई है। इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों में सेवा कर भी माफ़ रहेगा। जिन उद्योगों में अभी विदेशी पूंजी निवेश पर सीमा है , जैसे बीमा , दूरसंचार या निर्माण , उनमें १०० प्रतिशत विदेशी शेयरधारिता की अनुमति भी दी जाएगी। लाइसेन्स आदि की झंझटों व प्रतिबन्धों से भी मुक्ति रहेगी। विशेष आर्थिक क्षेत्रों में सस्ते कर्ज की सुविधा मिलेगी , सारी अनुमतियाँ एक जगह देने की एकल - खिड़की व्यवस्था बनाई जाएगी और विभिन्न प्रकार की निगरानी के लिए भी एक ही एजेन्सी होगी। बदले में बस एक ही शर्त रहेगी कि विशेष आर्थिक क्षेत्र की इकाइयों को कुल मिलाकर शुद्ध विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाला होना चाहिए। वे सब आयात भी कर सकती हैं , किंतु उनके निर्यात , आयात से ज्यादा होने चाहिए। राज्य सरकार के करों व शुल्कों से विशेष आर्थिक क्षेत्रों की इकाइयों को मुक्त करने के लिए हरियाणा सरकार ने तो केन्द्रीय कानून की तर्ज पर ‘ हरियाणा विशेष क्षेत्र अधिनियम , २००५ ‘ भी पास कर लिया है।
करों व नियमों में ये छूटें न केवल विशेष आर्थिक क्षेत्रों के उद्योगों को होगी , बल्कि सेवाओं और व्यापार में भी मिलेगी। जैसे सूचना तकनालॊजी में। जो विदेशी बैंक अपनी शाखा वहाँ खोलेंगे , उनके मुनाफे पर टैक्स नहीं लगेगा। कोई कंपनी वहाँ बिजली कारखाना खोलेगी , तो उसे भी कर नही देना पड़ेगा। जो कंपनियाँ या फन्ड्स वहाँ स्थित नहीं हैं , किन्तु जिन्होंने वहाँ पूंजी लगाई है , उनके ब्याज व मुनाफ़े पर भी कर नहीं लगेगा। कुल मिलाकर ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ एक तरह के ‘ कर - स्वर्ग ‘ होंगे , जहाँ सरकार के करों और प्रतिबन्धों से पूरी आजादी होगी।
भारत के कम से कम दो दर्जन कानून विशेष आर्थिक क्षेत्रों में लागू नहीं होंगे। वहाँ के विवादों और मुकदमों के फैसला करने वाली अदालतें भी अलग होंगी। यद्यपि भारत सरकार ने स्पष्ट किया है कि देश के श्रम , बैंकिंग और शेयर बाजार के कानून वहाँ लागू होंगे , किन्तु देर - सबेर वहाँ श्रम कानूनों में छूट दी जाएगी, यह तय है। चीन के विशेष आर्थिक क्षेत्रों में आने का यह एक प्रमुख आकर्षण था कि चीन के श्रम कानून वहाँ लागू नहीं होते थे। ये कंपनियाँ चाहे जब मजदूरों को लगा व निकाल सकें , ठेका मजदूर या चाहे जिस रूप में मजदूरों को लगा सकें और चाहे जो मजदूरी दें - ये आजादी विशेष आर्थिक क्षेत्र में उनको हो इसकी वकालत भारत में भी की जा रही है . गुजरात और महाराष्ट्र की सरकारों ने तो आसान श्रम कानूनों की योजना बनाई भी है। खबर है कि छ; राज्य सरकारों ने केन्द्रीय श्रम मंत्रालय के पास प्रस्ताव भेजा है कि इन क्षेत्रों में ‘ सरल ‘ श्रम कानूनों की अनुमति दी जाए। भारत के आर्थिक नक्शे पर चमकते हुए ये क्षेत्र मजदूरों के सबसे बुरे शोषण के क्षेत्र भी हो सकते हैं। इसी प्रकार , पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण - रोकथाम के नियमों को भी इन क्षेत्रों में ताक पर रखा जा सकता है।इस प्रकार से अब देश दो भागों में बंट जाएगा। एक ‘घरेलू शुल्क क्षेत्र ‘ जहाँ देश के कानून लागू होंगे ,दो ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ जो देश के कानूनों , नियमों व लोकतांत्रिक प्रशासन से परे व ऊपर होंगे .
ये विशेष आर्थिक क्षेत्र १० हेक्टेयर से ले कर हजारों हेक्टेयर के हो सकते हैं। कोई ऊपरी सीमा नहीं है और रिलायन्स के कुछ विशेष आर्थिक क्षेत्र तो १५ हजार हेक्टेयर तक के विशाल भूभाग में बन रहे हैं। ये विशेष आर्थिक क्षेत्र किसी एक वस्तु या सेवा पर केन्द्रित भी हो सकते हैं और अनेक वस्तुओं या सेवाओं के भी हो सकते हैं। भारत सरकार द्वारा तय नियमों के मुताबिक अनेक वस्तुओं के उद्योगों वाले ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ का न्यूनतम क्षेत्रफल १००० हेक्टेयर होना चाहिए। एक वस्तु या सेवा के क्षेत्र ( जैसे हीरा - जवाहरात या जैव - तक्नालाजी या सूचना तकनालाजी ) न्यूनतम १० हेक्टेयर तक भी हो सकते हैं।
भारत सरकार ने यह भी छूट दी है कि इन ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ के कुल क्षेत्रफल में उद्योगों की इकाइयों का क्षेत्रफल ३५ प्रतिशत से ज्यादा करने की बाध्यता नहीं होगी। दूसरे शब्दों में ६५ प्रतिशत तक जमीन पर आवासीय कालोनी , रेस्तराँ , मल्टीप्लेक्स , मनोरंजन केन्द्र , शापिंग माल , गोल्फ़ कोर्स , हवाई अड्डा , स्कूल , अस्पताल आदि बनाये जा सकते हैं। कहने को तो ये सुविधाएं ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ के अन्दर के उद्योगों व इकाइयों में कार्यरत मजदूरों व कर्मचारियों के लिए होगी , किन्तु क्षेत्र के बाहर के लोगों को भी इनका इस्तेमाल करने से रोकने का कोई तरीका तो नही होगा। इसका मतलब यह भी है कि निर्यात संवर्धन की आड़ में कई अन्य धन्धे भी यहाँ पनप सकते हैं। महानगरों के पास सस्ती जमीन , करों में छूट और बाहर से सीमेन्ट , इस्पात , लिफ्ट , बिजली उपकरण आदि चीजें निशुल्क आयात करने की सुविधा के कारण कई जमीन - जायदाद का धन्धा करने वालि निर्मान कंपनियों के लिए भी ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ का आकर्षण बढ़ गया है। राहेजा , यूनिटेक , डीएलेफ़ , युनिवर्सल आदि ऐसी ही कंपनियां हैं जो ‘ विशेष आर्थि क्षेत्र बनाने तथा विकसित करने के लिए आगे आ गयी हैं।
इसी प्रकार , विशेष आर्थिक क्षेत्र कानून में विनिर्माण की परिभाषा इतनी व्यापक रखी गयी है कि उसमें रेफ्रिजरेशन ( प्रशीतन ) , रंगाई , कटाई , मरम्मत करना , पुननिर्माण , पुन: इंजीनियरिंग आदि को भी विनिर्माण मान लिया गया है। इसका मतलब है कि विशेष आर्थिक क्षेत्र में वास्तविक उत्पादन न हो कर कहीं और हो , सिर्फ वहाँ एक मामूली गतिविधि की इकाई डालकर तमाम कर-छूटों का लाभ उठाया जा सकता है।
‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ बनाने के लिए कोई भी सरकारी या निजी कंपनी आवेदन कर सकती है। राज्य सरकार से सहमति लेने के बाद केन्द्र सरकार को आवेदन किया जा सकता है। इन आवेदनों पर शीघ्र फैसला लेने के लिए , इसे काफ़ी प्राथमिकता देते हुए भारत सरकार ने रक्षा मन्त्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता मे मन्त्रियों की एक समिति बना दी है , जिसे ‘ मन्त्रियों का अधिकार प्राप्त समूह ‘ नाम दिया गया है। इन ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्रों ‘ के लिए जमीन हासिल करने का काम वैसे तो इन्हें विकसित करने वाली कंपनियों को स्वयं खुले बाजार में करना चाहिए। लेकिन इन्हें सुविधा देने की होड़ में लगी राज्य सरकारें स्वयं भूमि अधिग्रहित करके सस्ती दरों पर इन्हें दे रही हैं। बाजार की प्रचलित दरों से काफी कम दरों पर जमीन मिलने से इन कंपनियों की पौ-बारह हो गयी है।
खूब कमाई , करों से मुक्ति , सस्ती जमीन आदि कारणों से ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र’ बनाने के लिए अचानक दौड़ व होड़ मच गयी है। विशेष आर्थिक क्षेत्र का कानून बनने से पहले भारत में पन्द्रह विशेष आर्थिक क्षेत्र काम कर रहे थे - कांडला , सूरत , मुम्बई , कोच्चि , नोएडा , विशाखापत्तनम , इन्दौर , जयपुर , फाल्स , मनिकंचन , साल्ट लेक , और चेन्नई में तीन। अब लगभग १६४ नए प्रस्ताव केन्द्र सरकार स्वीकृत कर चुकी है। इनमें ‘ तेल व प्राकृतिक गैस आयोग ‘ तथा ‘ गुजरात औद्योगिक विकास विगम ‘ के प्रस्तावों को छोड़ कर बकी सब निजी कंपनियों के प्रस्ताव हैं। देश के सबसे बड़े उद्योगपति मुकेश अंबानी की रिलायंस कम्पनी इनमें सबसे आगे है जिसके द्वारा नवी मुम्बई , हैदराबाद , गुड़गाँव (हरियाणा) और जामनगर (गुजरात) में विशाल विशेष आर्थिक क्षेत्र विकसित किए जा रहे हैं। कलकत्ता के पास बनाने के लिए पश्चिम बंगाल सरकार से भी उसकी वार्ता चल रही है। एस्सार , भारत फोर्ज , अदारी , विप्रो , सत्यम , बायोकोन , बजाज , नोकिया , केदिला , डा. रेड्डी आदि उद्योग जगत के अनेक बड़े नाम विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने में लग गए हैं। दिल्ली से नजदीकी के कारण हरियाणा व पंजाब में विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लगभग ५० प्रस्ताव आ चुके हैं। मात्र गुड़गाँव के पास १२ विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के प्रस्ताव हैम , जिनमें आठ को स्वीकृति मिल चुकी है। गुजरात में १९ विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने के लगभग ५० प्रस्ताव विचाराधीन हैं। यह दावा किया जा रहा है कि जो १४८ प्रस्ताव पहले स्वीकृत हुए हैं , वे कुल ४०,००० हेक्टेयर (अर्थात एक लाख एकड़) क्षेत्र में फैले हुए होंगे और उनमें १,००,००० करोड़ रुपए का पूंजी निवेश होगा तथा उससे लाखों लोगों को रोजगार मिलेगा।
‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ के नाम पर ये उम्मीदें , दावे और खुशफ़हमियाँ काफ़ी सन्देहास्पद हैं। सबसे पहली बात तो यह है कि निर्यात - संवर्धन के नाम पर बनाए जा रहे इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर किसानों और गाँवों की जमीन अधिग्रहित की जा रही है तथा उन्हें उजाड़ा जा रहा है। मुम्बई के पास नवी मुम्बई से लगा ३५००० एकड़ का रिलायन्स का ‘ महामुम्बई विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ तो इतना विशाल है कि यह मुम्बई महानगर के एक तिहाई क्षेत्रफल के बराबर है। इनमें ४५ गाँवों की जमीन अधिग्रहित की जा रही है। एक बार पहले ८० के दशक में ‘नवी मुम्बई’ बनाने के लिए वहाँ विस्थापन हो चुका है। यह दूसरा विस्थापन है। इससे अनेक किसान ,मछुआरे , नमक - मजदूर और अन्य गाँववासी बरबाद हो जाएंगे। उनकी जमीन की कीमत लगभग २० से ४० लाख रुपये प्रति एकड़ है , किन्तु महाराष्ट्र सरकार सवा लाख से लेकर १० लाख रु. एकड़ की दर से उनकी जमीन ले कर रिलायन्स को देने की कोशिश में लगी है। यह कहा जा रहा है कि यह दुनिया क सबसे बड़ा ‘ विशेष आर्थिक क्षेत्र ‘ होगा। किन्तु उस क्षेत्र के लोगों के लिए तो यह सबसे बड़ा संकट बन गया है। इस प्रोजेक्ट का विरोध करने के लिए उन्होंने ‘ महामुम्बई शेतकरी संघर्ष समिति ‘ का गठन कर लिया है और विरोध में आन्दोलन शुरु कर दिया है। [ जारी ]

बुधवार, दिसंबर 20, 2006

कुछ और विशेष क्षेत्र : ले. राजकिशोर ( सामयिक वार्ता में )

कुछ और विशेष क्षेत्र : ले. राजकिशोर ( सामयिक वार्ता में )
सामयिक वार्ता/नवंबर,२००६ से लिया गया .
व्यंग्य
मुझे लगता है , भारत सरकार हमेशा अधूरा काम करती है . उसने राजनीतिक आजादी दी , पर आर्थिक आजादी देना भूल गयी .दलितों और पिछड़ों को आरक्षण दिया , पर पिछड़े वर्गों को इससे वंचित रखा . हिन्दी को राजभाषा बनाया , पर अंग्रेजी को छुआ तक नहीं . विशेष आर्थिक क्षेत्र , जहाँ पूँजीपतियों के हित में सभी कानूनों को स्थगित कर दिया जाएगा , बना कर सरकार अधूरे काम करने की अपनी परंपरा को ही निभा रही है . बाद में उसे अनेक विशेष क्षेत्र बनाने होंगे , इसका उसे खयाल तक नही है . देशप्रेमी होने के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं उन विशेष क्षेत्रों को अभी से रखांकित कर दूं , जिनका निर्माण करने की जरूरत है .
विशेष राजनीतिक क्षेत्र : राजनीतिक दलों और उनके नेताओं का आचरण देख कर लग रहा है कि देश का वातावरण उनकी भावनाऒं के अनुकूल या काफी नहीं रह गया है . कहीं पुलिस आड़े आ जाती है , कहीं सीबीआई जाँच करने लगती है . कभी लोक सभा से इस्तीफा देना पड़ जाता है , कभी विधान सभा से . ऐसे में कोई राजनीति क्या करेगा ? अत: राजनीतिग्यों के लिए जगह - जगह विशेष क्षेत्र बनाने चाहिए . इन क्षेत्रों में देश का कानून लागू नहीं होगा - आर्म्स एक्ट भी नहीं . यहाँ न थाने होंगे , न न्यायालय . वोट देने - लेने का तो सवाल ही नही उठता . जो सबसे मजबूत होगा , उसी का राज चलेगा . उसी को इस क्षेत्र का जन प्रतिनिधि माना जा सकेगा और वह जब चाहे , संसद में आ-जा सकेगा .
विशेष सांस्कृतिक क्षेत्र : संस्कृति के क्षेत्र में बहुत अराजकता दिखाई दे रही है . कोई सबको गेरुए वस्त्र पहनाना चाहता है , कोई कम से कम कपड़े पहन कर भारत के वस्त्र उद्योग को नष्ट कर रहा है,तो कोई रोज कम से कम एक बलात्कार से कम पर राजी नहीं है . जाहिर है कि इन सभी को विशेष सांस्कृतिक क्षेत्रों की जरूरत है . इन क्षेत्रों में लोगों को अपनी सांस्कृतिक रुचि के अनुसार जीने की पूरी छूट होगी वे चाहें तो दिन भर सड़कों पर घूमते हुए गाएँ - बजाएँ या शराब पी कर धुत रहें . कामुक चित्रों , संगीत , साहित्य , देह प्रदर्शन - किसी भी चीज पर रोक नहीं होगी . यहाँ तक कि नग्न हो कर विचरण करने का भी बुरा नहीं माना जाएगा . लोग चाहें तो ऐसे प्रयोग भी कर सकते हैं जिनके बारे में अभी तक सोचा भी नही गया है . विदेशी पर्यटक यहाँ खूब आएँगे , क्योंकि
यहाँ उन्हें वे आजादियाँ हासिल होंगी जो उनके अपने देश में भी उपलब्ध नहीं हैं . इससे हमारा जीडीपी ०.३४ प्रतिशत बढ़ेगा .
विशेष धार्मिक क्षेत्र : विशेष धार्मिक क्षेत्र का सृजन कर हम देश की अनेक धार्मिक समस्याओं से मुक्त हो सकते हैं . कुछ हिंदुओं को शिकायत है कि भारत की व्यवस्था वेद - शास्त्र के प्रावधानों के मुताबिक नहीं चल रही है . सिखों और इसाइयों की अपनी - अपनी समस्याएँ हैं.इन शिकायतों के निवारण का एक ही तरीका है - विशेष धार्मिक क्षेत्रों की स्थापना . प्रत्येक धर्म के अनुयाइयों को अपना विशेष धार्मिक क्षेत्र बनाने की आजादी होगी . यहाँ का समाज धर्माचार्यों के निर्देशों के अनुसार चलेगा . मसलन हिन्दू क्षेत्र में मनुस्मृति क्षेत्र में चोरी करनेवाले का हाथ काट लिया जाएगा . दोनों क्षेत्रों में स्त्रियों को परदे में रहना होगा . सिख चाहे जितनी नंगी तलवार ले कर चल सकते हैं . इत्यादि - इत्यादि .
विशेष लाल - क्षेत्र : आदि काल से फलते - फूलते आए यौन व्यवसाय पर जब से सरकार ने रोक लगाई है , यौनकर्मियों के साथ - साथ रसिक नागरिकों का सुखपूर्वक जीना दूभर हो गया है . उनका कहना है कि लादा हुआ संयम संयम नही है . यौनकर्मियों का कहना है कि हमारे शरीर पर हमारा ही अधिकार न हो . यह कैसा न्याय विधान है ? कानूनी रोक के कारण बिजनेस तो मंदा नहीं पड़ा है . पर पुलिस वालों और स्थानीय गुण्डों को उनका हिस्सा देना पड़ता है .देश में जगह - जगह विशेष लाल क्षेत्र बना देने से नागरिकों और नागरिकाओं , दोनों का भला होगा . इस क्षेत्र में शारीरिक क्रीड़ा की विभिन्न भंगिमाओं के लिऎ खुली छूट होगी . रात चाहे कितनी गयी हो , किसी नागरिक से यह नहीं पूछा जाएगा कि वह कहाँ से आ रहा है या कहाँ जा रहा है . नागरिकाओं को उनके कंज्यूमर - फ़्रेंडलीनेस के लिए परेशान नही किया जाएगा .

मंगलवार, दिसंबर 12, 2006

राधा - कृष्णों की फजीहत

गनीमत है कि द्वारिका मोदी के गुजरात में है, मथुरा या बृन्दावन नहीं . मोदी का राज यदि मथुरा-वृन्दावन में होता तब राधा-कृष्ण का क्या हाल होता ? वह भी भारतीय संस्कृति के कथित रक्षकों के हाथों . विडम्बना है कि ‘रक्षकों’ में कुछ गोपियां भी पीछे नही हैं .
काश इन ‘संस्कृति रक्षकों’ का भीम और हिडिम्बा जैसे युगल से कभी सामना हो जाता ,तब समझ में आता.

डॊ. भीमराव अम्बेडकर : परिनिर्वाण दिवस पर

तथागत की सिखाई बौद्ध दर्शन की विशिष्ट शैली में आलोचना का महत्व है , आत्मालोचना का महत्व तो अनुपम है . सामयिक दलित आन्दोलन के वजूद में बाबासाहब का योगदान पितृतुल्य है . आज के दलित आन्दोलन के संकट को समझने के लिए उनकी और गांधी जी की राजनैतिक व दार्शनिक यात्रा की आलोचना मददगार होगी .
गांधी और अम्बेडकर की साफ़ तौर पर अलग अलग दिशा थी . दोनों महापुरुष उत्कट सृजनात्मक व्यग्रता के साथ भारतीय समाज- पटल पर उतरे थे . इतिहास की एक सम्मोहक खूबसूरती होती है कि खण्ड दृष्टि के हम इतने कायल हो जाते हैं कि उसे ही पूर्ण मानने लगते हैं . इन दोनों की उत्कट सामाजिक व्यग्रता के साथ भिडन्त भी हुई थी .
यह गौरतलब है कि तीसरे दशक के प्रारम्भ में हुई इस भिडन्त के फलस्वरूप दोनों की अपनी-अपनी सोच और कार्यक्रमों पर बुनियादी असर पड़ा . इस प्रचन्ड मुठभेड़ के बाद दोनों बदले हुए थे . यह सही है कि अन्त तक एक दूसरे के लिए तीखे शब्दों का प्रयोग दोनों ने नही छोड़ा . एक दूसरे पर पडे प्रभाव की यहां सांकेतिक चर्चा की जा रही है .
गांधी जी के लिए अस्पृश्यता चिन्ता के विषयों में प्रमुख थी. उनके पहले भी कई योगियों और सामाजिक आन्दोलनों की इसपर समझदारी थी लेकिन यह तथ्य है कि भारत की राजनीति में मुद्दे के तौर पर यह गांधी के कारण स्थापित हुआ . राष्ट्रीय - संघर्ष के बडे लक्ष्य के साथ अस्पृष्यता को धार्मिक और आध्यात्मिक तौर पर उन्होंने लिया . अम्बेड़कर ने बातचीत के शुरुआती दौर में ही गांधी को यह स्पष्ट कर दिया था दलित-वर्गों के आर्थिक - शैक्षणिक उत्थान को वे ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं .
अम्बेडकर से मुलाकात के पहले गांधी जाति - प्रथा के रोटी - बेटी के बन्धनों को ‘आध्यामिक प्रगति’ में बाधक नहीं मानते थे .अम्बेडकर से चले संवाद के बाद उन्होंने दलितों के शैक्षणिक - आर्थिक उत्थान के लिए उन्होंने ‘हरिजन सेवक संघ’ बनाया और जाति - प्रथा चोट करने के लिए यह निर्णय लिया कि वे सिर्फ़ सवर्ण - अवर्ण विवाहों में ही भाग लेंगे .
सामाजिक प्रश्न के धार्मिक महत्व को नजर-अन्दाज करने वाले बाबा साहब ने गांधी से संवाद के दौर के बाद इसे अहमियत दी . जाति - प्रथा के नाश हेतु ‘धर्म-चिकित्सा’ और ‘धर्मान्तरण’ को भी जरूरी माना .
भारतीय समाज में सवर्णों में ‘आत्म-शुद्धि’ तथा दलितों में ‘आत्म-सम्मान’-इन दोनों प्रयासों की आवश्यकता है तथा यह परस्पर पूरक हैं .
गांधी के मॊडल से पनपे कांग्रेसी-हरिजन नेतृत्व में एक राष्ट्रवादी राजनैतिक अभिव्यक्ति और प्रयत्न था लेकिन सामाजिक - सांस्कृतिक प्रश्नों पर चुप्पी रहती थी . साठ और सत्तर के दशक में उभरे दलित नेतृत्व ने माना कि कांग्रेस का हरिजन नेतृत्व सामाजिक ढ़ाचे में अन्तर्निहित गैर-बराबरी को ढक-छुपा कर रखता है . इस सांस्कृतिक चुप्पी को नए दलित नेतृत्व ने कायरतापूर्ण और असमानता के वातावरण को अपना लेने वाला माना .
दलित आन्दोलन की कमजोरियों को समझने के लिए १९४४ में जस्टिस पार्टी की मद्रास में हार के बाद एक रात्रि भोज में दिए गए बाबासाहब के भाषण पर गौर करना काफी होगा . लम्बे समय तक सत्ता में रहने के बाद जस्टिस पार्टी बुरी तरह हारी थी .गैर-ब्राह्मणों में भी कईयों ने उसका साथ छोड़ दिया था .
” मेरी दृष्टि में इस हार के लिए दो बातें मुख्यत: जिम्मेदार थीं .
पहला,ब्राह्मणवादी तबकों से उनमें कौन से अन्तर हैं यह वे समझ नही पाये . हांलाकि ब्राह्मणों की विषाक्त आलोचना वे करते थे लेकिन उनमें से कोई क्या यह कह सकता है कि वे मतभेद सैद्धान्तिक थे ? उन्होंने खुद को दूसरे दर्जे का ब्राह्मण मान लिया था . ब्राह्मणवाद को त्यागने की बजाए उसकी आत्मा को आदर्श मान कर वे उससे लिपटे हुए थे .ब्राह्मणवाद के प्रति उनका गुस्सा सिर्फ़ इतना था कि वे ( ब्राह्मण) उन्हें दोयम दर्जा देते हैं .
हार का दूसरा कारण पार्टी का संकीर्ण राजनैतिक कार्यक्रम था . अपने वर्ग के नौजवानों को कुछ नौकरियां दिलवा देना पार्टी का मुख्य मुद्दा बन गया था . मुद्दा पूरी तरह जायज है . परन्तु जिन नौजवानों को सरकारी नौकरियां दिलवाने के लिए पार्टी २० वर्षों तक लगी रही क्या वे वेतन पाने के बाद पार्टी को याद रखते हैं ?इन बीस वर्षों में जब पार्टी सत्ता में रही, उसने गांवों में रहने वाले ,गरीबी और सूदखोरों के चंगुल में फंसे ९० फ़ीसदी गैर-ब्राह्मणों को भुला दिया . “

