बुधवार, जनवरी 24, 2007

क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? : सुनील

    ( सुनील , राष्ट्रीय महामंत्री , समाजवादी जनपरिषद द्वारा लखनऊ विश्वविद्यालय में 'अर्थ' और 'अमिट' द्वारा आयोजित किशन पटनायक स्मृति व्याख्यान , १७ अक्टूबर २००६ )

    साथी किशन पटनायक आज हमारे बीच नहीं हैं । उनके निधन के दो वर्ष हो चुके हैं । लेकिन वह भारत के उन गिने - चुने चिंतकों में से थे , जिन्होंने वैश्वीकरण की आंधी और चकाचौंध से अप्रभावित रहकर इसके पीछे की ताकतों और इसके खतरों को शुरु से पहचान लिया था । बड़ी प्रखरता से उनका विश्लेषण करते हुए , अंतर्दृष्टि और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए , इसे उन्होंने निरंतर अपने चिंतन , विमर्श और कर्म का हिस्सा बनाया । इसलिए उनको स्मरण व नमन करते हुए ' वैश्वीकरण और उसके मानवीय चेहरे ' की इस चर्चा को हम शुरु करते हैं ।

    'वैश्वीकरण' उस विश्वव्यापी प्रवृत्ति का नाम है , जिसने पिछले कुछ वर्षों से पूरी दुनिया के जनजीवन को प्रभावित किया है और एक खास दिशा में मोड़ा है । भूमंडलीकरण , जगतीकरण , उदारीकरण , आर्थिक सुधार , नई आर्थिक नीति आदि इसके कई नाम हैं।आज इसकी आंच सब महसूस कर रहे हैं और यह पूरी दुनिया में चर्चा , बहस , विवादों तथा संघर्षों का केन्द्र बन चुकी है । इसके गुण - दोषों , लाभ - हानि तथा पक्ष - विपक्ष की लगातार मीमांसा चलती रहती है । वैश्वीकरण की यह प्रवृत्ति इतनी व्यापक है और इतनी ज्यादा हावी हो चुकी है कि इसके दुष्प्रभावों का अहसास होते हुए भी कई लोग यह कहने लगे हैं कि (१) अब वापस पीछे जाना संभव नहीं है और वैश्वीकरण का कोई विकल्प नहीं है( There is no alternative या TINA ) तथा (२) वैश्वीकरण की व्यवस्था को ही ज्यादा बेहतर , ज्यादा मानवीय बनाया जाए । ऐसे लोग ही ' वैश्वीकरण के मानवीय चेहरे ' की बात और तलाश करते हैं । वे वैश्वीकरण के मौजूदा स्वरूप की आलोचना करते हैं , किंतु इसमें बुनियादी परिवर्तन के स्थान पर इसमें सुधार लाने की बात करते हैं ।

    वैश्वीकरण के ऐसे आलोचकों की श्रेणी में कई लोग हैं । विश्व बैंक , विश्व स्वास्थ्य संगठन , UNDP जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ वैश्वीकरण के फायदों और दुष्प्रभावों दोनों को गिनाती हैं । विश्व विकास रपट , विश्व स्वास्थ्य रपट , आदि में यह तो मंजूर किया जाता है कि वैश्वीकरण के लाभों का समान बँटवारा नहीं हो रहा है और काफी लोग इस से बाहर रह जाते हैं , लेकिन इसका इलाज यही है कि वैश्वीकरण को ज्यादा भागीदारी वाला ( Participatory) बनाया जाए , तथा सामाजिक सुरक्षा व्यवस्थाओं ( safety nets ) को ज्यादा व्यापक बनाया जाए । वैश्वीकरण की मूल प्रवृत्तियों और मूल विचारधारा में कोई दोष वे नहीं देखते हैं ।

    भारतीय मूल के अमरीका निवासी नोबल पुरस्कार अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है । वे वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार का विरोध नहीं करते , लेकिन इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि शिक्षा , स्वास्थ्य आदि पर सरकार को काफी ज्यादा खर्च करना चाहिए । यह ' चाहिए ' कैसे आर्थिक - राजनैतिक रूप से संभव होगा , यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है , जिस पर सेन साहब ज्यादा बात नहीं करते हैं । अमर्त्य सेन प्रारंभ में एक वामपंथी अर्थशास्त्री माने जाते थे । लेकिन इधर वैश्वीकरण संबंधी फिजूल की बहसों में वे नहीं पड़ते । इसीलिए भी शायद उन्हें नोबल पुरस्कार का पात्र माना गया ।

