क्या, फिर इन्डिया शाइनिंग ?
विकास दर के आँकड़े कितने भ्रामक हो सकते हैं , विकास के दावे कितने खोखले हो सकते हैं , वैश्वीकरण की व्यवस्था कितनी विसंगतिपूर्ण हो सकती है , यह आज जितना स्पष्ट हो गया है , उतना शायद पहले कभी नहीं था । भारत सरकार बड़े गर्व से घोषणा कर रही है कि भारत की राष्ट्रीय आय अब ९ प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर हासिल कर चुकी है और निकट भविष्य में दो अंकों ( यानी दस प्रतिशत ) में पहुँच जाएगी ।
भारत की सत्ता में बैठी सरकारें देश की खुशहाली के तीन लक्षण बता रही हैं और उनके आधार पर स्वयं को शाबाशी दे रही हैं : -
( १ ) राष्ट्रीय आय में ऊँची वृद्धि दर , ( २ ) विदेशी पूँजी निवेश में आयी तेजी और ( ३ ) शेयर बाजार की तेजी । लेकिन इन तीनों से भारत की करोड़ों साधारण जनता की जिन्दगी की असलियत की कोई झाँकी नहीं मिलती है , बल्कि शायद भारत की जनता के बढ़ते शोषण और बदहाली से ही इन तीनों में तेजी आयी है । जबरदस्त बेरोजगारी , किसानों की बदहाली और आत्महत्याएँ , मजदूरों व कारीगरों के बढ़े शोषण , बन्द होते छोटे-बड़े उद्योग , बढ़ती मँहगाई , जीवन की बुनियादी सामुदायिक सुविधाओं ( शिक्षा , इलाज , पानी , बिजली , परिवहन आदि ) के बढ़ते बाजारीकरण , बढ़ते भ्रष्टाचार आदि ने भारत के आम लोगों के जीवन में एक जबरदस्त संकट पैदा कर दिया है । इस संकट को विकास दर , विदेशी मुद्रा कोष या शेयर बाजार की आँकड़ों से ढका या झुठलाया नहीं जा सकता । यहाँ तक कि मनमोहन , चिदम्बरम , मोन्टेक सिंह की तिकड़ी को भी स्वीकार करना पड़ रहा है कि यह 'विकास' रोजगाररहित है , लोगों को शामिल करने वाला नहीं है और इसमें खेती तथा गाँव पीछे छूटते जा रहे हैं । लेकिन उनकी ये चिन्ताएँ एक पाखण्ड हैं , क्योंकि यह कोई संयोग नहीं है , यह तो उनके द्वारा अपनायी गयी नीतियों का अनिवार्य अंग एवं परिणाम है ।
पिछले कुछ वर्षों से भारत की विकास दर में जो तेजी आई है , उसमें सबसे प्रमुख योगदान सेवाओं का है , फिर उद्योगों का और कृषि क्षेत्र का योगदान नगण्य है । कुछ वर्षों में तो कृषि उत्पादन में गिरावट आयी है । लेकिन देश की आधे से ज्यादा आबादी खेती पर निर्भर है । इसलिए इस विकास का असंतुलन बहुत स्पष्ट है ।खेती और उद्योगों में ही किसी अर्थव्यवस्था का वास्तविक उत्पादन होता है । सेवाओं की भूमिका तो एक परजीवी की होती है । इसलिए सेवाओं का हिस्सा बहुत बढ़ने का मतलब शोषण में वृद्धि है । यह असंतुलित विकास बहुत दिन नहीं चल सकता है । कम्प्यूटर और सूचना टेकनालाजी उद्योग की प्रगति , कम्पनियों के विलय-अधिग्रहण , बढ़ते शॉपिंग मॉल , फ्लाइ-ओवर और कारों के नये-नये मॉडलों के पीछे देश की बढ़ती कंगाली , बेरोजगारी और विषमता की सच्चाई छुपी है । विकास दर के साथ वर्ग और क्षेत्रीय विषमता भी तेजी से बढ़ी है ।
भारत के किसान लगातार कंगाली , ऋणग्रस्तता और बरबादी की ओर बढ़ रहे हैं । देश के विभिन्न हिस्सों में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला नहीं रुक रहा है । १९९३ से अभी तक देश में एक लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं । पिछले वर्ष प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने विदर्भ की यात्रा की , किसानों की विधवाओं से मुलाकात की और किसानों के हित में कुछ घोषणाएँ कीं । किन्तु प्रधानमंत्री की इन घोषणाओं के बाद आत्महत्याओं का सिलसिला थमा नहीं , बल्कि और बढ़ गया । इसकी वजह यह है कि किसानों के संकट का मूल कारण बैंकों से मिलने वाले करजों की कमी नहीं है , जो मनमोहन सिंह द्वारा किसानों को और ज्यादा करजे दिलाने की घोषणा से यह संकट दूर हो जाता और किसान आश्वस्त हो जाते । असली समस्या तो यह है कि आधुनिक विकास और वैश्वीकरण ने खेती को जबरदस्त घाटे का धन्धा बना दिया है । एक तरफ मुक्त व्यापार की नीतियों ने या तो कृषि उपज के दाम नहीं बढ़ने दिये हैं या गिरा दिए हैं तथा विश्व बैंक - मुद्रा कोष के निर्देशों से खेती की लागतें लगातार बढ़ रही हैं । ऐसी हालत में ज्यादा करजे का मतलब किसान की ज्यादा कर्जग्रस्तता और ज्यादा आत्महत्याएँ हैं ।
भारत सरकार की नीतियाँ किस तरह किसानों के खिलाफ और बड़े व्यापारियों व कम्पनियों के पक्ष में हैं , इसका ताजा उदाहरण कृषि उपज के आयात और निर्यात की घोषणाएँ हैं । जिस देश में कुछ साल पहले गोदामों में अनाज रखने की जगह नहीं थी , वहाँ दो वर्ष पहले अचानक अनाज का अभाव पैदा हो गया और बड़े पैमाने पर गेहूँ आयात करने का निर्णय लेना पड़ा । इसका प्रमुख कारण यह था कि भारत सरकार ने उत्पादन लागत बढ़ने के बावजूद कई सालों तक गेहूँ के समर्थन मूल्य में कोई विशेष वृद्धि नहीं की और उसे जबरदस्ती कम करके रखा ।जो सरका देश के किसानों को ६५० रु. से ज्यादा समर्थन मूल्य देने को तैयार नहीं थी , उसी ने १००० रु. के दामों पर विदेशों से गेहूँ आयात किया । बाजार में गेहूँ बहुत मँहगा हो गया और गरीबों के लिए अनाज खरीदकर खाना मुश्किल हो गया । यह भारत सरकार की कृषि नीति और खाद्यनीति की विफलता का खुला प्रमाण है । कैसे सरकार की नीति व निर्णय से वास्तविक उत्पादक और उपभोक्ता दोनों को नुकसान होता है , फायदा सिर्फ बिचौलियों व कम्पनियों को होता है , उसका भी यह एक और उदाहरण है । हाल ही में , भारत सरकार ने गेहूँ के निर्यात पर प्रतिबन्ध की घोषण भी तब की , जब उसकी फसल बाजार में आने वाली है । एक बार फिर किसानों को नुकसान होगा और कम्पनियों को फायदा होगा ।
संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण तथा बजट में भारत सरकार ने मँहगाई के बारे में चिन्ता तो जाहिर की है , लेकिन अनाज , दालों व खाद्य तेलों का अभाव और दाम-वृद्धि पिछले काफी समय से चली आ रही सरकार की किसान-विरोधी एवं राष्ट्र-विरोधी नीतियों का ही परिणाम है । खाद्यान्नों एवं अन्य क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता को जानबूझकर नष्ट करने की आत्मघाती नीति पर हमारी सरकारे चल रही हैं ।
बढ़ते दामों पर रोक लगाने के लिए सरकार ने पिछले दिनों पहले उड़द और अरहर और बाद में गेहूँ व चावल के वायदा कारोबार पर रोक लगायी है । इसका मतलब है कि सरकार को अब बहुत देर से समझ में आया है कि वायदा कारोबार का लाभ सटोरिये और जमाखोर उठा रहे हैं तथा देश की साधारण जनता को लूटा जा रहा है । सवाल यह है कि जनता की बुनियादी जरूरतों वाली वस्तुओं का वायदा कारोबार शुरु ही क्यों किया गया ? उदारीकरण की नीतियों के दुष्परिणामों और उदारीकरण के अर्थशास्त्र की बड़ी कीमत देश को चुकानी पड़ रही है ।
( समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय सम्मेलन में पारित 'आर्थिक प्रस्ताव' से । इस प्रस्ताव का शेष हिस्सा यहाँ देखें ।)
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