आदिवासियों ने दिखाई गांधीगिरी

साभार :दैनिक भास्कर,शनिवार २५ नवम्बर २००६
आदिवासियों ने नर्मदा तट पहुंच पूजा - अर्चना की और गांधीजी के प्रतिमा के समक्ष प्रार्थना कर आंदोलन शुरु किया
होशंगाबाद. सतपुडा टाइगर रिजर्व क्षेत्र में बसे हजारों आदिवासियों ने जल , जंगल , जमीन के लिए गांधीगिरी अपनाई है . वन अधिकारियों की सदबुद्धि के लिए अनोखा आंदोलन छेड दिया है . आदिवासियों ने नर्मदा की पूजा अर्चना के बाद गांधी प्रतिमा पर प्रार्थना कर रैली निकाली और सतपुडा टाइगर रिजर्व के दफ्तर के सामने कीर्तन कर पूजा अर्चना किया. यह क्रम एक माह तक जारी रहेगा .
जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को वनों से हटाया जा रहा है . इसके विरोध में आदिवासियों ने एक माह का सदबुद्धि आंदोलन शुक्रवार सुबह नर्मदा घाट से शुरु किया . आदिवासियों के इस आंदोलन में किसान आदिवासी संगठन और समाजवादी जनपरिषद के नेताओं के अलावा जैन मुनि विनय सागर भी मौजूद थे . आदिवासियों की मांग है कि सतपुदा राष्ट्रीय उद्यान , बोरी अभयारण्य तथा पचमढ़ी अभयारण्य को मिला कर सतपुडा टाइगर रिजर्व बनाया गया है . तीनों के अन्दर ७५ गांव हैं . इतने ही गांव इनकी सीमा पर हैं . वन विभाग ने पाबंदी लगा कर वहां रहना गैर कानूनी कर दिया है .
इससे हजारों आदिवासियों की जिन्दगी संकट में है . वनों से वनोपज संग्रह , निस्तार , पशुओं की चराई और खेती पर भी रोक लगा दी गयी है . आदिवासी इस पाबंदी को हटवाने के लिए २२ दिसंबर तक होशंगाबाद में आंदोलन करेंगे . आंदोलन को सदबुद्धि सत्याग्रह नाम दिया है . इसके तह्त शुक्रवार को बारधा , बरचापाडा और मरुआपुरा गांव के सैकडों आदिवासी होशंगाबाद के नर्मदा तट पर एकत्रित हुए .यहां नर्मदा की पूज अर्चना के बाद अस्पताल के सामने गांधी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर रैली क्के रूप में सतपुडा टाइगर रिजर्व कर्यालय पहुंचे.यहां सभा के बाद आचार्य विनय सागर के मार्गदर्शन में कीर्तन हुआ . तत्पश्चात आदिवासियों ने ग्यापन सौंपकर अपनी समस्यांए बताइं .उधर सतपुडा टाइगर रिजर्व के क्षेत्र संचालक एस.एस. राजपूत का कहना है कि उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर राष्ट्रीय उद्यान क्षेत्र में गैर वानिकी कार्य पूर्णतया प्रतिबंधित है . उच्चतम न्यायालय के आदेश का ही परिपालन किया जा रहा है .
‘मछुआरों का शिकार करना हिंसा नहीं’ -आदिवासियों के आंदोलन में शामिल जैन मुनि विनय सागर ने कहा कि मछुआरों द्वारा मछली मारना वैसे तो हिंसा है किंतु यदि इनके अधिकारों से वंचित किया गया तो त यह मछली मारने से बडी हिन्सा होगी . यदि सरकार आदिवासियों के लिए रोजगार का वैकल्पिक इंतजाम करती है तो मैं मछली मारने को हिन्सा ही मानूंगा और आदिवासियों को मचली ना मारने के लिए प्रेरित करूंगा .

सोमवार, दिसंबर 04, 2006

जंगल पर हक़ जताने का संघर्ष

साभार : बी.बी.सी.
फ़ैसल मोहम्मद अली
फ़ैसल मोहम्मद अली
बीबीसी संवाददाता, भोपाल
जंगल पर हक़ जताने का संघर्ष
भारत में ‘बाघ या मानव’ और ‘जंगल या आदिवासी’ की चल रही गर्मागर्म बहस के बीच मध्य प्रदेश के पिपरिया तहसील में आदिवासियों ने अपने अधिकारों की माँग को लेकर ख़ास तरह से विरोध दर्ज किया.
क़रीब पाँच हज़ार की तादाद में पिपरिया पहुँचे आदिवासियों ने जंगल पर उनके अधिकार छीने जाने के विरोध में ज़गली उपजों की बिक्री की.
यह विरोध प्रदर्शन देश के पाँच राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, उड़ीसा और महाराष्ट्र में काम कर रहे आदिवासी संगठनों ने आयोजित किया.
‘पुरखों से नाता जोड़ेंगे, जंगल नहीं छोड़ेंगे’ के नारे लगाते हुए पिछले 16 दिनों की यात्रा के बाद यह आदिवासी समूह पिपरिया पहुँचा.
आदिवासियों की यह यात्रा क़रीब 15 दिनों पहले खंडवा ज़िले के कालीघोड़ी नामक स्थान से शुरू की गई थी जहाँ कभी गोंड राजाओं का शासन था.
पंचमढ़ी के समीप बसा पिपरिया वह इलाका है जहाँ 19वीं शताब्दी में गोंड़ राजा भूभू सिंह ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह छेड़ा या जिसके कारण बाद में उन्हें फ़ाँसी दे दी गई थी.
सन् 1867 में घोषित भारत का पहला संरक्षित जंगल, बोरी भी इसी क्षेत्र में है.
सवाल
विरोध के तौर पर महौल नाम के एक जंगली पेड़ के पत्ते बेच रहे जगत सिंह बताते हैं, “जंगली उपज से हमारा अधिकार छीनने के बाद अब सरकार हमारी बची-खुची थोड़ी सी ज़मीन भी बाघ अभयारण्य के नाम पर छीन लेना चाहती है. ऐसे में हम लोग क्या करेंगे.”
उधर राधाबाई भी अपनी गुहार सुनाती है. राधा कहती हैं, “हम एक गाँव से दूसरे गाँव अपने रिश्तेदारों से मिलने भी नहीं जा सकते क्योंकि अधिकारी इसे जंगली क्षेत्र में घुसपैठ मानते हैं. हम अपने जानवर भी वहाँ नहीं चरा सकते हैं.”
मध्य प्रदेश के होशंगाबाद, बैतूल और छिंदवाड़ा ज़िले में ही आदिवासियों के क़रीब 500 गाँव ऐसे हैं जो कि संरक्षित जंगलों में पड़ते हैं.
राज्य में दर्जनों ऐसे संरक्षित जंगल हैं जहाँ आदिवासियों को ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.
महाराष्ट्र और गुजरात में बड़ी परियोजनाओं के कारण विस्थापित किए गए लोगों और आदिवासियों के मध्य काम कर रही प्रतिभा शिंदे का कहना है कि आर्थिक उदारता और वैश्वीकरण के दौर में पहले के ग्रामीण स्तर के यह झगड़े अब सिर्फ़ गाँव के नहीं रह गए इसीलिए इन्हें व्यापक प्रारूप देने की ज़रूरत है.
अभियान
समाजवादी जन परिषद नाम के एक संगठन से जुड़े सुनील बताते हैं, “जब आदिवासी अपनी ज़मीन के बदले कम मुआवज़ा दिए जाने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं तो पुलिस उन पर गोली चलाती है. जैसा कि उड़ीसा के कलिंगनगर में हुआ था.”
सुनील आगे जोड़ते हैं, “होशंगाबाद में भी बाघों को संरक्षण देने, सेना का शूटिंग रेंज बनाने और तवा बाँध के नाम पर आदिवासी गांवों को बार-बार उजाड़ा जाता रहा है.”
मध्य प्रदेश में विकसित किए जा रहे सतपुड़ा बाघ अभयारण्य से क़रीब-क़रीब 20,000 लोगों के विस्थापन की आशंका है.

शुक्रवार, दिसंबर 01, 2006

गांधी पर बहस : प्रियंकर की टिप्पणियां

बाबा रामदेव योग के बड़े आचार्य हैं . इस पारम्परिक विद्या के समर्थ साधक हैं और इसके प्रचार-प्रसार के लिए उनकी जितनी तारीफ़ की जाए कम है .
पर ऎतिहासिक और राजनैतिक परिदृश्य के टिप्पणीकार के रूप में उनकी पृष्ठभूमि और योग्यता संदिग्ध है . अपनी प्रसिद्धि के प्रभाववश अब वे अपने कार्यक्षेत्र और गतिविधि के ‘स्पेस’ के बाहर जाकर कुछ ज्यादा ही अहमन्य टिप्पणियां करने लगे हैं . इसका नुकसान उस बड़े लक्ष्य — योग के प्रचार-प्रसार — को ही होगा जिसे वे लेकर चले थे .
सब काम सबके लिए नहीं बने हैं . जैसे बाबा रामदेव योग के साथ प्रवचन तो देते ही थे, बाद में सम्भवतः मुरारी बापू के रसवर्षा करने वाले गायन से प्रेरणा लेकर वे गाने भी लगे . यकीन मानिये इतना बेसुरा गाते हैं कि क्या कहा जाये. लय-ताल तो इस योगगुरु के आस-पास भी नहीं फ़टकती . भई योग सिखाने आये हो योग सिखाओ , इस गाने के लफ़ड़े में फंस कर फ़ज़ीती क्यों कराते हो ? पर नहीं साब अब हम प्रसिद्ध हो गये हैं जनता हमारा कच्चा-पक्का सब बर्दास्त कर लेगी .
रही बात गांधी की , तो उन पर क्या-क्या नहीं कहा गया और क्या-क्या नहीं लिखा गया . हम अपने व्यक्तित्व के अनुरूप छोटे-छोटे पैमानों से गांधी जैसे महामानव को मापते हैं . मापते रहें . गांधी कोई बताशा तो हैं नहीं कि आलोचना की बारिश में घुल जायेंगे .
अभी नेहरू के प्रति उनकी विशेष कमजोरी की चर्चा होती है. अगर वे सरदार पटेल को प्रधानमंत्री के लिये प्रस्तावित कर देते तो इतिहास इस बात पर चर्चा करता रहता कि कैसे एक गुजराती ने गुजराती का अनुचित समर्थन किया . तब उन्हें प्रान्तीयतावादी कहा जाता .
देश आज़ाद हुआ . दिल्ली में चमक-दमक ,उत्साह और आतिशबाज़ी के बीच नेहरू समेत सभी कांग्रेसी नेता आनंद के हिंडोले में झूल रहे थे . अपनी उपलब्धि से निस्पृह गांधी सांप्रदायिक सद्भाव के लिये अपनी ‘वन मैन आर्मी’ के साथ अकेले नोआखाली के हिंसक अंधेरे में अपना काम कर रहे थे . भाई सृजन शिल्पी उनमें मह्त्वाकांक्षा ढूंढ रहे हैं . अगर वे चाहते तो उन्हें इस देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री होने से कौन रोक सकता था . और मित्र सृजनशिल्पी उनमें महत्वाकांक्षा ढूंढ रहे हैं .
हमने आज़ादी के बाद गांधी को पूरी तरह भुला दिया . गांधी की तरफ पीठ किये देश पूरी तरह ‘नेहरूवियन मॉडल’ पर चल रहा था, पर हर छोटी-बड़ी गलती के लिये गालियां गांधी को पड़ती रहीं .
अविनय,कृतघ्नता और घनघोर अज्ञान का साक्षात मानवीकरण देखना हो तो हमारे देश में कमी नहीं . एक ढूंढो हज़ार मिलते हैं की तर्ज़ पर . एक क्षेत्र विशेष में अपने महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद बाबा रामदेव ने भी अपना नाम उन्हीं में लिखवा लिया है. गांधी कोई सत्ताधारी नहीं थे जो अपने लिये ‘लालू चालीसा’ लिखवा लेते . लोक गीत किसी देश और समाज की ‘सामूहिक स्मृति’ का हिस्सा होते हैं . इतने सामूहिक कि उनका कोई लेखक खोज पाना भी मुश्किल, बल्कि असम्भव होता है . जनुश्रुतियों और लोकगीतों का हिस्सा कोई कब और कैसे बनता है और उसमें असंख्य लोग कैसे और किस तरह अपना योगदान देते हैं , यह अभी बाबा रामदेव की समझ के बाहर है . यह चापलूसी और विपणन का समय है और वे वही समझते हैं
गांधी पर सही टिप्पणी कोई मंडेला कर सकता है जो इस हिंसक और व्याभिचारी समय में भी उनके बताये कठिन और अव्यवहारिक कहे जाने वाले रास्ते पर चलने का साहस करे और एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था पर विजय पाये . और यही नहीं — विजय पाने के उपरांत महज़ कुछ ही समय राष्ट्रपति रहने के उपरांत वह राष्ट्रपति पद अपने साथी को किसी पुष्प स्तवक की तरह भेंट कर दे . यह है गांधी होने का अर्थ . अगर पृथ्वी पर मंडेला हैं, तो समझिये गांधी जीवित हैं और प्रासंगिक हैं . पर इस अर्थ को समझने के लिये वैसा अकुंठ मन भी तो चाहिये .
तरह-तरह के पूर्वग्रहों , अर्धसत्यों और संदेहों से घिरे अविश्वासी मन में गांधी किसी संवाद की तरह नहीं, विवाद की तरह ही रह पायेंगे . पर वे हमारे मन में एक आलोड़न की तरह रहेंगे यह सत्य अटल है .
एक राष्ट्रनायक के रूप में गांधी की मानवसुलभ कमजोरियों पर या उनकी तथाकथित गलतियों पर भी चर्चा होनी चाहिये और होती रही है . पर मानवता की जाज्वल्यमान मशाल के रूप में उनका नाम लेते समय उस गरिमा का — उस आभा का — थोड़ा-बहुत नूर हममें भी झलकना चाहिये .
मन बहुत अशांत है अब समाप्त करता हूं .
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प्रिय भाई सृजनशिल्पी जी ,
इंटरनेट पर हो रही बहसें सामान्यतः मानविकी , विशेषकर इतिहास के किसी भी गम्भीर अध्ययन से रहित देश के उच्च मध्य वर्ग के बीच में प्रचलित अधकचरे और सुने सुनाये तथ्यों का ही प्रस्फुटन होता है . पर यह इस माध्यम के लोकतांत्रिक होने का एक प्रमाण भी है . अतः सामान्यतः मैं इस तरह के तथ्यों को नजरअंदाज ही करता हूं क्योंकि उन्हें कोई विशेष तवज्जो नहीं देता .
पर चूंकि यह प्रतिक्रिया सृजनशिल्पी जैसे प्रबुद्ध रचनाकार की कलम से आई थी तो थोडा दुख हुआ और प्रतिक्रिया देने का मन हुआ . पर आपका का ‘रिजोइंडर’ पढ कर बेहद सुकून मिला और बेचैनी दूर हुई . आपसे तो वैचारिक मतभेद रखना भी तोष देगा . दिक्कत बौद्धिक बहस और मतभेद से नहीं है, बद्धमूल पूर्वग्रहों और अविचार से है .
नरेन्द्र मोदी की छाया तले बैठकर , अपने व्यसाय के हानि-लाभ के मद्देनजर, गांधी को गरियाना एक बात है और उन पर गंभीर बहस करना दूसरी बात है . जब गांधी को उनके देश में — उस देश में जिसके लिये उन्होंने क्या-क्या नहीं सहा — गालियां पड रही हों तो उनका कुछ हिस्सा इस अदने से नागरिक को भी मिले तो यह उसके होने की सार्थकता नहीं तो और क्या है .
और फिर अब तो विवादी होना ही लोकप्रिय होना है . अतः जिस महापुरुष और आस्था के प्रतीक का जितना मानभंजन और मानमर्दन किया जा सके उतना देशत्वबोध और राष्ट्रबोध की चूलें हिलाने के लिये अच्छा है . यही पोस्ट-माडर्न और सबाल्टर्न के तहत हो रहा है .
अब बाजार देश और राष्ट्र की सीमाएं और राष्ट्रबोध विलुप्त कर देगा . नये आदमी की आस्था का केन्द्र बाजार होगा . और बाजार के लिये गांधी और गांधी के विचार न केवल गैरजरूरी हैं वरन उनके हितसाधन और लूट में बाधक भी हैं . अतः यह देखना भी रोचक होगा कि अधिकतर गांधीविरोधी क्या इस बाजारू लूट के आंशिक हिस्सेदार या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मोटी तनख्वाह पाने वाले मुलाजिम हैं ? उत्तर भारत के ग्रामीण इलाकों में एक कहावत है जो इन दिनों बार-बार याद आती हैः
‘ जैसा खावे अन्न , वैसा होवे मन ‘
मन बहुत तेजी से बदल रहा है . यह तो स्पष्ट दिख रहा है . हमारी सदाशयता से भरी बौद्धिक बहस भी यदि उस बाजार के ही हितसाधन का उपकरण बन जाये तो आश्चर्य कैसा !

गुरुवार, नवंबर 30, 2006

गीता पर गांधी

” आध्यात्मिक सत्य को समझाने के लिए कई बार भौतिक दृष्टान्त की आवश्यकता पडती है.यह भाइयों के बीच लड़े गए युद्ध का वर्णन नहीं है बल्कि हमारे स्वभाव में मौजूद ‘भले’ और ‘बुरे’ के बीच की लडाई का वर्णन है….मैं दुर्योधन और उसके दल को मनुष्य के भीतर की बुरी अन्त:प्रेरणा तथा अर्जुन और उसके दल को उच्च अन्त:प्रेरणा मानता हूं.हमारी अपनी काया ही युद्ध-भूमि है . इन दोनों खेमों के बीच आन्तरिक लडाई चल रही है और ऋषि-कवि उसका वर्णन कर रहे हैं.अन्तर्यामी कृष्ण,एक निर्मल हृदय में फुसफुसा रहे हैं . ”
” इति श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे —— नाम —अध्याय:”
हर अध्याय के अन्त में उक्त अध्याय का नाम,यथा अर्जुनविषादयोग,सांख्ययोग,कर्मयोग,ग्यानकर्मसंन्यासयोग,…. तथा अध्याय संख्या का जिक्र है. अलग,अलग संस्करणों में अध्यायों के नाम में अन्तर मिलते हैं,परन्तु ‘पुष्पिका’ में अन्तर नहीं रहता.यह पुष्पिका गौरतलब है.” इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के बीच योग के विग्यान या ब्रह्मविद्या जो उपनिषद के ब्रह्म का हिस्सा है और जिसे भगवान द्वारा गया गीत कहा जा सकता है का अध्याय समाप्त हुआ.’उपनिषद’ का शाब्दिक मूल,’जो शिष्य द्वारा गुरु के चरणों में बैठ कर सीखा जाय.इसे सांसारिक बन्धनों से मुक्ति के ग्यान के रूप में भी इसे समझा जा सकता है.इस प्रकार एक अर्थ में ब्रह्मविद्या और उपनिषद पर्यायवाची हुए.
गीता, इसप्रकार जीवन की कला है.
साम्प्रदायिक या हिन्सा में विश्वास रखने वालों को पहले अध्यात्म का नाश करना पडता है.

सोमवार, नवंबर 27, 2006

गांधी गीता और गोलवलकर

“जहाँ एक ओर गीता अहिंसा की बात करती है, वहीं दूसरी तरफ़ हिंसा को भी परिस्थिवश ज़रूरी मानती है। लेकिन गांधी जी ने गीता से केवल अहिंसा का सिद्धान्त लेकर बाक़ी सब कुछ नकारने की चेष्टा की है।” यहां
हिन्दी चिट्ठेबाजों में ऐसी समझदारी वालों की मौजूदगी के बारे में ‘एक खोजो हजार मिलेंगे,मत खोजो तो पुनीत - पंकज तो हैं ही’ वाली कानपुरिया शैली में कहा जा सकता है .कहावत में यह जोड़ा जा सकता है कि हर जमाने में ऐसे लोगों के बारे में ” … की कमी नहीं है जहां में ऐ-’ग़ालिब’ “.
गांधी की हत्या के कुछ समय पहले से देखा जाए तो ऐसे ‘अपने जी’ लोगों के ‘गुरुजी’ गोलवलकर प्रमुख थे जिनकी शताब्दी मनाई जा रही है . गांधी की गीता के बारे में समझदारी और प्रतीक - पंकज - गोलवलकर जैसों की समझदारी में जो फ़रक है वह स्पष्ट करने के लिए यहां गांधी जी के सचिव प्यारेलाल की प्रसिद्ध पुस्तक पूर्णाहुति चतुर्थ खण्ड से एक छोटा सा प्रसंग दिया जा रहा है .वैसे सितम्बर ,१९४७ में ‘संघ’ के अधिनायक गोलवलकर से गांधी जी की मुलाकात , विभाजन के बाद हुए दंगों में तथा गांधी - हत्या (संघियों के शब्दों में ‘गांधी - वध’ ) में संघ की भूमिका का विस्तार से वर्णन है .
--गोलवलकर से गांधी जी के वार्तालाप के बीच में गांधी - मंडली के एक सदस्य बोल उठे - ‘संघ के लोगों ने निराश्रित शिविर में बढ़िया काम किया है . उन्होंने अनुशासन , साहस और परिश्रमशीलता का परिचय दिया है.’ गांधी जी ने उत्तर दिया - ‘ परंतु यह न भूलिए कि हिटलर के नाजियों और मुसोलिनी के फ़ासिस्टों ने भी यही किया था.’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ‘ तानाशाही दृष्टीकोण रखनेवाली सांप्रदायिक संस्था’ बताया.(पूर्णाहुति,चतुर्थ खण्ड,पृष्ट १७)
अपने एक सम्मेलन में गांधीजी का स्वागत करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता ने उन्हें ‘हिन्दू धर्म द्वारा उत्पन्न किया हुआ एक महान पुरुष’ बताया . उत्तर में गांधीजी बोले - ‘ मुझे हिन्दू होने का गर्व अवश्य है.परंतु मेरा हिन्दू धर्म न तो असहिष्णु है और न बहिष्कारवादी है . हिन्दू धर्म की विशिष्टता , जैसा मैंने उसे समझा है, यह है कि उसने सब धर्मों की उत्तम बातों को आत्मसात कर लिया है . यदि हिन्दू यह मानते हों कि भारत में अ-हिन्दुओं के लिए समान और सम्मानपूर्ण स्थान नहीं है और मुसलमान भारत में रहना चाहें तो उन्हे घटिया दरजे से संतोष करना होगा… तो इसका परिणाम यह होगा कि हिन्दू धर्म श्रीहीन हो जाएगा . .. मैं आपको चेतावनी देता हूं कि अगर आपके खिलाफ लगाया जानेवाला यह आरोप सही हो कि मुसलमानों को मारने में आपके संगठन का हाथ है तो उसका परिणाम बुरा होगा.’
इसके बाद जो प्रश्नोत्तर हुए उसमें गांधीजी से पूछा गया - ‘क्या हिन्दू धर्म आतताइयों को मारने की अनुमति नहीं देता ? यदि नहीं देता तो गीता के दूसरे अध्याय में श्रीकृष्ण ने कौरवों का नाश करने का जो उपदेश दिया है ,उसके लिए आपका क्या स्पष्टीकरण है ?’
गांधीजी ने कहा -’पहले प्रश्न का उत्तर ‘हां’ और ‘नहीं’ दोनों है . मारने का प्रश्न खडा होने के पहले हम इस बात का अचूक निर्नय करने की शक्ति अपने में पैदा करें कि आततायी कौन है ? दूसरे शब्दों में , हमें ऐसा अधिकार मिल सकता जब हम पूरी तरह निर्दोष बन जांए . एक पापी दूसरे पापी का न्याय करने अथवा फ़ांसी लगाने के अधिकार का दावा कैसे कर सकता है ? रही बात दूसरे प्रश्न की.यह मान भी लिया जाए कि पापी को दंड देने का अधिकार गीता ने स्वीकार किया है , तो भी कानून द्वारा उचित रूप में स्थापित सरकार ही उसका उपयोग भली भांति कर सकती है .अगर आप न्यायाधीश और जल्लाद दोनों एक साथ बन जायें तो सरदार और पंडित नेहरू दोनों लाचार हो जांएगे.. उन्हें आपकी सेवा करने का अवसर दीजिए,कानून को अपने हाथों में ले कर उनके प्रयत्नों को विफल मत कीजिए .[ सम्पूर्ण गांधी वांग्मय , खण्ड : ८९]

शुक्रवार, नवंबर 24, 2006

कचरा खाद्य : मानकों का कचरा

कचरा खाद्य उत्पादों को दुनिया भर में बेचते रहने के लिए कोला कम्पनियों के लिए यह बहुत जरूरी हो जाता है कि उनकी दखल और साँठ गाँठ राजनीति , विश्व स्वास्थ्य संगठन , विग्यापन और टेलीविजन कम्पनियों , विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों , बैंकों , कोडेक्स जैसी खाद्य मानक निर्धारित करने वाली अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं , रसायन कम्पनियों तथा अन्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से हो . कोका - कोला और पेप्सीको ने अपनी करतूतों को बदस्तूर जारी रखने के लिए ऐसी संस्थाओं से औपचारिक सम्बन्ध बनाए हैं . मनुष्य और प्रकृति के शोषण व दोहन की प्रक्रिया में इन गठजोड़ों का परस्पर सहयोग रहता है . इस मिलीभगत के परिणाम आखिरकार आम आदमी के अहित में होते हैं तथा इनसे कम्पनियों के मुनाफ़े का इजाफ़ा होता है . कुछ उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाएगा .
विश्व स्वास्थ्य संसद ( विश्व स्वास्थ्य संगठन की आम सभा ) ने १९ अप्रैल २००४ को ‘ आहार , शारीरिक गतिविधि और स्वास्थ्य पर अन्तर्राष्ट्रीय रणनीति का मसविदा ‘ पेश किया है . कचरा - खाद्य और पेय उद्योग तथा विग्यापन कम्पनियाँ इस लचर मसविदे से खुश हैँ क्योंकि यह सदस्य देशों के बच्चों को लक्ष्य कर बनाए गए कचरा खाद्य के विग्यापनों पर प्रतिबन्ध लगाने की नीति की सिफ़ारिश नहीं करता है . टेलिविजन कम्पनियाँ इस बात पर गदगद होंगी कि इस नीति में मोटापा बढ़ाने में टेलिविजन की भूमिका का जिक्र नही है . प्रतिदिन खुराक में चीनी की खपत कुल कैलोरी खपत का दस फ़ीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए , यह कहने से बचा गया है . फलों और सब्जियों के उत्पादन और बिक्री को बढ़ावा देने की बात अमेरिका और कचरा खाद्य उद्योग के विरोध के चलते इस नीति में शामिल नहीं की गयी है . अंतर्राष्ट्रीय रणनीति में यह जरूर शामिल करना पड़ा है कि खाद्य और पेय विग्यापनों द्वारा बच्चों की अनुभवहीनता और भोलेपन का दोहन नहीं होना चाहिए तथा अस्वास्थ्यकर खुराक - आदतों को प्रोत्साहित करने वाले विग्यापन-संदेशों को बढ़ावा न दिया जाए . सदस्य देशों की सरकारों से यह जरूर कहा गया है कि ‘ स्कूलों में ज्यादा चीनी , ज्यादा नमक और ज्यादा वसा वाले खाद्यों की उपलब्धता को सीमित किया चाहिए ‘ .
खाद्य मानकों के अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारण हेतु गठित संगठन ‘ कोडेक्स एलिमेन्टारियस ‘ में यह कम्पनियाँ अमेरिका का प्रतिनिधित्व करती रही हैं . नतीजन इन पेयों में प्रयुक्त अखाद्य फॊस्फोरिक एसिड को अनुमति मिली हुई है .
कशी हिन्दू विश्वविद्यालय के भूभौतिकी विभाग को कोका - कोला कम्पनी ने एक शोध अनुदान दिया है . इस ‘ शोध ‘ द्वारा कम्पनी पूर्वी उत्तर प्रदेश में भूगर्भ जल की उपलब्धता और पानी की विभिन्न सतहों की गहराइयों की जानकारी प्राप्त करेगी . भारत में लगभग पूरी तरह मुफ़्त पानी प्राप्त करने वाली कम्पनियाँ इस प्रकार की शोध योजनाओं की सूचनाओं के आधार पर नए संयंत्र लगा कर विस्तार करती हैं . प्लाचीमाड़ा और मेंहदीगंज में शुरु हुए आन्दोलनों के कारण भूगर्भ जल के दोहन का मुद्दा चर्चा का विषय बना है तथा संयुक्त संसदीय समिती तथा सर्वोच्च न्यायालय में भी यह चर्चा का मसला है .
इन दोनों कम्पनियों की करतूतें विश्वव्यापी हैं . यह कम्पनियाँ उपभोक्तावादी संस्कृति की प्रतीक बन चुकी हैं . गरीब देशों में प्राकृतिक संसाधन के दोहन और श्रम के शोषण द्वारा यह अपनी लूट की मात्रा को बढ़ा लेती हैं .
इनके विरोध का वैश्वीकरण हो , यह वक्त का तकाजा है .

बुधवार, नवंबर 22, 2006

दोषसिद्ध रंगभेद

किन्हीं उपभोक्तावादी उत्पाद की निर्माता कम्पनी की मंशा यदि पूरी दुनिया के बाजार पर छा जाने की हो तब क्या वे रंगभेद का पालन कर सकती हैं ? सरसरी तौर पर सोचने पर लगेगा कि वे किसी भी समूह से भेद-भाव करने से बचने का प्रयास करेंगी . लेकिन ऐसा सोचना सच्चाई से परे है.
कोका - कोला कम्पनी के अटलान्टा , अमेरिका स्थित मुख्यालय के काले कर्मचारियों ने १९९९ में कम्पनी के ख़िलाफ़ रंग भेद का मुकदमा दाखिल किया . अपने दावे को साबित करने के लिए इन कर्मचारियों ने दमदार आंकडे और किस्से प्रस्तुत किए . मसलन १९९८ में अफ़्रीकी - अमेरिकी कर्मचारियों की औसत तनख्वाह ४५,२१५ डॊलर थी जबकि गोरे कर्मचारियों की औसत तनख्वाह ७२,०४५ डॊलर थी . हांलाकि अफ़्रीकी-अमेरिकी कर्मचारी कुल संख्या का १५ फ़ीसदी हैं पर्न्तु सर्वोच्च वेतनमान में उनका प्रतिनिधित्व नगण्य है . कोका - कोला कम्पनी में पदोन्नति के लिए मूल्यांकन में व्यवस्थापकों के व्यक्तिपरक विवेक की अत्यधिक गुंजाइश की छूट है , जिसके फलस्वरूप मूल्यांकन में रंगभेद प्रकट होता है . इस मूल्यांकन पद्धति के कारण ही ऊपर के वेतनमानों में काले लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं हो पाता है . कोका - कोला के अधिकारी कई महीनों तक इन आरोपों को नकारते रहे .
अप्रैल , २००० में तीस मौजूदा व पूर्व कर्मचारियों ने अपने मुकदमे के प्रचार तथा विवाद के न्यायपूर्ण निपटारे की मांग के साथ कम्पनी के अटलांटा स्थित मुख्यालय से एक बस पर सवार हो कर ‘ न्याय - यात्रा ‘ निकाली .यात्रा विलिमिंग्टन तक की थी जहां कम्पनी के शेयरधारकों की वार्षिक बैठक होने वाली थी . कोका - कोला कम्पनी ने अन्तत: १९ करोड ३० लाख डॊलर पर समझौता कर लिया . अमेरिकी रंगभेद - मुकदमों के इतिहास में यह सबसे बडी समझौता राशि है . समझौते के तहत पीडित कर्मचारियों को ११ करोड ३० लाख डॊलर , काले कर्मचारियों के वेतन बढाने के लिए ४ करोड ३५ लाख डॊलर , कम्पनी के नियुक्ति एवं पदोन्नति कार्यक्रम के मूल्यांकन व नियंत्रण के मद में ३ करोड ६० लाख डॊलर तथा वादी के कानूनी खर्च के मद में दो करोड डॊलर देने पडे .
दक्षिण अफ़्रीका में जब रंगभेद चरम पर था तथा उस पर दुनिया के सभी देशों ने ‘ व्यापारिक प्रतिबन्ध ‘ लगा दिए थे तब भी पेप्सीको व कोका - कोला द्वारा अपने पेय वहां भेजे जा रहे थे . बर्मा में लोकतंत्र बहाली आन्दोलन की नेता आंग सांग सू की द्वारा तानाशाही शासन का व्यावसायिक बहिष्कार करने की अपील के तहत कुछ संगठनों ने अभियान चलाया था . पेप्सीको द्वारा लम्बे समय तक बर्मा में व्यवसाय जारी रखने को मुद्दा बना कर उसके उत्पादों के बहिष्कार का अभियान भी इन संगठनों ने चलाया था . कम्पनी ने बदनामी से बचने के लिए अमेरिकी विदेश नीति का हवाला दे कर बर्मा से अन्ततोगत्वा कामकाज समेट लिया .
अन्तरराष्ट्रीय खाद्य मानकों में कचरा खाद्य खेमे की दख़ल : अगली प्रविष्टि

मंगलवार, नवंबर 21, 2006

श्रमिकों की हत्या , उत्पीडन

इन दोनों बहुरष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा गरीब देशों की इकाइयों में मजदूरों के साथ अत्यन्त अमानवीय कृत्य किए जाते हैं . दक्षिण अमेरिकी देश कोलोम्बिया में कोका - कोला कम्पनी द्वारा अपने मजदूरों पर दमन और अत्याचार सर्वाधिक चर्चित है . कोलोम्बिया की राष्ट्रीय खाद्य - पेय कामगार यूनियन - सिनालट्राइनाल ( SINALTRAINAL ) के अनुसार कोका - कोला की दक्षिणपन्थी सशस्त्र अर्धसैनिक गुंडा वाहिनी से सांठ - गांठ है तथा मजदूर नेताओं की हत्याओं का लम्बा सिलसिला , अपहरण , यूनियन गतिविधियों को कुचलने के लिए षडयंत्र ही कम्पनी की मुख्य रणनीति है . इन गिरोहों में कुछ पेशेवर सैनिक होते हैं और कुछ स्थानीय गुंडे . कोलोम्बिया में अमीर जमींदारों और नशीले पदार्थों के अवैध व्यवसाइयों ने ८० के दशक में वामपंथी विद्रोहियों का मुकाबला करने के लिए इनका गठन किया था . कोलोम्बिया के कई कोका - कोला संयंत्रों में इन्होंने अपने अड्डे या चौकियां बना ली हैं . इन संयंत्रों को वैश्वीकरण का प्रतीक मान कर वामपंथी विद्रोही इन पर हमला कर सकते हैं - यह बहाना देते हुए उनकी ‘रक्षा ’ हेतु वे अपनी मौजूदगी को उचित बताते हैं . १९८९ से अब तक कोलोम्बिया के कोका - कोला संयंत्रों में कार्यरत आठ मजदूर नेताओं की हत्या इन गिरोहों द्वारा की जा चुकी है .
वैसे,कोलोम्बिया में यूनियन नेताओं पर हिंसा एक व्यापक और आम घटना है . यह कहा जा सकता है कि कोलोम्बिया में श्रमिक संगठन बनाना दुनिया के अधिकतर मुल्कों से कहीं ज्यादा दुरूह काम है . एक अनुमान के अनुसार , १९८६ से अब तक वहां ३,८०० ट्रेड यूनियन नेताओं की हत्या हो चुकी है . श्रमिकों के अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के अनुमान के अनुसार , दुनिया भर में होने वाली हर पांच ट्रेड यूनियन कार्यकर्ताओं की हत्याओं में से तीन कोलोम्बिया में होती हैं .
कोलोम्बिया के कोरेपो स्थित कोका - कोला संयंत्र के यूनियन की कार्यकारिणी के सदस्य इसिडरो गिल की हत्या का मामला अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुआ है . घटनाक्रम इस प्रकार है . ५ दिसम्बर १९९६ , की सुबह एक अर्धसैनिक गिरोह से जुडे दो लोग मोटरसाइकिल से कोरेपो संयंत्र के भीतर पहुंचे . इन लोगों ने यूनियन नेता इसिडरो गिल पर दस गोलियां चलाईं जिससे उनकी मौत हो गयी . इसिडरो के सहकर्मी लुई कार्डोना ने बताया कि मैं काम पर था जब मैंने गोलियों की आवाज सुनी और इसिडरो के गिरते हुए देखा . मैं उसके पास दौड कर पहुंचा लेकिन तब तक उसकी मृत्यु हो चुकी थी . उसी रात यूनियन के दफ़्तर पर हमला हुआ . सभी दस्तावेज लूट लिए गये तथा दफ़्तर को जला दिया गया . कुछ घण्टों तक इस अर्धसैनिक गिरोह के अधिकारियों ने कार्डोना को रोक कर रखा . यहां से भाग निकलने में वह सफल रहा और स्थानीय पुलिस थाने में उसे शरण मिली . एक सप्ताह बाद इस अर्धसैनिक गिरोह के लोग फिर इस संयंत्र पर पहुंचे . इसिदरो गिल से जुडे सभी ६० मजदूरों को एक लाइन में खडा कर दिया गया और पहले से तैयार इस्तीफ़ों पर दस्तख़त करने का आदेश दिया गया . सभी ने दस्तख़त कर दिए . दो महीने बाद सभी कर्मचारियों ( जो सभी यूनियन से नहीं जुडे रहे ) को बर्खास्त कर दिया गया . २७ वर्षीय इसिडरो गिल इस संयंत्र में आठ वर्षों से कार्यरत था . उसकी विधवा एलसिरा गिल ने अपने पति की हत्या का विरोध किया तथा कोका - कोला से मुआवजे की मांग की . सन २०० में एलसिरा की भी इसी गिरोह ने हत्या कर दी . मृत दम्पति की दो अनाथ बेटियां रिश्तेदारों के पास छुप कर रहती हैं . कुछ समय बाद कोलोम्बिया की एक अदालत ने इसिडरो की हत्या के आरोपी लोगों को बरी कर दिया .
जुलाई २००१ में अमेरिका की एक संघीय जिला अदालत में ‘विदेशी व्यक्ति क्षतिपूर्ति कानून ‘ के तहत मुकदमा कायम कर दिया गया . इसिडरो के परिजन व सिनालट्राइनाल के प्रताडित पांच यूनियन नेताओं की तरफ़ से वाशिंग्टन स्थित ‘अन्तर्राष्ट्रीय श्रम - अधिकार संगठन ‘ तथा अमेरिकी इस्पात कर्मचारी संयुक्त यूनियन ने यह मुकदमा किया है . मुद्दई पक्षों ने आरोप लगाया कि कोका - कोला बोतलबन्द करने वाली कम्पनी ने अर्धसैनिक सुरक्षा बलों से सांठ- गांठ की है. इसके तहत चरम हिन्सा , हत्या , यातना तथा गैर कानूनी तरीके से निरुद्ध रखकर यूनियन नेताओं को ख़ामोश कर दिया जाता है . इसके अलावा यह मांग की गयी है कि कोका - कोला अपनी आनुषंगिक बोतलबन्द करने वाली कम्पनी की इन कारगुजारियों की जिम्मेदारी ले तथा इन अपराधों का हर्जाना भरे . इस मुकदमे में कोका -कोला के अलावा उसकी दो बोतलबन्द करने वाली आनुषंगिक कम्पनियों बेबीदास तथा पैनामको को प्रतिवादी बनाया गया है .
इस मामले में ३१ मार्च , २००३ को अदालत ने फैसला दिया कि बोतलबन्द करने वाली दोनों कम्पनियों के खिलाफ़ अमेरिकी अदालत में मामला चलने योग्य है तथा ‘ यातना पीडित संरक्षण कानून ‘ के तहत भी मुद्दईगण दावा कर सकते हैं .इस निर्णय में कोका - कोला कम्पनी तथा कोका - कोला - कोलोम्बिया को इस आधार पर अलग रखा गया कि बोतलबन्द करने की बाबत हुए समझौते के अन्तर्गत श्रम-सम्बन्ध नहीं आते हैं . बहरहाल , मुकदमा करने वाली यूनियन व मजदूर नेता फैसले के इस हिस्से से सहमत नही हैं चूंकि कोका - कोला ने २००३ में बोतलबन्द करने वाली पैनामको का अधिग्रहण कर लिया था . मजदूर नेताओं का मानना है कि कोका - कोला के एक इशारे से यह आतंकी अभियान रुक सकता है .फिलहाल २१ अप्रैल २००४ को कोका -कोला को मुकदमे में पक्ष माने जाने की प्रार्थना के साथ संशोधित मुकदमा कायम कर दिया गया है .
यह गौरतलब है कि बडी बडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के परिसंघ द्वारा यह मांग उठाई जाती रही है कि निगमों को इसके कानून के दाएरे से अलग करने के लिए कानून में संशोधन किया जाना चाहिए . बहरहाल अमेरिकी उच्चतम न्यायालय यह मांग अमान्य कर चुका है . यातना पीडित संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत निगमों को ‘व्यक्ति’ न मानने का तर्क भी अदालत ने अस्वीकृत कर दिया है . यह गौरतलब है की इसी अमेरिकी कानून के अन्तर्गत भोपाल गैस पीडित महिला उद्योग संगठन की साथियों ने हत्यारी बहुराष्ट्रीय कम्पनी यूनियन कार्बाइड एवं उसके तत्कालीन अध्यक्ष एन्डर्सन के खिलाफ़ मुकदमा ठोका है .
[अगली प्रविष्टि : कोला कम्पनियों का दोषसिद्ध रंगभेद ]

