' नारी हानि विसेस क्षति नाहीं '
पिछली तीन प्रविष्टियों में रामचरितमानस का सन्दर्भ आया और स्वस्थ लोगों के बीच चर्चा-बहस हुई । घुघूती बासूती ने स्त्री के दर्द का उदाहरण शूद्र के दर्द से दिया । इष्टदेव संकृत्यायन और अनूप शुक्ला ने मानस में स्त्री विरोधी पंक्तियों के सन्दर्भ में इस बात पर गौर करने का निवेदन किया कि उक्त पंक्तियाँ किस पात्र द्वारा किन परिस्थितियों में कही जा रही हैं , इसे नजरअन्दाज न किया जाए ।
आनन्द , प्रेम और शान्ति के आह्वान के मुख्य प्रयोजन के साथ राममनोहर लोहिया ने रामायण मेला आयोजित करने की संकल्पना की थी । उन्हें लगता था कि आयोजन से हिन्दुस्तान की एकता जैसे साम्प्रतिक लक्ष्य भी प्राप्त किए जाएँगे । कम्बन की तमिल रामायण , एकनाथ की मराठी रामायण , कृत्तिबास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायणों ने अपनी-अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया ऐसा लोहिया मानते थे । उनका विचार था कि रामायण मेला में तुलसी की रामायण को केन्द्रित करके इन सभी रामायणों पर विचार किया जाएगा और बानगी के तौर पर उसका पाठ भी होगा । लोहिया का निजी मत था कि तुलसी एक रक्षक कवि थे ।
'जब चारों तरफ़ से अझेल हमले हों , तो बचाना , थामना , टेका देना , शायद ही तुलसी से बढ़कर कोई कर सकता है । जब साधारण शक्ति आ चुकी हो , फैलाव , खोज , प्रयोग , नूतनता और महाबल अथवा महा-आनन्द के लिए दूसरी या पूरक कविता ढूँढ़नी होगी ।'
लोहिया को लगता था कि , 'नारी को कलंकित करने वाली पंक्तियों को हँस कर टाल देना चाहिए कि ये पंक्तियाँ किसी शोक-संतप्त अथवा नीच पात्र के मुँह में है या ऐसे कवियों की है जो अपरिवर्तनशील युग में था । हमें आशा है कि रामायण मेले में , भाषणों द्वारा और वहाँ के वातावरण से जनता को विवेक बुद्धि मिलेगी , और सच को संगत कोण से देखने का मौका मिलेगा ।' इस चिट्ठे पर हो रही चर्चा में उठे मुद्दों पर लोहिया के विचार और उनकी योजना के प्रासंगिक अंश यहाँ दिए जा रहे हैं ।
" एक कार्यक्रम तुलसी रामायण के नवाह्न पाठ का जरूर होना चाहिए । एक अगुआ दोहा-चौपाई लय से पढ़ेगा और उसको हज़ार , दस हज़ार या लाख , जितने भी लोग हों उसी लय से दोहराने की कोशिश करेंगे । लय से पढ़ने वाले लोगों को अभी से तय करना चाहिए , उनके दिन और समय भी । इन अगुओं में औरतें , शूद्र और अन्य धर्मी जरूर रहें । द्विज तो होंगे ही । हो सकता है कि कुछ हिन्दू सोचें कि हिन्दू धर्म को भ्रष्ट किया जा रहा है और कुछ कट्टर अन्य धर्मी भी सोचें कि उनको खाने और हिन्दू धर्म में खपाने की कोशिश हो रही है ।वास्तविकता यह है कि उन्मुक्त मानव आनन्द और पूरे हिन्दुस्तान की एक राष्ट्रीयता इस तरह के नवाह्न पाठ से जगेंगे । मैं समझता हूँ कि हिन्दुस्तान की साधारण जनता उसको बहुत पसन्द करेगी ।
एक दिक्कत उठ सकती है । मान लो,कोई नारी पाठ की अगुआगिरी कर रही है और उसी समय आठ अवगुण वाली नारी के स्वभाव की चौपाई आ पड़े या ' नारी हानि विसेस क्षति नाही" , तब क्या हो? यहीं दृष्टि का सवाल उठता है। सबसे पहली बात तो यह है कि नारी और शूद्र सम्बन्धी और अन्य प्रकार की जितनी भ्रष्ट चौपाइयाँ रामायण में हैं वे ज्यादातर भ्रष्ट पात्रों के मुँह में रखी गयी हैं या किसी पागलपन के मौके पर । महाकाव्य एक महान नाटक होता है । उसमें सैंकड़ों किस्म के पात्र होते हैं ।हर पात्र की कही हुई,हर एक बात,न तो अच्छी ही होती है न चिर सत्य ।
.......इसलिए मैं उम्मीद करूँगा कि अगुआगिरी करने वाली नारी उसी झूम से उन चौपाइयों को पढ़ेगी जैसे दूसरी चौपाइयों को। मन में , जहाँ जैसी जरूरत होगी, वह पात्र पर हँस लेगी या तुलसी पर ।
....दृष्टि-सुधार के लिए इस नर-नारी सम्बन्ध का थोड़ा विश्लेषण और कर दूँ । इस सम्बन्ध में इधर (सं.-मार्च १९६१ का भाषण ) सबसे अच्छी किताब सिमोन दबोव्वार की निकली है । उनका कहना है कि सदा से नर-नारी सम्बन्ध की दो परस्पर विरोधी धुरियाँ रही हैं : एक , कि नर नारी को पूरी तरह अपने क़ब्जे में रखना चाहता है, और दूसरे , कि नारी सजीव और स्वंतंत्र हो , जिससे क़ब्जा मजेदार हो , लेकिन यह सम्भव कैसे। ऐसे क़ब्जे को हम अपनी भाषा में चुलबुला क़ब्जा कह सकते हैं,जो कि फ्रांसीसी और दूसरी भाषाओं में ,इतने कम शब्दों में कहना ,शायद सम्भव नहीं है । अधीन वस्तु सजीव और स्वतंत्र हो,यह है नर दिमाग की विडम्बना । और सिमोन का कहना बिलकुल सही है।
फिर हम तुलसी को याद करें । नारी स्वतंत्रता और समानता की जितनी जानदार कविता मैंने तुलसी की पढ़ी और सुनी उतनी और कहीं नहीं , कम से कम इससे ज्यादा जानदार कहीं नहीं ।अफ़सोस यह है कि नारी हीनता वाली कविता तो हिन्दू नर के मुँह पर चढ़ी रहती है लेकिन नारी सम्मान वाली कविता को वह भुलाये रहता है। मामला यहाँ तक बढ़ गया है कि अगर कुछ दिन पहले रामस्वरूप वर्मा ने मुझे याद नहीं न दिलाया होता तो मैं भी भूल गया था कि " पराधीन सपनेहु सुख नाहीं" का सम्बन्ध नारी से है।
चुलबुला क़ब्जा असम्भव है। निर्जीव क़ब्जा बेमजा है । नर और नारी का स्नेहमय सम्बन्ध बराबरी की नींव पर हो सकता है । ऐसा सम्बन्ध किसी समाज ने अभी तक नहीं जाना। सीता और राम में भी पूरी बराबरी का स्नेह नहीं था। समाज के अन्दर व्याप्त गैरबराबरी का कण उसमें भी पड़ गया। फिर भी, जितना ज्यादा सीता , द्रौपदी और पार्वती इत्यादि को ऊँचे और स्वतंत्र आसन पर बैठाया है ,उससे ज्यादा ऊँचा नारी का स्थान दुनिया में कहीं , और कभी नहीं हुआ । यदि दृष्टि ठीक है तो राम कथा और तुलसी - रामायण की कविता सुनने या पढ़ने से नर - नारी के साथ सम स्नेह की ज्योति मिल सकती है ।
ऐसी दृष्टि , लगता है कि हिन्दुस्तान को बहुत ठोकर खाने के बाद ही मिलेगी । दहेज की रकम बढ़ती चली आ रही है और जब माता - पिता उसे न दे पाएँगे और जब बढ़ेगा जिसे हिन्दुस्तान में अनर्थ कहा जाता है , तब लोग समझेंगे कि नारी को भी इसी तरह खोल दो जैसे नर को । पठन - पाठन और मेलों से कुछ काम जरूर बनता है ।मुझे आशा है कि जो भाषण मेले में होंगे उनसे दृष्टि बनेगी ।
.... शूद्र और पिछड़े वर्गों के मामले में रामायण में काफ़ी अविवेक है । इस सम्बन्ध में एक बात ध्यान में रहे तो बड़ा अच्छा है ।शूद्र को हीन बनाने की जितनी चौपाइयाँ हैं , उनमें से अधिकतर कुपात्रों ने कही हैं , अथवा कुअवसर पर ।इतना जरूर सही है कि द्विज और विप्र को हर मौके पर इतना ऊँचा चढ़ाया गया है कि शूद्र और बनवासी नीचे गिर जाते हैं । इसे भी समय का दोष और कवि को समय का शिकार समझ कर रामायण का रस पान करना चाहिए । मैं उन लोगों में नहीं जो चौपाइयों के अर्थ की खींचतान करते हैं , अथवा १०० चौपाइयों के मुकाबले में केवल विपरीत चौपाई का उदाहरण दे कर अपनी ग़लत बात को मनवाना चाहते हैं । यदि मैं निषाद के प्रसंग का उल्लेख इस सम्बन्ध में करता हूँ तो रामायण की सफ़ाई देने के लिए नहीं बल्कि यह दिखाने के लिए जाति - प्रथा के इस बीहड़ और सड़े जंगल में एक छोटी-सी चमकती पगडंडी है । प्रसंगवश मैं इतना और कह दूँ कि किसी चौपाई के सैंकड़ों मतलब बताने में न तुलसी की प्रतिभा है , न बताने वाले की ।विद्वत्ता तो इसी में है कि सभी सम्भव अर्थों पर टीका करते हुए सबसे सही अर्थ को स्थिर को स्थिर करना ।
निषाद भरत मंडली को लक्षमण की तरह दीखता है ।जिसको छुआ नहीं जाता है ,वह एकाएक राम का छोटा भाई कैसे बन जाता है ? तुलसी के निषाद में यह सब प्रेम का चमत्कार है । प्रेम के सामने सब रीति-रिवाज ढह जाते हैं। मुझे मालूम नहीं कि वाल्मीकि अथवा दूसरी रामायणों में प्रेम को इतनी बड़ी जगह है या नहीं ,जितना तुलसी में। एक और प्रसंग में कहा है,जहाँ भरत और राम का वर्णन है, " भरत अवधि सनेह ममता की , जदपि राम सीम समता की । " राम समता की सीमा हैं ,उनसे बढ़कर समता और कहीं नहीं है । इस समता का ज्यादा निर्देश मन की समता की ओर है , ठंड और गरम अथवा हर्ष और विषाद अथवा जय और पराजय की दोनों स्थितियों में मन की समान भावना ।मन की ऐसी भावना अगर सच है तो बाहरी जगत के प्राणियों के लिए भी छलकेगी। जिस तरह राम की समता छलकती है ,उसी तरह भरत का स्नेह भी छलकता है। दोनों निषाद को गले लगाते हैं । यह सही है कि अब पालागी और गलमिलौवल को साथ-साथ चलना प्रवंचना होगी।पालागी खतम हो और गलमिलौवल रहे ।
...... मुझे एक और दिलचस्प बात मिली है। रावण कुल के अधिकतर नाम मोटी आवाज , तेज बोल पर हैं। रावण खुद कौन है ?जो रव या हल्ला करे। मेघनाद , कुम्भकरण, सूर्पनखा का मृत पति विद्युत जिह्व सब जोर-बोल के नाम हैं।इस कुल के सभी नाम ऐसे क्यों पड़े अथवा कवियों अथवा कहानीकारों ने रव पर ही सब नाम क्यों गढ़े ? खोज का यह एक अच्छा विषय है ।
positive frame of mind and good illustration
जवाब देंहटाएं