जंगल पर हक़ जताने का संघर्ष
साभार : बी.बी.सी.
फ़ैसल मोहम्मद अली
फ़ैसल मोहम्मद अली
बीबीसी संवाददाता, भोपाल
जंगल पर हक़ जताने का संघर्ष
भारत में ‘बाघ या मानव’ और ‘जंगल या आदिवासी’ की चल रही गर्मागर्म बहस के बीच मध्य प्रदेश के पिपरिया तहसील में आदिवासियों ने अपने अधिकारों की माँग को लेकर ख़ास तरह से विरोध दर्ज किया.
क़रीब पाँच हज़ार की तादाद में पिपरिया पहुँचे आदिवासियों ने जंगल पर उनके अधिकार छीने जाने के विरोध में ज़गली उपजों की बिक्री की.
यह विरोध प्रदर्शन देश के पाँच राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, उड़ीसा और महाराष्ट्र में काम कर रहे आदिवासी संगठनों ने आयोजित किया.
‘पुरखों से नाता जोड़ेंगे, जंगल नहीं छोड़ेंगे’ के नारे लगाते हुए पिछले 16 दिनों की यात्रा के बाद यह आदिवासी समूह पिपरिया पहुँचा.
आदिवासियों की यह यात्रा क़रीब 15 दिनों पहले खंडवा ज़िले के कालीघोड़ी नामक स्थान से शुरू की गई थी जहाँ कभी गोंड राजाओं का शासन था.
पंचमढ़ी के समीप बसा पिपरिया वह इलाका है जहाँ 19वीं शताब्दी में गोंड़ राजा भूभू सिंह ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ विद्रोह छेड़ा या जिसके कारण बाद में उन्हें फ़ाँसी दे दी गई थी.
सन् 1867 में घोषित भारत का पहला संरक्षित जंगल, बोरी भी इसी क्षेत्र में है.
सवाल
विरोध के तौर पर महौल नाम के एक जंगली पेड़ के पत्ते बेच रहे जगत सिंह बताते हैं, “जंगली उपज से हमारा अधिकार छीनने के बाद अब सरकार हमारी बची-खुची थोड़ी सी ज़मीन भी बाघ अभयारण्य के नाम पर छीन लेना चाहती है. ऐसे में हम लोग क्या करेंगे.”
उधर राधाबाई भी अपनी गुहार सुनाती है. राधा कहती हैं, “हम एक गाँव से दूसरे गाँव अपने रिश्तेदारों से मिलने भी नहीं जा सकते क्योंकि अधिकारी इसे जंगली क्षेत्र में घुसपैठ मानते हैं. हम अपने जानवर भी वहाँ नहीं चरा सकते हैं.”
मध्य प्रदेश के होशंगाबाद, बैतूल और छिंदवाड़ा ज़िले में ही आदिवासियों के क़रीब 500 गाँव ऐसे हैं जो कि संरक्षित जंगलों में पड़ते हैं.
राज्य में दर्जनों ऐसे संरक्षित जंगल हैं जहाँ आदिवासियों को ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.
महाराष्ट्र और गुजरात में बड़ी परियोजनाओं के कारण विस्थापित किए गए लोगों और आदिवासियों के मध्य काम कर रही प्रतिभा शिंदे का कहना है कि आर्थिक उदारता और वैश्वीकरण के दौर में पहले के ग्रामीण स्तर के यह झगड़े अब सिर्फ़ गाँव के नहीं रह गए इसीलिए इन्हें व्यापक प्रारूप देने की ज़रूरत है.
अभियान
समाजवादी जन परिषद नाम के एक संगठन से जुड़े सुनील बताते हैं, “जब आदिवासी अपनी ज़मीन के बदले कम मुआवज़ा दिए जाने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते हैं तो पुलिस उन पर गोली चलाती है. जैसा कि उड़ीसा के कलिंगनगर में हुआ था.”
सुनील आगे जोड़ते हैं, “होशंगाबाद में भी बाघों को संरक्षण देने, सेना का शूटिंग रेंज बनाने और तवा बाँध के नाम पर आदिवासी गांवों को बार-बार उजाड़ा जाता रहा है.”
मध्य प्रदेश में विकसित किए जा रहे सतपुड़ा बाघ अभयारण्य से क़रीब-क़रीब 20,000 लोगों के विस्थापन की आशंका है.
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