गुरुवार, मार्च 08, 2007

उपभोक्तावादी संस्कृति (४) : उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास : सच्चिदानन्द सिन्हा

गत प्रविष्टी से आगे :

उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास

अब प्रश्न उठता है कि यह उपभोक्तावादी संस्कृति कैसे विकसित हुई ? इस समस्या पर विचार करने पर हम पायेंगे कि यह मूल रूप से पूँजीवादी उत्पादन और वितरण प्रणाली की उपज है । समाज के हर क्षेत्र के व्यावसायीकरण की प्रक्रिया में पूँजीवादी समाज ने मनुष्य की सहज उपभोगवृत्ति का व्यावसायीकरण कर इस संस्कृति को जन्म दिया है । वैसे अंकुर रूप में जैसा कि ऊपर बतलाया गया है शोषण पर आधारित हर समाज में शोषकों में कुछ बे-जरूरत की वस्तुओं के उपभोग की ओर रुझान रहा , जिससे वे समाज पर अपनी विशिष्टता की धाक जमा सकते थे । लेकिन ऐसा तब होता था जब शोषण या लूट-खसोट से प्राप्त धन से शासकों का वैभव उफनता था और वे अपने अतिरिक्त धन को देश-विदेश से उपलब्ध परम्परागत शान-शौकत की वस्तुओं पर खर्च करते थे । इस प्रक्रिया की शुरुआत धन की विपुलता से होती थी और फिर उन वस्तुओं की तलाश होती थी या उन्हें बनवाया जाता था जिनका उपभोग शासक वर्ग को गौरवान्वित कर सके। पूँजीवादी व्यवस्था में प्रक्रिया बिल्कुल उलट गयी है । इसमें पहले खरचीली शोध के जरिए हर रोज नये तरह के उपभोग के सामान ईजाद किये जाते हैं , जिसमें कुछ बिल्कुल नयी किस्म के होते हैं , और कुछ पुरानी उपभोग की वस्तुओं का स्थान ग्रहण करते हैं ।इसके बाद इन्हें प्रचारित कर इनके लिये बाजार पैदा किया जाता है । फिर इस प्रचार से प्रभावित लोग इन्हें प्राप्त करने के लिए आर्थिक साधन की तलाश करते हैं । इसके लिए अक्सर वर्षों के लिए अपना श्रम बंधक रखकर निम्न मध्यमवर्ग और निम्नवर्ग के लोग ' हायर परचेज़' के आधार पर सामान खरीद लेते हैं और फिर अपनी आमदनी में से किस्तों में सूद के साथ पैसा भरते रहते हैं । मोटरगाड़ियाँ ,फ्रीज , टी.वी. , आदि अक्सर इसी तरह मध्यमवर्ग और पश्चिम के मजदूर वर्ग के घरों को सुशोभित करते हैं । इस तरह भविष्य की कमाई गिरवी रख कर भी वस्तुओं की भूख मिटाई जाती है । वास्तव में मनुष्य स्वयं इन वस्तुओं को लेकर खुद बन्धक बन जाता है । वह आजादी के साथ अपने जीवन के विषय में कोई निर्णय नहीं ले सकता क्योंकि उसके सक्रिय जीवन का हर वर्ष पेशगी में उन कम्पनियों या बैंकों को दिया जा चुका होता है जिनकी सेवा कर वह खरीदी गयी वस्तुओं का कर्ज चुकायेगा । इस तरह मनुष्य उपभोग की वस्तुओं का बँधुआ मजदूर बन जाता है ।

पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली की एक विशेषता यह है कि वह उत्पादन की प्रक्रिया में उत्पादक मजदूर से सृजन का सुख छीन लेती है । यह विशेषता इसे शोषण पर आधारित सभी पिछली उत्पादन प्रणालियों से अलग कर देती है । गुलामी की व्यवस्था , सामंती या भारत की जाति व्यवस्था में भी असली उत्पादक शोषण के शिकार थे और समाज में वे निरादर के पात्र थे । फिर भी इन व्यवस्थाओं में शिल्पी मजदूर वस्तुओं के निर्माण की पूरी प्रक्रिया पर अधिकार रखते थे । इस तरह वे अपनी रुचि और कौशल के अनुसार वस्तुओं का निर्माण करते थे और इसमें उन्हें एक सीमा के भीतर सृजन का सुख मिलता था । जीवन के अन्य क्षेत्रों में कुंठित उनकी आकांक्षाएँ , संवेदनशीलता और कल्पना सभी इन वस्तुओं में समाहित होती थीं । उदाहरण के लिए एक कुम्हार की सारी संवेदना और कल्पना उसकी उंगलियों के स्पर्श से उसके घड़े या अन्य बरतनों के आकार में व्याप्त हो एक आत्मीय रूपाकार देती थी । फिर वह अपनी रुचि से उन्हें पकाने के पहले विभिन्न रंगों और रूपों से सजाता था । फलस्वरूप उसके बरतनों में वैयक्तिक अभिव्यक्ति होती थी । ऐसे ही कारणों से युनान , मध्ययुगीन यूरोप या प्राचीन भारत की स्थापत्यकला , मूर्त्तिकला या रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुओं में हम किसी न किसी स्तर की कलात्मकता पाते हैं । कहीं-कहीं तो यह कलात्मकता चरम बिन्दु को छू लेती है ।

