'लोकतंत्र का जिला-बदर' : ले. सुनील
भारत एक लोकतंत्र है । कई बार हम गर्व करते हैं कि जनसंख्या के हिसाब से यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है । अपने पड़ोसियों की तुलना में हमने लोकतंत्र को बचाकर रखा है। लेकिन इस लोकतंत्र में आम लोगों की इच्छाओं , आकांक्षाओं तथा चेतना को बाधित करने व कुचलने की काफ़ी गुंजाइश रखी गयी है । ऐसा ही एक मामला मध्य - प्रदेश के हरदा जिले के सामने आया है ।
हरदा जिले के कलेक्टर ने इस जिले में आदिवासियों , दलितों और गरीब तबकों को संगठित करने का काम कर रहे एक दम्पति को जिला बदर करने का नोटिस दिया है। समाजवादी जनपरिषद नामक एक नवोदित दल से जुड़े शमीम मोदी और अनुराग मोदी पर आरोप लगाया है कि वे बार - बार बिना सरकारी अनुमति के बैठकों , रैली , धरना आदि का आयोजन करते हैं तथा आदिवासियों को जंगल काटने और वनभूमि पर अतिक्रमण करने के लिए भड़काते हैं । वे परचे छापते हैं और जबरन चन्दा करते हैं। मध्य-प्रदेश राज्य सुरक्षा अधिनियम १९९० की धारा ५ (ख) के तहत एक वर्ष की अवधि के लिए हरदा व निकटवर्ती जिलों होशंगाबाद , सीहोर, देवास , खंडवा तथा बैतूल से जिला बदर करने का नोटिस उन्हें दिया गया है ।
इस नोटिस से ऐसा प्रतीत होता है कि शमीम और अनुराग मानों कोई खतरनाक गुण्डों और अपराधी गिरोह के सरगना हैं । लेकिन इकहरे बदन वाले दुबले-पतले मोदी दम्पति
से हरदा की सड़कों पर टकरायें,तो दूसरी ही धारणा बनती है। वे लोग गुण्डागर्दी तो क्या करेंगे , लेकिन पिछले कई सालों से सरकारी तंत्र के गुण्डाराज से जरूर टकरा रहे हैं । बरगी बाँध के विस्थापितों के संघर्ष में साथ देने के बाद पिछले दस वर्षों से वे बैतूल , हरदा , और खण्डवा जिलों में आदिवासी तथा गरीब तबकों के साथ हो रहे अन्याय ,अत्याचार व शोषण के खिलाफ उन्हें संगठित करने का काम कर रहे हैं । मूल रूप से हरदा के ही निवासी अनुराग शिक्षा से इंजीनियर हैं। शमीम ने मुंबई के प्रतिष्ठित टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइन्सेज़ से शिक्षा प्राप्त की है।दोनों अपनी नौकरी को लात मारकर इस कठिन काम में आ कूदे हैं । इस कार्य के लिए उन्हें प्रतिष्ठा और मान्यता भी मिली है। आदिवासी वन अधिकार कानून के विषय में बनी संयुक्त संसदीय समिति और योजना आयोग ने समय-समय पर उन्हें आमंत्रित किया है। आज उन्हीं को हरदा जिला प्रशासन समाज - विरोधी तत्व तथा अपराधी गिरोह का सरगना बताकर जिला बदर करने को तुला है। इससे स्वयं मध्य प्रदेश सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा हो गया है।
शमीम व अनुराग ने आज तक किसी को गाली भी नहीं दी है, मारना या मारने की धमकी देना तो दूर की बात है। उनका हर आन्दोलन अनुशासित और शान्तिपूर्ण होता है। इसके विपरीत , सत्तादल भाजपा-कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की गुण्डागर्दी की खबरें आती रहती हैं। पिछले वर्ष उज्जैन में प्रोफेसर सभरवाल हत्याकाण्ड इसका उदाहरण है । ऐसे लोगों के खिलाफ़ प्रदेश ने जिला बदर की कार्यवाही करने की जरूरत नहीं समझी, बल्कि उन्हें बचाया जाता है ।
दरअसल देश के आदिवासी इलाकों में विवाद का मुद्दा उस भूमि का है जिस पर वन नहीं है,आदिवासी खेती कर रहे हैं किन्तु सरकारी रिकार्ड में वह 'वनभूमि' के रूप में दर्ज है । इस कारण बड़ी संख्या में आदिवासी अपनी भूमि के जायज हक की मान्यता से वंचित है,अतिक्रमणकर्ता कहलाते हैं और उन पर अत्याचार होता है । इस ऐतिहासिक अन्याय को दुरुस्त करने के लिए पिछले साल संसद में एक कानून भी बनाया गया ।हांलाकि, इस कानून में अनेक खामियाँ रह गयीं हैं । आदिवासियों के इसी हक को मान्यता दिलाने तथा कानून की खामियों दुरुस्त करने के लिए देश भर के जनसंगठनों ने अभियान चलाया था। किन्तु हरदा जिले में यही अभियान 'जुर्म' बन गया । इसी के परचों , बुलेटिनों, बैठकों और सभाओं को जिला प्रशासन ने जिला बदर की कार्यवाही का आधार बनाया है । भारत की संसद जिस हक के लिए को कानूनी मान्यता देती है,उसे भारत के एक जिले का कलेक्टर 'गुनाह' बना देता है। विडम्बना यह है कि इसी वर्ष मध्य प्रदेश सरकार ने १८५७ के विद्रोह में आदिवासियों के योगदान को याद किया , टण्टया भील और बिरसा मुण्डा के नाम से जिले-जिले में समारोह किये। अपने समय में अंग्रेज सरकार की निगाह में टण्टया भील भी 'लुटेरा' और 'डाकू' था। आज आदिवासी हक के लिए संघर्ष करने वाले भी 'समाज-विरोधी' तथा 'अपराधी' हैं। ऐसा लगता है कि डेढ़ सौ साल में कुछ नहीं बदला है।
( जारी)
अनुराग- शमीम के जिला बदर के प्रतिवाद में ज्ञापन पर समर्थन जतायें, यहाँ ।
उक्त प्रतिवेदन पर हिन्दी में हस्ताक्षर और समर्थन वक्तव्य दिया जा सकता है।
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