सोमवार, मार्च 05, 2007

उपभोक्तावादी संस्कृति :गुलाम मानसिकता की अफ़ीम : सच्चिदानन्द सिन्हा



भूमिका


हमारा निजी रहन - सहन कैसा होता है , इसके सामाजिक प्रभाव के सम्बन्ध में बहुत विचार नहीं किया जाता । ऐसे लोग भी जो समाज-परिवर्तन करना चाहते हैं , समाज से गरीबी हटाना चाहते हैं और समता लाना चाहते हैं , खुद कैसे रहते हैं इस बारे में नहीं सोचते। लेकिन हमारा रहन-सहन और उपभोग का स्तर वास्तव में एक नितान्त निजी मामला नहीं है । यह एक विशेष वातावरण की उपज है और स्वयं एक वातावरण बनाता है। यह वातावरण बहुत हद तक समाज की दिशा को प्रभावित करता है और इस बात का भी निर्धारण करता है कि उपलब्ध साधनों का कैसे उपयोग होगा । अत: यह एक ऐसा विषय है जिस पर कुछ गहराई से विचार करने की जरूरत है ।


निजी रहन-सहन के सम्बन्ध में इस लापरवाही को वामपंथी और मार्क्सवादी पार्टियों में एक तरह की सैद्धान्तिक मान्यता प्राप्त हो गयी थी । एक यूरोपीय वामपंथी ने इस सम्बन्ध में एक दिलचस्प बात बतायी । उसने बताया कि मार्क्स की स्वयं की आदतें फिजूलखरची की थीं हालांकि उनकी जिन्दगी प्राय: अभाव में ही बीती ।इस व्यक्ति ने यह भी बताया कि पश्चिम के मार्क्सवादी मार्क्स की इस कमजोरी को अपनी फिजूलखरची के समर्थन में उदाहरण की तरह पेश करते हैं । भारत में भी जब किसी वामपंथी नेता के खरचीले रहन-सहन की आलोचना की जाती है तो झट से यह जवाब मिलता है कि ' हमारा काम श्रमिकों का जीवन-स्तर ऊपर उठाना है , खुद अपने जीवन-स्तर को नीचे गिराना नहीं' । शुरु के दिनों मे समाजवादियों और गाँधीवादियों के बीच अक्सर यह एक विवाद का मुद्दा रहता था । यह बात अलग है कि आमतौर से समाजवादी कार्यकर्ताओं का जीवन बहुत ही सादगी और कभी-कभी तो अत्यन्त गरीबी का होता था , क्योंकि ईमानदार कार्यकर्ताओं के लिए दूसरे तरह की जिन्दगी सम्भव नहीं थी । जब सामाजिक कार्यकर्ताओं का यह हाल था तो आम आदमी में इस विषय पर सोचने की जरूरत कैसे पैदा होती ?


इस समस्या को इस तरह नजरअंदाज करने के पीछे एक कारण यह भी था कि आजादी के पहले तक शहरी संस्कृति अपने आप में विचार का विषय नहीं थी । लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह संस्कृति जलकुम्भी की तरह समाज पर छाती गयी है । जो गरीब हैं वे तो गरीबी के कारण इससे अछूते रह जाते हैं या इसके प्रभाव से और गरीब होते चले जाते हैं , लेकिन मध्यमवर्ग में तो यह महामारी की तरह फैल गयी है । सामाजिक कार्यकर्ताओं के रहन - सहन और इसके प्रति उनकी दृष्टि का भी इस संस्कृति से गहरा सम्बन्ध है । अत: इस प्रश्न पर पूरी स्पष्टता की जरूरत है ।


एक कारण और था जिससे वामपंथी लोगों में उपभोग की सीमा के सवाल पर कोई विचार नहीं होता था । यह मान लिया जाता था कि औद्योगिक उत्पादन की क्षमता सीमाहीन है और इसके अंधाधुंध प्रसार से कोई सामाजिक समस्या पैदा नहीं होगी । यह विचार भी पश्चिमी देशों से ही हमें मिला था । लेकिन अब पश्चिम के अधिकांश वैज्ञानिक और चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि इस उत्पादन की एक सीमा है और हम उस सीमा के काफी करीब आ चुके हैं । इस कारण वहाँ छात्रों तथा बुद्धिजीवियों के बीच एक नया वामपंथ पैदा हो रहा है जो प्राकृतिक साधनों की सीमाओं , प्रदूषण आदि की समस्याओं के साथ वामपंथ को जोड़ने का प्रयास कर रहा है । इन लोगों ने भी यह अनुभव किया है कि मानव विकास की कल्पना प्रकृति द्वारा बांधी गयी सीमाओं के भीतर ही की जा सकती है । स्पष्ट है कि कोई भी दीर्घकालीन विकास प्राकृतिक साधनों के अपव्यय को रोक कर ही सम्भव है ।हमारा उपभोग कितना और किन वस्तुओं का हो वह इससे सीधा जुड़ा हुआ है । इस तरह उपभोक्तावादी संस्कृति एक तरह से समाज के विकास के लिए सबसे प्रमुख अवरोध बन गयी है ।


इस सवाल पर साफ दृष्टि की इसलिए भी जरूरत है क्योंकि उपभोक्तावाद का दबाव बहुत जबरदस्त होता है । किसी व्यक्ति के इर्दगिर्द लोग कैसे रहते हैं , क्या पहनते हैं आदि की देखा-देखी ही वह अपना रहन-सहन बनाने की कोशिश करता है । अगर सामाजिक कार्यकर्ता किसी भी स्तर के उपभोग को सामान्य मान लें तो वह इस दबाव से नहीं बच सकता । इससे वह तभी बचेगा जब उसे यह पता हो कि कौन सी सामाजिक शक्तियाँ इस दबाव के पीछे काम करती हैं और कैसे वे उसके बुनियादी मूल्यों के विपरीत प्रभाव डालती हैं या उन उद्देश्यों को नष्ट करने वाली हैं जिनको लेकर वह चलता है । आज उपभोक्तावाद पूँजीवादी शोषण व्यवस्था का परिणाम भर नहीं है बल्कि उसे जिन्दा रखने का सबसे कारगर हथियार भी है। इसलिए भी संघर्ष को उपभोक्तावाद के खिलाफ केन्द्रित करना जरूरी हो जाता है । यह पुस्तिका उपभोक्तावाद के विभिन्न पहलुओं पर इसी दृष्टि से विचार करती है ।


सच्चिदानन्द सिन्हा.



( जारी )

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