सोमवार, अप्रैल 23, 2007

सीख वाले खेल और गैर - जवाबदेह चुनाव आयोग

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खेल - खेल में

संजय मंगला गोपाल । संजय ने अपने नाम से अपने माता - पिता का नाम जोड़ा है । आम तौर पर नाम के साथ जातिसूचक 'सरनेम' (गुजराती में एक इसके लिए शब्द है-'अटक') जुड़ा रहता है। महाराष्ट्र में समता आन्दोलन और छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़े कई तरुणों ने अपने माता-पिता के नाम जोड़ना, सरनेम की जगह बरसों से शुरु किया है। भारतीय समाज में जाति की सूचना सिर्फ़ इतने से न मिले, यह नामुमकिन है।सन १९८५ में बाबा साहब अम्बेडकर की जयन्ती में मेरा भाषण सुनने के बाद एक छात्र मुझसे मिला और बोला,'आपका भाषण तो अच्छा रहा लेकिन आपकी जाति क्या है?' मैंने उसे कहा कि मैं जाति में यकीन नहीं रखता।उसने पलट कर कहा , ' कोई जाति होगी जो आप में यकीन रखती होगी,उसीका नाम बता दीजिये '। मैं निरुत्तर हो गया ।

बहरहाल तरुणों और किशोरों के लिए आयोजित ' समता संस्कार शिबिरों ' में संजय कुछ खेलों के जरिये प्रशिक्षण देते हैं । जाति प्रथा को समझने और उसके उन्मूलन पर प्रशिक्षण हेतु जो खेल होता है उसमें ५-७ की छोटी टोलियों में लड़के- लड़कियों को बाँट दिया जाता है। छोटी टोलियों में बोलने का संकोच कम होता है और कई टोलियों से कई विचार आयें इसकी सम्भावना भी अधिक रहती है ।सभी टोलियों को कुछ प्रश्न दे दिये जाते हैं जिन पर टोली का हर सदस्य अपने जवाब देता है । टोली में हुई चर्चा के नोट्स लेने का काम एक साथी करता है । टोलियों से आये निष्कर्षों की चर्चा सभी शिबिरार्थियों के बीच होती है । जाति-प्रथा उन्मूलन वाले खेल में ऐसे सवाल होते हैं :-

  1. अपनी जाति की जानकारी और अहसास आपको पहले-पहल कब और कैसे हुआ ?
  2. अन्य जातियों ( ऊपर की तथा नीचे की ) के साथ आपकी जाति के सम्बन्ध , व्यवहार के बारे में बताइये ।
  3. क्या जाति विहीन समाज की स्थापना स्थापना सम्भव है ? क्यों और कैसे ?

सभी टोलियों की रपट प्रस्तुत होते वक्त जाति-प्रथा के बारे में एक छवि उभर कर आ जाती है। जाति का प्रथम अहसास किसी को अपने से काफी उम्र वाले व्यक्ति द्वारा ,'बाबा प्रणाम' सुन कर हुआ था तो किसी को जाति-सूचक गाली सुनकर ।

मैंने पूर्वी उत्तर प्रदेश के वयस्कों के बीच इस खेल में पहली बार भाग लिया था । महाराष्ट्र के फुले-अम्बेडकर और समाजवादियों के सामाजिक आन्दोलन में ऐसे खेल नये नहीं हैं । उत्तर प्रदेश के समाजवादी आन्दोलन के बुजुर्ग साथियों के लिए भी यह नया अनुभव था।दरअसल पूर्वी उत्तर प्रदेश के समाजवादी 'अंग्रेजी हटाओ-भारतीय भाषा लाओ' और अलाभकर खेती पर लगान न लगाने के आन्दोलनों से जुड़े रहे हैं लेकिन जाति-प्रथा उन्मूलन और स्त्री-पुरुष समता आदि के संस्कार के लिए ऐसे कार्यक्रमों का अभाव रहा है। शायद जिस रूप में हम शोषक होते हैं,वहाँ हम शोषण नहीं देखना चाहते। महाराष्ट्र में अन्तरजातीय विवाह करने वाले जोडों के सार्वजनिक सम्मान भी आयोजित होते हैं।

ऐसे ही नर-नारी समता और साझा संस्कृति को समझने के लिए होने वाले खेल भी 'समता संस्कार शिबिरों' में काफी लोकप्रिय होते है। दूसरे धर्म के बारे में क्या जानते हैं? इस सवाल के जवाब में प्राय: सभी की स्थिति धुरविरोधी के चिट्ठे पर अविनाश द्वारा बतायी गयी अपनी हालत(islaam ko nahi jaanta) जैसी होती है ।

गैर जवाबदेह चुनाव आयोग

संजय के एक अन्य खेल में पहला सवाल राज्य-व्यवस्था के बारे में होता है। संक्षिप्त चर्चा के बाद ही इस नतीजे पर लोग पहुँचते है कि अन्य व्यवस्थाओं से मौजूदा लोकतंत्र बेहतर है। बहुदलीय लोकतंत्र की अहमियत समझ लेने के बाद राजनीति की अहमियत समझना आसान हो जाता है ।

आज चुनाव व्यवस्था की एक गम्भीर कमी की ओर ध्यान खींच रहा हूँ । चुनाव-संचालन की संवैधानिक जिम्मेदारी भारत के निर्वाचन आयोग की है और स्थानीय प्रशासन की मदद से आयोग इसे सम्पन्न करता है । आयोग के द्वारा राजनैतिक दलों पर अंकुश रखने ,नकेल कसने और सख्ती की खबरें चुनाव के दिनों में सुर्खियों में रहती हैं । कई चुनाव आयुक्त तो राजनैतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध दिए गए बयानों से आकर्षण का केन्द्र भी बन जाते हैं । उसी उत्साह में टी.एन. शेषन सिर्फ शिव सेना के समर्थन से राष्ट्रपति का चुनाव लड़ गये थे ।

राजनीति के भ्रष्टाचार से आक्रान्त जनता चुनाव आयोग की खामियों पर गौर नहीं करती । अलबत्ता इन कमियों का शिकार जरूर हो जाती है । भारतीय प्रशासन-तंत्र में जवाबदेही का घोर अभाव है और चुनाव आयोग इससे परे नहीं है । ब्रिटिश शासन में यह जरूरी था कि उपनिवेशों की प्रजा छोटे से छोटे सरकारी मुलाजिम का साबका पड़ने पर अपने मौलिक अधिकारों को भूल कर दबा हुआ-सा रहे । क्या आजादी मिलने के ६० वर्षों के बाद एक लेखपाल(पटवारी) या सिपाही के समक्ष आम किसान दब कर नहीं रहता ?

मतदाता सूची में भारी गड़बडियों का अन्दाज पिछले लोकसभा चुनाव में एक एक क्षेत्र में हजारों लोगों के नाम गायब होने के बाद लग गया था। कई लोग जिनके पास भारत के चुनाव आयोग द्वारा जारी फोटो पहचान पत्र था लेकिन सूची में नाम न होने की वजह से मताधिकार से वे वंचित रहे । अखबार और टे.वि. चैनलों पर इन लाचार लोगों के चेहरे दिखा दिये जाते हैं , बस । लोकसभा चुनाव के बाद कई समूहों ने आयोग से इसकी शिकायत भी की थी। आयोग के निर्देश पर मतदाता सूची के पुनरीक्षण का काम प्राथमिक शालाओं के शिक्षकों के बदले डाकियों के से करवाया गया ताकि पतों की पुष्टि आसानी से हो जाये। मौजूदा चुनाव अधिसूचना जारी होने के दो दिन पहले तक वाराणसी में पहचान पत्र हेतु फोटो खींचने का काम चलता रहा( बनारस में ११ अप्रैल तक) लेकिन हजारों लोग जिन्होंने डाकियों को नाम जोड़ने या सुधारने के लिए फार्म६ दिये थे और पोस्ट-मास्टरों के दस्तखत और मुहर सहित उसकी पावती संभाल कर रखी थी उनके नाम फिर गायब थे । मतदान से वे फिर वंचित रहेंगे। बड़े दल इसे मुद्दा नहीं बनायेंगे चूंकि जिनके नाम हैं उनसे भी चुनाव तो सम्पन्न होगा ही। प्रशासन तंत्र पर चुनाव आयोग इस भारी त्रुटि के लिए कोई कदम नहीं उठायेगी।

कई साल पहले हजारों की संख्या में फोटो पहचान पत्र गंगा किनारे फेंके पड़े मिले थे। इस बार यह निर्देश था कि फोटो पहचान पत्र देते वक्त मतदाता के दस्तखत लिये जाएं तो स्थानीय अखबारों में खबर थी की बड़ी संख्या में प्रारूप ६ जला दिये गये हैं ।

मेरे पास ऐसे मतदाताओं के प्रारूप ६ की पावतियाँ और पहचान पत्र हैं जिनके नाम पुन: सूची से गायब हैं। आयोग के उपायुक्त को अधिसूचना जारी होने के पहले लिखा भी है लेकिन स्थानीय प्रशासन की इस गैरजिम्मेदारी पर आयोग की ओर से किसी कदम की उम्मीद मुझे नहीं है। अधिसूचना जारी होने के बाद अदालत भी हस्तक्षेप नहीं करती है। लोकतंत्र को कमजोर करने में नौकरशाही की भूमिका और आयोग की उनसे मिलीभगत की इस मिसाल के कारण एक-एक विधान-सभा क्षेत्र में हजारों लोग मताधिकार से वंचित रहेंगे। आप की सलाह आमंत्रित है ।

बुधवार, अप्रैल 18, 2007

' गन - कल्चर ' पर चर्चा

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    अमेरिका में निजी असलहाधारियों की तादाद दुनिया के किसी भी मुल्क से ज्यादा है और हर साल बन्दूक के गोली से मरने वालों की तादाद भी । सालाना ३०,००० लोग । निजी वैध बन्दूकों की तादाद भी २१ करोड़ है ( इनमें एक साथ कई असलहे रखने वाले भी शामिल हैं ) । वर्जिनिया-टेक परिसर में हुए दर्दनाक हादसे के बाद से अन्तर्राष्ट्रीय से ले कर चिट्ठों के स्तर तक अमेरिकी बन्दूक संस्कृति पर बहस चल रही है । बन्दूक रखने के संविधान प्रदत्त(शस्त्र रखने और धारण करने हेतु दूसरा संविधान संशोधन) अधिकार के बावजूद असलहों से सम्बन्धी कानून अमेरिका के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग हैं । भारत में दिखाये जाने वाले विदेशी समाचार चैनलों में भी शैक्षणिक परिसरों में ऐसे हादसों का इतिहास दिखाया जा रहा है । बन्दूक-धारण करने के हक के पैरोकारों का प्रमुख तर्क है , 'बन्दूक आदमी का कत्ल नहीं करती , आदमी आदमी का कत्ल करता है '।इसके बावजूद इन मौतों में से अधिकांश आत्मरक्षार्थ चलायी गयी बन्दूक से नहीं होतीं। बन्दूक संस्कृति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इस मौके पर सक्रिय हुई बन्दूक-कानूनों में सुधार की माँग करने वालों की आवाज दब-दुब जा रही है । हमारे देश में भी जो समूह माओ के चर्चित कथन ' राजनैतिक सत्ता का जन्म बन्दूक की नाल से होता है' में यकीन रखते हैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहेंगे।

     ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमन्त्री हॉवर्ड को अपनी बन्दूक विरोधी नीति की पुष्टि का अवसर मिल गया । हॉवर्ड ने बताया कि उनकी सरकार द्वारा बन्दूक धारण पर नियंत्रण कानून लागू किए जाने के पूर्व २५ करोड़ डॉलर खर्च कर निजी असलहाधारियों की ६००,००० बन्दूकें सरकार ने खरीदीं थीं ।यह बन्दूकें किसानों ,शिकारियों और जनता के अन्य तबकों से खरीदी गयीं ।

    कल ( दिनांक १९ अप्रैल ) को वर्जिनिया शहर की दो शस्त्र विक्रेता दुकानों द्वारा आयोजित एक स्पर्धा होने जा रही है ।वर्जिनिया-टेक परिसर इसी शहर में है।  हादसे के बावजूद स्पर्धा मुल्तबी नहीं रखी गयी , गौरतलब यह है । यह दो दुकानें है - बॉब मोट्स स्टोर्स तथा ओल्ड डोमिनियन गन एन्ड टैकल्स । इन दुकानों में १०० डॉलर की खरीददारी करने वालों की लॉटरी कल खुलेगी तथा जीतने वाले को बतौर ईनाम ९०० डॉलर की राइफ़ल अथवा हैन्डगन मुफ़्त दी जाएगी । कहा जा रहा है कि यह प्रमोशन - कार्रवाई न्यू यॉर्क के महापौर माइकल ब्लूमब्रर्ग द्वारा यह घोषित किए जाने के प्रतिकार में आयोजित है कि वर्जिनिया की दो तथा अन्य राज्यों की २५ अन्य शस्त्र-विक्रेता दुकानों पर मुकदमा करेंगे , चूँकि इनके द्वारा अत्यन्त सरलता से शस्त्र बेचे जाते हैं तथा यह हिन्सक वारदातों की जड़ में है । ब्लूमबर्ग ने वर्जिनिया के दुकानों में 'छुपे-खरीददारों' को भेज कर यह साबित करने की कोशिश की है । यह माना जाता है कि वर्जिनिया सरलता से बन्दूक प्राप्त किये जाने वाले राज्यों की सूचि में दूसरे नम्बर पर है । वर्जिनिया-टेक परिसर में हत्याओं के लिए जिम्मेदार ग्रीन कार्ड धारक कोरियाई छात्र ने करीब एक महीना पहले वैध तरीके से इन में से एक दुकान से असलहा और कारतूसें खरीदीं थीं । पहचान के लिये अपना चालक लाइसेन्स , ग्रीन कार्ड और चेक बुक दिखा कर उसे शस्त्र दिया गया था। वर्जिनिया में उसकी पृष्टभूमि आदि की रपट हासिल करना बन्दूक बेचते वक्त जरूरी नहीं है । इस शहर की एक अन्य दुकान पर एक विज्ञापन है - ओसामा बिन लादेन के थोबड़े पर निशाना लगाने वाला चक्र बना है और उस पर दो बन्दूकें तनी हुई हैं । सीएनएन के एक संवाददाता के चिट्ठे पर यह भी कहा गया परदेसियों को बन्दूक-धारण का हक नहीं मिलना चाहिए।

    आतंकवादियों की गलत ही सही एक राजनैतिक विचारधारा होती है , जो छिपी नहीं है। इस प्रकार की हत्याओं के जिम्मेदार व्यक्ति के दिमाग में क्या चल रहा है यह जानना निश्चित तौर पर अधिक कठिन होगा।  

    यही मुल्क दुनिया के सबसे संहारक शस्त्रों के जखीरे का मालिक भी है इसलिए बन्दूक के दर्शन पर वहाँ चल रही बहस पूरी दुनिया के लिए गौरतलब हो जाती है ।

सोमवार, अप्रैल 16, 2007

पूर्वी उत्तर प्रदेश में चुनावी राजनीति में आई गिरावट

उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों के आखिरी दो चरणों में पूर्वी उत्तर प्रदेश में चुनाव होंगे । अन्तिम चरण में होने वाले चुनावों में दो सीटों ( सीयर,जि. बलिया और कौड़ीराम,जि. गोरखपुर में क्रमश: साथी नवमी यादव और साथी दीपक पाण्डे ) पर समाजवादी जनपरिषद भी चुनाव मैदान में है । हमने इन चुनावों की बाबत अपनी घोषणा जनता के समक्ष की है, और चिट्ठे पर भी ।

बहरहाल , आज की प्रविष्टि में मुख्यधारा के दलों में जो परिवर्तन ( नकारात्मक ) मुझे चर्चा के लायक लग रहे हैं उन्हें पेश कर रहा हूँ । प्रदेश की विधान सभा में चुनाव- पूर्व समझौते के साथ पूर्ण बहुमत अन्तिम बार १९९३ में आया था । राम-मन्दिर आन्दोलन को चरम पर ( बाबरी मस्जिद को गिराने के बाद) पहुँचा चुकी भाजपा तीसरे नम्बर की पार्टी बन गयी थी और तब से अब तक उसका यही स्थान रहा है । जनता के बीच उस चुनाव में "मिले मुलायम - कांशीराम,हवा हो गए 'जै श्री राम' " नारा लोकप्रिय हुआ था । यह एक स्वाभाविक गठबन्धन था जिसमें भारतीय समाज के साम्प्रदायिकता-विरोधी तबकों- पिछड़ों और दलितों की एकता ने साम्प्रदायिक और ब्राह्मणवादी शक्ति को आसानी से शिकस्त दी थी। हिन्दू राष्ट्र का सामाजिक ढाँचा वर्णाधारित होगा इस तथ्य के कारण दबायी गयी जातियों ने भाजपा का साथ नहीं दिया था । बाद के चुनावों में भी अलग - अलग चुनाव लड़ने के बावजूद पहले और दूसरे स्थान पर यह दोनों दल ही रहे हैं। मौजूदा विधान सभा चुनाव में भी पहला और दूसरा स्थान बसपा या सपा में कौन पायेगा यह कहना कठिन है लेकिन भाजपा का तीसरा स्थान ज्यादा भरोसे के साथ कहा जा सकता है ।

१९९३ में राजनीति में जो गठबन्धन हुआ था उसके अनुरूप समाज के स्तर पर ऐसे कार्यक्रम नहीं चलाये गये जिनसे पिछड़ों और दलितों में देश बनाने के लिए आपसी एकता बने । फिर भी उस चुनाव में जीत कर आने वाले उम्मीदवारों में साइकिल-मिस्त्री , खेत-मजदूर और बुनकर जैसे तबकों के प्रतिनिधि अच्छी संख्या में थे। इन चौदह वर्षों में मुख्यधारा की राजनीति में आई जो गिरावट मुझ जैसे राजनैतिक कार्यकर्ता को सब से अधिक अखरती है- वह है ऐसे जमीनी कार्यकर्ताओं का चुनाव मैदान से लोप । बहुजन समाज पार्टी में बिना विपुल राशि दिये टिकट पाना नामुमकिन हो गया है।विपुल राशी देने वाले ऐसे व्यक्ति जो राजनीति में थे ही नहीं और नवधनाढ्य तबकों के हैं अचानक चुनाव मैदान में हैं । पूर्वांचल से मुम्बई जा कर सफल व्यवसायी , बिल्डर या ठेकेदार बने लोग चुनाव लड़ने का टिकट खरीद कर आ डटे हैं ।

'संसोपा ने बाँधी गाँठ , पिछड़ा पावे सौ में साठ' के हिसाब से उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में कर्पूरी , मुलायम सिंह,बेनीप्रसाद वर्मा, रामविलास पासवान,लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे कार्यकर्ता नेता बने । समाज के पिछड़े-दलित तबकों में आई चेतना का नतीजा है कि अब इन दो प्रमुख राज्यों में मुख्य मन्त्री पद के दावेदार और उनके विकल्प भी इन्हीं तबकों से होते हैं ।मायावती ,मुलायम सिंह और कल्याण सिंह प्रदेश के तीन प्रमुख दलों के मुख्य मन्त्री पद के प्रत्याशी हैं।

पिछड़ी जातियों में संख्या के लिहाज से कुछ बड़ी जातियों के अलावा सैंकड़ों अति-पिछड़ी जातियाँ हैं । 'सामाजिक न्याय' के लक्ष्यविहीन दौर में इस चुनाव में ५-६ जाति-आधारित दल चुनाव लड़ रहे हैं और मायावती के सर्वजन-समाज के नारे से प्रेरित हो इन दलों ने भी सवर्णों को टिकट बेचे हैं । ऐसे ही एक दल के एक उम्मीदवार ने अपनी जाति(दल वाली जाति का नहीं) का एक सम्मेलन बलिया में आयोजित किया । सम्मेलन में आये सभी प्रतिनिधियों को एक-एक तलवार और पीला साफा दिया गया ।इसका परिणाम हुआ कि अगले दिन से दल की जाति के कार्यकर्ताओं ने कार्यालय में आना बन्द कर दिया । इन दलों के नेताओं ने सभी बड़े दलों से सौदेबाजी के काफी प्रयास किये लेकिन सफलता नहीं मिली।

जब दलित-पिछड़े और महिला नेतृत्व को राजनीति में आगे लाने, उन्हें चुनावों में ज्यादा संख्या में लड़ाने की बात होती थी तब उसके साथ यह भी निहित रहता था कि दल से जुड़े सवर्णों को खाद बनने की तैय्यारी रखनी होगी। बीज और खाद का सम्बन्ध बिगड़ चुका है।

मेरे दल के प्रान्तीय महामन्त्री साथी जयप्रकाश सिंह के पास 'ठाकुर अमर सिंह' का एक पत्र आया है ।ऐसे पत्र हजारों लोगों को भेजे गये होंगे,अन्दाज है। मँहगे-चिकने लेटर-पैड की पृष्टभूमि में दो तलवारें और ढाल भी बनी हुई है।ऊपर बोल्ड अक्षरों में जो नाम है वह उक्त पैड से उद्धृत है।

भारतीय जनता पार्टी ने अपना दल ,जद(यू) से समझौता किया है और अपना दल के अध्यक्ष ही बनारस के कोलसला क्षेत्र से भाजपा के विरुद्ध चुनाव लड़ रहे हैं ।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश की बोली में कहा जाए ' मूस मोटायी , लोढ़ा होई' तो वह कहावत भी सही ठहरेगी या नहीं इस पर भी विद्वानों में मतभेद होगा।

बेनीप्रसाद वर्मा जैसे अनुभवी नेता ऐन चुनाव के पहले सपा से अलग हुए हैं और बहराइच , बाराबंकी आदि की सीटों पर आरिफ़ मोहम्मद खान का साथ ले कर चुनाव लड़ रहे हैं। बनारस में रहने वाले इनके एक निकट राजनैतिक कार्यकर्ता ने कहा,' नेताजी ने यह काम पाँच साल पहले किया होता तो आज मुख्य मन्त्री के दावेदारों में से होते'। बहरहाल बेनी बाबू चुनाव के बाद केन्द्र में मन्त्री बनने की आशा जरूर ले कर चल रहे होंगे क्योंकि वे सोनिया गाँधी के दरबार में मत्था जरूर टेक आये हैं ।

महाराष्ट्र के किसान नेता शरद जोशी वैश्वीकरण की नीतियों के स्मर्थक हैं और राजग खेमे में हैं । उत्तर प्रदेश के किसान नेता चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत जो अपने संगठन भारतीय किसान यूनियन नाम के साथ ( अराजनैतिक) जोड़ते हैं अपने बेटे की एक सीट के बदले कांग्रेस से समझौता कर चुके हैं ।

मंगलवार, अप्रैल 10, 2007

मीडिया प्रसन्न , चिट्ठेकार सन्न ....

सरकार प्रसन्न ,

घोड़ा सन्न ,

कि घोड़े से तेज दौड़ता है -

कागज का घोड़ा .

- राजेन्द्र राजन

कवि मित्र राजेन्द्र राजन की यह छोटी-सी कविता उनकी 'घोड़ा' - सिरीज़ से ली गई है । कई अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया प्रतिष्ठानों द्वारा ब्लॉगों के 'घुड़साल' या अस्तबल शुरु किए जाने की सूचना पाने के बाद से इसका बार-बार याद आना लाजमी है । अस्तबल शब्द शायद अंग्रेजी के stable से पहले गढ़ा गया होगा , ध्वनि और तवारीख के लिहाज से लगता है । विलायत में घोड़े पहुँचे ही कब ?

अपने देश में हम जैसे दिल्ली के अखबारों और चैनलों को राष्ट्रीय चैनल और दिल्ली के बुद्धिजीवियों को राष्ट्रीय बुद्धिजीवी मान लेते हैं उसी गणित से अमेरिकी हफ़िंग्टन पोस्ट या इग्लैंड के गार्जियन अखबार का 'कमेन्ट इज़ फ़्री' जैसे चिट्ठों के अस्तबलों को अन्तर्राष्ट्रीय चिट्ठा-घुड़साल मानना होगा । साइबर जगत के 'ऑस्कर' कहे जाने वाले पुरस्कार(इन वेब्बी पुरस्कारों पर फिर कभी) इन्हें मिलेते रहे हैं । इन मीडिया - चिट्ठों की सामग्री तय करने में अखबार के स्थापित स्तंभकारों के अलावा कुछ चर्चित चिट्ठेकार भी चुने जाते हैं । गार्जियन के अस्तबल की शुरुआत में अखबार के चार वरिष्ठ सम्पादकीय स्टाफ़ को जिम्मा दिया गया कि वे चिट्ठे और अखबार के बीच तालमेल बैठाने का काम करें । गार्जियन अनलिमिटेड की मुख्य सम्पादक एमिली बेल और ज्यॉर्जिना हेनरी इस परियोजना की शुरुआत से जुड़ी रहीं । एमिली बताती हैं ,' गत वर्ष मार्च महीने(२००६) में मैंने इस काम को शुरु किया। दो महीने बीतते-बीतते पेशेवर स्तंभकारों और चिट्ठेकारों (जिन्हे मैं लिखने के लिए चुनती थी) के सन्दर्भ में मुझे अपना नजरिया बदलना पड़ा । ये चिट्ठेकार मुझे अत्यन्त बहुश्रुत और पाण्डित्यपूर्ण लगे ।' इन चिट्ठेकारों द्वारा बिना मेहनताना लिए अपनी रुचि के विषयों पर बहस शुरु करने की ललक देख कर एमिली अचरज में पड़ जाती हैं । हांलाकि प्रतिदिन चुने गये टिप्पणीकारों और अखबार द्वारा निमंत्रित टिप्पणीकर्ताओं को धन भी दिया जाता है।

चिट्ठे चुनने का क्रम हिन्दी में भी शुरु हुआ है , फिलहाल बिना ईनाम।यहाँ यह शुरु करने वाले चिट्ठे शशि cum(या कम ?) अस्तबल ज्यादा लोकमंच हैं। इस प्रयोग(गार्जियन वाले) से जुड़े रसब्रिजर कहते हैं , 'हमने जो प्रयोग किया है वह पहले किसी अखबार ने न किया होगा - दरमाह पाने वाले स्थापित प्रभु-स्तंभकारों को हम उसी अखाड़े में उतारते हैं जहाँ बिना पैसों के लिखने वाले हैं।पेशेवर पत्रकारिता क्या है और क्या नहीं , और दोनों एक ही अखाड़े में कैसे चलेंगे यह हम इस प्रयोग के दौरान तय करेंगे।'

बहरहाल इस स्थापित मीडिया समूह ( गार्जियन) को अपने अस्तबलों से जो मिला है उस पर गौर करें : ५०,००० पाठक टिप्पणियाँ और मासिक बीस लाख देखने वाले । एमिली बताती है कि हफ़िग्टन पोस्ट नौ महीने में ५०० चिट्ठेकारों को जोड़ सका था,हमने यह संख्या दो महीने में हासिल कर ली । एमिली का कहना है , ' हर युवा पत्रकार को चिट्ठेकारी पर हाथ आजमाना चाहिए ।' यहाँ हाथ आजमाना शुरु करते न करते मुक्ति का बोध होने लगता है।

इस माध्यम (चिट्ठाकारी) में सबसे जरूरी है पारदर्शिता । कहीं का ईंट और कहीं का रोड़ा जोड़ते वक्त यदि स्रोतों का जानबूझकर जिक्र न हो या अथवा किसी के अन्य स्थलों पर लिखे गये बयानों को ऐसे जोड़ देने से मानो वे बयान भी वहीं दिये गये हों बवेला ज्यादा होता है । - ऐसे में चिट्ठालोक में विश्वसनीयता ज्यादा तेजी से लुप्त हो जाती है और लुप्त हो जाते हैं पाठक । हाल ही में प्रसिद्ध हॉलीवुड अभिनेता ज्यॉर्ज क्लूनी के सी.एन.एन के चर्चित कार्यक्रम लैरी किंग लाइव तथा गार्जियन को दिये गये साक्षात्कारों को हफ़िंग्टन पोस्ट के मोहल्ले अस्तबल पर क्लूनी की चिट्ठा प्रविष्टि के तौर पर छापने पर विश्वसनीयता का सवाल उभर कर आया था। इस प्रविष्टि के साथ मूल स्रोत का जिक्र नहीं था।क्लूनी को कहना पड़ा , 'मैं उन बयानों पर कायम हूँ लेकिन यह चिट्ठा मैंने नहीं लिखा । सुश्री हफ़िंग्टन ने मेरे पूर्व के साक्षात्कारों से सामग्री लेने की अनुमति भी मुझसे ली थी।मुझसे उन्होंने सिर्फ़ मेरे उत्तरों को(प्रश्न हटा कर) सम्मिलित करने की अनुमति नहीं ली थी और इसी कारण पाठकों को यह लग रहा है कि यह मेरा लेख है।मुझसे पूछे गए सवालों के जवाबों और मेरे मौलिक लेख में अन्तर होगा ही ।'

टेलिविजन ,अखबार या रेडियो फोन कम्पनियों से व्यावसायिक सौदा तय कर के चाहे जितने पूर्व-निर्धारित, निश्चित विकल्पों वाले एस.एम.एस. प्राप्त कर लें और उन्हें फ़ीडबैक की संज्ञा दें , इन माध्यमों में संवाद मोटे तौर पर एकतरफा ही होता है । संजाल पर परस्पर होने वाले संवाद की श्रेष्ठता इन सब पर भारी है । ऐसे में अन्य माध्यमों द्वारा संजाल पर हाथ आजमाने को जरूर बढ़ावा दिया जायेगा ।

फिर दिल्ली की राष्ट्रीय मीडिया हस्तियाँ अपने कारिन्दों को अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया समूहों की नकल करने के लिए प्रोत्साहित ही करेंगी अथवा नहीं ? क्योंकि कागजी घोड़ों से भी तेज होता है साइबर घोड़ा ।

सोमवार, अप्रैल 09, 2007

चिट्ठेकारी सम्मोहक आत्ममुग्धता की जनक

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    चिट्ठेकारी के दस साल पूरे होने पर काफ़ी कुछ लिखा जा रहा है । करीब सात करोड़ चिट्ठों के अस्तित्व में होने का मौजूदा अनुमान है और उन पर करीब पन्द्रह लाख प्रविष्टियाँ हर रोज़ डाली जाती है । दस साल पहले न्यू यॉर्कवासी डेव वाइनरने पहली प्रविष्टि में उन वेब साइटों का जिक्र किया था जिन पर उस दिन वह गया था ।ब्लॉग शब्द करीब दो साल बाद आया लेकिन वाइनरकी प्रविष्टी को चिट्ठाकारी की पैदाइश की तारीख मानते हुए दुनिया में कई जगह पिछले हफ़्ते चिट्ठेकारों ने दस साल पूरे होने के आयोजन किए ।

    चिट्ठेकारी का शौक ब्लॉगर.कॉम के १९९९ स्थापना के बाद बढ़ने लगा । टेक्नोरैटी के प्रमुख डेव सर्फ़ी के अनुसार दुनिया भर में रोजाना करीब १२०,००० नए चिट्ठे बन रहे हैं, अर्थात हर पल १.४ चिट्ठे । टेक्नोरैटी के आँकड़ों के अनुसार दो तिहाई प्रविष्टियाँ जापानी और अंग्रेजी में होती हैं । ज्यादातर चिट्ठों पर आने वालों का समूह बहुत छोटा होता है परन्तु कुछ वाकये ऐसे भी हुए हैं जब चिठों की प्रविष्टियाँ अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियों में रहीं हैं।इरान और चीन जैसे मुल्कों में प्रतिपक्ष और बदलाव की आवाजें भी इनके द्वारा मुखरित हुई हैं ।
    चिट्ठेकारी का चिन्ताजनक पक्ष प्रस्तुत करते हैं एन्ड्र्यू कीन जैसे शक्स । डॉट कॉम से जुड़े रहे एन्ड्र्यू की किताब Cult of the Amateur : How Today's Internet is Killing Our Culture आगामी जून माह में छप कर आयेगी ।उनके अनुसार, 'चिट्ठेकारी का सम्मोहन लोगों में यकीन पैदा कर देता है कि उनके पास बताने के लिए काफ़ी कुछ है जो रुचिपूर्ण भी है , दरअसल ऐसा होता नहीं है ।लोग खुद से खुद के बारे में बतियाते-बतियाते आत्ममुग्धता के शिकार हो रहे हैं ।'

[ गार्जियान अखबार में बॉबी जॉनसन के आलेख पर आधारित ]

शुक्रवार, अप्रैल 06, 2007

विधानसभा में विपक्ष में बैठेंगे, हम

उत्तर प्रदेश विधानसभा का यह चुनाव एक ऐसे समय में हो रहा है जब वैश्वीकरण की शक्तियों के आगे राजनीति घुटने टेक रही है । राज्य सत्ता का दायरा छोटा हो रहा है , उसके साधन और शक्तियाँ घट रही हैं , राजनैतिक संगठनों की विश्वसनीयता घट रही है । राजनैतिक आन्दोलन की आभा और आकांक्षा कम होती जा रही है । आम जनता अपने हाथों से अपनी नियति का निर्माण कर सकती है - यह विश्वास टूटता जा रहा है ।

बेलगाम पूँजीवाद पर नकेल डालने की बात दो दूर सपा-सरकार ने देश के नामी-बदनाम पूँजीपतियों को विकास-परिषद में औपचारिक ओहदा दिया है । इस विकास-परिषद से जुड़े सपा-प्रेमी उद्योगपतियों द्वारा प्रदेश में रोजगार सृजन न कर कई स्थानों पर सरकार की मदद से किसानों की जमीनें हड़प ली हैं । नवधनाढ्यों के लिए शहर बनाए जा रहे हैं,इन जमीनों पर ।

पिछले तीन चुनावों से प्रदेश की जनता किसी राजनैतिक दल को स्पष्ट बहुमत देने लायक नहीं मान रही है । एक बार राष्ट्रपति शासन के छ: माह बीत जाने के बाद तीन प्रमुख विपक्षी दलों को तोड़ कर तथा शराब-सिंडीकेट और माफ़िआ निर्दलीय विधायकों को मन्त्री पद के लोभ से जोड़ कर कल्याण सिंह ने सरकार बनायी थी । नैतिकता और शुचिता के भाजपा के दावे का खोखलापन बेपर्दा हुआ था ।तब से अब तक की सभी सरकारों में इन यह २०-२५ विधायक मन्त्री रहे हैं । मुख्यधारा के सभी दल इस परिघटना को मुद्दा नहीं बनाते , चूँकि चुनाव उन्हें भी यह हथकण्दा अपनाना पड़ सकता है । ' सरकार चाहे जिसकी बने, हम मन्त्री बनेंगे'- ऐसे निर्दलीय भी दावा ठोक रहे हैं । समाजवादी जनपरिषद विधानसभा में विपक्ष में बैठने की घोषणा के साथ चुनाव लड़ रही है ।

यह मात्र संयोग नहीं है कि राज्य सत्ता का दायरा इतिहास के उस दौर में सिमट रहा है जब पिछड़े , दलित और आदिवासी समाज का रजनीतिकरण हो रहा है । आर्थिक नीतियों से इन तबकों पर पड़ रही मार को मुद्दा न बना कर , सामाजिक न्याय के पक्षधर शक्तियाँ जातिगत दल और जाति-सम्मेलन आयोजित करवा रही हैं । जनता की समस्याओं के लिए संघर्ष करने के बजाय जाति के नाम पर वोट लेने का आसान तरीका चुन लिया गया है । दरअसल जातिविहीन समाज बनाने का आदर्श उनके 'सामाजिक न्याय' के आड़े आता है । बहुजन समाज पार्टी ने आज तक अपनी आर्थिक नीति घोषित नहीं की है ।

विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने का कानून संसद में बिना विरोध पास हुआ था। राष्ट्रवादी होने का दावा करने वाली भाजपा खेमे के लोगों का प्रशिक्षण ऐसा हुआ है कि वे राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिकता में फर्क नही कर पात उनकी साम्प्रदायिक भावना ज्यादा प्रबल है और दबाव पड़ने पर उनका राष्ट्रवाद दब जाता है। कम्युनिस्टों से वक्र-बेवक्त अभय प्राप्त करने वाली सपा नन्दीग्राम में सेज्विरोधी किसानों की हत्या पर चुप हो जाती है। जन विरोधी आर्थिक नीतियों की प्रणेता कांग्रेस हांलाकि उत्तर प्रदेश में अप्रासंगिक हो चुकी है परन्तु यह जरूरी है कि उसे कमजोर किया जाय ।

समाजवादी जनपरिषद मानती है कि उत्तर प्रदेश के सही विकास के लिए :

  1. शहरीकरण और बड़े उद्योगों के बजाय गाँव, छोटे उद्योग व हस्तशिल्प व खेती के विकास पर ज्यादा ध्यान देना होगा । गाँव और खेती को देश के विकास के केन्द्र में रखना होगा और उसकी खुशहाली को सर्वोच्च प्राथमिकता देना होगा । खेत बचेगा तो देश बचेगा । जो खेती अभी घाटे का धन्धा और कर्ज का जाल है , उसे लाभकारी बना कर गाँव की समृद्धि का आधार बनाना होगा ।बढ़ती लागत और उपज के कम दामों के बीच किसान पिस रहा है । विश्वव्यापार संगठन के हुक्म से आयातों से प्रतिबन्ध हटाने, आयात शुल्क कम करने और अंतर्राष्ट्रीय बाजार खुला कर देने से कृषि उपज के दाम या तो गिर रहे हैं या उस अनुपात में बढ़ नहीं रहे हैं । किसानों को इस हालत में ला खड़ा करने के लिए केन्द्र व प्रदेश सरकार तथा मुख्यधारा के दल दोषी हैं ।
  2. भारी मशीनों तथा भारी पूँजी वाली तकनालाजी के स्थान पर श्रम-प्रधान व स्थानीय संसाधनों व हुनर पर आधारित उद्योग धन्धों अपनाने चाहिए । बड़ी परियोजनाओं की जगह छोटी योजनाओं को ही प्राथमिकता देना होगा ।
  3. शान-शौकत , विलासिता और मंहगे उपभोक्ता सामानों के बजाय आम लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने पर जोर देना चाहिए । भोजन , आवास , पेयजल ,सिंचाई , शिक्षा और इलाज की उचित एवं न्यूनतम व्यवस्था हर नागरिक के लिए होनी चाहिए ।
  4. विदेशी कर्ज , विदेशी पूँजी , विदेशी तकनीक तथा विदेशी कम्पनियों से मुक्ति पा कर देश को स्वावलम्बी बनाना होगा
  5. जल-जंगल-जमीन व अन्य प्राकृतिक संसाधनों का प्रबन्धन स्थानीय लोगों को देना होगा और उनकी जरूरतों को प्राथमिकता देनी होगी ।
  6. पंचायत-राज और स्थानीय निकायों के कानून व अन्य नियम कम से कम और इतने सरल और छोटे बनाये जाँए कि नौकरशाही अपने दाँव-पेंच न चला सके । इन निकायों के स्वयं के आय के पर्याप्त स्रोत हों और वे स्वावलम्बी हों ।

समाजवादी जनपरिषद की मान्यता है कि प्रदेश की राजनीति में कोई भी नया मोर्चा तभी सार्थक हो पायेगा जब वैश्वीकरण के शिकंजे से देश को मुक्त कराने का ठोस प्रस्ताव रखेगा तथा सार्वजनिक जीवन में नैतिकता के मानदण्डों को स्थापित करने के लिए आचार संहिता बनाकर सब से पहले अपने ऊपर लागू करेगा ।

देश के समक्ष आसन्न खतरों का मुकाबला करने के लिए एक वैकल्पिक राजनैतिक खेमा बनाना ऐतिहासिक जरूरत है । समाजवादी जनपरिषद इस दिशा में कोशिश कर रही है । सफलता तब मिलेगी जब देश के जागरूक नागरिक प्रचलित राजनीति की निन्दा के साथ-साथ बेहतर राजनीति का सम्र्थन भी करेंगे। प्रदेश के नागरिको से अपील करते हैं कि वैकल्पिक राजनीति खड़ा करने के हमारे प्रयासों को समर्थन दें , सफल बनायें ।

बुधवार, अप्रैल 04, 2007

राजनीति में मूल्य (शेष भाग) : किशन पटनायक

पिछली प्रविष्टी से आगे : ऊपर की बातों से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि राजनीति में मूल्यों की प्रबलता का होना एक निरन्तर स्थिति नहीं है । यह भी सोचना गलत है कि साधारण मतदाता या जनसाधारण मूल्यों पर बहुत आग्रह रखता है या जनसाधारण के दबाव से ही राजनीति सही दिशा में प्रवाहित होगी ; इतिहास बताता है कि यह काम आम आदमी का दायित्व नहीं है । मूल्यों और दिशाओं का प्रवर्तन बुद्धिजीवी करते हैं - तब करते हैं जब वे या तो सत्य की खोज करते हैं या लोक के प्रति अपने को उत्तरदायी समझते हैं । एक छोटे समूह के द्वारा संगठित-प्रचार होकर ये मूल्य जनसाधारण का समर्थन प्राप्त करते हैं और व्यापक समाज में हलचल पैदा करते हैं । इसी बिन्दु पर जनसाधारण मूल्यों का संरक्षक भी बनता है ।लेकिन जब बौद्धिक समाज में जड़ता आ जाती है तब जनसाधारण पुन: मूल्यों के बारे में उदासीन हो जाता है ।

उत्तर भारत के मौर्यकाल से हर्षवर्धन तक और गोरे देशों में १७वीं-१८वीं सदी में ज्ञान और धर्म के क्षेत्रों में सांस्कृतिक आन्दोलन की प्रबलता थी । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के प्रथमार्ध में यूरोप की राजनीति में क्रान्तिकारी मानवीय मूल्य स्थापित हुए और बाद में पूरे विश्व में इन मूल्यों का प्रसार हुआ ।कई औपनिवेशिक देशों में साम्राज्यवाद-विरोधी राजनीति के तहत वहाँ के बौद्धिक समूह सक्रिय हुए । इन देशों की राजनीति में साम्राज्यवाद-विरोधी और पूँजीवाद-विरोधी मूल्यों और आदर्शों की स्थापना हुई । भारत में गांधी और समाजवाद के अपने-अपने बौद्धिक वर्ग बने । जब बौद्धिक वर्ग व्यापक ढंग से और निरन्तरता के साथ राजनीति को मूल्यों के द्वारा प्रभावित करता है तब जनसाधारण भी मूल्यों के बारे में मुखर होता है । हाल के चुनाव में यह कितना हास्यास्पद लगता था कि कुछ बुद्धिजीवी लोग चुनाव घोषित हो जाने और नामांकन हो जाने के बाद भ्रष्टाचारी और अपराधी प्रत्याशियों की पहचान करवाते थे । बुद्धिजीवियों के लिए यह जीवन भर का काम है, चुनाव के दिनों में वे अपना मत ठीक ढंग से दे दें , तो काफी है । प्रसिद्ध व्यावसायिक पत्रिका आउटलुक ने कई नामी-गिरामी बुद्धिजीवियों को लेकर प्रत्याशियों की नैतिकता की जाँच करने की एक टोली बनाई थी । लेकिन इनमें से एक भी आदमी स्पष्ट शब्दों में नहीं बताता कि उदारीकरण और ग्लोबीकरण से भारत की आम जनता को क्या लाभ होगा । इस टोली का कोई भी व्यक्ति यह नहीं बताता कि लगातार बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी को कैसे रोका जाए और बुद्धिजीवियों की वेतनवृद्धि क्यों वांछनीय है ।धन के केन्द्रीकरण का भ्रष्टाचार और अपराध से कोई सम्बन्ध है या नहीं ? अपने युग के ज्वलन्त और बुनियादी सवालों पर जिन बुद्धिजीवियों का कोई स्पष्ट मत नहीं है वे चले हैं चुनाव-राजनीति को प्रभावित करने ! पक्षधर बनकर या अपना खेमा गाड़कर ही कोई बौद्धिक समूह चुनाव को प्रभावित कर सकता है ।

