आदमी का अकेलापन , एकाकी सुख : उपभोक्तावादी संस्कृति (७) : सच्चिदानन्द सिन्हा
गत प्रविष्टि से आगे :
आदमी का अकेलापन
आदमी के अस्तित्व की सबसे बड़ी असलियत संसार में उसका अकेलापन है । हमारा क्या होता है , हम जीते हैं या मरते हैं , खुशियाँ मनाते हैं या पीड़ा में कराहते हैं इसका कोई प्रभाव सृष्टि पर नहीं पड़ता । सूरज , तारे , चाँद , धरती या हमारे आँगन में उगी घास या खिले फूल हमारी स्थिति से असम्पृक्त अपने निर्दिष्ट जीवन - पथ पर बढ़ते चले जाते हैं । इस बात के एहसास ने पश्चिम में अस्तित्ववादी दर्शन की ओर झुकाव पैदा किया , जिसमें ऊब और अनास्था का दारूण स्वर सुनाई पड़ता है । आदमी ने कला , विज्ञान आदि के जरिए इस दुनिया को अर्थवान- बनाकर एक सीमा तक अपने जीवन को भी अर्थवान यानी एक वृहत डिजाइन का हिस्सा बनाने की कोशिश की है । लेकिन आदमी चाहे जो कल्पना कर ले कभी भी प्रकृति के साथ सम्प्रेषण नहीं स्थापित कर सकता । उसके अकेलेपन को कोई सचमुच में अगर तोड़ सकता है तो दूसरा आदमी ही । अपनी सम्पूर्ण अनुभूति में आदमी फिर भी अकेला है और कोई उपाय नहीं जिससे वह अपनी पूरी अनुभूति को दूसरे के लिए संप्रेषित कर सके । लेकिन एक सीमा की भीतर भावों से , शब्दों से , संगीत से वह अपनी आंतरिक पीड़ा या खुशी दूसरे मनुष्यों तक पहुँचा सकता है । इस सम्प्रेषण से उसकी ऊब और उसका अकेलापन टूटता है । स्वभाव से आदमी अपने सुख और अपनी पीड़ा में अधिक से अधिक लोगों को शामिल करने में गहरे संतोष का अनुभव करता है । इसीलिए उसे विस्तृत मानव समुदाय की चाह होती है । कोई भी वस्तु जो उन्मुक्त सम्प्रेषण में रुकावट डालती है , वह आदमी के अकेलेपन को बढ़ाती है । उपभोक्तावादी संस्कृति वस्तुओं के आधार पर अलग - अलग घेरों में आदमी को बाँटकर सम्प्रेषण की संभावना को खतम करती है क्योंकि इससे उनके अनुभव की दायरे अलग हो जाते हैं जबकि सम्प्रेषण के लिए अनुभव के बीच सामंजस्य का होना आवश्यक है । इस तरह उपभोक्तावाद के कारण एक - दूसरे से कटे आदमी की ऊब और गहरी होती जाती है । इस ऊब से वस्तुओं की भूख और भी बढ़ती है। इस दुश्चक्र के कारण जीवन में सार्थकता की तलाश मृग-मरीचिका बन जाती है । इस दृष्टि से उपभोक्तावादी समतावादी संस्कृति के ठीक विपरीत स्थिति बनाती है ।
एकाकी सुख
यह कोई आकस्मिक बात नहीं कि उपभोक्तावादी समाज में मनोरंजन के साधन उत्तरोत्तर ऐसे बनते जा रहे हैं जिनमें सामूहिक आनन्द का स्थान एकाकी सुख ले रहा है । पहले सामूहिक नृत्य - गान आदि में एक मिली - जुली खुशी का अनुभव होता था । उपभोक्तावादी संस्कृति में मनोरंजन का प्रतीक और उसका सबसे विकसित साधन टेलिविजन है जिसमें कहीं किसी सामूहिक हिस्सेदारी की गुंजाइश नहीं होती । हर दर्शक अकेला , एक निर्जीव मशीन पर आँखें चिपकाये अपने तात्कालिक परिवेश से कटा बैठा रहता है । दर्शक टी.वी. पर विभिन्न भूमिकाओं में आनेवालों से बिल्कुल कटा होता है । दर्शक की खुशी या दुख की अभिव्यक्ति उसी तक सीमित रहती है । उसका कोई समुदाय नहीं बन पाता । अगर उनका कोई भावनात्मक लगाव बन पाता है तो उनके साथ जिनकी कोई भूमिका टेलिविजन पर होती है और जो स्वयं इस भावना से निर्लिप्त मात्र छाया हैं । फिर टेलिविजन के संचालकों द्वारा इस भावना का व्यावसायिक या राजनीतिक उपयोग दर्शकों को अपनी मरजी के अनुसार किसी दिशा में हाँकने के लिए किया जा सकता है । यह बिल्कुल एक तरफा व्यापार है जिसमें दर्शकों की अभिव्यक्ति की कोई सम्भावना नहीं बनती । प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में देवताओं की आकाशवाणी की तरह इसमें द्रष्टा - श्रोता के लिए सिर्फ संदेश - आदेश ही होते हैं जो निर्मम रूप से श्रोता - दर्शक की भावनाओं से असंपृक्त होते हैं क्योंकि टेलिविजन या रेडियो पर अभिनय करनेवाले , असली नहीं काल्पनिक लोगों के लिए अभिनय करते हैं । कहीं अभिनेता - वक्ता और दर्शक -श्रोता के बीच कोई फीडबैक (प्रतिक्रिया या परिणाम की जानकारी ) नहीं होता जिससे कि अभिनेता-वक्ता अपनी भूमिका में लोगों की भावना के अनुरूप कोई रुझान लाने की जरूरत महसूस करे । कोई आश्चर्य नहीं कि सबसे पहले हिटलर ने रेडियो का लोगों को मानसिक रूप से बन्दी बनाने के लिए उपयोग किया था ।
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