शनिवार, अगस्त 04, 2007

गोस्वामी तुलसीदास का छद्म सेक्युलरवाद

काशी के तुलसी घाट की चर्चा करते हुए मैंने तुलसीदास द्वारा अयोध्या में कही गयी :

' माँग के खईबो , मसीद में सोईबो '

इस पंक्ति का जिक्र किया था । 'पंगेबाज' अरुण के गले नहीं उतरा तुलसीदास का अयोध्या में मस्जिद में सोना । टीप दिया कि 'मसीद' के माएने 'मस्ती' होगा । यानी उस पंक्ति के माएने मित्र चिट्ठेबाज के अनुसार हो जाएँगे , ' माँग के खाऊँगा और फिर मस्ती में सो जाऊँगा , बिन्दास ! बिना किसी पंगे के ! '

    अरुण की टीप से छद्म हाफ़ पैन्टी अनुनाद उत्साहित हो गए ।

 

सेक्युलरिज्म के हित में यही है कि मसीद का अर्थ मसजिद मान लिया जाय।

जाकी रही भावना जैसी…

    यानी अनुनाद को लगा कि तुलसीदास की बात का मैंने सेक्युलरीकरण कर दिया । उन्हें छद्म हाफ़ पैन्टी कह रहा हूँ चूँकि वे वास्तव में छद्म न होते तब कहते , ' मसीद ' का मतलब मस्जिद ही तो है । अयोध्या की 'मसीद' में ही मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम प्रकट हुए थे । ऐसे में तुलसी जैसा अनन्य रामभक्त अन्यत्र शयन क्यों करता ?

    भगवान वहाँ तुलसी के जमाने में प्रकट हुए या कलेक्टर नैय्यर के जमाने में यह बहस नई हो जाएगी ।

    बहरहाल , तुलसीदास छद्म सेक्युलरवादी सिर्फ़ इस पंक्ति से नहीं बन जाते । तुलसी भए अक़बर के जमाने में । तब, बाबर के जमाने की तथाकथित ग़लतियों पर चुप्पी क्यों साधे रहे ? अदम गोंडवी के शेर का मिसरा याद कर के?

ग़र ग़लतियाँ बाबर ने की जुम्मन का घर फिर क्यों जले ?

जुम्मन का घर जलाने नहीं गए, ऊपर से कह गए

" परहित सरिस धरम नहि भाई ,

परपीड़ा सम नहि अधमाई "

    परपीड़ा का धर्म उन्होंने हाफ़ पैन्टियों के गुरुणामगुरु हिटलर से नहीं सीखा ?

    यह छद्म सेक्युलरवादी नर - नारी समता और स्त्री - स्वतंत्रता की बातें भी करते हैं ! हिन्दू-राष्ट्र के कल्पना का समाज तो मनु महाराज की संकल्पना के आधार पर होगा !शूद्रों की भाँति स्त्रियों के कान में भी पिघला सीसा डालने वाला ! विद्वान अरुण या छद्म हाफ़ पैन्टी अनुनाद से पूछिए कि गोस्वामीजी ' पराधीन सपनेहु सुख नाहि ' कह गए, किस सन्दर्भ में ? उसका पूवार्ध क्या है ? एक विशिष्ट सोच के धनी महापुरुषों के लिए डॉ. लोहिया कह गए , ' हिन्दू नर इतना नीच हो गया है कि पहले तो इस चौपाई के पूर्वार्ध को भुला देने की कोशिश की और फिर कहीं - कहीं नया पूर्वार्ध ही गढ़ डाला - " कर विचार देखहु मन माहि " ।

    ' पराधीन सपनेहु सुख नाहि ' के वास्तविक पूर्वार्ध से पता चलता है कि किसकी पराधीनता की चर्चा महाकवि ने की है । रामचरितमानस पर विचार करते वक्त 'रामायण मेला' की कल्पना करने वाले राममनोहर लोहिया की इस बात पर भी गौर करें :

" दोहे- चौपाई को समझते समय सामयिक परिस्थिति और चिर सत्य के भेद को दिमाग में रखना चाहिए । धार्मिक कविता का यही सबसे बड़ा दोष है कि क्षणभंगुर समाज और भ्रष्ट पात्रों की भ्रष्ट -चौपाइयों और संसार के सर्वश्रेष्ठ आनन्द अथवा नीति पर एक अच्छत-रोली ,गंगा-जल छिड़क देती हैं, सभी पवित्र हो जाते हैं । "

 अब यह अरुण बताएँगे कि ' कोऊ नृप होए हमे का हानि' किस महान चरित्र का कथन था ? इस पंक्ति को मानने वाले मौजूदा समाज में भी मौजूद हैं । वे यह भी मान कर खुश हो लेते होंगे कि मानस में यह दर्शन है !

    इस देश की जनता के दिमाग में अच्छी तरह बैठा हुआ है कि राम ने गद्दी का त्याग किया , कुर्सी के लिए ख़ून-खराबा नहीं किया था ।

    स्वामी विवेकानन्द के ' छद्म सेक्युलर ' विचार मैंने जब अपने चिट्ठे पर दिए थे तब सरस्वती शिशु मन्दिर में पढ़े एक मित्र ने लिखा था , '

 

दिक्‍कत ये है कि दक्षिणपंथी हों या वामपंथी सभी इन मुद्दों पर ध्‍यान देने से कतराते हैं, रही बात विवेकानंद का नाम लेकर दुकान चला रहे झंडाबरदारों की, तो वो सिर्फ उतनी ही बातें सामने लाते हैं जिनसे उनकी दुकान जारी रहे । उनके लिये विवेकानंद का जिक्र उत्तिष्‍ठ जागृत से शुरू होता है और अमरीका वाले सम्‍मेलन के जिक्र पर खत्‍म हो जाता है । बस । इससे आगे विवेकानंद की बातें बताना उनके लिए असुविधाजनक हो जाता
है ।

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