असल में राजनैतिक अनैतिकता की वृद्धि का युग समाज में बौद्धिक पतन का भी युग होता है । पिछले कई सालों में भारत की ज्ञान-संस्थाओं की सबसे बड़ी घटना है प्रोफेसरों और विशेषज्ञों के रहन-सहन और वेतन-भत्तों में अभूतपूर्व वृद्धि । उनकी जड़ता और उदासीनता के कारण देश के साधारण जनों का जो अपना पारम्परिक ज्ञान और विवेक था वह भी नष्ट हो गया है और कोई नया मूल्य भी स्थापित नहीं हो पाया है ।

फिर भी चुनाव के दिनों में मूल्यों की बात इसलिए होती है कि राजनेता या उसका समर्थक - बुद्धिजीवी जब जनसाधारण के पास जाएगा तो मूल्यों के बिना कोई खुला संवाद हो नहीं सकता है । अगर राजनीति में जनसाधारण नहीं होता तो ये लोग मूल्यों की बात पाखंड के स्तर पर भी नहीं करते । यह सत्य है कि राजनैतिक अस्थिरता जनसाधारण को पसन्द नहीं है , देश के लिए अच्छी चीज नहीं है । लेकिन 'स्थिरता' कोई ऐसा मूल्य नहीं है जो कांग्रेस या भाजपा की सरकार बनने से लोगों को प्राप्त हो जाएगा । अस्थिरता की एक प्रक्रिया चल रही है ; इस प्रक्रिया को कहाँ रोका जाएगा ? कहाँ-कहाँ रोकने पर पाँच-दस साल के बाद स्थिरता आयेगी । उन मूल्यों को स्थापि करने का वायेदा कोई भी बड़ा रजनैतिक दल नहीं कर रहा है । चुनाव के बाद दल-बदल आधारित सरकार हम नहीं बनायेंगे - यह वायदा कोई नहीं करता ।तब स्थिरता कैसे लाएँगे ? किसी भी खेमे के घटक यह वायदा नहीं करते कि जिस खेमे की ओर से चुनाव लड़ते हैं , अगले चुनाव तक उसी खेमे में रहेंगे ? अगर खेमा बदलने की भी गुंजाइश है तो स्थिरता कैसे आयेगी ? अन्ततोगत्वा 'राजनैतिक स्थिरता' और 'साम्प्रदायिक शान्ति' आम जनता की आर्थिक सुरक्षा पर ही टिकी रहती है । आर्थिक गैर-बराबरी और असुराक्षा बढ़ती रहेगी और साम्प्रदायिक शान्ति कायम रहेगी , यह कैसे सम्भव है ? करोड़ों लोग बेकार होते जाएँगे , विस्थापित होते रहेंगे तो राजनैतिक स्थिरता का आधार क्या होगा ?

बेरोजगारी , अशिक्षा आदि प्रश्नों का सीधा सम्बन्ध आर्थिक क्षमता से है । मार्च १९९८ के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने १० वर्षों के कुछ लक्ष्य घोषित किए ? बेकारी १० वर्षों में पूरी तरह समाप्त हो जाएगी । इतनी पूँजी और बजट का व्यय कहाँ से आएगा ? वेतन वृद्धि से ५० से १०० हजार करोड़ रु. का जो अतिरिक्त खर्च करना पड़ेगा , वह पैसा कहाँ से आएगा ? क्या इसके बाद भी बजट में में इतना पैसा रह जाएगा जिससे भाजपा सरकार नए रोजगार और सम्पूर्ण प्राथमिक शिक्षा की योजनाएँ बना पाएगी ? वित्तीय इन्तजाम का उपाय बताये बगैर लोककल्याणकारी योजनाओं की घोषणा करना विशुद्ध बेईमानी है । वेतन-वृद्धि को रोककर उसी पैसे को या तो प्राथमिक शिक्षा या रोजगार विस्तार के लिए लगाया जा सकता है । कोई खेमा इसके लिए तैयार नहीं है । यानी उनकी सरकारें न बेरोजगारी दूर करने के बारे में गम्भीर हैं , न प्राथमिक शिक्षा के विस्तार के बारे में ।

जब अच्छाई कहीं भी नहीं होती है , और नए सिरे से अच्छाई पैदा करने की शक्ति मुख्य नायकों में नहीं होती है तब एक तरकीब निकलती है : बुराइयों को छोटी और बड़ी में बाँटने की । वैसे , बुराई से जुड़ना एक मानवीय स्थिति है ।व्यवहार के हर मोड़ पर ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है जिसमें किसी न किसी बुराई के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से समझौता करना होता है । लेकिन छोटी बुराई का एक अपना दर्शन है ।अगर कोई बड़ी अच्छाई लाने का जोखिम भरा काम करने जा रहे हैं तभी आपका यह नैतिक अधिकार होता है कि किसी छोटी बुराई का सहारा वक्ती तौर पर ले लें ।जहाँ अच्छाई की नयी धारा प्रचलित करने का कोई संकल्प या साधना नहीं है ही नहीं , वहाँ छोटी बुराई की बात केवल अपनी अवसरवादी राजनीति को जारी रखने का बहाना है ।इसका एक दुष्चक्र बनता है । छोटी बुराई का सहारा लेते-लेते छोटी बुराई खुद एक बड़ी बुराई हो जाती है और आप बड़ी बुराई को छोटी समझने लगते हैं ।

१९६७ में कांग्रेस को बड़ी बुराई मानकर गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति अपनाई गई थी । इस रणनीति के प्रवर्तकों ने सोचा था कि समाजवाद की राजनैतिक ताकत को बढ़ाने के लिए यह एक वक्ती कौशल है । जैसे-जैसे समाजवाद का अपना जनाधार सशक्त और व्यापक होता जाएगा , वैसे-वैसे छोटी बुराई और भी छोटी हो जाएगी । समाजवादियों और प्रगतिशीलों को इस रणनीति से बहुत फायदा हुआ ।उनको शक्ति बढ़ाने का बहुत मौका मिला - १९६७ से १९९७ तक , तीस साल का मौका मिला । लेकिन समाजवादियों और प्रगतिशीलों ने इस मौके का इस्तेमाल किया सत्ता-भोग के लिए , जनाधार बढ़ाने के लिए नहीं ।जन संघ उर्फ भारतीय जनता पार्टी ने इस समय का इस्तेमाल जनाधार बढ़ाने के के लिए किया । फलस्वरूप ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है कि समाजवादियों और प्रगतिशीलों का खेमा एकदम शक्तिहीन हो गया है । (समाप्त)

स्रोत - सामयिक वार्ता , फरवरी , १९९८.

सोमवार, अप्रैल 02, 2007

राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक

राजनीति एक व्यवहार है । जैसे-जैसे किसी राजनैतिक व्यक्ति या समूह की क्षमता और प्रभाव बढ़ने लगता है , उसको अपने आदर्श और नीति का कार्यरूप बतलाना पड़ता है । सिद्धान्त और व्यवहार में तालमेल रखना एक कठिन काम प्रतीत होने लगता है । सत्ता से वह जितना दूर रहेगा उतना वह आदर्श और नैतिकता की बात करेगा । प्रभाव बढ़ने पर और सत्ता हासिल करना सम्भव दिखाई देने पर उसकी असली परीक्षा शुरु होती है । आदर्श की चुनौती और स्खलन का आकर्षण - इन दो पाटों के बीच विवेकशील राजनेता सावधान रहता है । सत्ता से दूर रहते समय उसकी जो प्रतिबद्धताएँ और नैतिक संस्कार बन जाते हैं , सत्ताभोग के काल में उसके लिए कवच बनते हैं । इसलिए लम्बे समय तक सत्ता के पदों पर बना रहना अच्छा नहीं है । सफल और प्रभावी राजनेताओं को चाहिए कि वे स्वेच्छा से कुछ अरसे के लिए सत्ता की इच्छा पर संयम रखें । सत्ता की इच्छाविहीन राजनीति में कोई रस नहीं होता है ; मगर सत्ता की इच्छा पर संयम न होने से राजनीति की नैतिक प्रेरणा नष्ट हो जाती है ।

अगर प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने १८ साल के प्रधानमंत्रित्व के बीच कभी पाँच या सात साल का सत्ता पद से सन्यास लिया होता तो शायद वे आज भी एक आलोक-स्तम्भ बने रहते । सत्तापद पर चिपके रहने के कारण उनकी क्या दुर्दशा हुई है यह हाल के चुनावों में स्पष्ट हो रहा है । उनकी दौहित्र-वधु सोनिया के कांग्रेस के मुख्य प्रचारक होने के बावजूद उनके भाषण में कहीं यह बात नहीं आती है कि नेहरू की सरकारी नीतियों से देश को सही मार्गदर्शन मिला था । एक व्यक्तित्व के तौर पर इन्दिरा गांधी या राजीव गांधी की कोई तुलना जवाहरलाल नेहरू से नहीं हो सकती है । लालबहादुर शास्त्री से भी नेहरू बहुत बड़े आदमी थे। लेकिन आज के चुनाव में शास्त्री , इन्दिरा , राजीव , इन सबका नाम ले कर वोट माँगा जा सकता है । नेहरू के नाम से कोई वोट नहीं माँगता है । यह कितना विचित्र है ?

राजनीति में व्यवहार का पलड़ा कभी - कभी इतना भारी होता है कि मूल्यों से समझौता न करनेवालों को जनता भी हिकारत भरी नजर से देखती है । मानो बिलकुल शुद्ध होना अव्यावहारिकता है और इसलिए राजनीतिक अक्षमता का परिचायक है । मूल्यों और नैतिकता के बारे में जनसाधारण उतना कठोर नहीं है जितना कि हमलोग अकसर सोचते हैं । जनसाधारण राजनीति से कुछ परिणाम देखना चाहता है । आदर्शवादी व्यक्तियों और समूहों से परिणामों की उम्मीद नहीं जगती है तो आदर्श के प्रति वह उदासीन हो जाता है । जनसाधारण राजनीति से कैसा परिणाम चाहता है ? क्या जनसाधारण राजनीति में नैतिकता का नियामक बन सकता है ? इसका जवाब आज के राजनैतिक अध्ययनों-चिन्तनों से नहीं मिलता है ।

समझ लेना चाहिए की जनसाधारण की उपस्थिति सार्वजनिक जीवन में एक नियामक का काम नहीं करती है । लोगों की भावना सिर्फ यह होती है कि अनैतिक काम बहुत अधिक नहीं होने चाहिए । अनैतिकता बहुत अधिक दिखाई नहीं देनी चाहिए ।अगर दो प्रतिद्वन्द्वी है और दोनों पराक्रमी हैं और उनमें से एक ज्यादा कलंकित है तो लोग अपेक्षाकृत साफ-सुथरे आदमी को पसन्द करेंगे । इस अर्थ में जनसाधारण की नैतिकता के बारे में एक नियामक भूमिका है । चूँकि जनसाधारण उपस्थित है और राय देने वाला है इसलिए भी राजनेता उसकी नैतिकता सम्बन्धी भावनाओं को अपील करने की कोशिश करते हैं । इसी तरह जनसाधारण एक नियामक है । जनसाधारण की उपस्थिति नहीं रहेगी तो शायद नैतिकता का प्रसंग भी नहीं उठेगा ।इस सीमित दायरे में जनसाधारण सार्वजनिक नैतिकता का नियामक है।

जनसाधारण पहले पराक्रम को देखता है , बाद में नैतिकता को । सामर्थ्य या पराक्रम हासिल करने के नियम और शुद्धता हासिल करने के नियम अलग-अलग होते हैं । शुद्धता के द्वारा कोई पराक्रमी नहीं बन पाता है । गांधीजी पराक्रमी थे , मगर शुद्धता के कारण नहीं ; पराक्रम अर्जन करने के उनके काम अलग थे , और शुद्ध बनने के अलग । नैतिकता और पराक्रम का संयोग उनमें १९१६ से १९४५ तक रहा । १९४५ के बाद उनका पराक्रम कम हो गया ।

पराक्रम प्राप्त करने के महान उपाय भी होते हैं , जोखिम भरे काम होते हैं , लेकिन बहुत छोटे-छोटे रास्ते भी होते हैं । धनी और सम्भ्रान्त लोग राजनीति में जल्द सफल हो जाते हैं।कुछ लोग चोरी करके धनी बनते हैं , धन के सहारे राजनीति करते हैं और सम्भ्रान्त बन जाते हैं । तीसरे कदम पर वे धन और आभिजात्य के बल पर राजनीति की चोटी पर जाने का दाँव लगाते हैं । निर्धनों और शूद्रों के लिए राजनीति में बने रहना बहुत कठिन है।इसलिए भी शूद्र राजनेता नैतिकता के प्रश्न को गौण कर देता है ।

पराक्रमी होने के लिए ये सारे छोटे रास्ते हैं । ये रास्ते प्राचीन काल से हैं । इस पराक्रम से सत्ता प्राप्ति हो सकती है - राष्ट्र या जनता को महान नहीं बनाया जा सकता है ।

राजनीति का स्वर्णयुग यानी पराक्रम और मानवीय मूल्यों का संयोग तब होता है जब किसी राज्य या भूभाग में धर्म , संस्कृति , ज्ञान , अर्थनीति या राजनीति के क्षेत्र में मूल्यों का आन्दोलन होता है । मूल्यों का यह आन्दोलन राजनीति के बाहरी क्षेत्रों में होने पर भी राजनीति इसके द्वारा प्रभावित होती है , नए मूल्यों को राजनीति में स्थापित करने की एक धारा राजनीति के अन्दर भी सबल होने लगती है । भारत के बौद्ध युग और गांधी युग की राजनीति में मानवीय मूल्यों का स्तर अन्य युगों की तुलना में उच्चतर था । जिसको भारत में गांधी युग कहा जाएगा वह विश्व के लिए समाजवादी आन्दोलन के विकास का भी युग था। इस संयोग का प्रभाव इतना अधिक था कि पूँजीवादी और प्रतिगामी विचारों के राजनैतिक दलों को भी कुछ मानवीय तथा प्रगतिशील मूल्यों के अनुकूल अपनी घोषणाएँ करनी पड़ती थीं। नेहरू-इन्दिरा की कांग्रेस अपने को समाजवादी कहती थी , यहाँ तक कि भारतीय जनता पार्टी ( जनसंघ ) ने एक बार अपने को ' गांधीवादी समाजवादी ' घोषित कर दिया था । 'आखिरी आदमी ' - जो गांधीजी का शब्द था , अभी हाल तक राजनैतिक घोषणापत्रों पर मँडराता था । ( अगली प्रविष्टी में जारी ) ( स्रोत - सामयिक वार्ता , फरवरी १९९८ )