पूँजीवाद के संकट को टालने का औजार : उपभोक्तावादी संस्कृति (८) : सच्चिदान्द सिन्हा
पूँजीवाद के संकट को टालने का औजार
पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली से उपजी यह उपभोक्तावादी संस्कृति पूँजीवाद के संकट को टालने का भी सबसे कारगर औजार है । ऊपर इस बात की चर्चा की गयी है कि कैसे यह संस्कृति मजदूर वर्ग की वर्ग - चेतना और समाज - परिवर्तन की आकांक्षा को नष्ट करती है लेकिन इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण इसकी भूमिका पूँजीवादी उत्पादन को चालू रखने में है । वैज्ञानिक सूक्ष्मता के बिना भी मोटे तौर पर हम पूँजीवादी उत्पादन के आधार और उसकी समस्याओं को नीचे दिये गये ढंग से समझ सकते हैं जिसके पीछे मार्क्स तथा उसके समकालीन कुछ अन्य अर्थशास्त्रियों का चिन्तन है ।
पूँजीवादी उत्पादन में पूँजीपतियों के मुनाफे का आधार मजदूरों के श्रम का शोषण होता है। उदाहरण के लिए अगर मजदूर किसी पूँजीपति के यहाँ ८ घण्टे काम करता है तो उसके एवज में वह अपने पूरे श्रम का मूल्य नहीं पाता । उसे ५ - ६ घंटे या और कम या अधिक समय के काम करने की ही मजदूरी मिलेगी । दो या तीन घंटे के श्रम से पैदा हुई वस्तु को ही जिसके बदले मजदूर को मजदूरी नहीं मिलती बेचकर मालिक यह अतिरिक्त मूल्य पाता है जो उसने मजदूरों की पूरी ८ घंटे मजदूरी में से काट लिया होता है । यही अतिरिक्त मूल्य जमा हो कर , क्योंकि ऐसा मूल्य उसे सैंकड़ो या हजारों मजदूरों से वर्षों तक प्राप्त होता रहता है , उसकी पूँजी का स्रोत बनता है । लेकिन यहाँ उत्पादित माल की खपत के लिए बाजार की समस्या पैदा हो जाती है । मजदूर ने तो ८ घंटे के काम के बराबर वस्तुओं का निर्माण किया है लेकिन अगर उसे ६ घंटे के काम की ही मजदूरी मिली तो वह ६ घंटे के काम के बराबर की ही वस्तुएं खरीद सकेगा । फिर सवाल उठता है कि जो बाकी २ घण्टे की मजदूरी से उत्पादित वस्तुएं होंगी उन्हें कौन खरीदेगा ? पूँजीपति खरीद सकते हैं । लेकिन हम सभी पूँजीपतियों को समेट कर एक काल्पनिक पूँजीपति के रूप में देखते हैं, तो पाते हैं कि चूँकि उसकी पूँजी का स्रोत वस्तुओं की बिक्री से प्राप्त मुनाफा है , अत: जब तक वस्तुओं की बिक्री नहीं होती पूँजीपति के हाथ में भी खरीदने के लिए पैसा नहीं होगा ( यहाँ मान लिया गया है कि पूँजीवादी समाज में आमदनी के दो ही मूल स्रोत हैं , मजदूरों की मजदूरी और पूँजीपतियों का मुनाफा,बाकी सभी लोगों की आमदनी या तो पूँजीपतियों के मुनाफे से आती है य मजदूरों की मजदूरी से)। अगर पैसा हो भी तो पूँजीपति अपने तमाम मुनाफे के बराबर वस्तुओं को नहीं खरीद सकते क्योंकि उनकी संख्या सीमित है । अत: वे कितना भी खर्च उपभोग पर क्यों न करें , वे उत्पादित अतिरिक्त मूल्य के बराबर उपभोग पर खर्च नहीं कर सकते । इसका एक बड़ा अंश वे जरूरी उत्पादन वस्तुओं जैसे मशीन आदि के खरीदने पर खरच कर सकते हैं ।लेकिन अगर उपभोग की वस्तुओं की खपत रुकी रही तो उत्पादन पर लगी नयी पूँजी से जो नये उपभोग की वस्तुएं बनेंगी उनसे यह संकट और भी गहरा होगा क्योंकि जब तक मशीन से बनी वस्तुओं की खपत नहीं होती नयी मशीन बैठाना निरर्थक होगा , क्योंकि उत्पादित माल के लिए पहले ही से बाजार में मंदी है ।
कुछ हद तक सरकार पूँजीपतियों को इस संकट से बचाती है। वह नोट छाप कर पैसों का जुगाड़ कर देती है और इसमें कुछ सेवा-क्षेत्रों में खरच करते हैं पर वह विशेषकर युद्ध के सामान की खरीद करती है जिसकी उपयोगिता नहीं होती लेकिन सुरक्षा के नाम पर जिसके उत्पादन की कोई सीमा भी नहीं , क्योंकि नित्य नये हथियार ईजाद होते रहते हैं और पुराने रद्दी हो कर बेकार होते जाते हैं । इसके अलावा वस्तुओं को गैर-पूँजीवादी क्षेत्रों में बेचने का प्रयास होता है । फिर स्वयं पूँजीपतियों के यहाँ काम करनेवाले मजदूरों या सेवा कार्य में लगे मजदूरों के भविष्य की आय ‘हायर परचेज’ योजना के अन्दर वस्तुओं की बिक्री के लिए समेट ली जाती है । लेकिन चूँकि पूँजी के विकास के लिए यह दबाव निरन्तर बना रहता है कि उत्पादन का फैलाव होता रहे , क्योंकि बिना उत्पादन और इससे प्राप्त मुनाफे के पूँजीवाद का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है अत: इस बात का निरन्तर प्रयास होता है कि लोगों में उत्तरोरत्तर उपभोग वृत्ति को तेज किया जाये जिससे ग्राहकों का अभाव न हो । इस तरह उपभोक्तावादी संस्कृति उपभोग वृत्ति को निरन्तर उकसा कर पूँजीवादी उत्पादन को जीवित रखती है ।
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