सोमवार, नवंबर 20, 2006

स्कूलों में शीतल पेय

बच्चों के स्वास्थ्य पर शीतल पेयों के प्रभाव के सन्दर्भ में अमेरिकी बाल-रोग अकादमी का नीति वक्तव्य के प्रमुख अंश :
” अधिक मात्रा में शीतल पेय पीने से उत्पन्न स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए स्कूल बोर्डों को एहतियात के तौर पर इनकी बिक्री पर रोक लगानी चाहिए.बच्चों की रोजाना खुराक में ये पेय अतिरिक्त चीनी का मुक्य स्रोत हैं . इन पेयों के १२ आउन्स के एक टिन अथवा मशीन से परोसी गयी इतनी ही मात्रा में १० चम्मच चीनी का प्रभाव रहता है . ५६ से ८५ प्रतिशत स्कूली बच्चे हर रोज कम से कम एक बार यह पेय अवश्य पीते हैं . शीतल पेय पीने की मात्रा बढने के साथ - साथ दूध पीने की मात्रा घटती जाती है . इन चीनीयुक्त शीतल पेयों के पीने से मोटापा बढने का सीधा सम्बन्ध है.मोटापा आज-कल अमेरिकी बच्चों की प्रमुख समस्या है . अन्य बीमारियों में दांतों में गड्ढे पडना तथा दंत वल्क का क्षरण प्रमुख हैं . स्कूल स्थित दुकानों , कैन्टीनों व खेल - कूद आदि के मौकों पर यह उत्पाद सर्वव्यापी हो जाते हैं . स्कूलों की आय का पर्याप्त प्रमाण इन पेयों की बिक्री से आता है परन्तु इनके विकल्प के तौर पर पानी , फलों के रस तथा कम-वसा युक्त दूध बिक्री हेतु मुहैया कराया जा सकता है ताकि आमदनी भी होती रहे.”
इस नीति में इस बात का संकल्प भी है कि बाल-रोग चिकित्सक स्कूलों से इन मीठे शीतल पेयों के खात्मे के लिए प्रयत्न करेंगे . इसके लिए यह जरूरी होगा कि वे स्कूल के प्रशासनिक अधिकारियों , अपने मरीजों व अभिवावकों को शीतल पेय पीने के दुष्परिणामों के बारे में शिक्षित करें .
इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि स्कूली-बच्चों तथा किशोरों पर शीतल पेयों के दुष्प्रभावों की बाबत अपनी बिगडी छवि में सुधार के लिए इन कम्पनियों ने ‘अमेरिकी बाल दन्त चिकित्सा अकादमी ‘ नामक संगठन को १० लाख डॊलर का अनुदान दे दिया तथा ‘राष्ट्रीय शिक्षक अभिवावक सम्घ’ की भी अनुदान दाता बन गयीं . बाल सरोकारों वाले ऐसे सम्मानित समूहों के साथ तालमेल बैठाने के बावजूद स्कूलों में शीतल पेयों के विरुद्ध अभियान जो पकड रहा है . कैलीफोर्निया राज्य ने एक कानून बना कर स्कूलों में कचरा खाद्य और शीतल पेयों पर लगा दी है . बीस अन्य राज्यों द्वारा ऐसी रोक लगाने पर विचार विमर्श शुरु हो चुका है.फिलादेल्फिया के स्कूल डिस्ट्रिक्ट के तहत २,१४,०० विध्यार्थी आते हैं.यहां की बोर्ड ने फैसला किया है कि इन स्कूलों में १ जुलाई २००४ से इन पेयों की जगह अब फलों के रस , पानी तथा दूध की बिक्री होगी .
[कोला कम्पनी द्वारा श्रमिकों की हत्या और उत्पीडन : अगली प्रविष्टि ]

कोला कम्पनियों की करतूतें

लेखक : अफ़लातून
”उपभोग जीवन की बुनियादी जरूरत है . इसके बगैर न जीवन सम्भव है और न वह सब जिससे हम जीवन में आनन्द का अनुभव करते हैं.
इसके विपरीत ऐसी वस्तुएं , जो वास्तव में मनुष्य की किसी मूल जरूरत या कला और ग्यान की वृत्तियों की दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं लेकिन व्यावसायिक दृष्टि से प्रचार के द्वारा उसके लिए जरूरी बना दी गयी हैं ,उपभोक्तावादी संस्कृति की देन हैं . ”
- सच्चिदानन्द सिन्हा
कोला पेय पूरी तरह उपभोक्तावादी संस्कृति की देन हैं . पूरी तरह अनावश्यक और नुकसानदेह होने के बावजूद इनका एक बहुत बडा बाजार है . वर्ष २००२ में कोका - कोला कम्पनी की शुद्ध आय ३०५ करोड डॊलर थी और पेप्सीको की १९७ करोड डॊलर . शुद्ध आय में इन कम्पनियों के प्रमुखों को मिलने वाली धनराशि शामिल नही होती . शेयर , बोनस तथा अन्य मुआवजों को जोडने पर सन १९९८ के पेप्सीको प्रमुख रोजर एनरीको की वार्षिक आमदनी ११,७६७,४२१ डॊलर थी जबकि उनका ‘वेतन’ मात्र एक डॊलर था . अपने - अपने वेतन या मजदूरी के बल पर इस रकम की बराबरी करने में अमरीकी राष्ट्रपति को ५८ वर्ष लगते,औसत अमरीकी मजदूरी पाने वाले अमरीकी मजदू ४६१ वर्ष लगते तथा अमेरिका न्यूनतम मजदूरी पाने वाले मजदूर को १०९८ वर्ष लग जाते . १९९१ में कोका कोला के प्रमुख डगलस आईवेस्टर की वार्षिक आय ३३,५९३,५५२ डॊलर थी.अमेरिका में न्यूनतम मजदूरी पाने वाले मजदूर को यह रकम कमाने में ३१३६ वर्ष लगते ,औसत मजदूरी पाने वाले को १३१७ वर्ष तथा अमरीकी राष्ट्रपति को १६७ वर्ष लगते . कोका - कोला के प्रमुख डगलस डाफ़्ट को हजारों कर्मचारियों की छंटनी करने के पुरस्कारस्वरूप ३० लाख डॊलर बोनस के रूप में दिए गये.समाजवादी चिन्तक सच्चिदानन्द सिन्हा के शब्दों में ‘उदारीकरण के आर्थिक दर्शन में मजदूरों की छंटनी औद्योगिक सक्षमता की अनिवार्य शर्त है’ . भारत में इन दोनों कम्पनियों के उत्पादो के प्रचार हेतु बनी चन्द मिनट की एक व्ग्यापन फिल्म का खर्च करोडों रुपये में आता है . इनमें काम करने वाले क्रिकेट खिलाडियों और सीने कलाकारों को कुच करोड रुपए तक मिल जाते हैं .जाहिर है इन कम्पनियों की शुद्ध आय इन खर्चों को काटने के बाद की है .इन पेयों की जो कीमत ग्राहकों से वसूली जाती है उसमें कम्पनी की आय और खर्च दोनों शामिल हैं.
पोषण के हिसाब से निकम्मे बल्कि नुकसानदेह इन उत्पादों के विपणन की रणनीति आक्रामक होती है . हाल के वर्षों में बच्चों के लिए लेखिका जे . के . राउलिंग द्वारा लिखी गई सबसे लोकप्रिय हैरी पॊटर पुस्तकमाला पर आधारित फिल्मों के एकमेव विपणन अधिकार के लिए कोका - कोला ने टाइम वार्नर के आनुषंगिक समूह वार्नर ब्रदर्स को १५ करोड डॊलर दिए . स्पष्ट तौर पर बच्चों को और अधिक मात्रा में अपना शीतल पेय पिलाने के लिए फांसने के मकसद से ही यह निवेश किया गया . जार्ज वाशिंग्टन विश्वविद्यालय के मेडिकल सेण्टर की बाल चिकत्सक डॊ . पेशन्स व्हाइट के अनुसार ‘कोका - कोला ने हैरी पॊटर के जादू के सहारे अपने पेयों की खपत बढाने का घृणित काम किया है . इससे मोटापे से पीडित किशोरों की संख्या दुगुनी हुई है ‘ . उनके तथा अन्य चिकित्सकों के अनुसार बचपन में मोटापे की यह महामारी अन्तत: मधुमेह की महामारी का रूप ले लेगी . बच्चों और किशोरों में शीतल पेयों की बिक्री सुनिश्चित करने के लिए इन दोनों कम्पनियों द्वारा कैनाडा और अमेरिका के पब्लिक ( अमेरिका में सरकारी स्कूलों को ही पब्लिक स्कूल कहा जाता है . भारत के पब्लिक स्कूलों से विपरीत . ) स्कूलों से अनुबन्ध काफी चर्चित रहे हैं . अतिरिक्त आमदनी के लिए स्कूलों ने यह अनुबन्ध किए हैं . इन दोनों कम्पनियों द्वारा शिक्षा के प्रयासों को ‘बढावा’ देने की डींग हांकने के पीछे मुनाफा कमाने और बच्चों में अपने पेयों की लत डालना ही असली मकसद होता है . उदाहरण के तौर पर एक क्षेत्र के अनुबन्ध को लें . कोलेरैडो स्प्रिंग्स स्कूल डिस्ट्रिक्ट के प्रत्येक स्कूल को इनमें से एक कम्पनी प्रतिवर्ष ३,००० से २५,००० डॊलर देगी बशर्ते यह स्कूल वर्ष में ७०,००० पेटियां शीतल पेय की बिक्री कर ले . प्रथम वर्ष बीतने के बाद यह स्कूल जब २१,००० पेटियां ही बेच पाया तब स्कूल बोर्ड ने सघन बिक्री अभियान चलाया जिसके तहत प्राचार्यों द्वारा क्लास के अन्दर पेय पीने की अनुमती दी गयी .
अमेरिकी कषि विभाग के सर्वेक्षणों के अनुसार २० वर्ष पहले किशोरों में दूध की खपत इन पेयों से दुगुनी थी ,अब पेयों की खपत दूध से दुगुनी हो गई है .
स्कूलों द्वारा किए गए अनुबन्धों की आलोचना और उसका विरोध भी हुआ है . कैनाडा की स्तम्भकार मार्गरेट वैन्ट अपने एक लेख (टोरेन्टो ग्लोब एन्ड मेल,२७ नवम्बर,२००३) में लिखती हैं,’चले आओ, लडके और लडकियों , अपने लिए शीतल पेय ले जाओ . इसके लिए व्यायामशाला के ठीक सामने एक चमचमाती नई मशीन लगा दी गयी है . तुम्हारे दांत इनसे जरूर सड जाएंगे , जितने तुम मोटे हो उससे कुछ अधिक फैल जाओगे , और साथ में मिलेगी एक तगडी झनझनाहट . मगर यहां इन सब से ज्यादा जरूरी चीज़ दांव पर लगी है-पैसा ! तुम्हारा स्कूल पैसों का भूखा है और इसीलिए हमने कम्पनी से एक धांसू व प्रेरणादायक अनुबन्ध कर लिया है . अपने छात्रों के बीच इन्हें बिक्री का एकाधिकार दे कर हमें तगडा बोनस भी मिलेगा . बिक्री का ३० प्रतिशत तो हमे मिलेगा ही , निर्धारित लक्ष्य पूरा करने पर भी बोनस मिलेगा . जितना तुम पीओगे उतना पैसा हम कमाएंगे ‘ .
वे आगे लिखती हैं, ‘ कैनेडा के स्कूल बोर्डों द्वारा इन कम्पनियों से किए गए इन फाएदे के सौदों के बारे में शायद तुम सुन चुके होगे . हमें तो इनके पूरे विवरण मिल गये हैं . ओन्टारियो ( जिसके अन्तर्गत कई स्कूल आते हैं) पील स्कूल बोर्ड को १० साल के अनुबन्ध से अब तक ५५ लाख डॊलर मिल चुके हैं . एक अनुमान के अनुसार अमेरिका के ४० प्रतिशत स्कूल बोर्डों ने शीतल पेय अनुबन्ध किये हैं ‘ .
कैनेडा की शिक्षा मंत्री क्रिस्टी क्लार्क ने ‘वैनकूवर सन ‘ को बताया (१८ नवम्बर,२००३) ‘ मेरे पास फोन-कॊलों और ई-मेलों की बाढ-सी आ गयी है तथा सडक पर रोक कर भी लोग मुझसे कह रहे हैं कि वे चाहते हैं कि उनके बच्चों के स्कूलों को ‘कचरा खाद्य’ (जंक फ़ूड) से मुक्त कराया जाए . ब्रिटिश कोलम्बिया स्कूल ट्रस्टी एसोशियेशन के अध्यक्ष गार्डेन ने कहा कि छात्रों को क्या बेचा जाए इसका फैसला स्थानीय शिक्षकों को लेना चाहिए न कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को .
विरोध के मुखर स्वरों प्रभावित होकर इन कम्पनियों ने ६ जनवरी, २००४ को घोषणा की कि आगामी सत्रारम्भ से कैनेडा के प्राथमिक एवं माध्यमिक पाठशालाओं में शीतल पेयों की बिक्री रोक देंगे . हाई स्कूलों पर यह यह लागू नहीं किया गया .
जनवरी २००४ में अमेरिकी बाल-रोग अकादमी ने ‘स्कूलों में शीतल पेय ‘ विषयक एक नीति वक्तव्य जारी किया है .अकादमी की शोध -पत्रिका ‘पीडियाट्रिक्स’ में यह प्रकाशित किया गया है . बच्चों के स्वास्थ्य पर शीतल पेयों के प्रभाव के सन्दर्भ में यह एक महत्वपूर्ण वक्तव्य है.[नीति वक्तव्य के प्रमुख अंश अगली प्रविष्टि में ]

रविवार, नवंबर 19, 2006

पानी की जंग : गोलबन्दिय़ां

तीसरी दुनिया के देशों में पानी के निजीकरण की कोशिशों को जनता के तीव्र प्रतिरोध का सामना करना पड रहा है.इन तीन बडी कम्पनियों ने आपस में तालमेल बनाया है तथा निजीकरण की पक्षधर नीति के निर्धारण हेतु विश्व बैंक और अमीर देशों की आर्थिक मदद से इन कम्पनियों ने कई गठबंधन बना रखे हैं.हर तीन साल पर आयोजित होने वाले विश्व जल मंच (वर्ल्ड वॊटर फोरम) के आयोजन में इन संगठनों की मुख्य भूमिका होती है . व्यापार जगत और सरकारों के नीति निर्धारकों के इस जमावडे में भी आन्दोलनकारियों ने विरोध की आवाजें बुलन्द की हैं.पिछले साल मार्च महीने में जापान के क्योटो शहर में दुनिया भर के जन-आन्दोलनों के प्रतिनिधियों ने माइक कब्जे में ले कर निजीकरण के दुष्परिणामों की दास्तान सुनाई.मेक्सिको के कान्कुन शहर का एक आन्दोलनकारी अपने हाथ में काला और बदबूदार पानी से भरा गिलास ले कर मंच पर चढ गया.उसने बताया कि यह पानी वह अपने घर की टोटी से भर कर लाया है और उस नगर निगम का की जल - आपूर्ति सुवेज कम्पनी द्वारा होती है.उसने आयोजकों से निवेदन किया कि सुवेज के मुख्य कार्यपालक अधिकारी को मंच पर निमंत्रित कर वह गन्दा व बदबूदार पानी पीने को कहा जाए.
पानी व्यवसाय की यह बडी कम्पनियां अब रणनीति बदल रही हैं तथा उत्तरी अमेरिका व यूरोप के ज्यादा सुरक्षित बाजार में निवेश कर रही हैं.संयुक्त राज्य अमेरिका की जल आपूर्ति की सेवा का पचासी प्रतिशत अभी भी सार्वजनिक क्षेत्र में है. इन तीन बडी कम्पनियों ने आगामी दस सालों में अमरीका की सत्तर फ़ीसदी जल-आपूर्ति-सेवा पर कब्जा करने का लक्ष्य रखा है.अमरीका के छोटे कस्बों और समुदायों के बीच जल आपूर्ति करने वाली कई कम्पनियों को इन तीन बडी कम्पनियों ने खरीद लिया है.
छोटी-छोटी कम्पनियों के विलय से बनी विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनी जब नगर निगमों की जल -आपूर्ति अपने हाथों में लेती है तब ऐसा लगता है कि यह सिर्फ़ स्थानीय समस्या है.परन्तु इन्हीं कार्पोरेट खिलाडियों द्वारा दुनिया भर में लोगों के साथ करतूतें की जा रही है उसके मद्दे नजर जनता को भी आपस में सम्पर्क बढाना चाहिए तथा समन्वय बनाना चाहिए ताकि हम एक-दूसरे के अनुभवों से सीख ले सकें तथा सीधे हमले की शुरुआत कर सकें.
हमारी स्थानीय कार्रवाइयां तीन जागतिक उसूलों से संचालित होनी चाहिए.पहला उसूल है कि जल संरक्षण की आवश्यकता व पानी की कमी को हल्के में नहीं लिया जा सकता . पानी कहीं प्रचुर है तो कहीं इसका घोर अभाव है इसलिए जल संरक्षण को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी.पानी एक मौलिक मानवाधिकार है ,यह दूसरा उसूल है.जीने के लिए पानी जरूरी है.सभी लोगों को समानरूप से पानी मिलना चाहिए उसकी कीमत चुकाने की औकात से नहीं . तीसरा सिद्धान्त जल- लोकतंत्र का है.अपने सबसे मूल्यवान संसाधन की जिम्मेदारी हम सरकार में बैठे नौकरशाहों तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले कत्तई नहीं सौंप सकते हैं . इन लोगों की नीयत भले ही अच्छी हो अथवा बुरी. हमें इस बुनियादी उसूल को बचाना होगा,उसके लिए संघर्ष करना होगा तथा अपनी उचित भूमिका निभाते हुए जल-लोकतंत्र की मांग करनी होगी.

शुक्रवार, नवंबर 17, 2006

पानी की जंग ( गतांक से आगे )

विश्वव्यापार संगठन के सेवाओं के व्यापार से सम्बन्धित नियम भी जल आपूर्ति के निजीकरण को बढावा देंगे.इन नियमों के तहत सभी देशों पर न सिर्फ़ सार्वजनिक जल-प्रणालियों से सरकारी नियंत्रण हटाने और निजीकरण करने का दबाव होगा अपितु किसी शहर की जल वितरण प्रणाली यदि किसी विदेशी कम्पनी के हाथों चली जाती है तो उसे वापस जनता के नियंत्रण में लेना विश्वव्यापार संगठन द्वारा भारी जुर्माना न्योतना होगा.
पानी के निजीकरण की मुहिम की रहनुमाई यूरोप शित तीन विशाल बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कर रही हैं - विवेन्डी (फ़्रान्स ) , सुवेज (फ़्रान्स) , आर.डब्ल्यू.ई (जर्मनी).वर्ष २००१ में पानी से प्राप्त इनकी आमदनी क्रमश: ११.९० अरब , ८.८४ अरब तथा २.८ अरब डॊलर थी.इन तीनों कम्पनियों ने दुनिया भर के पानी व्यापार पर हावी होने के लिए छोटी - छोटी प्रतिद्वन्द्वी कम्पनियों को खरीद लिया है.शुरु में तीसरी दुनिया के पानी के संकट का तारनहार बनने की आस में तथा प्रयास में इन कम्पनियोंने सार्वजनिक जल वितरण व्यवस्था पर कब्जा जमाने की दूरगामी रणनीति बनाई.परन्तु तीसरी दुनिया के देशों में इनकी कोशिशों को मुंह के बल गिरना पडा और उनके इस अभियान की गाडी पटरी से उतर गयी.
ब्वेनॊस एरिस (अर्जेन्टीना की राजधानी) का प्रकरण विशेष रूप से सबक देने वाला था.तीसरी दुनिया में पानी के निजीकरण की यह महत्वपूर्ण योजना थी.सुवेज ने अपनी आनुषंगिक कम्पनी अगुआस अर्जेन्टीनास के द्वारा इस शहर की जल-आपूर्ति तथा सीवर व्यवस्था को अधिगृहीत किया.पुरानी पड चुकी वितरण व्यवस्था के नवीनीकरण हेतु सार्वजनिक क्षेत्र में धन का अभाव रहता है तथा निजी कम्पनियांकमी को पूरा कर सकती हैं-निजीकरण के पक्ष में यह तर्क आम तौर पर दिया जाता है.इस मामले में सुवेज कम्पनी के निजीकरण के प्रयोग हेतु आवश्यक एक अरब डोलर की ९७ फ़ीसदी पूंजी के हिस्से की पूर्ति विश्व बैक,अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष व अन्य छोटे बैंकों ने की.जल-आपूर्ति व सीवर व्यवस्था में मामूली बढोतरी के बावजूद सुवेज कम्पनी दोनों कार्यों में निर्धारित लक्ष्य प्राप्त नही कर सकी.यह गौरतलब है कि ९० के दशक के बीच के वर्षों में कम्पनी ने सालाना २५ फ़ीसदी मुनाफ़ा भी कमा लिया.हाल ही में सुवेज ने अर्जेन्टीना छोडने की घोषणा कर दी है.कम्पनी ने कहा है कि उस देश के मुद्रा संकट के कारण उसे कम मुनाफ़ा मिल रहा है.निजीकरण की योजनाएं जोहानस्बर्ग और मनीला में भी लडखडाई हैं.गंगा नदी से निकली गंग नहर से नई दिल्ली के सोनिया विहार में जल-आपूर्ति की योजना भी इसी सुवेज के हवाले है.सर्वाधिक प्रसिद्ध मामला दक्षिण अमेरिकी देश बोलिविया के एक बडे शहर कोचाबाम्बा का है.१९९९ में बेकटेल कम्पनी द्वारा इस शहर की जल -आपूर्ति की बागडोर संभालने के बाद पानी का रेट इतना बढ गया कि कई लोगों को अपनी आमदनी का बीस फ़ीसदी पानी के लिए खर्च करना पडा.नागरिकोख द्वारा इस फ़ैसले का तीव्र प्रतिकार हुआ.पुलिस दमन में छ; लोगों की मृत्यु हुई.अन्तत: सरकार ने बेकटेल कम्पनी से हुए करार को खारिज कर दिया और कहा कि यदि वह उस देश में टिकी रही तो उसकी सुरक्षा की गारण्टी लेने में सरकार असमर्थ होगी.

