शनिवार, सितंबर 23, 2006

भाषा पर गांधी ,बहस 'परिचर्चा' पर

भाषा पर गांधी और लोहिया भी
September 23rd, 2006 at 7:52 am (Uncategorized)

अब ‘परिचर्चा’ पर चर्चा को डालने के बाद :


बिल्कुल जी बिल्कुल, रुचि है, आप अपने और गांधीजी के विचारों को पूरी तरह से व्यक्त करदें बाद में इस विषय को आगे बढ़ाते हैं।



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सागर चन्द नाहर

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कलम को चलने दें “अफ़लातूनजी”॰॰॰

grjoshee

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अफलातून जी,साधुवाद!! गाँधी जी के भाषा पर विचारों से अवगत कराने के लिये..भाषा की इस उलझन मे मध्यमवर्गीय परिवारोँ के बच्चों को सबसे अधिक नुकसान हो रहा है..क्यों कि कडवी सचाई यह है कि हिन्दी भाषा के अच्छे विद्यालयों के अभाव मे वे अपने बच्चों को गली- गली मे खुल रहे “केम्ब्रिज-कान्वेन्ट ” या “आक्सफोर्ड-कान्वेन्ट ” (जी नही ये नाम मेरे दिमाग की उपज नही है,बल्कि बस से यात्रा करते समय मैने एक ऐसा बोर्ड दो कमरों की,टीन के छप्परवाली शाला के उपर लगा देखा था!) मे भेज रहे हैं.इन शालाओं मे ज्यादातर वे लोग पढा रहे हैं जो कभी अँग्रेजी माध्यम मे नही पढे.तो बच्चे न तो ठीक से हिन्दी जान पा रहे हैं और न ही अन्ग्रेजी.

रचना

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रचना बहन wrote:

…क्यों कि कडवी सचाई यह है कि हिन्दी भाषा के अच्छे विद्यालयों के अभाव मे वे अपने बच्चों को गली- गली मे खुल रहे “केम्ब्रिज-कान्वेन्ट ” या “आक्सफोर्ड-कान्वेन्ट ” (जी नही ये नाम मेरे दिमाग की उपज नही है,बल्कि बस से यात्रा करते समय मैने एक ऐसा बोर्ड दो कमरों की,टीन के छप्परवाली शाला के उपर लगा देखा था!) मे भेज रहे हैं….

उचित शिक्षा एक गम्भीर प्रश्न है तथा इसमें समाज के सभी नागरिकों का योगदान आवश्यक है। इस बात पर में पहले भी लिख चुका हूँ कि हमनें शिक्षा की उपेक्षा की है और आज यह सत्य है शिक्षक बनना कौन चाहता है?

एक बात मैंने अमरीका के विद्यालयों मे देखी वो ये कि यहाँ पर सभी लोग (विशेषकर घरेलू महिलायेँ) विद्यालयों में जाकर नि:शुल्क सेवा करते हैं।
हम सब पढे़-लिखे युवा ही हिन्दी विद्यालयों के शिक्षकों से मिलकर विद्यालयों की स्तिथी सुधार सकते हैं।
जितना कर सकते हैं करें। यह काम आसान नहीं है अत: चुनौतियों के लिये तैयार रहें। मैं भी इस दिशा में कुछ करता रहता हूँ और आपके अनुभवों से सीखकर और अच्छा कर पाऊँ अत: जो आप करते हैं सभी को बतायें

हिमांशु शर्मा

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मैं मानता हुँ कि भाषा कोई भी बुरी नहीं हो सकती, पर जितना सम्मान हिन्दी को मिलना चाहिये उतना नहीं मिल पाता, शायद दुनियाँ का यह एक मात्र देश है जहाँ के कई प्रधानमंत्रीयों, राष्ट्रपतियों,मुख्यमंत्रियों ( डॉ कलाम अपवाद हैं क्यों कि उनका इस देश की उन्न्ती में इतना योगदान है कि एक गुनाह तो माफ़ किया जा ही सकता है, फ़िर भी डॉ कलाम हिन्दी को सम्मान देते ही हैं, और एक जयललिता है जो हिन्दी केर नाम से भड़कती है ) और कई उच्चाधिकारियों को हिन्दी बोलना तो दूर समझ में भी नहीं आती है।
यह बात तो बिल्कुल सही है कि जितनी प्रगती जापान, चीन और इस्रायल ने की है, बगैर अंग्रेजी को अपनाये उतनी हमने हिन्दी को त्यागकर, अंग्रेजी के मोह में पड़ कर, हमने नहीं की है।
मैं गांधीजी के कई विचारों से सहमत नहीं परन्तु इस बात को तो अवश्श्य मानता हुँ कि हमारी शिक्षा का माध्यम हमारे देश की भाषा ही होना चाहिये नहीं कि विदेशी भाषा! साथ में अंग्रेजी भी होनी चाहिये परन्तु पूरक के रूप में नहीं की मुख्य भाषा के रूप में।
कुछ दिनों पहले मैने मेरी समस्या को अपने चिट्ठे पर लिखा था कि मैं इस देश के किस कदर अंग्रेजी मोह की वजह से परेशान हो रहा हुँ, अपने बच्चों को मैं चाह कर भी हिन्दी नहीं पढ़ा पा रहा हुँ क्यों कि इस देश मैं आजकल एक फ़ैशन हो रहा है कि हिन्दी मैं पढ़े छात्र पिछड़े होते हैं जिसका प्रतिदिन बुरा और अपमानजनक अनुभव मैं कर रहा हूँ, क्यों कि यहाँ दक्षिण मैं हिन्दी की बजाय अंग्रेजी या प्रांतीय भाषा को ज्यादा महत्व मिलता है और यहाँ हैदराबाद मैं तो अंग्रेजी- ऊर्दू और तेलुगु को सर्वोपरी माना जाता है।
कभी कभी यह लगता है कि मुझे अंग्रेजी का सामान्य ज्ञान तो होना ही चाहिये क्यों कि अन्तरजाल पर जो खजाना भरा पड़ा है उसका मैं पूरा लाभ नहीं उठा पाता।

सागर चन्द नाहर

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nahar7772 wrote:

मैं इस देश के किस कदर अंग्रेजी मोह की वजह से परेशान हो रहा हुँ, अपने बच्चों को मैं चाह कर भी हिन्दी नहीं पढ़ा पा रहा हुँ क्यों कि इस देश मैं आजकल एक फ़ैशन हो रहा है कि हिन्दी मैं पढ़े छात्र पिछड़े होते हैं जिसका प्रतिदिन बुरा और अपमानजनक अनुभव मैं कर रहा हूँ, क्यों कि यहाँ दक्षिण मैं हिन्दी की बजाय अंग्रेजी या प्रांतीय भाषा को ज्यादा महत्व मिलता है और यहाँ हैदराबाद मैं तो अंग्रेजी- ऊर्दू और तेलुगु को सर्वोपरी माना जाता है।

कितनी शर्मनाक बात है कि हिन्दोस्तां की मातृ-भाषा होते हुए भी, हिन्दी को आज भी हमारे देश में हीन दृष्टि से देखा जाता है। माता-पिता चाहते है कि बच्चा “अंगरेजी मीडीयम” में पढ़े, नौकरीयों में “कम्यूनिकेशन स्किल” के नाम पर अंगरेजी को ही प्राथमिकता दी जाती है, बच्चों को लगता है कि हिन्दी भाषा बोलने वाले उनके माता-पिता गंवार है, इसलिए दोस्तों को घर लाने में शर्म महसूस होती है।

grjoshee

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क्या सभी बोल लिए? या किसी को अभी कुछ कहना है? जिन लोगों को यह गलतफ़हमी है कि चीन, जापान और इस्राईल ने बिना अंग्रेज़ी को अपनाए अपनी मातृभाषा के कारण तरक्की की है उनको मैं कुछ वास्तविकताओं से अवगत कराना चाहूँगा। पर वह बाद में, अभी किसी और को यह गाना गाना हो तो गा सकता है, हम तो अभी आराम से बैठे मौज ले रहे हैं, बाद में अपना असला निकालेंगे!!



