गुरुवार, जनवरी 25, 2007

क्या वैश्वीकरण का मानवीय चेहरा संभव है ? (२)

गत प्रविष्टी से आगे :  खेती - किसानी के इस व्यापक तथा गहरे संकट के सन्दर्भ में सरकार की घोषणाएं व पैकेज इसलिए बेकार साबित हो रहे हैं कि वे किसानों की मुसीबत की असली जड़ में नहीं जाते हैं ।असली बात यह है कि भारत का किसान - बढ़ती लागत और उपज के घटते (या पर्याप्त न बढ़ते) दाम - चक्की के इन दो पाटों के बीच बुरी तरह पिस रहा है । खाद , बिजली , डीजल , पानी सबकी दरें बढ़ रहीं हैं , क्योंकि विश्व बैंक , अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष , वैश्वीकरण - समर्थक नव-उदारवादी अर्थशास्त्री , सबका कहना है कि सरकार को किसानों को अनुदान नहीं देना चाहिए , पूरी 'लागत वसूली' करना चाहिए तथा बाजार में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए । दूसरी ओर , विश्व व्यापार संगठन की नई व्यवस्था के तहत , भारत की सरहदें सस्ते आयातों के लिए पूरी तरह खोलने के बाद , विदेशों से भारी अनुदान युक्त माल के आयात की बाढ़ आ गयी है , जिसने किसान की उपज के दाम लागत के अनुरूप बढ़ने नहीं दिए । वैश्वीकरण की नई विचारधारा के अनुरूप अब सरकार किसान को पर्याप्त समर्थन - मूल्य प्रदान करने की जिम्मेदारी से भी हाथ खींचना चाहती है तथा खीच रही है । नतीजे में , देश के किसानों को भारी घाटा हो रहा है । वे करजे में डूब रहे हैं । थोड़ी भी फसल बिगड़ जाए , तो उनके सामने आत्महत्या के अलावा कोई चारा दिखाई नहीं देता । संकट के इस बुनियादी कारण को दूर किए बगैर सरकार की कोई भी घोषणाएं बेमानी हैं , उनसे कुछ विशेष हासिल नहीं होने वाला है । लेकिन यह सरकार और यह प्रधानमंत्री इस संकट का हल भी नहीं कर सकते , क्योंकि वैश्वीकरण की इस नई व्यवस्था को भारत में लाने वाले और उसके खास झंडाबरदार तो वे ही हैं । कृषि संकट के जो समाधान वे बता रहे हैं , जैसे दूसरी हरित क्रांति , जैव तकनालाजी , जीन-परिवर्तित बीज , विपणन और खाद्य प्रसंस्करण में विदेशी कंपनियों को बढ़ावा देना आदि , इससे संकट हल होगा नहीं , और ज्यादा गहराएगा ।

    आत्महत्या वाले इलाकों के लिए भारत सरकार के पैकेज का एक प्रमुख हिस्सा किसानों के लिए बैंक ऋणों में बढ़ोतरी है । लेकिन पहले इस सवाल का जवाब खोजना होगा कि बैंक ऋणों में कमी कैसे हुई और किसान सहूकारों के चंगुल में कैसे फंसे ! नई आर्थिक नीति के पहले भारतीय बैंकों के कुल ऋण का १८ प्रतिशत तक कृषि को मिलता था । अब वह घट कर १० प्रतिशत हो गया है । इसका कारण साफ है । उदारीकरण के नए माहौल में हर बैंक पर दबाव है कि वह अपने मुनाफे को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाए तथा डूबत खाते के ऋणों ( NPAs ) को कम करे । किसानों को छोटे - छोटे ऋण देने में ज्यादा झंझट है , प्रशासनिक खर्चे ज्यादा हैं तथा वसूली ज्यादा मुश्किल है । घाटे की खेती के कारण किसानों की हालत भी खराब हो रही है । इसलिए बैंक अब किसानों को कर्ज देने में कतराते हैं । किसान क्रेडिट कार्ड के प्रचार-प्रसार के बावजूद असलियत यही है ।