पानी की जंग , ले.- मॊड बार्लो , टोनी क्लार्क

[लेखक परिचय :
मॊड बार्लो - कैनेडा के सबसे बडे जनसंगठन ‘काउन्सिल ओफ़ कैनेडियन्स’ की अध्यक्षा.वैनकूवर ,टोरेन्टो तथा हेलिफैक्स शहरों में पानी के निजीकरण के विरुद्ध यह संगठन सक्रिय है.पानी के निगमीकरण पर टोनी क्लार्क के साथ लिखी गयी चर्चित पुस्तक ‘ब्लू गोल्ड’ की लेखिका.
टोनी क्लार्क - लोकतांत्रिक समाज परिवर्तन के संघर्ष्हेतु जन आन्दोलनों प्रशिक्षित करने वाली संस्था पोलारिस इन्स्टीट्यूट के निदेशक.वैश्वीकरण विरोधी आन्दोलन के नेता. ]
स्कूल में हमें पढाया जाता है कि पृथ्वी का जल-चक्र एक बन्द प्रणाली है . अर्थात वर्षा और वाष्पीकरण द्वारा सतत रूप बदलता पानी पृथ्वी के वातावरण में जस का तस बना हुआ है. न सिर्फ़ पृथ्वी के निर्माण के समय हमारे ग्रह पर जितना पानी था वह बरकरार है अपितु यह यह पानी वह ही है. जब कभी आप बरसात में टहल रहे हों तब कुछ रुककर कल्पना कीजिए - बूंदें जो आप पर गिर रही हैं कभी डिनासार के खून के साथ बहती होंगी अथवा हजारों बरस पहले के बच्चों के आंसुओं में शामिल रही होंगी.
पानी की कुल मात्रा बरकरार रहेगी फिर भी यह मुमकिन है कि इन्सान उसे भविष्य में अपने और पृथ्वी के उपयोग के लायक न छोडे.पीने के पानी के संकट की कई वजह हैं.पानी की खपत हर बीसवें साल में प्रति व्यक्ति दुगुनी हो जा रही है तथा आबादी बढने की तेज रफ़्तार से यह दुगुनी है. अमीर औद्योगिक देशों की तकनीकी तथा आधुनिक स्वच्छता प्रणाली ने जरूरत से कहीं ज्यादा पानी के उपयोग को बढावा दिया है.व्यक्तिगत स्तर पर पानी के उपयोग की इस बढोतरी के बावजूद घर - गृहस्थी तथा नगरपालिकाओं में मात्र दस फ़ीसदी पानी की खपत होती है.
दुनिया के कुल ताजे पानी की आपूर्ति का २० से २५ प्रतिशत उद्योगों द्वारा इस्तेमाल होता है.उद्योगों की मांग भी लगातार बढ रही है.सर्वाधिक तेजी से बढ रहे कई उद्योग पानी की सघन खपत करते हैं.मसलन सिर्फ़ अमरीकी कम्प्यूटर उद्योग द्वारा सालाना ३९६ अरब लीटर पानी का उपयोग किया जाएगा.
सर्वाधिक पानी की खपत सिंचाई में होती है.मानव द्वारा प्रयुक्त कुल पानी का ६५ से ७० फ़ीसदी हिस्सा सिंचाई का है.औद्योगिक खेती (कम्पनियों द्वारा खेती) में निरन्तर अधिकाधिक पानी की खपत के तौर-तरीके अपनाए जा रहे हैं.कम्पनियों द्वारा सघन सिंचाई वाली खेती के लिए सरकारों तथा करदाताओं द्वारा भारी अनुदान भी दिया जाता है . अनुदान आदि मिलने के कारण ही कम सिंचाई के तौर-तरीके के प्रति इन कम्पनियों को कोई आकर्षण नही नही होता.
जनसंख्या वृद्धि तथा पानी की प्रति व्यक्ति खपत में वृद्धि के साथ - साथ भूतल जल-प्रणालियों के भीषण प्रदूषण के कारण शेष बचे स्वच्छ और ताजे पानी की आपूर्ति पर भारी दबाव बढ जाता है.दुनिया भर में जंगलोंका विनाश , कीटनाशकों और रासायनिक उर्वरकों से प्रदूषण तथा ग्लोबल वार्मिंग के सम्मिलित प्रभाव से पृथ्वी की नाजुक जल प्रणाली पर हमला हो रहा है.
दुनिया में ताजे पानी की कमी हो गयी है.वर्ष २०२५ में विश्व की आबादी आज से से २.६ अरब अधिक हो जाएगी.इस आबादी के दो-तिहाई लोगों के समक्ष पानी का गंभीर संकट होगा तथा एक तिहाई के समक्ष पूर्ण अभाव की स्थिति होगी.तब पानी की उपलब्धता से ५६ फ़ीसदी ज्यादा की मांग होगी.
दिनोंदिन बढती मांग और संकुचित हो रही आपूर्ति के कारण बडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की रुचि इस क्षेत्र में जागृत हुई है जो पानी से मुनाफ़ा कमाना चाहती हैं.विश्व-बैंक द्वारा पानी-उद्योग को एक खरब डॊलर के उद्योग के रूप में माना जा रहा है तथा बढावा दिया जा रहा है.विश्व बैंक द्वारा सरकारों पर दबाव है कि वे जल-आपूर्ति की सार्वजनिक व्यवस्था निजी हाथों में सौंप दें.पानी इक्कीसवीं सदी का ‘नीला सोना’ बन गया है.
उदारीकरण ,निजीकरण,विनिवेश आदि दुनिया के आर्थिक दर्शन पर हावी हैं.यह नीतियां ‘वाशिंगटन सहमति’ के नाम से जानी जाती हैं. पानी का निजीकरण इन नीतियों से मेल खाता है.यह दर्शन सरकारों को सामाजिक कार्यक्रमों की जिम्मेदारी तथा संसाधनों के प्रबन्धन से मुंह मोड लेने की सलाह देता है ताकि निजी क्षेत्र उनका स्थान ले लें.इस मामले में यह ‘सबके लिए पानी’ की प्राचीन सोच पर सीधा हमला है.
पानी के व्यवसाय से जुडी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हाथ में सबसे जरूरी औजार विश्व व्यापार समझौते मुहैय्या कराते हैं.विश्व व्यापार संगठन और नाफ्टा (उत्तर अमेरिकी मुक्त व्यापार सन्धि) जैसे बहुराष्ट्रीय प्रबन्ध निकाय पानी को व्यापार की वस्तु के रूप में परिभाषित करते हैं.नतीजन जो नियम पेट्रोल और प्राकृतिक गैस के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार को संचालित करते हैं वे पानी पर भी लागू हो गये हैं.इन अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के तहत कोई भी देश पानी के निर्यात पर यदि प्रतिबन्ध लगाता है अथवा उसे सीमित करता है तो वह देश विश्वव्यापार संगठन की नाराजगी और निन्दा का भागी होगा . पानी के आयात से इन्कार किया जाना भी प्रतिबन्धित होगा.नाफ्टा सन्धि की एक धारा के तहत यदि कोई देश अपने प्राकृतिक संसाधनों का निर्यात शुरु करता है तो वह उस पर तब तक रोक नहीं लगा सकता जब तक वह संसाधन समाप्त न हो जाए.[ जारी ]

बुधवार, अक्तूबर 04, 2006

गांधी पर

संजय बेंगाणी के चिट्ठे पर टिप्पणी :
गांधी की निन्दा अवश्य करें लेकिन कुछ बातों का ध्यान रखें :अपनी आत्मकथा को ‘सत्य के प्रयोग’ कहने वाला यह कहता था कि चूंकि यह प्रयोग है इसलिए यदि मेरे विचारों में एक विषय पर दो परस्पर विरोधी बातें मिलें तो बाद वाली को सही मानना.जैसे जाति प्रथा के बारे में उनके विचारों में परिवर्तन हुआ,खास तौर पर पुणे में बाबासाहब से उपवास के दौरान हुई चर्चा के बाद.दोनों महापुरुषों ने एक दूसरे को समझने की पूरी कोशिश की.‘४६,’४७ आते आते गांधी ने नियम बना लिया कि सवर्ण-अवर्ण शादी न हुई तो शरीक नहीं हूंगा.सेक्स और गुस्से के बारे में शायद कुछ सामने आता अगर ,लोहिया जिसे ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ के द्वन्द्व की घटना मानते थे - वह न होता.यानि हाफ़ पैंट वालों के हिसाब से-’गांधी-वध’. सरदार ने विभाजन का प्रस्ताव नहीं माना,या मानने की जल्दीबाजी नहीं दिखाई -यह एक प्रचार है.अंग्रेजों ने १२ मोटे-मोटे खण्डों में सत्ता हस्तांतरण के तमाम दस्तावेजों को प्रकाशित किया है,खूफ़िया रपटों सहित, उनमें झांका जा सकता है.गांधी के किसी पुत्र ने उनकी मदद से कुछ हासिल नहीं किया.नेहरू -गांधी दृष्टिभेद पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मुख्यधारा की सामयिक राजनीति नेहरू के साथ ही गिनी जाएगी.पढाई से भागना अच्छा गुण नहीं है.

सोमवार, अक्तूबर 02, 2006

गांधी - नेहरू चीट्ठेबाजी (पूर्णाहुति , ले. प्यारेलाल से)

गांधी जी पंडित नेहरू को (अक्टूबर,१९४५) :
हमारे दृष्टिकोणमें जो भेद है उसके बारे में मैं लिखना चाहता हूं . यदि वह भेद बुनियादी है तब तो जनता को वह मालूम हो जाना चाहिए . उसे (जनताको) अन्धकारमें रखने से हमारे स्वराज्य के कार्य को हानि पहुंचेगी .
गांधी जी नेहरू को (स्वाधीनता के बाद) :
मेरा विश्वास है कि यदि भारतको सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त करनी है और भारतके द्वारा संसारको भी प्राप्त करनी है,तो आगे-पीछे हमें यह तथ्य स्वीकार करना ही पडेगा कि लोगोंको गांवोंमें न कि शहरोंमें,झोपडोंमें न कि महलोंमें रहना होगा .
— तुम्हे यह नहीं सोचना चाहिए कि मेरी कल्पनामें वही ग्रामीण जीवन है जो आज हम देख रहे हैं.मेरे सपनोंका गांव अभी तक मेरे विचारोंमें ही है.मेरे आदर्श गांवमें बुद्धीमान मानव होंगे. वे जानवरोंकी तरह,गंदगी और अंधकारमें नहीं रहेंगे.उसके नर-नारी स्वतंत्र होंगे और संसारमें किसीके भी सामने डटे रहनेकी क्षमतावाले होंगे.वहां न प्लेग होगा,न हैजा,न चेचक;वहां कोई बेकार नहीं रहेगा,कोई ऐश आराममें डूबा नहीं रहेगा.सबको अपने हिस्सेका शरीर श्रम करना होगा.
—- अगर आज दुनिया ग़लत रास्ते पर जा रही है,तो मुझे उससे डरना नहीं चाहिए. यह हो सकता है कि भारत भी उसी रास्ते पर जाए और कहावतके पतंगेकी तरह अन्तमें उसी दीपककी आगमें जल मरे,जिसके आस-पास वह तांडव-नृत्य करता है.परन्तु मेरा जीवन के अंतिम क्षण तक यह परमधर्म है कि मैं ऐसे सर्वनाशसे भारतकी और भारतके द्वारा समस्त संसारकी रक्षा करने का प्रयत्न करूं.
पंडित नेहरूने उत्तरमें लिखा :
हमारे सामने प्रश्न सत्य बनाम असत्यका या अहिंसा बनाम हिंसा का नहीं है.
मेरी समझमें नहीं आता कि गांव आवश्यक तौर पर सत्य और अहिन्सा का साकार रूप क्यों होना चाहिए.सामान्यत: गांव बुद्धि और संस्कृतिकी की दृष्टि से पिछडा हुआ होता है और पिछडे हुए वातावरणमें कोई प्रगति नही की जा सकती.संकीर्ण विचारोंके लोगोंके लिए(गांव के) असत्यपूर्ण और हिंसक होनेकी बहुत ज्यादा संभावना रहती है.हमें गांवको शहरकी संस्कृतिके अधिक निकट पहुंचनेके लिए प्रोत्साहन देना पडेगा.

रविवार, अक्तूबर 01, 2006

गुलामी का दर्शन ; किशन पटनायक

“गुलामी में एक सुरक्षा है.अनुकरण और निर्भरता में एक सुरक्षा है -खासकर बौद्धिक निर्भरता में.इसलिए इसकी लत लग जाती है.जो लोग,व्यक्ति या समूह लम्बे समय तक गुलाम बने रहते हैं,उनके स्वभाव में कुछ परिवर्तन आ जाता है.ज्यादा समय तक गुलाम रहने वाले देशों और कम समय तक या न के बराबर गुलाम रहने वाले देशों के चरित्र में एक भिन्नता होती है.पहली किस्म के लोग अपने निर्णय से कठिन काम नहीं कर सकते.गुलाम व्यक्ति आदेश मिलने पर कठिन काम करता है,अनिच्छा से करता है,उसमें रस नहीं मिलता.इस तरह कठिन काम के प्रति उसका स्वभाव बन जाती है.बाद में जब वह आज़ाद होता है,तब भी वह कठिन काम,कठोर निर्णय से भागता है.कठिन काम करने में जो रस है ,जो तृप्ती है, उसे वह समझ नही पाता.जो कठिन है वह संभव है,दीर्घकालीन हित के लिये हरेक के लिये आवश्यक है -यह भाव उसके आचरण से गायब हो जाता है.”- किशन पटनायक (विकल्पहीन नहीं है दुनिया,पृष्ट २१,राजकमल प्रकाशन)

शुक्रवार, सितंबर 29, 2006

क्रांतिकारी दिनेश दासगुप्त :ले. अशोक सेकसरिया

जन्म ५नवंबर १९११ ,
निधन २३ अगस्त २००६
दिनेश दासगुप्त : एक परिचय , लेखक - अशोक सेकसरिया
अगर सच्चे अर्थों में किसी को क्रांतिकारी समाजवादी कहा जा सकता है तो दिनेश दासगुप्त के नाम का स्मरण आयेगा ही . १६ वर्ष की उम्र में वे मास्टरदा सूर्य सेन के क्रांतिकारी दल से जुडे तो अंत तक समाजवादी आंदोलन से . दिनेशदा की राजनीति आजादी के पहले देश को गुलामी से मुक्त करने की थी और आजादी के बाद देश में एक समतावादी समाजवादी समाज स्थापना की . इस संघर्षशील राजनीति में उन्होंने गुलाम भारत में और आजाद भारत में बार - बार कारावास वरण किया .
दिनेश दासगुप्त का जन्म ५ नवंबर १९११ को हुआ . १६ वर्ष की उम्र में वे मास्टरदा सूर्य सेन की इंडियन रिपब्लिकन पार्टी में भर्ती हो गये और अप्रैल १९३० के चट्गांव शस्त्रागार अभियान में सक्रिय रूप से भाग लिया . चटगांव शस्त्रागार अभियान के बाद ब्रिटिश सरकार के खिलाफ धौलाघाट में गुरिल्ला युद्ध में वे ब्रिटिश सेना द्वारा गिरफ़्तार कर लिये गए और उन्हें दस साल की जेल की सजा दे कर १९३२ में अंडमान सेल्यूलर जेल भेज दिया गया . इस जेल में उन्होंने कई बार भूख हडताल की . १९३८ में दिनेशदा और उनके सथी रिहा किए गए तो कुछ साथी कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए पर दिनेशदा के मन में अंडमान जेल में रहते सरकार द्वारा अंडमान बंदियों के बीच मार्क्सवादी साहित्य के वितरण और अपने कुछ साथियों के देश की आजादी की लडाई को प्राथमिकता न देने के कारण कम्युनिस्टों के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया और वे कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल न हो कर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गये और चटगांव जिले में कांग्रेस सोशलिस्ट पर्टी का संगठन बनाने में जुट गये . १९४० में रामगढ कांग्रेस से लौटते हुए उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया और १९४६ में कांग्रेस के सारे नेताओं की रिहाई के बाद उन्हें रिहा किया गया . छह साल के कारावास में उन्हें हिजली (मेदनीपुर ) जेल , भूटान के निकट बक्सा किले और ढाका जेल में रखा गया.इस कारावास में भी उन्होंने भूख हडतालें कीं .
आजादी के बाद कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की पश्चिम बंगाल शाखा और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी , संसदीय बोर्ड के सदस्य और सेक्रेटरी व अध्यक्ष के पद पर बैठाये गये . किसी पद पर बैठना दिनेशदा ने कभी नहीं चाहा . पदों के लिए झगडा होने पर उन्हें पद पर बैठना पडता था . १९७७ में जनता पार्टी की सरकार बनी तो कुछ साथियों ने उनसे आग्रह किया कि वे ओडिशा या बिहार का राज्यपाल बनें तो उन्होंने इन साथियों को झिडक कर कहा कि क्या तुम लोग मुझे सफेद हाथी बनाना चाहते हो . दिनेश दा अकेले ऐसे व्यक्ति थे जो एक साथ नेता और कार्यकर्ता दोनों थे .
जब डॊ. रममनोहर लोहिया ने प्रजा सोशलिअट पार्टी से अलग हो कर सोशलिस्ट पर्टी की स्थापना की तो दिनेश दा उसमें चले आये . सोशलिस्ट पार्टी के सारे आंदोलनात्मक कार्यों में वे मनप्राण से जुटे रहे . इन आंदोलनों में उन्होंने बार - बार कारावास वरण किया . अंग्रेजी हटाओ आंदोलन , दाम बांधो आंदोलन , ट्रेड यूनियन आंदोलन ,मेहतर आंदोलन , आदिवासी आंदोलन आदि में वे लगातार सक्रिय रहे . बांग्ला में लोहिया साहित्य प्रकाशन के लिए उन्होंने राममनोहर लोहिया साहित्य प्रकाशन की स्थापना की .
१९७१ में बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन में वे लगातार सक्रिय रहे . उन्होंने मुक्ति युद्ध के दौरान कई बार बांग्लादेश की गुप्त यात्राएं की . शेख मुजीबुर रहमान तक ने बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन में उनके अवदान की चर्चा की थी . १९७५ में एमरजेन्सी में जेल से रिहा होने के बाद वे जनता पार्टी में शामिल हुए . जनता पार्टी के भंग होने के बाद वे ज्यादातर आदिवासियों के बीच काम करते रहे .
२००४ तक दिनेश दा पूरी तरह सक्रिय रहे . १५ अगस्त २००३ को स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने जो स्वागत समारोह आयोजित किया था,उस उस समारोह में वे सिर्फ इस उद्देश्य से गये थे कि राष्ट्रपति से सीधे निवेदन करें कि अंडमान शहीद पार्क का सावरकर पार्क नामांतरण रद्द किया जाए.उन्होंने राष्ट्रपति को स्पष्ट शब्दों में कहा शहीद पार्क में सावरकर की मूर्ति बैठाना तो शहीदों का घोर अपमान है क्योंकि सावरकर शहीद तो हुए ही नहीं उलटे उन्होंने ब्रिटिश सरकार से माफी मांगकर जेल से मुक्ति पायी और फिर देश के स्वाधीनता संग्राम में भाग ही नही लिया . इसी आशय का एक पत्र उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को भी लिखा .
२००४ से दिनेश दा बीमार रहने लगे और दो बार तो मरते मरते बचे . आजीवन अविवाहित दिनेश दा की पिछले दस वर्षों से श्री अनाथचन्द्र सरकार ,उनकी पत्नी माया सरकार , दोनों बेटियां चुमकी और पिंकी ने जो सेवा की वह अविस्मरणीय है . सारे समाजवादी ,अनाथचन्द्र सरकार परिवार के प्रति कृतग्य है .
इस २३ अगस्त २००६ को दिनेश दा चले गए लेकिन आजाद भारत में समाजवादी समाज का उनका सपना अभी भी बन हुआ है .

सोमवार, सितंबर 25, 2006

परिचर्चा पर बहस जारी है

कृपया इस प्रविष्टि को नीचे से ऊपर पढें
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खालीपीली
आसक्त

From: चेन्नई
Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीसिर्फ एक ही बात कहना चाहुंगा ! मातृभाषा का सम्मान जरूरी है। हिन्दी का सम्मान करना चाहिये ज्यादा से ज्यादा उपयोग करना चाहिये। लेकिन इसकी आड मे किसी और भाषा का विरोध सही नही है।
आमतौर पर हिन्दी समर्थक अंग्रेजी विरोध पर उतर आते है जो कि गलत है। अंग्रेजी एक अंतराष्ट्रीय भाषा है जो एक सत्य है और हमे इसे स्वीकार करना होगा।
अपने बच्चो को आप जिस भाषा मे भी शिक्षा देना चाहे दिजिये लेकिन उसे मातृभाषा की शिक्षा भी दिजीये। उसे अपनी मातृभाषा के साहित्य से परिचित कराईये। हो सके तो उसे कोई तिसरी या चौथी भाषा भी सिखाईये।


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आशीष
जिन्दगी जिन्दादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं !
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#15 23-09-2006 12:22:54
खालीपीली
आसक्त

From: चेन्नई
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीएक बात और : ये एक भ्रम है कि हिन्दी माध्यम के विद्यार्थीयो को पिछडा समझा जाता है। मैने १२ वी तक हिन्दी माध्यम से शिक्षा प्राप्त की है।
मुझे ऐसा कभी महसूस नही किया है।


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आशीष
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#16 23-09-2006 14:19:31
amit
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From: आकाशगंगा के दूसरे छोर पर
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीअफ़लातून wrote:
अमित भाई,भागना मत,अभी उच्च ग्यान पर भी 'असला' का तसला लिए बैठे हैं.

भागना हमने नहीं सीखा, आपकी बात मैं नहीं जानता, लेकिन इतना है कि अभी हम आराम से बैठे मौज से आप लोगों का आलाप सुन/पढ़ रहे हैं, जब हम शुरू होंगे तो भागने की जगह आपको नहीं मिलेगी ऐसा हमारा मानना है।


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#17 Yesterday 04:39:39
rachana
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भी"सिर्फ एक ही बात कहना चाहुंगा ! मातृभाषा का सम्मान जरूरी है। हिन्दी का सम्मान करना चाहिये ज्यादा से ज्यादा उपयोग करना चाहिये। लेकिन इसकी आड मे किसी और भाषा का विरोध सही नही है।"
आशीष जी, मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ..हिन्दी का सम्मान करने के लिये किसी और भाषा का अपमान करें ये ठीक नही है..और विभीन्न भाषाएँ सीखने की आपने जो बात कही, तो मै समझती हूँ हम भारतीय स्वाभाविक रूप से बहुभाषी होते हैं..आम पढे लिखे भारतीय को सम्भवत: ४ भाषाएँ आती है..हिन्दी,अन्ग्रेजी,अपनी भाषा(घर मे बोली जाने वाली) और जिस प्रदेश मे वह काम करता है..यदि ये सब वह बोल नही पाता तो कम से कम समझ तो लेता ही है..
"एक बात और : ये एक भ्रम है कि हिन्दी माध्यम के विद्यार्थीयो को पिछडा समझा जाता है। "
इस सिलसिले मे पिछ्ले दिनों एक खबर चली थी कि १० वीं मे ९७% अंक मिलने पर भी एक छात्रा को, दिल्ली की एक स्थापित शाला मे प्रवेश से इन्कार कर दिया क्यों कि वो "फर्राटेदार" अन्ग्रेजी बोल पाने मे असमर्थ थी..बाद मे बहुत किरकिरि होने पर उसे प्रवेश दिया गया,,जो शायद उसने ठुकरा दिया..ठीक उसी दिन मैने टी वी पर देखा कि हमारे एक केन्द्रिय मन्त्री "मीडीया" से बात करते हुए कह रहे थे कि उनसे प्रश्न सिर्फ अन्ग्रेजी मे पूछे जाएँ,वो हिन्दी नही समझ पाते!!
और आपने कहा कि आप १२ वी तक हिन्दी मे पढे हैं,मुझे लगता है
कि जिन लोगों कि वजह से भारत मे "बूम" हुई है वे ज्यादातर लोग
१२वी तक हिन्दी मे ही पढे होंगे!

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#18 Yesterday 04:47:16
अफ़लातून
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीभाषा विशेष से चिढने का सवाल नहीं है,न कभी था.शासन और शोषण के औजार के रूप में भाषा के प्रयोग का विरोध है .गांधी और लोहिया भी भाषा के रूप में अंग्रेजी का विरोध नहीं करते थे.उसके स्थान पर जरूर बहस चलाते थे.
"अंग्रेजी आन्तर-राष्ट्रीय व्यापार की भाषा है , वह कूट्नीति की भाषा है,उसका साहित्यिक भंडार बहुत समृद्ध है और वह पश्चिमी विचारों और संस्कृति से हमारा परिचय कराती है .इसलिए हम में से कुछ लोगों के लिए अंग्रेजी भाषा का ग्यान आवश्यक है . वे लोग राष्ट्रीय व्यापार और आन्तर-राष्ट्रीय कूट्नीति के विभाग तथा हमारे राष्ट्र को पश्चिमी साहित्य ,विचार और विग्यान की उत्तम वस्तुएं देने वाला विभाग चला सकते हैं! वह अंग्रेजी का उचित प्रयोग होगा , जब कि आज अंग्रेजी ने हमारे हृदयों में प्रिय सेप्रिय स्थान हडप लिया है और हमारी मतृभाषाओं को अपने अधिकार के स्थान से हता दिया है . अंग्रेजी को जो यह अस्वाभाविक स्थान मिला गया है , उसका कारण है अंग्रेजों के साथ हमारे असमान संबन्ध . अंग्रेजी के ग्यान के बिना भी भारतीयों के दिमाग का ऊंचे से ऊंचा विकास होना चहिए हमारे लडकों और लडकियों को यह सोचने के लिए प्रोत्साहित करना कि अंग्रेजी के ग्यान के बिना उत्तम समाज में प्रवेश नही मिल सकता , भारत के पुरुषत्व और्खास करके स्त्रीत्व की हिंसा करना है. (यंग इंडिया ,२.२.१९२१)
"अंग्रेजी को कहां से हटाना है? इसके बारे में पढे लिखे लोग मजाक कर दिया करते हैं . मैं साफ़ कर देना चाहता हूं कि हमारा यह मक़सद नही है कि इंग्लिस्तान या अमेरिका से अंग्रेजी को हटाया जाए.वहां यह भाषा अच्छी है,बढिया है,कभी कभी मुझे भी वहां बोलने में मज़ा आता है.हिन्दुस्तान में भी इसे पुस्तकालयों से नही हटाना है.पुस्तकालयों में अंग्रेजी भी रहे ,हिन्दुस्तानी के अगल बगल में जर्मन रहे ,रूसी रहे.और ये ही क्यों रहें,चीनी रहे ,अरबी रहे ,फ़ारसी भी रहे.
लेकिन आज सरकार के मालिक बहस को ईमान्दारी से चला नहीं रहे हैं .
...अंग्रेजी को हटाना है अदालत से.अंग्रेजी को हताना है उच्च न्यायालय से,सर्वोच्च न्यायालय से,सरकारी दफ़्तरों से,रेल - तार-पल्टन से,हिन्दुस्तान के हर एक सार्वजनिक काम से-जिसमें कि हिन्दुस्तान का हर एक सार्वजनिक काम अपनी मातृभाषा के माध्यम से हो सके.इस पर बहस करो." लोहिया,हैदराबाद,१९६२
.."साधारण तौर पर देश में अंग्रेजी हटाओ वालों को यह कहके बदनाम किया जाता है कि ये तो हिन्दी वाले हैं.यह बात अब बिलकुल साफ़ हो गयी है कि हम तेलगु वाले भी हैं , हम तमिल वाले भी हैंहम बंगाली वाले भी हैं..अंग्रेजी हटाने का मतलब है हिन्दी को चलाना,तो मै यह ही कहूंगा कि वे जानबूझकर इस धोखेबाजी को फैला रहे हैं." लोहिया,हैदराबाद,१९६२(सागर भाई ,इसी प्रचार के कारण जयललिता जैसे चिढते हैं.बहरहाल अंग्रेजी के कारण होने वाले नुकसान को अब दक्षिण मे भी समझा जा रहा है.हैदराबाद में किसी समय चिकित्सा विग्यान की पूरी पढाई उर्दू मे होती थी.महाराष्ट्र के औरंगाबाद या मराठवाडा इलाके में इसीलिए लोग राज्य के अन्य इलाकों से बेहतर हिन्दुस्तानी समझी-बोली जाती है.)


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समाजवादी जनपरिषद,उ.प्र.
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#19 Yesterday 07:29:23
nahar7772
ज्ञानी आत्मा

From: हैदराबाद, भारत
Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीखालीपीली wrote:
एक बात और : ये एक भ्रम है कि हिन्दी माध्यम के विद्यार्थीयो को पिछडा समझा जाता है। मैने १२ वी तक हिन्दी माध्यम से शिक्षा प्राप्त की है।
मुझे ऐसा कभी महसूस नही किया है।

आशीष भाई
"जाके पैर ना फ़टे बिवाई"........ वाली बात है यह मैने अपनी बात कही थी यह सारे लोगों के लिये लागू नहीं होती और एक घटना तो रचना जी ने बता भी गी है।बाकी अब एक दो घटनाओं का वर्णन चिट्ठे पर करूंगा, जिसमें अंग्रेजी के जानकार किस तरह हिन्दी को दोयम दर्जे की मानते हैं बताने का प्रयास करूंगा।
मैने भी यह नहीं कहा की अंग्रेजी नहीं पढ़ना चाहिये मुझे खुद को अंग्रेजी नहीं जानने का दुख: है, जिसकी वजह मैं आगे लिख भी चुका हुँ, देखें:


कभी कभी यह लगता है कि मुझे अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान तो होना ही चाहिये क्यों कि अन्तरजाल पर जो खजाना भरा पड़ा है उसका मैं पूरा लाभ नहीं उठा पाता।

मैने आगे यह लिखा था देखें:


हमारी शिक्षा का माध्यम हमारे देश की भाषा ही होना चाहिये नहीं कि विदेशी भाषा! साथ में अंग्रेजी भी होनी चाहिये परन्तु पूरक के रूप में,नहीं की मुख्य भाषा के रूप में।

पता नहीं अक्सर यह क्यों होता है कि हिन्दी के समर्थन की बात को अंग्रेजी का विरोध मान लिया जाता है।


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सागर चन्द नाहर

Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीnahar7772 wrote:
पता नहीं अक्सर यह क्यों होता है कि हिन्दी के समर्थन की बात को अंग्रेजी का विरोध मान लिया जाता है।

सागर जी, ऐसा नहीं है कि हिन्दी के समर्थन को अंग्रेज़ी का विरोध माना जाता है, परन्तु जब सीधे सीधे कहा जाए कि अंग्रेज़ी क्यों सीखें और "अंग्रेज़ी सीख कौन सा किला फ़तह कर लिया या कर लोगे" तो उसे और क्या समझा जाए? हिन्दी समर्थन ऐसी टुच्ची टिप्पणियों के बगैर भी किया जा सकता है। गांधी के समय की बात करना हर रूप में जायज़ नहीं है। उनके समय में भारत अंग्रेज़ों का गुलाम था और वे लोग अंग्रेज़ों की प्रत्येक चीज़ का विरोध करते थे, भाषा को क्यों छोड़ते भला? उस समय में भारत उतना विकसित नहीं था जितना आज है।

लोग चीन, जापान, रूस, इस्राईल आदि का उदाहरण देते हैं कि उन्होंने अपनी भाषा के द्वारा ही इतनी तरक्की करी और भारत अंग्रेज़ी के चक्कर में पड़ा यह ना कर पाया। इसे सीधे सीधे अंग्रेज़ी पर बेवजह आघात नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? अंग्रेज़ी भाषा तो नहीं कहती कि हम उसे सीखें और प्रयोग करें, तो उसे उलाहना क्यों? जो लोग इन देशों की तरक्की का ढोल पीटते हुए अपने देश के पिछड़ा होने का दोष अंग्रेज़ी मोह पर लादते हैं क्या उन्हें इतनी समझ नहीं कि चाहे चीन हो या जापान, रूस हो या इस्राईल, इन देशों में जिस कार्य को करने का निर्णय लिया जाता है वह किया जाता है, हमारे देश की तरह लालफ़ीताशाही और नौकरशाही के जाल में फ़ंस वह दम नहीं तोड़ता। चीन तरक्की पर इसलिए है कि वहाँ पर यहाँ की तरह नेता लोग मौज नहीं लेते, हुक्मउदुली की सज़ा वहाँ केवल एक है। चोरी करने जैसे अपराध पर जहाँ गोली मार दी जाती है वहाँ लोग अपना काम करते हैं, टाईमपास नहीं करते। कहने का अर्थ है कि उनकी तरक्की का भाषा से कोई लेना देना नहीं है। यदि ऐसा ही होता तो जापान में लोग आज भी पुराने समय के जैसे किमोनो पहन घूम रहे होते ना कि पश्चिमी कपड़े!!

आसक्त

From: नागौर, राजस्थान
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीnahar7772 wrote:
पता नहीं अक्सर यह क्यों होता है कि हिन्दी के समर्थन की बात को अंग्रेजी का विरोध मान लिया जाता है।

नाहरजी मैं आपकी बात से सहमत हूँ ॰॰॰

कोई भाषा प्रेमी नहीं चाहेगा कि अन्य भाषा का विरोध किया जाये परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि अपनी भाषा का अस्तीत्व खो रहा हो तो उसे बचाने की चेष्ठा भी ना करे। हिन्दी प्रेमी अगर चाहते हैं कि हिन्दी भाषा को भी उतना ही सम्मान मिलें जितना अंग्रेजी भाषा को मिल रहा है तो इसमें बुरा क्या है???

आखीर अपनी भाषा की उन्नति देखना कौन नहीं चाहता???


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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीgrjoshee wrote:
कोई भाषा प्रेमी नहीं चाहेगा कि अन्य भाषा का विरोध किया जाये परन्तु इसका यह मतलब नहीं कि अपनी भाषा का अस्तीत्व खो रहा हो तो उसे बचाने की चेष्ठा भी ना करे। हिन्दी प्रेमी अगर चाहते हैं कि हिन्दी भाषा को भी उतना ही सम्मान मिलें जितना अंग्रेजी भाषा को मिल रहा है तो इसमें बुरा क्या है???

कोई बुराई नहीं है, लेकिन दूसरी भाषा ने आपका क्या बिगाड़ा है जो उसे भला-बुरा कहा जाए? आपकी भाषा को कोई ऐसे भला-बुरा कहे तो कैसा लगेगा? यकीनन अच्छा नहीं लगेगा, क्यों? तो दूसरी भाषा के साथ भी हमें खुद ऐसा नहीं ना करना चाहिए। अपनी भाषा का प्रचार, उसके अस्तित्व को बचाने के लिए किसी दूसरी भाषा को नीचा दिखाना या उसे भला बुरा कहना कहीं से भी उचित नहीं है।



E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीअमितजी आपकी बातों से हिन्दी विरोधी होने की बू आ रही है ॰॰॰

हमने कभी यह नहीं कहा कि अंग्रेजी का उपयोग जायज नहीं मगर हिन्दी भाषा को हेय दृष्टि से देखा जाए, यह भी सहन नहीं करेंगे ॰॰॰


अफ़लातून
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E-mail PM Website Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भी-"गांधी के समय की बात करना हर रूप में जायज़ नहीं है। उनके समय में भारत अंग्रेज़ों का गुलाम था और वे लोग अंग्रेज़ों की प्रत्येक चीज़ का विरोध करते थे, भाषा को क्यों छोड़ते भला?"
--"इसे सीधे सीधे अंग्रेज़ी पर बेवजह आघात नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? अंग्रेज़ी भाषा तो नहीं कहती कि हम उसे सीखें और प्रयोग करें, तो उसे उलाहना क्यों? जो लोग इन देशों की तरक्की का ढोल पीटते हुए अपने देश के पिछड़ा होने का दोष अंग्रेज़ी मोह पर लादते हैं क्या उन्हें इतनी समझ नहीं कि चाहे चीन हो या जापान, रूस हो या इस्राईल, इन देशों में जिस कार्य को करने का निर्णय लिया जाता है वह किया जाता है, हमारे देश की तरह लालफ़ीताशाही और नौकरशाही के जाल में फ़ंस वह दम नहीं तोड़ता। "
-गांधी अंग्रेज लोगों का विरोध नहीं करते थे.
-उलाहना भाषा को नहीं,भाषा नीति का विरोध होता है जिसकी वजह से किसी देश की शिक्षा का माध्यम,सरकारी और अदालती काम-काज की भाषा आदि गुलाम मानसिकता वाले नीति नियंताओं द्वारा थोपे जाते हैं.
-पिछडेपन का कारण सिर्फ़ भाषा नहीं,विकास-नीति भी है.ज्यादा समय तक गुलाम रहने वाले देशों और कम समय तक या न के बराबर गुलाम रहने वाले देशों के चरित्र मे एक भिन्नता होती है.पहली किस्म के लोग अपने निर्णय से कठिन काम नही कर सकते.गुलाम व्यक्ति आदेश मिलने पर कठिन कार्य करता है,अनिच्छा से करता है,उसमे उसे रस नही मिलता.इस तरह कठिन काम के प्रति अनिच्छा उसका स्वभाव बन जाती है.बाद में जब देश आजाद हो जाता है,तब भी वह कठिन काम,कठोर निर्णय से भागता है.कठिन काम करने में जो रस है तृप्ति है,उसे वह समझ नही पाता.'कठिन' और 'असंभव' को वह कई पर्याय्वाची मानने लगता है.मूल योजना मालिक बनात है.कार्यान्वयन क्र स्तर पर नौकर भी बहुत सारे परिवर्तन और निर्णय करने का अधिकार ले लेता है.सामूहिक गुलामी की आदत सेभी कुछ ऐसा ही स्वभाव पैदा होता है कि योजना की दिशा या मूल सिद्धान्त के बारे में वह सोचना नही चाहता.,उसकी कोशिश भी नही करता.
--गुलामी में एक सुरक्षा है.अनुकरण और निर्भरता में एक सुरक्षा है--खासकर बौद्धिक निर्भरता में.इसलिए उसकी लत लग जाती है.
अमित जैसी गलती करना काफ़ी व्यापक बीमारी है.इसे तर्क्शास्त्र में तर्कदोष या हेत्वाभास (हेतु + आभास ) कहा जाता है.अंग्रेजी में -fallacy. जैसे कुछ भारतीय बुद्धिजीवी कहते हैं कि १८५७ कि क्रान्ति सफल हो जाती तो भारत का बहुत नुकसान हो जाता.
--गुलाम कुशाग्र बुद्धि का हो सकता है जैसे अमित लेकिन जहां विचार से निर्णय निकालना पडता है,वहीं वह आश्चर्यजनक ढंग से तर्क की गलती करता है.
--आखिरकार मानसिक गुलामी एक अस्वाभाविक स्थिति है.


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neerajdiwan
समझदार बंधु


Re: भाषा पर गांधी : एक बहस ,अब 'परिचर्चा' पर भीएक सवाल - क्या हिन्दी के दम पर विदेश में रहने वाले हमारे भाई रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं? क्या आप मुझे सिर्फ़ हिन्दी के भरोसे इतनी तनख्वाह दे सकते हैं जो फिलवक़्त मैं कमा रहा हूं?

शनिवार, सितंबर 23, 2006

भाषा पर गांधी ,बहस 'परिचर्चा' पर

भाषा पर गांधी और लोहिया भी
September 23rd, 2006 at 7:52 am (Uncategorized)

अब ‘परिचर्चा’ पर चर्चा को डालने के बाद :


बिल्कुल जी बिल्कुल, रुचि है, आप अपने और गांधीजी के विचारों को पूरी तरह से व्यक्त करदें बाद में इस विषय को आगे बढ़ाते हैं।



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सागर चन्द नाहर

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कलम को चलने दें “अफ़लातूनजी”॰॰॰

grjoshee

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अफलातून जी,साधुवाद!! गाँधी जी के भाषा पर विचारों से अवगत कराने के लिये..भाषा की इस उलझन मे मध्यमवर्गीय परिवारोँ के बच्चों को सबसे अधिक नुकसान हो रहा है..क्यों कि कडवी सचाई यह है कि हिन्दी भाषा के अच्छे विद्यालयों के अभाव मे वे अपने बच्चों को गली- गली मे खुल रहे “केम्ब्रिज-कान्वेन्ट ” या “आक्सफोर्ड-कान्वेन्ट ” (जी नही ये नाम मेरे दिमाग की उपज नही है,बल्कि बस से यात्रा करते समय मैने एक ऐसा बोर्ड दो कमरों की,टीन के छप्परवाली शाला के उपर लगा देखा था!) मे भेज रहे हैं.इन शालाओं मे ज्यादातर वे लोग पढा रहे हैं जो कभी अँग्रेजी माध्यम मे नही पढे.तो बच्चे न तो ठीक से हिन्दी जान पा रहे हैं और न ही अन्ग्रेजी.

रचना

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रचना बहन wrote:

…क्यों कि कडवी सचाई यह है कि हिन्दी भाषा के अच्छे विद्यालयों के अभाव मे वे अपने बच्चों को गली- गली मे खुल रहे “केम्ब्रिज-कान्वेन्ट ” या “आक्सफोर्ड-कान्वेन्ट ” (जी नही ये नाम मेरे दिमाग की उपज नही है,बल्कि बस से यात्रा करते समय मैने एक ऐसा बोर्ड दो कमरों की,टीन के छप्परवाली शाला के उपर लगा देखा था!) मे भेज रहे हैं….

उचित शिक्षा एक गम्भीर प्रश्न है तथा इसमें समाज के सभी नागरिकों का योगदान आवश्यक है। इस बात पर में पहले भी लिख चुका हूँ कि हमनें शिक्षा की उपेक्षा की है और आज यह सत्य है शिक्षक बनना कौन चाहता है?

एक बात मैंने अमरीका के विद्यालयों मे देखी वो ये कि यहाँ पर सभी लोग (विशेषकर घरेलू महिलायेँ) विद्यालयों में जाकर नि:शुल्क सेवा करते हैं।
हम सब पढे़-लिखे युवा ही हिन्दी विद्यालयों के शिक्षकों से मिलकर विद्यालयों की स्तिथी सुधार सकते हैं।
जितना कर सकते हैं करें। यह काम आसान नहीं है अत: चुनौतियों के लिये तैयार रहें। मैं भी इस दिशा में कुछ करता रहता हूँ और आपके अनुभवों से सीखकर और अच्छा कर पाऊँ अत: जो आप करते हैं सभी को बतायें

हिमांशु शर्मा

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मैं मानता हुँ कि भाषा कोई भी बुरी नहीं हो सकती, पर जितना सम्मान हिन्दी को मिलना चाहिये उतना नहीं मिल पाता, शायद दुनियाँ का यह एक मात्र देश है जहाँ के कई प्रधानमंत्रीयों, राष्ट्रपतियों,मुख्यमंत्रियों ( डॉ कलाम अपवाद हैं क्यों कि उनका इस देश की उन्न्ती में इतना योगदान है कि एक गुनाह तो माफ़ किया जा ही सकता है, फ़िर भी डॉ कलाम हिन्दी को सम्मान देते ही हैं, और एक जयललिता है जो हिन्दी केर नाम से भड़कती है ) और कई उच्चाधिकारियों को हिन्दी बोलना तो दूर समझ में भी नहीं आती है।
यह बात तो बिल्कुल सही है कि जितनी प्रगती जापान, चीन और इस्रायल ने की है, बगैर अंग्रेजी को अपनाये उतनी हमने हिन्दी को त्यागकर, अंग्रेजी के मोह में पड़ कर, हमने नहीं की है।
मैं गांधीजी के कई विचारों से सहमत नहीं परन्तु इस बात को तो अवश्श्य मानता हुँ कि हमारी शिक्षा का माध्यम हमारे देश की भाषा ही होना चाहिये नहीं कि विदेशी भाषा! साथ में अंग्रेजी भी होनी चाहिये परन्तु पूरक के रूप में नहीं की मुख्य भाषा के रूप में।
कुछ दिनों पहले मैने मेरी समस्या को अपने चिट्ठे पर लिखा था कि मैं इस देश के किस कदर अंग्रेजी मोह की वजह से परेशान हो रहा हुँ, अपने बच्चों को मैं चाह कर भी हिन्दी नहीं पढ़ा पा रहा हुँ क्यों कि इस देश मैं आजकल एक फ़ैशन हो रहा है कि हिन्दी मैं पढ़े छात्र पिछड़े होते हैं जिसका प्रतिदिन बुरा और अपमानजनक अनुभव मैं कर रहा हूँ, क्यों कि यहाँ दक्षिण मैं हिन्दी की बजाय अंग्रेजी या प्रांतीय भाषा को ज्यादा महत्व मिलता है और यहाँ हैदराबाद मैं तो अंग्रेजी- ऊर्दू और तेलुगु को सर्वोपरी माना जाता है।
कभी कभी यह लगता है कि मुझे अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान तो होना ही चाहिये क्यों कि अन्तरजाल पर जो खजाना भरा पड़ा है उसका मैं पूरा लाभ नहीं उठा पाता।

सागर चन्द नाहर

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nahar7772 wrote:

मैं इस देश के किस कदर अंग्रेजी मोह की वजह से परेशान हो रहा हुँ, अपने बच्चों को मैं चाह कर भी हिन्दी नहीं पढ़ा पा रहा हुँ क्यों कि इस देश मैं आजकल एक फ़ैशन हो रहा है कि हिन्दी मैं पढ़े छात्र पिछड़े होते हैं जिसका प्रतिदिन बुरा और अपमानजनक अनुभव मैं कर रहा हूँ, क्यों कि यहाँ दक्षिण मैं हिन्दी की बजाय अंग्रेजी या प्रांतीय भाषा को ज्यादा महत्व मिलता है और यहाँ हैदराबाद मैं तो अंग्रेजी- ऊर्दू और तेलुगु को सर्वोपरी माना जाता है।

कितनी शर्मनाक बात है कि हिन्दोस्तां की मातृ-भाषा होते हुए भी, हिन्दी को आज भी हमारे देश में हीन दृष्टि से देखा जाता है। माता-पिता चाहते है कि बच्चा “अंगरेजी मीडीयम” में पढ़े, नौकरीयों में “कम्यूनिकेशन स्किल” के नाम पर अंगरेजी को ही प्राथमिकता दी जाती है, बच्चों को लगता है कि हिन्दी भाषा बोलने वाले उनके माता-पिता गंवार है, इसलिए दोस्तों को घर लाने में शर्म महसूस होती है।

grjoshee

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क्या सभी बोल लिए? या किसी को अभी कुछ कहना है? जिन लोगों को यह गलतफ़हमी है कि चीन, जापान और इस्राईल ने बिना अंग्रेज़ी को अपनाए अपनी मातृभाषा के कारण तरक्की की है उनको मैं कुछ वास्तविकताओं से अवगत कराना चाहूँगा। पर वह बाद में, अभी किसी और को यह गाना गाना हो तो गा सकता है, हम तो अभी आराम से बैठे मौज ले रहे हैं, बाद में अपना असला निकालेंगे!!



