विदेशी पूंजी से विकास का अन्धविश्वास (५)
देश हित से ऊपर विदेशी पूंजी
विदेशी पूंजी का मोह इतना ज्यादा है कि देश हित , जन स्वास्थ्य , पर्यावरण सबको धता बताई जा रही है । शीतल पेय की कोका कोला - पेप्सी कंपनी की बोतलें नुकसानदायक हैं , यह प्रमाणित हो चुका है । फिर भी उन्हें प्रतिबन्धित करने की हिम्मत भारत सरकार की नही है ।और बोतलबंद पानी का धन्धा तो इन कंपनियों की लूट का बढ़िया उदाहरण है। पाँच पैसे का पानी , पचास पैसे की पैकिंग और दाम दस रुपए !इससे ज्यादा मुनाफा और लूट का धन्धा और क्या होगा ?
बीमा और बैंकिंग क्षेत्र में विदेशी कंपनियों को प्रवेश देना भी देशहित के खिलाफ़ है । विदेशी बैंक और विदेशी बीमा कंपनियाँ शुरु में थोड़ी पूंजी विदेश से लाएंगे। लेकिन फिर जमा राशि और प्रीमियम राशि तो इस देश की जनता से ही इकट्ठा करेंगे और उससे अपना धन्धा करेंगे । बचत भारतीय जनता की , पूंजी इस देश की , और उससे कमाई विदेशियों की - यह तो लूट है। इसकी इजाजत हम क्यों दे रहे हैं ?
विदेशी पूंजी और निर्यात के पागलपन में ही 'पोस्को' जैसे समझौते हो रहे हैं । यह गर्व से बताया जा रहा है कि दुनिया का सबसे बड़ा इस्पात कारखाना भारत में लगेगा और भारत में अब तक का सबसे बड़ा पूंजी निवेश होगा । किंतु कारखाने के लिए जितना लोहा लगेगा , उससे काफी ज्यादा कच्चा लोहा निर्यात करने की अनुमति इस विदेशी कंपनी को दे दी गयी है । यह कहाँ की बुद्धिमानी है ? कच्चा लोहा निर्यात करने के बजाय इस्पात निर्यात करते तो भारत के लोगों को रोजगार मिलता । फिर पोस्को जैसे दो-चार सौदे और हो गए, तो भारत का लौह खनिज भण्डार १०० साल चलने वाला था , वह ५० साल में ही खतम हो जाएगा । भारत की अपनी विकास की जरूरतों का कोई विचार नहीं किया गया ।
विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों के पक्ष में एक और दलील है कि इनके आने से भारत का निर्यात बढ़ाने में मदद मिलेगी। पिछले कुछ समय से , चीन की नकल पर , भारत सरकार ने ' विशेष आर्थिक क्षेत्र ' (SEZ) बनाना शुरु कर दिए हैं और और उनके लिए एक कानून भी संसद मे पारित किया है । ये विशेष ज़ोन होंगे तो भारत की भूमि पर,किंतु उन पर भारत के कानून लागू नहीं होंगे । इन ज़ोनों में स्थित देशी-विदेशी कंपनियों पर आयकर,सीमाशुल्क आदि नहीं लगेंगे । जमीन मुफ़्त या रियायती दरों पर मिलेगी । भारत के श्रम-कानूनों से भी आगे चल कर इन्हें मुक्त कर दिया जाएगा । भारत के वाणिज्य मन्त्री का कहना है कि इससे विदेशी कंपनियाँ भारत की ओर आकर्षित होंगी तथा भारत के निर्यात काफ़ी बढ़ेंगे। लेकिन क्या ये ज़ोन भारत की सम्प्रभुता के खिलाफ़ नहीं हैं ?
फिर,विदेशी पूंजी आने से भारत के निर्यात-आयात मोर्चे पर कोई फायदा नहीं दिखाई दे रहा है । भारत के निर्यात जरूर बढ़े हैं,लेकिन आयातों में उनसे ज्यादा बढोतरी हुई है।नतीजा यह है कि भारत के विदेश व्यापार में लगाता घाटा हो रहा है ।
निर्यात या शोषण का जरिया ?
लेकिन इससे ज्यादा बुनियादी सवाल यह है कि निर्यात बढ़ाने पर इतना ज्यादा जोर उचित है क्या ? अपनी विशाल आबादी की जरूरतों की उपेक्षा करके विदेशियों के लिए उत्पादन करना क्या विवेक सम्मत है ? 'निर्यातोन्मुखी विकास' का विश्व बैंक का दिया हुआ सूत्र कहीं धोखा तो नहीं है ?
विश्व बैंक और नव-उदारवादी अर्थशास्त्री दुनिया के सारे गरीब देशों को इसी 'निर्यातोन्मुखी विकास' का पाठ पढ़ा रहे हैं। लेकिन जिसे राह चलता अनपढ़ आदमी भी समझ सकता है , उस तथ्य को हमारे शासक और नीति-निर्माता नहीं समझ रहे हैं कि आखिर सारे देशों में के निर्यात एक साथ कैसे बढ़ सकते हैं? जब सारे गरीब देश एक साथ निर्यात बढाने की कोशिश करेंगे तो दुनिया के बाजार में गलाकाट प्रतिस्पर्धा जन्म लेगी और वे एक-दूसरे के बाजार पर कब्जा करने की कोशिश करेंगे तथा अपनी निर्यात-वस्तुओं की कीमतें गिरांएगे। दूसरे शब्दों में,व्यापार की शर्तें उनके प्रतिकूल होती जाएंगी। आज यही हो रहा है।
जब बाजार में कीमतें कम होती हैं,तो उसका फायदा उसे मिलता है,जिसके पास खरीदने की ताकत हो,पैसा हो । अंतर्राष्ट्रीय बाजार के संदर्भ में कहें, तो जिसके पास डॊलर हो।गरीब देशों की निर्यात-प्रतिस्पर्धा का लाभ यूरोप-अमरीका को सस्ती चीजें मिलने में हो रहा है।चूंकि डॊलर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा है,अमरीका के लिए तो मौज हो गई है । बहुराष्ट्रीय पूंजी के जरिए पूरी दुनिया अमरीका की सेवा में लगी है। कहीं से उनके लिए पेट्रोल आ रहा है,कहीं से इस्पात-एल्यूमिनियम-तांबा ।कहीं से मांस,कहीं से केला,कहीं से कपड़ा,कहीं से जूता,कहीं से चाय-काफी,कहीं से शक्कर,कहीं से कालीन,कहीं से आभूषण,कहीं से डॊक्टर,कहीं से इन्जीनियर उनके लिए आ रहे हैं। अमरीकियों का जीवन-स्तर सबसे ऊपर इसी तरीके से बनाये रखा गया है ।यह तथ्य भी बहुत कम प्रचारित होता है संयुक्त राज्य अमरीका का विदेश व्यापार का घटा दुनिया में सबसे ज्यादा है ( अर्थात वह निर्यात कम करता है,आयात काफ़ी ज्यादा करता है) और उस पर विदेशी कर्ज भी दुनिया में सबसे ज्यादा है। भारत सहित गरीब देशों की सरकारों को उपदेश देने वाला अमरीका स्वयं जबरदस्त ढंग से ' ऋणम कृत्वा,घृतम पिबेत' के दर्शन पर चल रहा है । ( जारी , अगली प्रविष्टी- डॊलर- रुपए की लूट )
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