    मजबूरन किसान को निजी सहूकारों की शरण में जाना पड़ता है । तो यह एक दुष्चक्र बन गया है , जिसे वैश्वीकरण की नीतियों ने पैदा किया है । भारत सरकार की नई घोषणाओं से यह दुष्चक्र टूटेगा नहीं । ज्यादा संभावना यही है कि कृषि - ऋण में बढ़ोतरी के नाम पर किसानों के बजाय बड़े-बड़े फार्म हाउस के मालिकों तथा कृषि - क्षेत्र में कूद रही कंपनियों को ज्यादातर बैंक ऋण दिए जाएंगे ।

    एक तरफ , भारत सरकार अपने किसानों को किसी प्रकार की सुरक्षा न देने की नीति पर चल रही है , दूसरी तरफ दुनिया के अमीर देश अपने कृषि-क्षेत्र को भारी अनुदान दे रहे हैं । विश्व-व्यापार संगठन के तमाम नियम - कानून व समझौतों के बावजूद पिछले दस वर्षों में उनके कृषि अनुदान कम नहीं हुए , बढ़ते गए हैं । इस समय वे एक वर्ष में करीब ३२१ अरब डॊलर क विशाल अनुदान अपने कृषि - क्षेत्र को दे रहे हैं ।इसके माध्यम से वे पूरी दुनिया की खेती , खाद्य-आपूर्ति , कच्चे माल आपूर्ति , राजनीति व कूट्नीति पर अपनी कंपनियों का व अपना वर्चस्व तथा नियंत्रण कायम करके रखते हैं । वैश्वीकरण की विश्व-व्यवस्था कितनी दुरंगी , पाख्ण्डी , अन्यायपूर्ण और विषमतापूर्ण है , इसका सबसे बढ़िया उदाहरण कृषि - क्षेत्र ही है ।

    इसलिए भारत के किसानों की आत्महत्याएं कोई संयोग या तात्कालिक दुर्घटना नहीं है , यह नई व्यवस्था का एक अनिवार्य हिस्सा है । यदि भूमि हदबन्दी कानूनों में चल रहे संशोधनों , कन्ट्रैक्ट खेती के प्रावधानों और कंपनियों के खेती में प्रवेश को साधारण किसानों के इस संकट के साथ मिलाकर देखें , तो योजना साफ हो जाएगी । योजना यह है कि भारत के किसानों के हाथ से खेती निकलकर कंपनियों के हाथ में आ जाए । किसानों की जमीन बिकेगी या नीलाम होगी ( बैंक - ऋण वसूली का काम तहसीलदारों व राजस्व अधिकारियों को सौंपना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है , आगे चलकर निजी ठेकेदारों को वसूली के ठेके दिए जाएंगे और ऋण वसूली का भी एक बाजार बनेगा ) और वे नगरों तथा महानगरों में मजदूर व झुग्गीवासी बनकर आते जाएंगे । यूरोप - अमरीका में यह प्रक्रिया पहले हो चुकी है , लेकिन वे परिस्थितियाँ अलग थीं ।वहाँ की संख्या भी कम थी और तब पूरी दुनिया को लूटने , कब्जा करने व उस पर आधारित औद्योगीकरण का दौर वहाँ चल रहा था । खेती से बेदखल किसान उसमें खप गए । लेकिन भारत की विशाल ग्रामीण आबादी कहाँ जाएगी और कहाँ खपेगी - यह एक विशाल सवाल हमारे सामने खड़ा है ।

    भारत की खेती का अभूतपूर्व संकट और भारत के किसानों का विनाश वैश्वीकरण का एक दानवी चेहरा है । इस चेहरे को कितना भी लीपा-पोता जाए , ढ़का जाए या मुखौटा लगाया जाए , इसे मानवीय चेहरा नहीं बनाया जा सकता । ( जारी )

 

 

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