    वैश्वीकरण की नीतियों के एक अन्य प्रमुख आलोचक के रूप में एक और नोबल पुरस्कार प्राप्त अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिगलिट्ज़ भी उभर कर आये हैं। कुछ समय पहले उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की नीतियों के विरोध में उससे इस्तीफा दे दिया । और ' Globalisation and Its Discontents ' नामक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखकर हम सबका दिल खुश कर दिया । हाल ही में उन्होंने एक किताब और लिखी है - ' Making Globalisation Work '।गत २९ सितम्बर को उनका एक साक्षात्कार ' हिन्दू ' अखबार में प्रकाशित हुआ है ,जिससे उनके विचारों की एक झाँकी मिलती है । इस साक्षात्कार में वे वैश्वीकरण की आलोचना तो करते हैं , लेकिन यह भी कहते हैं कि -

    " यदि वैश्वीकरण का प्रबंध ठीक से किया जाए तो उसमें महान संभावनाएं छिपी हैं । किंतु यह तभी होगा , जब जीतने वाले हारने वालों के साथ हिस्सा-बँटवारा करें । "

    यानी वैश्वीकरण के इस खेल में कुछ जीतने वाले और कुछ हारने वाले तो रहेंगे । यह हिस्सा-बँटवारा कैसे संभव होगा , यह ठीक से 'प्रबंध' कैसे होगा - यह एक बड़ा राजनैतिक सवाल है । स्टिगलिट्ज़ 'स्केन्डिनेवियन(स्वीडन-नार्वे) मॊडल' की बात करते हैं , जिसका मतलब है शिक्षा , अनुसंधान और तकनालाजी में भारी निवेश तथा एक मजबूत सामाजिक सुरक्षा का जाल। इसका मतलब यह भी है कि सरकार को आय पर प्रगतिशील दरों से भारी कर लगाना पड़ेगा । स्टिगलिट्ज़ पूर्वी एशियाई देशों- जापान , सिंगापुर , ताईवान , दक्षिण कोरिया और अब चीन- की भी इस बात के लिए तारीफ़ करते हैं कि उन्होंने ज्ञान और तकनालाजी की खाई को पाटने के लिए कदम उठाए तथा शिक्षा व बुनियादी ढ़ांचे पर भारी मात्रा में निवेश किया । तो वैश्वीकरण को सबके लिए लाभकारी और मानवीय बनाने के लिए स्टिगलिट्ज़ के मॊडल ये देश ही हैं ।

    वैश्वीकरण का मूल मंत्र है 'मुक्त बाजार' । यदि बाजार की शक्तियों को खुलकर काम करने दिया जाए , उसमें सरकार का दखल व नियंत्रण न हो ( क्योंकि उनसे विकृतियाँ पैदा होती हैं ), तो अर्थव्यवस्था का विकास होगा और 'अंतत:' सबको उस विकास का लाभ मिलेगा । वैश्वीकरण के बारे में यह विश्वास ( या कहें अंधविश्वास ) अर्थशास्त्र के दो पुराने सिद्धान्तों पर आधारित हैं ।एक तो रिकार्डो का व्यापार का तुलनात्मक लाभ सिद्धांत , जो कहता है कि अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से दोनों पक्षों को लाभ होता है ।दूसरा , विकास का रिसाव सिद्धांत ( Trickle Down Theory ) , जो कहता है कि पहले कुछ देशों और कुछ व्यक्तियों का विकास होगा । फिर धीरे-धीरे इस विकास के लाभ रिसकर सब तक पहुंच जाएंगे । इसीलिए हमारे शासक आम जनता को कहते हैं कि धीरज रखो , विकास और समृद्धि का रिसाव सब तक पहुँचेगा । यदि अभी देश में बेरोजगारी फैल रही है , कई हिस्सों में गरीबी व भुखमरी है , किसान आत्महत्या कर रहे हैं, तो कोई चिंता की बात नहीं है। यह संक्रमण काल है , थोड़े वक्त की समस्या है , फिर सब ठीक हो जाएगा । दिक्कत यह है कि देश के करोड़ों लोगों को यह समझाईश पिछले पचास सालों से दी जा रही है । वैश्वीकरण के दौर में लोगों के कष्ट और ये उपदेश दोनों बढ़ गए हैं ।तो वस्तुस्थिति क्या है ?