इसके विपरीत पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली ने शुरु से ही जल्द और थोक उत्पादन की पद्धति को प्रोत्साहित करने के लिए वस्तुओं के खंडित उत्पादन की प्रक्रिया अपनायी । इसमें एक ही वस्तु के निर्माण के विभिन्न स्तरों को विभिन्न लोगों को बाँट दिया गया और किसी भी निर्माता श्रमिक का नियंत्रण पूरी वस्तु के स्वरूप के निर्माण पर नहीं रहा । उत्पादक अब पूँजीपति थे जो तय करते थे कि क्या निर्मित होगा और अपनी योजना के हिसाब से वे काम का बँटवारा विभिन्न श्रमिकों में करते थे । 'शिल्पियों' का स्थान अब श्रमिकों ने ले लिया । पूँजीवादी व्यवस्था के प्रारम्भ में पूँजीपति स्वतंत्र श्रमिकों को काम बाँटते थे , बाद में उन्हें एक जगह कारखाने में आकर काम करने के लिए मजबूर किया गया । कालान्तर में जब भाँप और बिजली से चालित मशीनों का आविष्कार हुआ तब से मजदूर मशीनों के गुलाम बन गये और उन्हें अपना काम और अपनी गति मशीनों के अनुरूप बनानी पड़ी । उत्पादन प्रक्रिया में अब श्रमिकों के निजी कौशल का स्थान एकरसता ने ले लिया । उत्पादन का प्रधान गुण 'स्टैंडर्डाईजेशन' ( एक मानक के भीतर उत्पादन ) बन गया । वस्तुओं की विविधता भी श्रमिकों की सृजनात्मकता के साथ समाप्त हो गयी । उत्पादित वस्तु और उत्पादक मजदूर दोनों से उनकी अपनी विशिष्टता छीन ली गयी ।

इस उत्पादन पद्धति का सबसे विकसित रूप आधुनिक कारखाने की एसेम्बली लाइन है । ये कारखाने 'कन्वेयर बेल्टों' का जाल होते हैं जिसके जरिए विभिन्न हिस्सों से मशीन के पुर्जों के हिस्से प्रवाहित होते रहते हैं । अलग - अलग बिन्दुओं पर अलग -अलग मजदूर विभिन्न औजारों से पुर्जों में थोड़ा कुछ जोड़ते जाते हैं ।इस तरह यह पुर्जा तैयार होकर उस बिन्दु पर पहुँचता है जहाँ उसे कोई दूसरा मजदूर किसी और पुर्जे के साथ जोड़ता है । इस प्रक्रिया के अन्त में पूरी मशीन , मोटरगाड़ी , साइकिल आदि हमें तैयार रूप में मिलते हैं । पूरी मशीन की रूपरेखा कुछ विशेषज्ञों द्वारा तैयार किसी ब्लूप्रिंट ( नक्शे) में होती है । कारखाने में काम करने वाले मजदूर कठपुतलियों की तरह चन्द सेकेण्ड या चन्द मिनट तक मशीन की गति के हिसाब से कुछ यांत्रिक क्रिया अपने पूरे कार्यकाल में दोहराते जाते हैं । मजदूरों को इस तरह एक यन्त्र के रूप में परिवर्तित कर देने का एक फायदा पूँजीपति वर्ग को यह हुआ है कि आवश्यकता के अनुसार वे मजदूरों की जगह कम्प्यूटरों से उनका अधिकाधिक काम करा सकते हैं । मजदूर रखे जायें या कम्प्यूटर , यह सिर्फ इस बात पर निर्भर करता है कि कौन सस्ता पड़ता है ।

इस उत्पादन प्रणाली में मजदूरों को न तो साँस लेने की फुरसत मिलती है और न ही सृजन का सुख क्योंकि उन्हें मशीन की गति से चलना होता है और दूसरे , उन्हें अपने काम की रूपरेखा की भी कोई जानकारी नहीं होती । इसी प्रक्रिया को कार्ल मार्क्स ने आधुनिक उद्योगों के प्रारम्भिक काल में 'एलियेनेशन' ( आत्मदुराव ) की संज्ञा थी जिसमें मजदूरों का निजत्व जो उनकी श्रम प्रक्रिया से जुड़ा है उससे अलग हो जाता है और यह श्रम जब उत्पादन के जरिए पूँजी का रूप ग्रहण कर लेता है तो फिर मजदूरों के शोषण का औजार बन जाता है ।

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