गांधी - सुभाष : भिन्न मार्गों के सहयात्री ,ले. नारायण देसाई
मनुष्य की सामाजिक कसौटी,मनुष्य की पारस्परिकता में निहित है , नाते में निहित है । सुभाषचन्द्र बोस के साथ गांधीजी का सम्बन्ध एक ओर तीव्र मतभेदों का तो दूसरी ओर उत्कट प्रेम का , एक तरफ गांधीजी के नेतृत्व को चुनौती देने वाला तो दूसरी तरफ बतौर नेता गांधीजी के प्रति आदरभाव का था । इसमें से जिस नाते का बन्धन बना , वह छूटा उसके बावजूद आखिर तक टिका रहा। यह नाता किसी उपन्यास को रसपूर्ण कथानक प्रदान करने वाला हो सकता है । इस कथानक में दोनों व्यक्तित्वों की भिन्नता , दोनों के आदर्शों की भिन्नता , दोनों के साधनों की भिन्नता के साथ - साथ दोनों का बड़ा कद , दोनों की उत्कट राष्ट्रभक्ति , अपने - अपने साधनों के प्रति दोनों का आग्रह यह सब मिल कर राष्ट्र के जीवन में मित्रों की भाँति था । इस लेखक के एक जर्मन मित्र ने एक बार कुछ चिढ़कर , हिन्दुस्तानियों की फरियाद करते हुए कहा था , ' मैं यह समझ ही नहीं पाता कि आपके मकानों की दीवालों पर गांधी और सुभाष की तस्वीरें साथ - साथ कैसे टँगी रहती हैं?आप लोगों को सिद्धान्तों की परवाह है अथवा नहीं ? ' भारत के लोग अनेक विरोधाभासों के बीच भी अक्षत रहने वाले गुणों के उपासक हैं , यह बात उसके गले उतारना आसान काम नहीं था । गांधीजी और नेताजी के बीच के नाते को हम एक दीवाल पर टँगी दो तस्वीरों की माफ़िक देख सकते हैं ।
हिन्दुस्तान के पश्चिमी और पूर्वी कोनों से आए इन दोनों अगुवाजनों के स्वभाव , चरित्र और नेतृत्व में कई अन्तर थे और थोड़ी समानता भी थी । दोनों के बीच उम्र में एक पीढ़ी का अन्तर था । जब पहली बार दोनों सम्पर्क में आए तब एक का प्रौढ़ नेतृत्व देश पर छा चुका था और दूसरे का नेतृत्व अभी मनोरथों में ही था । दोनों जब जुदा हुए तब उनके विचारों और सिद्धान्तों के भेद देश और दुनिया जान चुकी थी । हमारे रास्ते जुदा हैं, यह दोनों अच्छी तरह जान चुके थे । संकट के एक प्रसंग में सुभाष के ' प्रतिस्पर्धी ( पट्टाभि ) की हार, मेरी हार है ', यह गांधीजी कह चुके थे और वही गांधी सुभाष को यह भी चुके थे कि,' यदि अपने मार्ग से तुम सफल हुए तब तुम्हें अभिनन्दन का पहला तार मेरा ही मिलेगा। '
परस्पर विरोधों के झंझावात के बीच सुभाषबाबू ने गांधीजी के विषय में कहा था ,' लौकिक विषयों के कई क्षेत्रों में महात्मा गांधीजी के साथ एकमत नहीं हो पा रहा हूँ फिर भी उनके व्यक्तित्व के बारे में मेरा आदर किसी से कम नहीं है। मेरे बारे में गांधीजी का अभिप्राय क्या है यह मैं नहीं जानता हूँ। उनका मत चाहे जो भी हो , परन्तु मेरा लक्ष्य तो हमेशा उनका विश्वास सम्पादित करना ही रहा है । इसका एकमात्र कारण है कि बाकी सभी का विश्वास प्राप्त करने में सफल हो जाऊँ और भारत के श्रेष्ठ मानव का विश्वास न पा सकूँ तो वह मुझे कचोटता रहेगा । " ( चट्टोपाध्याय,भवानीप्रसाद, 'गांधीजी ओ नेताजी ',( बांग्ला ) ,पृष्ट ६ )
यह बात सुभाषबाबू ने १९३९ में कही थी , जब गांधीजी के साथ अनेक बातों में उनका विवाद हो चुका था । गांधीजी ने सुभाषबाबू के बारे में १९२४ में कहा था : " मेरा यह सौभाग्य है कि मैं अपने विरोधियों के दृष्टिकोण से विषय को देख सकता हूँ और इस प्रमाण में उनके दृष्टिकोण का सहभागी भी बन सकता हूँ । मेरा दुर्भाग्य यह है कि अपने दृष्टिकोण से उनसे विचार करवा नहीं सकता । अगर यह मुमकिन होता तो हमारे बीच मतभेद के बावजूद,हम एक आनन्दमय एकमत साध सकते । "
गांधीजी और सुभाषबाबू में कुछ गुण समान थे ।दोनों को हिन्दुस्तान के प्रति उत्कट प्रेम था । दोनों देश के लिए मर - मिटने के लिए तैयार थे ।दोनों में तीव्र बुद्धिमत्ता थी ।देश और दुनिया की गतिविधियों के बारे में दोनों की अपने - अपने किस्म की समझदारी थी । अलग - अलग ढ़ंग से सही लेकिन दोनों का व्यक्तित्व अत्यंत मोहक था ।दोनों में त्याग करने की असाधारण शक्ति थी ।यज्ञ-कुण्ड में कूद पड़ने का साहस भी दोनों में था ।
परन्तु कुछ बुनियादी बातों में दोनों का व्यक्तित्व एक - दूसरे से बिलकुल अलग था । गांधीजी के जीवन का अन्तिम लक्ष्य आध्यामिक ( आत्मसाक्षात्कार या खुद शून्यवत हो जाना ) था । सुभाषबाबू का लक्ष्य राजनैतिक था। वे देश को स्वाधीनता दिलाने के लिए ही जीवित थे । दोनों के बीच सबसे बड़ा भेद साधनशुद्धि की बाबत था । गांधीजी साध्य जितना ही आग्रह साधन के विषय में रखते थे , इसलिए उन्हें हिंसा द्वारा स्वराज भी मिल रहा हो तो भी नहीं स्वीकार था । जबकि सुभाषबाबू स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किसी भी साधन के इस्तेमाल करने में यक़ीन रखते थे । गांधीजी के मन में देश का स्वराज भी खुद की आध्यात्मिक साधना के लिए अनिवार्य शर्त के रूप में था , इसलिए वे स्वराज्य प्राप्ति के लिए स्वार्पण के लिए तैयार थे ।सुभाषबाबू के लिए देश का स्वराज्य ही ऐसा उदात्त लक्ष्य था कि जिसके लिए वे अपना बलिदान देने को तैयार थे । गांधीजी के मन में सामाजिक मुक्ति और व्यक्तिगत मुक्ति परस्पर गुँथी हुई थी । सुभाषबाबू के के लिए देश की आजादी का ही एकान्तिक महत्व था ।
सुभाषबाबू मिले तब गांधीजी का व्यक्तित्व प्रगल्भ था । सुभाषबाबू के व्यक्तित्व से अदम्य उत्साह टपकता था । गांधीजी और सुभाषबाबू जितनी अवधि में साथ रहे उस अवधि में जब - जब गांधीजी ने लोक-आन्दोलन का आह्वान किया तब सुभाषबाबू मनवचन से उनके साथ रहे ; परन्तु जब - जब गांधीजी ने लोक-आन्दोलन की लगाम खींची तब - तब सुभाषबाबू उनसे मन-वचन से जुदा हो जाते थे । इस सन्दर्भ में सुभाषबाबू का गांधीजी से नाता राग-विराग ( love and hate ) का था , ऐसा कहा जा सकता है ।
गांधीजी की असहयोग की शंखध्वनि सुभाषबाबू ने विलायत में सुनी थी । तब वे आई.सी.एस. की तैयारी कर रहे थे । ' एक वर्ष में स्वराज ' की गांधीजी की पुकार ने तरुणाई से सराबोर सुभाष के हृदय पर खासा असर डाला । आई.सी.एस. की परीक्षा उन्होंने दी और उसमें उत्तीर्ण हुए , परन्तु अंग्रेज सरकार की चाकरी करने का विचार उन्हें असह्य लगा । अपने मन में चल रही इस जद्दोजहद को और बड़े भाई शरत्चंद्र के साथ चले लम्बे पत्रव्यवहार के अंत में मन में निश्चय पक्का कर लिया - पूरा जीवन देश को आज़ाद कराने में लगाना है । यह काम किस मार्ग से और किन तरीकों से होगा यह उन्हें तब स्पष्ट नहीं था। परन्तु जिसे जीवन साहस का पर्याय लगता हो उसे उस जीवन का ध्येय का पता चल जाने के बाद छलांग लगाने में कितनी देर लगती है !
१६वीं जुलाई १९२१ के दिन सुभाषबाबू का जहाज इंग्लैण्ड से लौटते वक्त मुम्बई के बन्दरगाह पर लगा । मुम्बई पहुँचते ही उन्हों ने गांधीजी के बारे में जानकारी हासिल की तथा गामदेवी में लेबर्नम रोड पर स्थित मणिभवन में उनसे मिलने आ पहुँचे । ( जारी)
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