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amit

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लाल बुझक्कड बूझ गए,और ना बूझा कोय
पै्र में चक्की बांध के हिरणा कूदा होय
“ग्यान वगैरहकी बात छोडो और इस सवाल का जवाब दो कि किस देश में रेल ,तार ,पलटन ,सरकारी दफ़्तर ,कालेज, विश्वविद्यालय,न्यायालय ये सब किसी सामन्ती भाषा के जरिए चलते हैं?मैंने विदेशी भाषा नही कहा है.देशी विदेशी का मामला अलग कर दो.मैंने सामन्ती भाषा कहा है.क्योंकि अंग्रेजी को ताकत और दौलत के लिए इस्तेमाल करने वालों की तादाद कुल ४०-५० लाख है.५० लाख एक तरफ़ और ४३ करोड दूसरी तरफ़.” -डॊ.लोहिया,हैदराबाद,१९६२.
अमित भाई,भागना मत,अभी उच्च ग्यान पर भी ‘असला’ का तसला लिए बैठे हैं.

अफ़लातून

कभी इसराइल का नाम लिया जाता है ,कभी ,जापान (गांधी ने विस्तार से लिखा है,बहस नियन्ता पढने का कष्ट करे),कभी चीन का.ऐसे लोगों से कहना है कि बच्चों को बरगलाना ही आप लोगों का धर्म हो गया है?इन देशों मे कौन से काम अंग्रेजी के जरिए होते हैं?इन सब देशों में अंग्रेजी की पढाई लाजमी नही है.हिन्दुस्तान में भाषा के मक़सद को ही नही समझा गया है.भाषा है किस लिए? भाषा होती है एक तो समझने के लिए और दूसरी होती है बोलने और अभिव्यक्ति के लिए.जहां तक साधारण ग्यान है उसको समझने और उसके ऊपर बोलने के लिए अपने देश की भाषाओं का इस्तेमाल करना होगा.लेकिन अगर कोई खास ग्यान जहां जिस भाषा में होगा;रूसी में,अंग्रेजी मे और जर्मन में उसको हम हासिल कर सकेंगे.
एक मिसाल लीजिए.शेक्सपियर का अध्ययन हिन्दुस्तान में पिछले १२५-१५० बरस से चल रहा है.हिन्दुस्तान मे जितने आदमियों ने शेक्सपियर पढा है ,उतना शायद उतना शायद सारी दुनिया के आदमियों ने नही पढा होगा.सिर्फ़ अंग्रेज नही,फ़्रांसीसी,जर्मन न जाने कितने निकलेंगे,जिन्होंने शेक्सपियर पर मूल टीका की है,जिन्हे पढकर मजा आता है.हिन्दुस्तान मे कमबख्त एक निकल आता,जिसने शेक्सपियर पर लिखा होता,तो मैं कहता किसीने कुछ किया.इसका कारण यह है कि जब जर्मन शेक्सपियर को पढता है तो वह अंग्रेजी में पढता जरूर है,ज्यादातर जर्मन अनुवाद द्वारा,लेकिन जब पढकर सोचता है,तो अपनी भाषा में.फ़्रांसीसी फ़्रेंच में लिखता है.तब जा कर उसमें बडे बडे लोग होते हैं.मेक्समूलर का नाम सबने सुना होगा.हिन्दुस्तान के वेदोंक के सिलसिले में वह मशहूर हैं.उसने संस्कृत में वेदों को पढा,लेकिन वह इतना जाहिल नही था कि पढने के बाद इस पर जो टीका लिखी वह भी संस्कृत में लिखने बैठ जाता.–उसने जर्मन मेम लिखा.” –डॊ. लोहिया,हैदराबाद,१९६२



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बुधवार, सितंबर 20, 2006

भाषा पर गांधी जी


हिन्दी दिवस पर मैंने गांधी जी के दो उद्धरण अपने चिट्ठों के अलावा 'गूगल समूह' 'चिट्ठाकार' पर भी डाले थे.सात लोगों ने चर्चा में विचार व्यक्त किये.अन्तत: यह कहा गया कि बहस को 'परिचर्चा' पर डाला जाए.यहां चिट्ठाकार की बहस को दिया जा रहा है.आशा है पाठक बहस को जारी रखेंगे.

From:
अफ़लातून -Date:
Thurs, Sep 14 2006 3:36 pm
मेरा यह विश्वास है कि राष्ट्र के जो बालक अपनी मातृभाषा के बजाय दूसरी भाषा में शिक्षा प्राप्त करते हैं , वे आत्महत्या ही करते हैं . यह उन्हें अपने जन्मसिद्ध अधिकार से वंचित करती है . विदेशी माध्यम से बच्चों पर अनावश्यक जोर पडता है . वह उनकी सारी मौलिकता का नाश कर देता है . विदेशी माध्यम से उनका विकास रुक जाता है और अपने घर और परिवार से अलग पड जाते हैं . इसलिए मैं इस चीज को पहले दरजे का राष्ट्रीय संकट मानता हू . ( विथ गांधीजी इन सीलोन , पृष्ट १०३ )
इस विदेशी भाषा के माध्यम ने बच्चों के दिमाग को शिथिल कर दिया है . उनके स्नायुओं पर अनावश्यक जोर डाला है , उन्हें रट्टू और नकलची बना दिया है तथा मौलिक कार्यों और विचारों के लिए सर्वथा अयोग्य बना दिया है . इसकी वजह से वे अपनी शिक्षा का सार अपने परिवार के लोगों तथा आम जनता तक पहुंचाने में असमर्थ हो गये हैं . विदेशी माध्यम ने हमारे बालकों को अपने ही घर में पूरा विदेशी बना दिया है . यह वर्तमान शिक्षा -प्रणाली का सब से करुण पहलू है . विदेशी माध्यम ने हमारी देशी भाषाओं की प्रगति और विकास को रोक दिया है . अगर मेरे हाथों में तानाशाही सत्ता हो , तो मैं आज से ही विदेशी माध्यम के जरिये हमारे लडके और लडकियों की शिक्षा बंद कर दूं और सारे शिक्षकों और प्रोफ़ेसरों से यह यह माध्यम तुरन्त बदलवा दूं या उन्हें बर्ख़ास्त करा दूं . मैं पाठ्य पुस्तकों की तैयारी का इन्तजार नहीं करूंगा . वे तो माध्यम के परिवर्तन के पीछे - पीछे चली आयेंगी . यह एक ऐसी बुराई है , जिसका तुरन्त इलाज होना चाहिये .
( हिन्दी नवजीवन , २ - ९- '२१ ) https://samatavadi.wordpress.com/



From:
अनुनाद -Date:
Thurs, Sep 14 2006 4:31 pm
Email:
"अनुनाद" anu...@gmail.com

गाँधीजी की बात आज के परिप्रेक्ष्य में और अधिक सत्य है हिंदी और स्वदेशी का सर्वाधिक हित गाँधीजी ने किया; इनको सर्वाधिक नुक़सान पहुँचाने का श्रेय नेहरू को जाता है
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Subject changed: Chitthakar :: हिन्दी पर महात्मा गांधी

--- अफ़लातून ...@gmail.com> wrote: > मेरा यह विश्वास है > कि राष्ट्र के जो बालक > अपनी मातृभाषा के बजाय > दूसरी भाषा में शिक्षा > प्राप्त करते हैं , वे > आत्महत्या ही > करते हैं . यह उन्हें > अपने जन्मसिद्ध अधिकार > से वंचित करती है . विदेशी > माध्यम से बच्चों पर अनावश्यक
> जोर पडता है . वह उनकी > सारी मौलिकता का नाश कर > देता है . विदेशी माध्यम से
> उनका विकास रुक जाता है
यदि वह जीवित होते तो मैं उनसे पूछता अवश्य कि महात्मन यह बताने का कष्ट करें कि क्या आपने भी आत्महत्या की? क्या आप पर भी अनावश्यक ज़ोर पड़ा और क्या आपकी मौलिकता का भी नाश हो गया? आपका विकास रूक गया क्या?
और मैं ऐसा क्यों पूछता? वह इसलिए कि कदाचित्‌ महात्मा भूल गए कि उन्होंने उसी अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा प्राप्त की जिसका वह विरोध कर रहे थे। वे उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए इंग्लैड गए, दक्षिण अफ़्रीका में उसी अंग्रेज़ प्रशासन के अंतर्गत वकालत करने गए। वो तो उनको जब अंग्रेज़ों ने लात मारी तब उनका अहं जागा और उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई!!!
मैं कोई अंग्रेज़ी माध्यम की वकालत नहीं कर रहा लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि खामखां किसी चीज़ को नीचा दिखाया जाए। उनके समय में हमारा लोकल शिक्षा का ढाँचा इतना पिछड़ा हुआ था कि बस पूछो मत। समय के साथ चलना है तथा औरों को हराना है तो आपको उनसे बढ़िया होना होगा। देशभक्ति और ये चीज़े अलग हैं। अपने यहाँ से ही शिक्षा ग्रहण करना देशभक्ति का प्रमाण नहीं है।
cheers Amit
From:
अफ़लातून - view profile
Date:
Fri, Sep 15 2006 10:26 pm
Email:
"अफ़लातून" ...@gmail.com>
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अंग्रेजों से 'लात खाने' के पहले के गांधी के अनुभव -उन्ही के शब्दों में : यहां मैं अपने कुछ अनुभव बता दूं . १२ बरस की उम्र तक मैंने जो भी शिक्षा पाई ,वह अपनी मातृभाषा गुजराती मे पाई थी . उस वक्त गणित , इतिहास और भूगोल का थोडा -थोडा ग्यान था . इसके बाद मैं एक हाई स्कूल में दाखिल हुआ . उसमे भी पहले तीन साल तक तो मातृभाषा ही शिक्षा का माध्यम रही .लेकिन स्कूल-मास्टर का काम तो विद्यार्थियों के दिमाग मेम जबरदस्ती अंग्रेजी ठूसना था .इसलिए हमारा आधे से अधिक समय अंग्रेजी और उसके मनमाने हिज्जों तथा उच्चारण पर काबू पाने मेम लगाया जाता था. ऐसी भाषा का पढना हमारे लिए एक कष्टपूर्ण अनुभव था ,जिसका उच्चारण ठीक उसी तरह नही होता जैसा कि वह लिखी जाती है.हिज्जों को क्ण्ठस्थ करना एक अजीब सा अनुभव था.लेकिन यह तो मैं प्रसन्गवश कह गया .वस्तुत: मेरी दलील से इसका कोई समबंध नहीं है . मगर पहले तीन साल तो तुलनात्मक रूपमें ठीक निकल गये. ज़िल्लत तो चौथे साल से शुरु हुई . अलजबरा (बीजगणित),केमिस्ट्री (रसायनशास्त्र),एस्ट्रॊनॊमी(ज्योतिष),हिस्ट्री(इतिहास),ज्यॊग्राफ़ी(भूगोल) हर एक विषय मातृभाषा के बजाय अंग्रेजी में ही पढना पडा . अंग्रेजी का अत्याचार इतना बडा था कि संस्कृत या फ़ारसी भी मातृभाषा के बजाय अंग्रेजी के ज़रिए सीखनी पडती थी.कक्षा मे अगर कोई विद्यार्थी गुजराती , जिसे कि वह समझता था, बोलता तो उसे सजा दी जाती थी.हां ,अंग्रेजी जिसे न तो वह पूरी समझ सकता था और न शुद्ध बोल सकता था,अगर वह बुरी तरह बोलता तो भी शिक्षक को कोई आपत्ति नही होती थी.शिक्षक भला इस बात कि फ़िक्र क्यों करे ?खुद उसकी ही अंग्रेजी निर्दोष नहीं थी .इसके सिवा और हो भी क्या सकता था?क्योंकि अंग्रेजी उसके लिए भी उसी तरह विदेशी भाषा थी जिस तरह उसके विद्यार्थियों के लिए थी.इससे बडी गडबड होती.हम विद्यार्थियों को अनेक बातें कंठस्थ करनी होती ,हांलाकि हम उन्हें पूरी तरह समझ सकते थे.शिक्षक के हमेंज्यॊमेट्री (रेखागणित) समझाने की भरपूर कोशिश के करने पर मेरा सिर घूमने लगता.सच तो यह है कि यूक्लिड की फली पुस्तक के १३वें साध्य तक जब तक हम न पहुंच गये,मेरी समझ मे ज्यॊमेट्री बिलकुल नहीम आयी.और पाठकों के सामने मुझे यह मंजूर करना ही चाहिये कि मातृभाषा के अपने सारे प्रेम के बावजूद आज भी मैं यह नहीं जानताकि ज्यॊमेट्री,अलजबरा आदि की पारिभाशिक बातों को गुजराती मे क्या खते हैं.हां,यह अब मैं जरूर देखता हूं कि जितना गणित ,रेखागणित,बीजगणित,रसायनशास्त्र और ज्योतिष सीखने मुझे चार साल लगे,अगर अंग्रेजी के बजाय गुजराती मे मैंने उसे पढा होता तो उतना मैं ने एक ही साल मे आसानी से सीख लिया होता.उस हालत मे मैं आसानी और स्पष्टता के साथ इन विषयों को समझ लेता.गुजराती का मेरा शब्दग्यान कहीं समृद्ध हो गया होता,और उस ग्यान का मैने अपने घर में उपयोग किया होता.लेकिन इस अंग्रेजी के माध्यम ने तो मेरे और कुटुंबियों के बीच,को कि अंग्रेजी स्कूलों मे नही पढे थे, एक अगम्य खाई खदी कर दी.मेरे पिता को कुछ पता न था कि मै क्या कर रहा हूं . मैं चाहता तो भी अपने पिताकी इस बात मेम दिलचस्पी पैदा नही कर सकता था कि मैं क्या पढ रहा हूं.क्योंकि यद्यपि बुद्धिकी उनमे कोई कमी न थी, मगर वह अंग्रेजी नही जानते थे.इस प्रकार अपने ही घर मे मैं बडी त्जी के साथ अजनबी बनता जा रहा था.निश्चय ही मैं औरोंसे ऊंचा आदमी बन गया था.यहां तक कि मरी पोशाक भी अपने-आप बदलने लगी .लेकिन मेरा जो हाल हुआ वह कोई असाधारन अनुभव नहीथा,बल्कि अधिकांश का यही हाल होता है. (आगे पढने मे रुचि हो तो बतायें )



Subject changed: Chitthakar :: Re: हिन्दी पर महात्मा गांधी

From:
Pankaj Narula - Date:
Sat, Sep 16 2006 12:53 am
Email:
"Pankaj Narula" ...@gmail.com>
अफलातून भाई जी
मैं आपकी पहली ईमेल का जवाब भी देना चाहता था, पर दे नहीं पाया। ईस्वामी द्वारा लिखे गए विचारों से मैं काफी इत्तेफाक रखता हूँ।
आज कुछ समय है। सबसे पहले तो बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाने की बात। जिस समय गाँधी बाबा ने यह पुस्तक लिखी थी व जिस समय वह पढ़ रहे थे अंग्रेजों का जमाना था। जरा उस समय में अपने आप को डाल कर देखिए। जरूरी नहीं कि उस समय का परिपेक्ष आज भी लागू हो। एक व्यक्तिगत उदाहरण देता हूँ। मैंने पहली से आठवीं तक हिन्दी माध्यम से पढ़ी। उस समय सूएज न पनामा नहर के बारे भूगोल में भी पढ़ा था। उस समय कभी उसकी महत्ता समझ में नहीं आई। रट्टा लगा लिया था। अभी कुछ समय पहले एक पुस्तक पढ़ रहा था उसमें इन नहरों का जिक्र फिर से आया। उत्सुकता हूई व विकीपीडिया पर दोनों नहरों के बारे में फिर से अंग्रेजी में पढ़ा। अब देखिए वह चीज जो मैंने हिन्दी में पढ़ी थी याद नहीं थी पर इतना याद था कि पढ़ी है, फिर अंग्रेजी में पढ़ी व याद आ गई। तो ज्ञान के लिए भाषा केवल माध्यम है।
यहाँ अमरीका में रहते हुए एक और चीज भारतीय मूल के माँ बाप से पैदा हुए अमरीकी भारतीय बच्चों में देखता हूँ। माँ बाप इस बात के लिए बहुत प्रयत्नशील रहते हैं कि बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में जाने। साथ ही बच्चे घर में 3-4 साल तक बढ़ते हुए हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलगू में ही बात करना सीखते हैं। फिर जब स्कूल जाना शुरु करते हैं तो इंग्लिश भी बोलने लगते हैं। इन बच्चों को कभी बात करते देखिएगा आप हैरान रह जाएंगे कि वे कैसे दोनो भाषाओं में इतनी आसानी से स्विच मारते हैं। जो बात मैं कहने चाहता हूँ वह यह कि बच्चों में सीखने की असीमित शक्ति होती है बशर्ते वह उन पर थोपा न जाए। एक और उदाहरण हो दक्षिण भारत में पले बढ़े बंधूओं का। अपने साथ काम करते लोगो में पाया है कि वे लोग तीन चार भाषाएं बोल लेते हैं - जैसे कि तेलगू वालों को तमिल समझते देखा है वहीं तमिल वाले कन्नड भी जानते हैं। किसलिए क्यूंकि जब वे बच्चे थे सभी भाषाओं सुनने बोलने को मिलती थी।
अब आते हैं उन लोगों पर जो कि हिन्दी को हीन समझते हैं व हिन्दी के उत्थान के लिए हिन्दी दिवस मनाना पड़ता है। हर समाज में एक संभ्रात समुदाय होता है जो कि अपने आप को आम जनता से अलग दिखाना चाहता है। व जो आम लोग करता है उस की नजरों में हीन है। यह भावना भारतीय समाज में अंग्रेजों के जमाने से है। थोड़ा और पीछे जाएंगे तो संस्कृत व खड़ी बोली में भी यही रिश्ता पाएंगे। ऐसे लोगों का कुछ किया नहीं जा सकता।
पर एक बात है। अब इसे इतिहास की भूल कहें या कुछ और। अंग्रेजी दूनिया में व्यव्साय की भाषा बन चुकी है। इसलिए यह सभी के अपने हित में है कि इस वसुधैव कुटुम्बकम् या ग्लोबल विलेज में व्यव्साय की भाषा जानें। आप कुछ बनातें हैं क्या आप किसी ग्राहक को वह सिर्फ इस लिए नहीं बेचेंगे कि वह आपकी भाषा नहीं जानता। बढ़िया तो यह होगा कि आप जाने कि वह क्या चाहता है, उसके समाज में कार्य कैसे होते हैं। बुरा यह होगा कि इस दौरान आपको अपनी भाषा तुच्छ लगने लगे।



From:
जीतू Jitu -Date:
Sat, Sep 16 2006 1:02 am
Email:
"जीतू Jitu" ...@gmail.com>
मेरे काफ़ी विचार तो पंकज भाई ने कह दिए है। आइए अब बात करते है, हिन्दी बोलने के ऊपर की :
हिन्दी की दुर्दशा पर तो हर कोई रो लेता है, लेकिन अफलातून भाई (निजी तौर पर मत लीजिएगा, सभी पर लागू है), अपने दिल पर हाथ रखकर बताइए, आपने हिन्दी को आगे बढाने के लिये क्या किया?
हम लोग इन्टरनैट के प्राणी है इसीलिए, हिन्दी को इन्टरनैट पर ज्यादा से ज्यादा देखना चाहते है। उसी के लिये सतत प्रयत्नशील है। मुझे आपके बारे मे नही पता कि आप किस पेशे से जुड़े हुए है, लेकिन जिस भी पेशे से जुड़े हुए हों हम अपनी राष्ट्रभाषा को सम्मान देते रहे और उसके प्रचार प्रसार के लिये प्रयत्नशील रहें। यही हमारी हिन्दी के प्रति सच्चा प्यार होगा।
> अफलातून भाई जी
> मैं आपकी पहली ईमेल का जवाब भी देना चाहता था, पर दे नहीं पाया। ईस्वामी > द्वारा लिखे गए विचारों से मैं काफी इत्तेफाक रखता हूँ।
> आज कुछ समय है। सबसे पहले तो बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाने की बात। जिस समय > गाँधी बाबा ने यह पुस्तक लिखी थी व जिस समय वह पढ़ रहे थे अंग्रेजों का जमाना > था। जरा उस समय में अपने आप को डाल कर देखिए। जरूरी नहीं कि उस समय का परिपेक्ष > आज भी लागू हो। एक व्यक्तिगत उदाहरण देता हूँ। मैंने पहली से आठवीं तक हिन्दी > माध्यम से पढ़ी। उस समय सूएज न पनामा नहर के बारे भूगोल में भी पढ़ा था। उस समय > कभी उसकी महत्ता समझ में नहीं आई। रट्टा लगा लिया था। अभी कुछ समय पहले एक > पुस्तक पढ़ रहा था उसमें इन नहरों का जिक्र फिर से आया। उत्सुकता हूई व > विकीपीडिया पर दोनों नहरों के बारे में फिर से अंग्रेजी में पढ़ा। अब देखिए वह > चीज जो मैंने हिन्दी में पढ़ी थी याद नहीं थी पर इतना याद था कि पढ़ी है, फिर > अंग्रेजी में पढ़ी व याद आ गई। तो ज्ञान के लिए भाषा केवल माध्यम है।
> यहाँ अमरीका में रहते हुए एक और चीज भारतीय मूल के माँ बाप से पैदा हुए > अमरीकी भारतीय बच्चों में देखता हूँ। माँ बाप इस बात के लिए बहुत प्रयत्नशील > रहते हैं कि बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में जाने। साथ ही बच्चे घर में 3-4 > साल तक बढ़ते हुए हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलगू में ही बात करना सीखते हैं। फिर > जब स्कूल जाना शुरु करते हैं तो इंग्लिश भी बोलने लगते हैं। इन बच्चों को कभी > बात करते देखिएगा आप हैरान रह जाएंगे कि वे कैसे दोनो भाषाओं में इतनी आसानी से > स्विच मारते हैं। जो बात मैं कहने चाहता हूँ वह यह कि बच्चों में सीखने की > असीमित शक्ति होती है बशर्ते वह उन पर थोपा न जाए। एक और उदाहरण हो दक्षिण भारत > में पले बढ़े बंधूओं का। अपने साथ काम करते लोगो में पाया है कि वे लोग तीन चार > भाषाएं बोल लेते हैं - जैसे कि तेलगू वालों को तमिल समझते देखा है वहीं तमिल > वाले कन्नड भी जानते हैं। किसलिए क्यूंकि जब वे बच्चे थे सभी भाषाओं सुनने > बोलने को मिलती थी।
> अब आते हैं उन लोगों पर जो कि हिन्दी को हीन समझते हैं व हिन्दी के उत्थान के > लिए हिन्दी दिवस मनाना पड़ता है। हर समाज में एक संभ्रात समुदाय होता है जो कि > अपने आप को आम जनता से अलग दिखाना चाहता है। व जो आम लोग करता है उस की नजरों > में हीन है। यह भावना भारतीय समाज में अंग्रेजों के जमाने से है। थोड़ा और पीछे > जाएंगे तो संस्कृत व खड़ी बोली में भी यही रिश्ता पाएंगे। ऐसे लोगों का कुछ > किया नहीं जा सकता।
> पर एक बात है। अब इसे इतिहास की भूल कहें या कुछ और। अंग्रेजी दूनिया में > व्यव्साय की भाषा बन चुकी है। इसलिए यह सभी के अपने हित में है कि इस वसुधैव > कुटुम्बकम् या ग्लोबल विलेज में व्यव्साय की भाषा जानें। आप कुछ बनातें हैं > क्या आप किसी ग्राहक को वह सिर्फ इस लिए नहीं बेचेंगे कि वह आपकी भाषा नहीं > जानता। बढ़िया तो यह होगा कि आप जाने कि वह क्या चाहता है, उसके समाज में कार्य > कैसे होते हैं। बुरा यह होगा कि इस दौरान आपको अपनी भाषा तुच्छ लगने लगे।

Subject changed: Chitthakar :: हिन्दी पर महात्मा गांधी

From:
rajitsinha@gmail.com -Date:
Sat, Sep 16 2006 2:04 am
Email:
"rajitsi...@gmail.com" ...@gmail.com>
हां तो अमित भिया तुमने अफ़लातून भाई का जवाब तो पढ़ ही लिया होगा और गांधी जी के बारे में तुम्हारी जानकारी भी अद्यतन हो चुकी होगी... अब जरा अपने बारे में भी ज़ानकारी अद्यतन कराओ तो ... 2 मुद्दे की बातें कही है तुमने!!! पहली ,समय के साथ चलना और दूसरी, औरो को हराना... चलो पहले दूसरी से निपटते हैं. हां तो यह बताने का कष्ट करोगे कि अभी तक कितने लोगो को हरा चुके हो इस विदेशी भाषा को सीख कर ????? बिल्कुल नाम बता सकते हो यदि संख्या ज्यादा हो और नाम याद न हो तो गिनती कर के बता देना... हां पर साथ में यह भी बताना कि अब तक कितनो से हार चुके हो अंग्रेजी जानने के बावजूद भी.... और उतनी ही सच्चाई से बताना... ठीक... भैया हार और जीत केवल बच्चों का शगल है या फिर अमेरिका का. ;) चलो अब पहली मुद्दे की बात पे आते है. समय के साथ चलना.... इस समय के साथ चलने के मापद्ण्ड और मायने क्या है ??? किसी के आचरण का उद्द्ण्ड्तापूर्ण अनुकरण या उन्ही के चीज़ों या क़ृतियों का विवश समरूपण? ?? बताओगे ????? समय के साथ चलने का मतलब होता है व्यष्टि व समष्टि दोनो का अपनी सम्पूर्ण् समग्रता*** के साथ अपनी समस्त सम्भावनाओं का निर्धारण ? वह भी पूरी समझदारी से.... ( यह बात अभी तुम्हारी समझ मे नही आने की...) इसे उस घोड़े से समझो जो किसी रथ या तांगे मे जुता होने पर भी उसी रथ से आगे निकलने की कोशिश करता हैं ... और इस उम्मीद मे और ज्यादा तेज दोडता है कि वह इसे हरा भी देगा... वो बेचारा तो अक्क्ल मे कमजोर है ... पर अपन .... :)) हां और अभी तो मुझे बैलगाड़ी के नीचे चलने वाला वो कुत्ता भी नजर आ रहा है जो धूप से बचने के लिये बैलगाड़ी के नीचे चलता है पर बीच मे उसे यह मुगालता( गलत फहमी) हो जाता है कि वोही बैलगाड़ी को खींच भी रहा है और हांक भी रहा है... :)) कहना तो बहुत कुछ था पर अब समय हो गया है .... हां!!!! तुम व तुम्हारी जैसी मानसिकता वाले किसी भी व्यक्ति के जवाब का इंतज़ार रहेगा, भले ही अनिच्छा से ही... पर रहेगा जरूर.....


From:
Vinay -Date:
Sat, Sep 16 2006 4:23 am
Email:
"Vinay" vinaypj...@gmail.com
(इस समूह के लिए यह चर्चा शायद विषयांतर है। मध्यस्थों से निवेदन कि अगर ऐसा लगे तो बता दें। पेशगी माफ़ी।)

Pankaj Narula wrote: > अफलातून भाई जी
> मैं आपकी पहली ईमेल का जवाब भी देना चाहता था, पर दे नहीं पाया। ईस्वामी द्वारा > लिखे गए विचारों से मैं काफी इत्तेफाक रखता हूँ।
> आज कुछ समय है। सबसे पहले तो बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाने की बात। जिस समय > गाँधी बाबा ने यह पुस्तक लिखी थी व जिस समय वह पढ़ रहे थे अंग्रेजों का जमाना > था। जरा उस समय में अपने आप को डाल कर देखिए। जरूरी नहीं कि उस समय का परिपेक्ष > आज भी लागू हो। एक व्यक्तिगत उदाहरण देता हूँ। मैंने पहली से आठवीं तक हिन्दी > माध्यम से पढ़ी। उस समय सूएज न पनामा नहर के बारे भूगोल में भी पढ़ा था। उस समय > कभी उसकी महत्ता समझ में नहीं आई। रट्टा लगा लिया था। अभी कुछ समय पहले एक > पुस्तक पढ़ रहा था उसमें इन नहरों का जिक्र फिर से आया। उत्सुकता हूई व > विकीपीडिया पर दोनों नहरों के बारे में फिर से अंग्रेजी में पढ़ा। अब देखिए वह > चीज जो मैंने हिन्दी में पढ़ी थी याद नहीं थी पर इतना याद था कि पढ़ी है, फिर > अंग्रेजी में पढ़ी व याद आ गई। तो ज्ञान के लिए भाषा केवल माध्यम है। पंकज, मेरा थोड़ा मतभेद है। आपके स्वेज़ और पनामा के बारे में न जानने का भाषा से कोई लेना-देना नहीं। वह तो हमारी शिक्षा-पद्धति की कमज़ोरी है जो विचारों को समझने की बजाय रट्टाबाज़ी पर केन्द्रित है। आप अँगरेज़ी में पढ़ रहे होते तो भी वही हाल होता।
भाषाविद इस बारे में एकमत हैं कि ज्ञान अर्जन की भाषा वही होनी चाहिये जो बच्चे की अपनी भाषा हो। अपनी भाषा यानि अपने परिवेश में बोल-सुनकर या प्राकृतिक रूप से सीखी हुई भाषा। ऐसी एक से ज़्यादा भाषाएँ भी हो सकती हैं। बल्कि भारत में एक से ज़्यादा भाषाएँ बोलते बोलते बड़े होना आम है। पर मुझे नहीं लगता कि भारत में बहुत सारे परिवेश ऐसे होंगे जहाँ बच्चे अँगरेज़ी बोलते-सुनते बड़े होते हों, शहरों को मिला लें तो भी। अँगरेज़ी अभी भी ज़्यादातर लिखने-पढ़ने का साधन है। इसमें आम बोल-चाल तो बमुश्किल ५-६% लोगों तक सीमित होगी। हो सकता है मैं ग़लत होऊँ, पर मेरा कहना यह है कि अगर आप अँगरेज़ी बोल-चाल वाले परिवेश में बड़े नहीं हुए तो आपकी प्रारम्भिक शिक्षा अँगरेज़ी में नहीं होनी चाहिये। या घुमा कर कहें तो, यदि आपके आस-पास, मिसाल के तौर पर, हिंदी और पंजाबी बोली जाती है तो आपकी प्रारम्भिक शिक्षा की निर्देश भाषा इन दोनों में से कोई एक होनी चाहिए। अँगरेज़ी का एक विषय होना अलग बात है। उसकी ज़रूरत से मैं इंकार नहीं करता।
ज्ञान के लिए भाषा एक माध्यम ज़रूर है, पर इस माध्यम का सही होना बहुत ज़रूरी है। गाँधी जी ने जो बात कही (और मैं अफ़लातून जी का शुक्रिया अदा करता चलूँ उसे पोस्ट करने के लिए), वह भले ही उन्होंने अपने अनुभवों से कही हो, उसका वैज्ञानिक आधार सिद्ध हो चुका है।
http://www.ieq.org/pdf/insidestory2.pdf#search=%22learning%20in%20mot... http://www.iteachilearn.com/cummins/mother.htm
> यहाँ अमरीका में रहते हुए एक और चीज भारतीय मूल के माँ बाप से पैदा हुए अमरीकी > भारतीय बच्चों में देखता हूँ। माँ बाप इस बात के लिए बहुत प्रयत्नशील रहते हैं > कि बच्चे अपनी संस्कृति के बारे में जाने। साथ ही बच्चे घर में 3-4 साल तक > बढ़ते हुए हिन्दी, बंगाली, तमिल, तेलगू में ही बात करना सीखते हैं। फिर जब > स्कूल जाना शुरु करते हैं तो इंग्लिश भी बोलने लगते हैं। इन बच्चों को कभी बात > करते देखिएगा आप हैरान रह जाएंगे कि वे कैसे दोनो भाषाओं में इतनी आसानी से > स्विच मारते हैं। जो बात मैं कहने चाहता हूँ वह यह कि बच्चों में सीखने की > असीमित शक्ति होती है बशर्ते वह उन पर थोपा न जाए। एक और उदाहरण हो दक्षिण भारत > में पले बढ़े बंधूओं का। अपने साथ काम करते लोगो में पाया है कि वे लोग तीन चार > भाषाएं बोल लेते हैं - जैसे कि तेलगू वालों को तमिल समझते देखा है वहीं तमिल > वाले कन्नड भी जानते हैं। किसलिए क्यूंकि जब वे बच्चे थे सभी भाषाओं सुनने > बोलने को मिलती थी। भाषाविद मानते हैं कि शुरूआती वर्षों में बच्चे एक से अधिक भाषाएँ तक आराम से सीख सकते हैं। बाद में यही बहुत मुश्किल और असहज होता है, और वैसी रवानगी भी नहीं आती। ऐसा सिर्फ़ दक्षिण भारत में नहीं, भारत के लगभग हर प्रांत में है। राजस्थान के लोग मारवाड़ी और हिंदी बोल लेते हैं और समझने को पंजाबी, हरयाणवी और गुजराती तक समझ लेते हैं। और आप जानते ही होंगे कि पंजाब में भी अधिकतर लोग भी हिंदी-उर्दू आराम से समझते-बोलते हैं। अमरीका तो फिर भी अधिकांशतया एकभाषी देश है। भारत में तो कहावत के अनुसार हर ९ कोस में बोलियाँ बदलती हैं। इसलिये जहाँ अमेरिका जैसे देश में बहुभाषी होना अपवाद है, वहीं भारत में यह लगभग नियम है।



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Pankaj Narula - view profile
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Sat, Sep 16 2006 10:56 am
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"Pankaj Narula" ...@gmail.com>
विनय जी
आप की बात तर्कसंगत है। इतने स्नेह व प्रेम से समझाने के लिए शु्क्रिया।
पंकज
On 9/15/06, Vinay ...@gmail.com> wrote:

> (इस समूह के लिए यह चर्चा > शायद विषयांतर है। > मध्यस्थों से निवेदन कि अगर > ऐसा लगे तो बता दें। पेशगी > माफ़ी।)

Subject changed: हिन्दी पर महात्मा गांधी

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अफ़लातून - view profile
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Sat, Sep 16 2006 1:48 pm
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"अफ़लातून" ...@gmail.com>
अनुनाद जी, विकास की अवधारणा के बारे में नेहरू और गांधी में जो बुनियादी दृष्टि-भेद था उसके बारे में अलग चर्चा होनी चहिये .गांधी चाहते थे कि देश के विकास की बाबत इन दोनों के बीच जो अन्तर है उसे जनता जाने लेकिन दुर्भाग्य से कम ही लोगों के समक्ष वह पत्राचार प्रसारित हुआ.गांधी के दूसरे सचिव श्री प्यारेलाल की प्रसिद्ध किताब , 'महात्मा गांधी :पूर्णाहुति' मे इसकी विषद चर्चा है. समूह के साथियों को यदि रुचि हो तो उस पत्राचार को भी प्रस्तुत किया जा सकता है.



Subject changed: Chitthakar :: हिन्दी पर महात्मा गांधी

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अफ़लातून - view profile
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Sat, Sep 16 2006 2:22 pm
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"अफ़लातून" ...@gmail.com>
भाई अमित,

गांधी के बचपन के अनुभव १५ तारीख की प्रविष्टि में देने की कोशिश है.उस प्रविष्टि का स्रोत छूट गया था.'हरिजनसेवक',दि. ९ जुलाई, १९३८.भाषा को नीचा दिखाने का प्रश्न नहीं है.शासन और शोषण की भाषा का विरोध होना चहिये. 'समय के साथ चलने ' आदि दलीलों की बाबत फिर गांधी का सहारा ले रहा हूं.अंग्रेजी साहित्य की बाबत द्वेष्रहित भाव भी गौरतलब है.--- "अंग्रेजी आन्तर-राष्ट्रीय व्यापार की भाषा है ,वह कूट्नीति की भाषा है .उसका साहित्यिक भंडार बहुत समृद्ध है और वह पश्चिमी और संस्कृति से हमारा परिचय कराती है.इसलिए हम में से कुछ लोगों के लिए अंग्रेजी भाषा का ग्यान आवश्यक है.वे लोग राष्ट्रीय व्यापार और आन्तर -राष्ट्रीय कूट्नीति के विभाग तथा हमारे राष्ट्र को पश्चिमी साहित्य,विचार और विग्यान की उत्तम वस्तुएं देने वाला विभाग चला सकते हैं.वह अंग्रेजी का उचित उपयोग होगा,जब्कि आज अंग्रेजीने हमारे हृदयों में प्रिय से प्रिय स्थान हडप लिया है और हमारी मातृभाषाओं को अपने अधिकार के स्थान से हटा दिया है.अंग्रेजी को जो यह अस्वाभाविक स्थान मिल गया है,उसका कारण है अंग्रेजों के साथ हमारे असमान सम्बन्ध . अंग्रेजी के ग्यान के बिना भी भारतीयों के दिमाग का ऊंचे से ऊंचा विकास होना चाहिये . हमारे लडकों और लडकियों को यह सोचने के लिए प्रोत्साहित करना कि अंग्रेजी के ग्यान के बिना उत्तम समाज में प्रवेश नहीं मिल सकता,भारत के पुरुषत्व और खास करके स्त्रीत्वकी हिन्सा करना है.यह इतना अपमानजनक विचार है,जो सहन्नहीं किया जा सकता.अंग्रेजी के मोह से छूटना स्वराज्य का एक आवस्स्श्यक और अनिवार्य तत्व है. यंग इंडिया, २.२.'२१


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अफ़लातून - view profile
Date:
Sat, Sep 16 2006 7:29 pm
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"अफ़लातून" ...@gmail.com>
राजीतजी ने अमित को उत्तर दिया है और जीतूजी मेरे बारे में कुछ जानने की उत्सुकता जता रहे हैं.उनके बारे में तो मित्र अनूप ने उनके ब्लॊग की सालगिरह पर कुछ खट्टा,कुछ मीठा लिख ही दिया है,अनूप के सुपुत्र को ब्लॊग की सालगिरह पर फोन पर तकादे के बाद. अभी 'समय के साथ चलने वाली' अमित की बात न छूटे इसलिए सर्वप्रथम पुन: राष्ट्रपिता के सहारे : --"रूस ने बिना अंग्रेजी के विग्यान में इतनी उन्नति कर ली है.आज हम अपनी मानसिक गुलामीकी वजह से ही यह मानने लगे हैं कि अंग्रेजी के बिना हमारा काम नही चल सकता . मैं काम शुरु करने के पहले ही हार मान लेने की इस निराशापूर्ण वृत्ति को कभी स्वीकार नहीं कर सकता."(हरिजनसेवक,२५अगस्त,१९४६) -----"जापान की कुछ बातें सचमुच हमारे लिए अनुकरणीय हैं. जापान के लडकों और लडकियों ने यूरोप से जो कुछ पाया है,अपनी मातृभाषा जापानी के जरिए ही पाया है,अंग्रेजी के ज़रिए नहीं.जापानी लिपि बडी कठिन है,फिर भी जापानियों ने रोमन लिपि को कभी नही अपनाया.उनकी सारी तालीम जापानी लिपि और जापानी भाषा के ज़रिए ही होती है.जो चुने हुए जापानी पश्चिमी देशों से खास प्रकार की शिक्षा के लिए भेजे जाते हैं,वे भी जब आवश्यक ग्यान पा कर लौटते हैं,तो अपना सारा ग्यान अपने देशवासियों को जापानी भाषा के ज़रिए ही देते हैं.अगर वे ऐसा न करते और देश में आकर दूसरे देशों के जैसे स्कूल और कॊलेज अपने यहां भी बना लेते,और अपनी भाषा को तिलांजलि दे कर अंग्रेजी में सब कुछ पढाने लगते,तो उससे बढ कर बेवकूफ़ी और क्या होती? इस तरीके से जापानवाले नई भाषा तो सीखते,लेकिन नया ग्यान न सीख पाते."(हरिजनसेवक,१फ़रवरी,१९४२) "जापानियों ने इतनी तेजी से तरक्की की,इसका कारण यह है कि उन्होंने अपने देशमें पश्चिमी ढंग की शिक्षा को कुछ चुने हुए लोगों तक ही सीमित रखा और उनके द्वारा जापानियों में पश्चिम के नए ग्यान का प्रचार जापानी भाषा के जरिए ही करवाया.यह तो हर कोई आसानी से समझ सकता है कि अगर जापानवाले किसी विदेशी भाषा के ज़रिए यह सारा काम करते,तो वे पश्चिम के नए तरीकों को कभी न अपना पाते."
सेवाग्राम,२७-१-'४२,हरिजनसेवक,१-२-'४२.
~~~~~~~~~~~~~~~~ जीतूजी अब आपकी जिग्यासा पर - पारिवारिक पृष्टभूमि के कारण बचपन से हिन्दी,गुजराती,ऒडिया और बांग्ला पढ ,बोल लेता हूं.लिखता सिर्फ़ हिन्दी में हूं.अनुवाद लेखों और भाषणों का ,इनसे और अंग्रेजी से करता हूं.'धर्मयुग','हिन्दुस्तान';'जनसत्ता'(सम्पादकीय पृष्ट के लेख) और फ़ीचर सेवाओं के जरिए भी लिखता हूं. १९७७ से १९८९ के विश्वविद्यालयी जीवन में काम काज की भाषा के तौर पर हिन्दी के प्रयोग के लिए आग्रह और १९६७ के 'अंग्रेजी हटाओ,भारतीय भाषा लाओ' की काशी की पृश्टभूमि के कारण इस बाबत कुछ सफलता भी मिलती थी.काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग मे हिन्दी में शोध प्रबन्ध जमा किया जा सकता है.१५ अगस्त २००६ से अब तक चार देशों मे रह रहे मात्र २३ लोगों को इंटरनेट पर हिन्दी पढना और लिखना बताया. और रुचि हो तो http://samatavadi.blogspot.com , http://samajwadi.blogspot.com ,http://samatavadi.wordpress.com अथवा अंग्रेजी में aflatoon +samajwadi खोजें.

From:
Amit - Date:
Sat, Sep 16 2006 11:25 pm
Email:
Amit ...@yahoo.com>
यह मेरी इस थ्रेड में आखिरी ईमेल है, इसके बाद मैं इस विषय पर कोई ईमेल नहीं करूँगा। अफ़लातून और रंजीत, दूसरों को भला बुरा बोलने से पहले ये देखो कि अंग्रेज़ी भक्ती का आरोप किस पर लगा रहे हो। यहाँ पर सभी हिन्दी में लिखते हैं, यदि अंग्रेज़ी भक्त होते तो हिन्दी में नहीं लिखते जिसमें कंप्यूटर पर लिखना आज भी अंग्रेज़ी लिखने के मुकाबले अधिक कठिन है।
दूसरे, आप दोनों ने हिन्दी के लिए कितने झंडे गाड़ दिए हैं जो दूसरों पर उंगली उठा रहे हैं? रंजीत बाऊ, मुझे आपकी बात का उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं है, कुछ बोल दिया तो गश खाकर गिर पड़ोगे, क्योंकि दुनिया का सीधा सा उसूल है, दिमाग वाली बातें उन्हीं को समझ नहीं आती जो या तो मूर्ख हैं या दिमाग का प्रयोग नहीं करते।
शब्बाखैर
cheers Amit
From:
अनुनाद -Date:
Sun, Sep 17 2006 3:20 am
Email:
"अनुनाद" ...@gmail.com>
भाई लोग,

कुछ भी कहिए, लेकिन यह चर्चा मुझे तो काफ़ी सार्थक लगी
अगर पचास या सौ साल पहले की बात न करते हुए वर्तमान में भारत और चीन की तुलना करें तो स्वभाषा में शिक्षा का महत्व बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है चीन में भारत की तरह अँगरेज़ी की अंधेरगार्दी नही है, लेकिन वह विज्ञान, टेकनालोजी, राजनय, या किसी अन्य मामले में भारत से आगे ही है कहने में बुरा तो लगता है, ेपर सही है की अपने यहाँ छापने वाले (रिसर्च) पेपर या अन्य शोध प्रबंध कितने मौलिक होते है और कितने में कट- पेस्ट तकनीक का इस्तेमाल होता है? इसमे अँगरेज़ी शिक्षा का योगदान नहीं तो और क्या है?
और जहां तक पनामा नहर(रट्टा मारने) का सवाल है, अंगरेजी के कारण इसको अधिक बढावा मिल रहा है। इसका कारण यह है कि छोटी कक्षाओं के बच्चे अभी अंगरेजी सीख ही रहे होते हैं, उन्हे अंगरेजी में कोई विषय पढ़ाने का मतलब है विषय की कठिनाई के साथ-साथ भाषा की कठिनाई को भी उसमे सम्मिलित कर लेना। ऐसे में अच्छे शिक्षक होने के बावजूद भी बच्चों के सामने रटने के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं होता।



From:
Ravishankar Shrivastava - Date:
Sun, Sep 17 2006 9:50 am
Email:
Ravishankar Shrivastava raviratl...@gmail.com


:) रवि

From:
जीतू Jitu - Date:
Sun, Sep 17 2006 9:54 am
Email:
"जीतू Jitu" ...@gmail.com>
साथियों, चर्चा गम्भीर होती जा रही है, आइए परिचर्चा <http://www.akshargram.com/paricharcha> पर इसे आगे बढाएं, यहाँ सिर्फ़ ६ या ७ लोग ही चर्चा कर रहे है, इसलिए चिट्ठाकार फोरम इसके लिए मुफ़ीद जगह नही। इस चर्चा का अगला थ्रेड परिचर्चा पर ही खोलिए, यहाँ मत करिए। धन्यवाद।
On 17/09/06, Ravishankar Shrivastava ...@gmail.com> wrote:

> :) > रवि -- ---------------------------------------------------------------------------­