कम्युनिस्ट देश और उपभोक्तावाद : उपभोक्तावादी संस्कृति (११) : सच्चिदानन्द सिन्हा
पिछली प्रविष्टी से आगे
कम्युनिस्ट देश और उपभोक्तावाद
उपभोक्तावादी संस्कृति का कुछ ऐसा ही प्रभाव कम्युनिस्ट देशों पर भी पड़ रहा है । बोल्शेविक क्रान्ति के प्रारम्भिक दिनों में जब गृहयुद्ध चल रहा था , रूस में समता की एक जबरदस्त धारा थी जिसे 'युद्ध साम्यवाद' के नाम से सम्बोधित किया जाता था । धीरे - धीरे परिस्थितियों के दबाव में समता की धारा दब गयी । स्टालिन के वर्चस्व के बाद कम्युनिस्ट तानाशाही का जो रूप उभरा उसमें 'कम्युनिज्म' और 'फासिज्म' के बीच सामाजिक असलियत में कोई बुनियादी फर्क नहीं रहा । लेकिन कम्युनिस्ट व्यवस्था के भीतर बौद्धिक धरातल पर एक आलोचनात्मक दृष्टि जरूर थी जो इसे विरासत के रूप में मार्क्सवादी सिद्धान्त एवं क्रान्ति की घोषणाओं से मिली थी । जहाँ 'फासिज्म' में मूल्यों की कोई ऐसी मान्यता नहीं थी जिसके आधार पर उसकी सामाजिक असलियत को चुनौती दी जा सके , वहाँ रूस की सैद्धान्तिक मान्यताएं लोकतांत्रिक और समतावादी थीं । इसलिए रूस के शासकों को लगातार अपनी सामाजिक असलियत पर परदा डालना पड़ता था और यह कहना पड़ता था कि रूस की गैरबराबरी या तानाशाही की बात विरोधियों का प्रचार है । इस अन्तरविरोध के कारण बहुत से लोगों के दिमाग में यह धारणा थी कि रूसी समाज की बौद्धिकता में व्याप्त यह क्रान्तिकारी तत्त्व अन्ततोगत्वा वहाँ की सत्ता के लिए चुनौती बन जायेगा । लेकिन बाद में जब वहाँ की सामाजिक असलियत को झुठलाना सम्भव नहीं हुआ तब रूस के शासकों ने बहुत ही चतुराई से समाजवादी सिद्धान्तों को ही तोड़ना-मरोड़ना शुरु किया ।
अन्ततोगत्वा पूँजीवादी समाज की तरह उपभोक्तावादी मूल्यों को अपनाकर रूस का शासकवर्ग भी अपनी व्यवस्था और सिद्धान्तों के अन्तरविरोध से उबर गया है । अब रूस की जनता , खासतौर से मजदूर वर्ग के लोग , समता और बन्धुत्व की बात भूल गये हैं । क्रान्ति के बाद की पीढ़ी के लिए ये सब अपरिचित मान्यताएं हैं । वहाँ भी पश्चिम के नये देवता की पूजा आरम्भ हो गयी है और एक जबरदस्त चाह उन चीजों की पैदा हो गयी है जो पश्चिमी उपभोक्तावादी संस्कृति की प्रतीक हैं । इससे उत्पादन प्रक्रिया में धीरे-धीरे पूँजीवादी दक्षता की कसौटियाँ और उसी तरह के स्तरों में विभाजन को सैद्धान्तिक मान्यता प्राप्त हो गयी है । अकसर कम्युनिस्ट देशों का नारा अमेरिका के समकक्ष पहुँचने का रहा है । अमेरिका में प्रचलित उपभोग की वस्तुओं की लालसा कम्युनिस्ट देशों में भयंकर रूप से व्याप्त है । इस तरह अब कम्युनिस्ट और पूँजीवादी देशों के मूल्यों में अथवा उत्पादन एवं वितरण की व्यवस्था में कोई मूल भेद नहीं रहा - इस फरक को छोड़कर कि कारखानों के कानूनी अधिकारी एक व्यवस्था में सरकार है तो दूसरे में पूँजीपतियों के समूह हैं । इस कारण कम्युनिस्ट देशों में शासक वर्ग को एक संभावित चुनौती से फुरसत मिल गयी है और अगर वे अपने शासन को थोड़ा ढीला भी कर दें तब भी तत्काल उनकी सुविधाओं को किसी बड़ी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ेगा ।
लेकिन उपभोक्तावादी मूल्यों को अपनाकर कम्युनिस्ट व्यवस्थाएँ एक दूसरे तरह के संकट में फंस गयी हैं । रूस और पूर्वी यूरोप के अन्य देश जो रूसी अधिकार क्षेत्र में कम्युनिस्ट व्यवस्था चला रहे हैं , अभी भी तकनीकी दृष्टि से पश्चिम के उपभोक्तावादी समाज से काफी पीछे हैं , खासकर उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन क्षेत्र में । एक बार उपभोक्तावादी सिद्धान्त को मान लेने के बाद , एक बार यह मान लेने के बाद कि कम्युनिस्ट वयवस्था का मूल उद्देश्य लोगों को वे वस्तुएँ उपलब्ध कराना है जो अमेरिका या पश्चिम के अन्य विकसित देशों में लोगों को उपलब्ध हैं , व्यवस्था की यह मजबूरी बन जाती है कि लोगों को वे वस्तुएँ उपलब्ध कराये , या कम से कम उन लोगों को कराये जो शासन के आधार हैं । इन देशों के नागरिक भी अब इसी कसौटी पर शासन को कसने लगे हैं । इस मजबूरी के कारण पिछले दशकों में रूस और पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट शासन न सिर्फ पश्चिम से बड़ी मात्रा में मशीन और तकनीक अपने उपभोक्ता उद्योगों के के आधुनिकीकरण के लिए आयात कर रहे हैं , बल्कि बड़ी मात्रा में अन्य उपभोग की वस्तुएँ भी खरीद रहे हैं । चूँकि इन देशों का उद्योग अभी भी अपेक्षाकृत पिछड़ा हुआ है, इसलिए ये लोग औद्योगिक सामान का निर्यात पश्चिम के देशों को नहीं कर सकते । इससे इन देशों में पश्चिम से खरीदे गए सामान का मूल्य चुकाने के सवाल को लेकर भारी आर्थिक संकट पैदा हो गया है । चूँकि रूस के पास खनिजों का विशाल भंडार है , वह तो सोना , तेल गैस तथा अन्य खनिजों का निर्यात कर अपने आयातों के बदले मुद्रा का भुगतान कर लेता है ( अभी साइबेरिया से गैस की आपूर्ति के लिए पश्चिमी यूरोप तक पाइप बैठाने का काम इसी उद्देश्य से हो रहा है ) , लेकिन पूर्वी यूरोप के अन्य देशों की अर्थ-व्यवस्था गहरे संकट में है । इनमें लगभग सभी देशों पर पश्चिमी देशों का कर्ज बढ़ता जा रहा है जिसे चुकाना उनके लिए मुश्किल हो रहा है । अकेले पोलैण्ड पर पश्चिमी देशों का कर्ज लगभग ३० अरब डॉलर हो गया है ।
एक बार उपभोक्तावादी मूल्य कबूल करके जीवन की बहुत सी अनुपयोगी वस्तुओं का अभ्यस्त होने के बाद उनसे छुटकारा पाना मुश्किल हो जाता है । यह एक ऐसा पेंच है कि इसमें एक बार फंस जाने पर कम्युनिस्ट देशों के नेताओं के लिए , उबरने का एक मात्र रास्ता पूँजीवादी मूल्यों को अधिकाधिक कबूल करते जाना है । इससे निकलने का दूसरा तरीका है समता के मूल्यों को कबूल करना जो एक ही झटके में तामझाम की तमाम जरूरतों को निरर्थक बना देते हैं । लेकिन इसको कबूल करना उनके लिए अपने सत्ता के आधार को नष्ट कर देना है । यह संकट न सिर्फ कम्युनिस्ट शासकों का है बल्कि पूँजीवादी और गैरबराबरी पर टिकी हर व्यवस्था के शासकों का है । इसलिए वे समता का सिद्धान्त नहीं कबूल कर सकते , यह जानते हुए भी कि इसका विकल्प वर्त्तमान उत्पादन पद्धति को और भी संवेदनशून्य बनाना है , और भी तेज रफ्तार से उसी दिशा में ले चलना है , जहाँ प्राकृतिक साधनों के क्षय , प्रदूषण या सीमित प्राकृतिक साधनों पर अधिकार के लिए छीनाझपटी में युद्ध से मानव समाज का विनाश अवश्यंभावी दिखाई देता है ।
पुनश्च :
यह लेख १९८२-८३ में लिखा गया था । पिछले दशक के घटनाक्रम ने सोवियत युनियन और पूर्वी यूरोप में उस प्रक्रिया को , जो ऊपर वर्णित है अपनी परिणति पर पहुँचा दिया है । उपभोक्तावाद के दबाव में अपने उद्योगों को एक खास तरह की सक्षमता प्रदान करने के लिए सोवियत युनियन और इसके प्रभाव वाले पूर्वी देशों ने समाजवादी अतीत के बचे खुचे अवशेषों को भी तिलांजलि दे दी है । उद्योगों के सार्वजनिक स्वामित्व के सिद्धान्त और सभी लोगों को रोजगार देने की सरकारी जवाबदेही को खतम कर दिया गया है । विदेशी कम्पनियों को पूरी छूट इन देशों में उद्योग लगाने और मुनाफा बाहर ले जाने की , दे दी गयी है । पूरी तरह उन्मुक्त बाजार की तरफ व्यवस्था को ले जाने के प्रयास जारी हैं । सत्तर वर्ष से स्थापित व्यवस्था पाँच वर्ष के भीतर धराशायी हो गयी । लेकिन उन्मुक्त बाजार व्यवस्था अपनाने पर भी अपने आर्थिक संकट से उबरने के बजाय ये देश दिनोंदिन नये संकटों से घिरते जा रहे हैं। समाज का विघटन हो रहा है और माफियातंत्र विकसित हो रहा है । ( समाप्त )
पूरी पुस्तिका की कड़ियाँ :
उपभोक्तावादी संस्कृति :गुलाम मानसिकता की अफ़ीम : सच्चिदानन्द सिन्हा
उपभोक्तावादी संस्कृति (२) : सच्चिदानन्द सिन्हा
उपभोक्तावादी संस्कृति (३) : कृत्रिमता ही जीवन
उपभोक्तावादी संस्कृति (४) : उपभोक्तावादी संस्कृति का विकास : सच्चिदानन्द सिन्हा
उपभोक्तावादी संस्कृति(५):औद्योगिक मानसिकता, खोखलेलेपन का संसार :सच्चिदानन्द सिन्हा
वस्तुओं को जमा करने की लत,समता और बंधुत्व का लोप : उपभोक्तावादी संस्कृति (६) :
आदमी का अकेलापन , एकाकी सुख : उपभोक्तावादी संस्कृति (७) : सच्चिदानन्द सिन्हा
पूँजीवाद के संकट को टालने का औजार : उपभोक्तावादी संस्कृति (८) : सच्चिदान्द सिन्हा
समाजवादी कल्पना पर कुठाराघात : उपभोक्तावादी संस्कृति (९) : सच्चिदानन्द सिन्हा
भारत और उपभोक्तावादी संस्कृति : उपभोक्तावादी संस्कृति (१०) : सच्चिदानन्द सिन्हा
कम्युनिस्ट देश और उपभोक्तावाद
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