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amit

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लाल बुझक्कड बूझ गए,और ना बूझा कोय
पै्र में चक्की बांध के हिरणा कूदा होय
“ग्यान वगैरहकी बात छोडो और इस सवाल का जवाब दो कि किस देश में रेल ,तार ,पलटन ,सरकारी दफ़्तर ,कालेज, विश्वविद्यालय,न्यायालय ये सब किसी सामन्ती भाषा के जरिए चलते हैं?मैंने विदेशी भाषा नही कहा है.देशी विदेशी का मामला अलग कर दो.मैंने सामन्ती भाषा कहा है.क्योंकि अंग्रेजी को ताकत और दौलत के लिए इस्तेमाल करने वालों की तादाद कुल ४०-५० लाख है.५० लाख एक तरफ़ और ४३ करोड दूसरी तरफ़.” -डॊ.लोहिया,हैदराबाद,१९६२.
अमित भाई,भागना मत,अभी उच्च ग्यान पर भी ‘असला’ का तसला लिए बैठे हैं.

अफ़लातून

कभी इसराइल का नाम लिया जाता है ,कभी ,जापान (गांधी ने विस्तार से लिखा है,बहस नियन्ता पढने का कष्ट करे),कभी चीन का.ऐसे लोगों से कहना है कि बच्चों को बरगलाना ही आप लोगों का धर्म हो गया है?इन देशों मे कौन से काम अंग्रेजी के जरिए होते हैं?इन सब देशों में अंग्रेजी की पढाई लाजमी नही है.हिन्दुस्तान में भाषा के मक़सद को ही नही समझा गया है.भाषा है किस लिए? भाषा होती है एक तो समझने के लिए और दूसरी होती है बोलने और अभिव्यक्ति के लिए.जहां तक साधारण ग्यान है उसको समझने और उसके ऊपर बोलने के लिए अपने देश की भाषाओं का इस्तेमाल करना होगा.लेकिन अगर कोई खास ग्यान जहां जिस भाषा में होगा;रूसी में,अंग्रेजी मे और जर्मन में उसको हम हासिल कर सकेंगे.
एक मिसाल लीजिए.शेक्सपियर का अध्ययन हिन्दुस्तान में पिछले १२५-१५० बरस से चल रहा है.हिन्दुस्तान मे जितने आदमियों ने शेक्सपियर पढा है ,उतना शायद उतना शायद सारी दुनिया के आदमियों ने नही पढा होगा.सिर्फ़ अंग्रेज नही,फ़्रांसीसी,जर्मन न जाने कितने निकलेंगे,जिन्होंने शेक्सपियर पर मूल टीका की है,जिन्हे पढकर मजा आता है.हिन्दुस्तान मे कमबख्त एक निकल आता,जिसने शेक्सपियर पर लिखा होता,तो मैं कहता किसीने कुछ किया.इसका कारण यह है कि जब जर्मन शेक्सपियर को पढता है तो वह अंग्रेजी में पढता जरूर है,ज्यादातर जर्मन अनुवाद द्वारा,लेकिन जब पढकर सोचता है,तो अपनी भाषा में.फ़्रांसीसी फ़्रेंच में लिखता है.तब जा कर उसमें बडे बडे लोग होते हैं.मेक्समूलर का नाम सबने सुना होगा.हिन्दुस्तान के वेदोंक के सिलसिले में वह मशहूर हैं.उसने संस्कृत में वेदों को पढा,लेकिन वह इतना जाहिल नही था कि पढने के बाद इस पर जो टीका लिखी वह भी संस्कृत में लिखने बैठ जाता.–उसने जर्मन मेम लिखा.” –डॊ. लोहिया,हैदराबाद,१९६२



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