वस्तुओं को जमा करने की लत,समता और बंधुत्व का लोप : उपभोक्तावादी संस्कृति (६) : सच्चिदानन्द सिन्हा
पिछली प्रविष्टी से आगे :
वस्तुओं को जमा करने की लत
पहले उत्सवों में आनन्द के लिए शराब पी जाती थी । अब जीवन की नीरसता और ऊब से छुटकारे के लिए शराब पी जाती है । इस तरह उन समूहों में जिनका काम सबसे नीरस है या जिन्दगी अर्थहीन बन गयी है शराबीपन सब से अधिक फैल रहा है । लेकिन शराब , चाय , कॉफी या कोकाकोला का नशा थोड़ा सीमित है । जो सबसे बड़ी अफ़ीम लोगों को अपनी स्थिति को भूलने के लिए इस संस्कृति ने दी है वह उपभोग की वस्तुओं को जमा करने की लत है । यह अधिक से अधिक समय तक लोगों को व्यस्त रख सकती है । कुछ समय दुकानों की सजी खिड़कियों में झाँक कर नयी वस्तुओं के 'अन्वेषण' में लगता है , फिर कुछ समय उन्हें उपलब्ध करने या उसके लिये साधन जुटाने की योजना में और अन्त में घर में लाने पर उनके रख-रखाव में । धर्म नहीं , जैसा मार्क्स ने कहा था , आधुनिक युग की अफ़ीम तो उपभोक्तावादी हवस है । इस हवस के अधीन होने पर वस्तुओं को पाने की कल्पना में मजदूर भी अपनी सामाजिक स्थिति भूल जाता है और अपने वर्ग स्वार्थ की रक्षा के लिए शोषक वर्ग से संघर्ष करने के बजाय उस वर्ग की जीवन पद्धति की ओर ललचायी दृष्टि से देखने लगता है , और एक हद तक उसका प्रशंसक बनकर उसके मूल्यों को आत्मसात कर लेता है । पश्चिमी दुनिया में इस हवस के कारण समाज परिवर्तन की शक्ति बनने के बजाय , उपभोक्तावादी मूल्यों का शिकार मजदूर अब पूँजीवादी व्यवस्था का जबरदस्त स्तम्भ बन गया है ।
समता और बंधुत्व का लोप
मजदूर वर्ग की क्रान्तिकारिता का क्षरण समता और बन्धुत्व के मूल्यों को लाँघकर उपभोक्तावादी मूल्य अपनाने से ही हुआ है । उपभोक्तावादी समाज ने दो मान्यताओं को जन्म दिया है । एक तो - यह कि उपभोग की जो वस्तुएँ आज कुछ लोगों को उपलब्ध हैं वे धीरे - धीरे सबों को उपलब्ध हो सकती हैं , और दूसरा कि समता अपने-आप में कोई साध्य नहीं है। इस तरह समता और सम्पन्नता को दो विसंगतियों के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा है। चूँकि इस मत के अनुसार पूँजीवादी समाज सम्पन्नता दे सकता है अत: समता की बात अप्रासंगिक हो गयी है । उनके मुताबिक यह ठीक है कि कुछ लोग सीढ़ी के उच्चतम स्तरों पर हैं और बाकी के लोग नीचे की सीढ़ियों पर , लेकिन चूँकि ये सीढ़ियाँ 'एस्केलेटर' (चलती यांत्रिक सीढ़ी जिस पर चढ़ते ही अपने आप आदमी ऊपर पहुँचने लगता है ) की हैं सारे लोग ऊपर जा रहे हैं - नीचेवाले भी और जो ऊपर हैं वे भी ।