    मुक्त बाजार की यह वकालत कोई नई नहीं है । पूंजीवाद के विकास के साथ ही मुक्त व्यापार या Laisez Faire का विचार स्थापित किया गया । मार्क्स , कीन्स , गांधी , लोहिया जैसे अनेक विचारकों ने इसे चुनौती दी । लेकिन अब सोवियत संघ के पतन , चीन द्वारा साम्यवाद का रास्ता छोड़कर पूंजीवाद की राह पकड़ने तथा भारत जैसे देशों में समाजवादी आंदोलन के बिखराव के बाद इसे चुनौती देने वाला कोई नहीं रहा । वैश्वीकरण क यह दौर वास्तव में उन्मुक्त बाजारवाद का दौर है । मानव जीवन के हर क्षेत्र को बाजारवाद के आगोश में लिया जा रहा है , आंका जा रहा है , ढाला जा रहा है । इस उन्मुक्त बाजारवाद के शिकार हुए कुछ लोगों पर एक नज़र डालना उपयुक्त होगा ।

    वैश्वीकरण का सबसे बड़ा शिकार बने हैं भारत के किसान । किसानों की लगातार आत्महत्याएं, आखिरकार, हजारों किसानों की बलि चढ़ जाने के बाद , हमारे राष्ट्रीय विमर्श का बनी हैं । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी पिछली जुलाई में विदर्भ का दौरा करना पड़ा। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों ने किसानों के लिए पैकेजों की घोषणाएं भी कीं ।लेकिन आत्महत्याओं का सिलसिला नहीं थम रहा है ! प्रधानमंत्री वहाँ विधवाओं के आंसू पोंछ कर आए और ३७५० करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा करके आए , उसके बाद भी आत्महत्याएं रुकने या कम होने की बजाय बढ़ गई ।अभी पिछले ६ तथा ७ अक्टूबर को मात्र दो दिन में विदर्भ में नौ किसानों की आत्महत्याएं हुईं । प्रधानमंत्री के दौरे के बाद ३६० से अधिक किसान खुदकुशी कर चुके हैं ।

    किसानों की आत्महत्याओं के पीछे दरअसल किसानी-खेती का अभूतपूर्व संकट है । वैसे तो किसान और गांव हमेशा से शोषण व उपेक्षा के शिकार रहे हैं । किंतु देश की आजादी के बाद पहली बार ऐसा मौका आया है कि वे हजारों की संख्या में खुदकुशी कर रहे हैं।आत्महत्या एक व्यक्ति के जीवन का आखिरी अतिवादी कदम है जो वह तब उठाता है जब उसे जीवन में उम्मीद की कोई किरण दिखाई नहीं देती । यदि हजारों किसान आत्महत्या कर रहे हैं , इसका मतलब है कि लाखों -करोड़ों किसान इस संकट में गले तक फंसे होंगे ।

    किसानों की ये आत्महत्याएं उस आन्ध्रप्रदेश में शुरु हुई , जहाँ का मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू इस देश में विश्व बैंक का सबसे चहेता मुख्यमंत्री था ,जो स्वयं को मुख्यमंत्री कहने के बजाय सीईओ कहना पसंद करता था , तथा जिसकी तारीफ करते क्लिन्टन से लेकर हमारा मीडिया तक अघाता नहीं था । बाद में ये आत्महत्याएं अन्य 'प्रगतिशील राज्यों' - कर्नाटक , महाराष्त्र , गुजरात , केरल व पंजाब में भी फैल गई । इसमें मार्के की बात यह है कि देश के पिछड़े व गरीब माने जाने वाले राज्यों से आत्महत्याओं की खबरें नहीं आयीं ।उन राज्यों में ज्यादा आत्मह्त्याएं हुई , जहाँ आर्थिक सुधार ज्यादा तेजी से लागू हुए, जहाँ की खेती ज्यादा उन्नत मानी जाती थी  और जहाँ खेती में बाजार की घुसपेठ ज्यादा थी । मुक्त बाजार और आत्महत्याओं का एक सीधा संबंध दिखाई देता है । ( जारी )

Technorati tags: ,

 

 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें