मंगलवार, अगस्त 28, 2007

औद्योगीकरण का अन्धविश्वास : ले. सुनील

    सिंगूर और नन्दीग्राम की घटनाओं से और इनके पहले कलिंगनगर तथा दादरी जैसे संघर्षों से इतना जरूर हुआ है कि भूमण्डलीकरण के रास्ते पर दौड़ते मदांध शासक वर्ग के पैर कुछ ठिठके हैं तथा देश में एक बहस छिड़ी है । विशेष आर्थिक क्षेत्रों की मंजूरी कुछ दिनों के लिए रुकी है तथा सरकारें कुछ पुनर्विचार के लिए मजबूर हुई हैं ।

    लेकिन अक्सर यह बहस सतही स्तर पर हो रही है और समस्या के सतही समाधान खोजे जा रहे हैं । विशेष आर्थिक क्षेत्रों और उद्योगों के लिए विस्थापन के कई आलोचक भी ( जिनमें माकपा भी शामिल है ) इस तरह के सूत्र व सुझाव दे रहे हैं । जैसे कहा जा रहा है कि उपजाऊ , तीन फसली या दो फसली जमीन इनके लिए न ली जाए । खाली पड़ी, पड़त , बंजर या कम उपजाऊ भूमि पर उद्योग या विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाये जा सकते हैं। किन्तु  यह कहने से अपेक्षाकृत पिछड़े और समूचे आदिवासी इलाकों में विस्थापन को समर्थन मिल जायेगा । इस नियम से सिंगूर-नन्दीग्राम गलत होगा,किंतु कलिंगनगर- काशीपुर सही हो जाएगा । दरअसल सवाल जमीन की गुणवत्ता का नहीं है । जमीन कैसी भी हो , उस इलाके के बहुसंख्यक लोगों की जिंदगी और जीविका का प्रमुख आधार होती है । इस जमीन को छीन लेने से वहाँ के लोगों के जीवन पर बड़ा संकट आ जाता है । यह भी कहा जा रहा है कि विस्थापन तो हो किन्तु पुनर्वास अच्छा हो , विस्थापितों को रोजगार मिले और नए उपक्रमों में विस्थापितों को शेयर दिये जाएं । भारत सरकार भी एक नई पुनर्वास नीति तैयार करने में जुटी है । लेकिन अपने अनुभव से हम जानते हैं कि पुनर्वास नीति कितनी ही अच्छी क्यों न हो , उस पर अमल नहीं होता तथा विस्थापितों के साथ कभी न्याय नहीं होता । विस्थापितों के मुकाबले परियोजना में निहित बड़ी ताकतों के हित ज्यादा भारी हो जाते हैं । सरदार सरोवर परियोजना का उदाहरण हमारे सामने है ।

    यह भी दलील दी जा रही है कि कंपनियों के लिए सरकारें भूमि का अधिग्रहण न करें कंपनियां स्वयं जमीन किसानों से खरीदें। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के विषय में भारत सरकार का ताजा फैसला यही है । इससे किसानों से जमीन छीन कर कंपनियों को कौड़ियों के मोल सौंपने की प्रक्रिया पर निश्चित ही रोक लगेगी और जमीन के अरबों-खरबों के घोटाले रुकेंगे। लेकिन जहाँ कंपनियों को करों में छूटें और लूट के अवसरों से मुनाफों के पहाड़ दिखाई दे रहे हैं , वहाँ वे किसानों को आकर्षक कीमत देकर भी जमीन खरीद सकती हैं । और नए कंपनी-सरकार राज में किसानों को जमीन बेचने के लिए कई तरह के दबाव और बल का प्रयोग करने में भी कंपनियाँ नहीं चूकतीं हैं । कंपनियों के हाथ में जमीन जाने की प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए हमारी सरकारें भी कई कदम ऊठा रही हैं । भूमि हदबन्दी कानूनों को शिथिल किया जा रहा है और भूमि का बाजार विकसित करने की कोशिश की जा रही है। खेती में जिस तरीके से लगातार नुकसान हो रहा है और वह तेजी से घाटे की खेती बनती जा रही है, उसके चलते कई जगहों पर किसान स्वयं भी जमीन बेचने के लिए तैयार(या मजबूर) हो रहे हैं । लेकिन सवाल यह है कि क्या बड़े पैमाने पर जमीन किसानों के हाथ से निकलकर कंपनियों के हाथ में जाना तथा खेती से निकलकर उद्योगों व अन्य उपयोगों में जाना उचित और वांछनीय है?

    यहीं पर कुछ बुनियादी सवाल आ जाते हैं। वे यह हैं हैं कि हमारी अर्थव्यवस्था में खेती , उद्योगों और अन्य गतिविधियों का क्या तथा कितना स्थान होगा ? क्या विकास के लिए औद्योगीकरण जरूरी है? यह औद्योगीकरण किस प्रकार का होगा? आखिर माकपा नेताओं ने सिगूर-नन्दीग्राम के सन्दर्भ में यही तर्क तो दिए हैं ! उनका कहना है कि भूमि सुधारों के जरिए खेती के विकास की एक सीमा है जो पश्चिम बंगाल में आ चुकी है । खेती में एक हद से ज्यादा रोजगार नहीं मिल सकता है । अब आगे के विकास के लिए बंगाल का औद्योगीकरण जरूरी है और इसके लिए टाटा , सालेम समूह आदि को बुलाना जरूरी है। "क्या किसान का बेटा किसान ही रहेगा ? " - बुद्धदेव भट्टाचार्य ने यह प्रश्न अपने विरोधियों से पूछा है । इन दलीलों का स्पष्ट जवाब माकपा-विरोधियों को देना होगा और इन प्रश्नों का समाधान खोजना होगा । इन पर एक विस्तृत बहस चलाने का समय आ गया है ।

     यह बहस इसलिए भी जरूरी है , क्योंकि सिंगूर-नन्दीग्राम की घटनाओं पर अनेक प्रतिक्रियाएं वाममोर्चा सरकार के नैतिक पतन , माकपा की गुण्डागर्दी , आदि तक सीमित रही हैं । औद्योगीकरण और विकास की वर्तमान नीति और उसके पीछे की सोच पर पर्याप्त सवाल नहीं उठाए गए हैं । यदि विकास की कोई वैकल्पिक राह नहीं खोजी गयी,तो भूमण्डलीकरण के झोले में से सिंगूर व नन्दीग्राम तो अनिवार्य रूप से निकलेंगे ही।

( जारी )

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