अगर इन दोनों के बीच की दूरी नहीं मिटती , अगर उनके बीच बीसियों स्तरों के भेद हैं तो क्या फरक पड़ता है ? सच तो यह है कि उपभोक्तावादी संस्कृति समाज को , किसके पास क्या उपभोग की वस्तुएँ उपलब्ध हैं इस आधार पर असंख्य वर्गों में बाँटती जाती है और उनके बीच भावनात्मक भेद पैदा करती है । कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मार्क्स की कल्पना के विपरीत पश्चिम के विकसित पूँजीवादी समाज में , जहाँ उपभोक्तावाद पूरी तरह हावी है , मजदूरों की वर्ग चेतना नष्ट हो गयी और बड़ी तादाद में मजदूर अपने को भावना के स्तर पर मध्यम वर्ग में शामिल करने लगे हैं क्योंकि मालिक मजदूरों के भेद के बजाय उपभोक्तावादी मान के हिसाब से , मजदूरों के आपसी भेद रोजमर्रा की जिन्दगी में ज्यादा उजागर होते रहते हैं ।
मजदूरों की चेतना पर उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव का एक आँख खोलनेवाला परिणाम १९६८ में फ्रांस में देखने को मिला ।उस समय पश्चिमी देशों के युवा वर्ग और खासकर छात्रों में पूँजीवाद और उससे जुड़े उपभोक्तावादी मूल्यों के विरुद्ध एक व्यापक विद्रोह की लहर दौड़ गयी थी । इसका एक ऐसा विस्फोट १९६८ के मई महीने में फ्रांस में हुआ कि वहाँ की हुकूमत गहरे संकट में पड़ गयी थी ।सौरबोन विश्वविद्यालय के छात्रों ने नगर में बैरिकेड ( विद्रोह के समय ईंट-पत्थर तथा अन्य सामानों का अवरोध खड़ा कर एक तरह की अस्थायी किलेबन्दी जिसकी यूरोप की क्रान्तियों में एक लम्बी परम्परा रही है ।) खड़ा करना शुरु किया । विद्रोह की शुरुआत उपभोक्तावादी मूल्यों की प्रतीक मोटरगाड़ियों के जलाने से हुई । लेकिन मजदूर वर्ग और स्वयं कम्यूनिस्ट पार्टी उपभोक्तावादी समाज के दबावों से पक्षाघात का शिकार हो चुके थे और दोनों अनिर्णय की स्थिति में रहे या आन्दोलन के विरोध में रहे । इस तरह मजदूरों के समर्थन के अभाव में यह विद्रोह क्रान्ति का रूप ले सके इसके पहले ही समाप्त हो गया ।
अगर हम अपने समाज पर ही नजर डालें तो पायेंगे कि कैसे उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव से लोगों का आपसी विभाजन गहरा हो रहा है । जाति-व्यवस्था के तमाम दोष अपनी जगह पर हैं , लेकिन कुछ दशक पहले तक कम से कम जाति बिरादरी वालों में आपस में एक बराबरी का सम्बन्ध था जिसका प्रतीक साथ का हुक्का- पानी हुआ करता था । लेकिन जैसे-जैसे इस नयी संस्कृति ने अपना प्रभाव बढ़ाया है , गाँवों में भी कुछ सम्पन्न लोगों के घरों में सोफासेट , टेपरेकार्डर आदि आने लगे हैं । अब चटाई पर बैठने वाले और सोफा पर बैठनेवाले एक ही बिरादरी के लोगों के बीच एक बड़ी दीवार खड़ी हो रही है । यह कहना ज्यादा सही होगा कि बिरादरी के बाहर सोफासेट वालों की एक अलग बिरादरी खड़ी हो रही है । इस तरह जहाँ थोड़ा बहुत समुदाय का भाव था वह भी नष्ट होता जा रहा है । वस्तुओं की दीवारों से लोग एक-दूसरे से कटते जा रहे हैं । इसका एक परिणाम यह होता है कि आध्यात्मिक खोखलेपन से पैदा जिस ऊब से उबरने के लिए वस्तुओं का संग्रह किया जाता है , वह ऊब और भी बढ़ती जाती है ।
अगली प्रविष्टी : आदमी का अकेलापन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें