सोमवार, अप्रैल 16, 2007

पूर्वी उत्तर प्रदेश में चुनावी राजनीति में आई गिरावट

उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों के आखिरी दो चरणों में पूर्वी उत्तर प्रदेश में चुनाव होंगे । अन्तिम चरण में होने वाले चुनावों में दो सीटों ( सीयर,जि. बलिया और कौड़ीराम,जि. गोरखपुर में क्रमश: साथी नवमी यादव और साथी दीपक पाण्डे ) पर समाजवादी जनपरिषद भी चुनाव मैदान में है । हमने इन चुनावों की बाबत अपनी घोषणा जनता के समक्ष की है, और चिट्ठे पर भी ।

बहरहाल , आज की प्रविष्टि में मुख्यधारा के दलों में जो परिवर्तन ( नकारात्मक ) मुझे चर्चा के लायक लग रहे हैं उन्हें पेश कर रहा हूँ । प्रदेश की विधान सभा में चुनाव- पूर्व समझौते के साथ पूर्ण बहुमत अन्तिम बार १९९३ में आया था । राम-मन्दिर आन्दोलन को चरम पर ( बाबरी मस्जिद को गिराने के बाद) पहुँचा चुकी भाजपा तीसरे नम्बर की पार्टी बन गयी थी और तब से अब तक उसका यही स्थान रहा है । जनता के बीच उस चुनाव में "मिले मुलायम - कांशीराम,हवा हो गए 'जै श्री राम' " नारा लोकप्रिय हुआ था । यह एक स्वाभाविक गठबन्धन था जिसमें भारतीय समाज के साम्प्रदायिकता-विरोधी तबकों- पिछड़ों और दलितों की एकता ने साम्प्रदायिक और ब्राह्मणवादी शक्ति को आसानी से शिकस्त दी थी। हिन्दू राष्ट्र का सामाजिक ढाँचा वर्णाधारित होगा इस तथ्य के कारण दबायी गयी जातियों ने भाजपा का साथ नहीं दिया था । बाद के चुनावों में भी अलग - अलग चुनाव लड़ने के बावजूद पहले और दूसरे स्थान पर यह दोनों दल ही रहे हैं। मौजूदा विधान सभा चुनाव में भी पहला और दूसरा स्थान बसपा या सपा में कौन पायेगा यह कहना कठिन है लेकिन भाजपा का तीसरा स्थान ज्यादा भरोसे के साथ कहा जा सकता है ।

१९९३ में राजनीति में जो गठबन्धन हुआ था उसके अनुरूप समाज के स्तर पर ऐसे कार्यक्रम नहीं चलाये गये जिनसे पिछड़ों और दलितों में देश बनाने के लिए आपसी एकता बने । फिर भी उस चुनाव में जीत कर आने वाले उम्मीदवारों में साइकिल-मिस्त्री , खेत-मजदूर और बुनकर जैसे तबकों के प्रतिनिधि अच्छी संख्या में थे। इन चौदह वर्षों में मुख्यधारा की राजनीति में आई जो गिरावट मुझ जैसे राजनैतिक कार्यकर्ता को सब से अधिक अखरती है- वह है ऐसे जमीनी कार्यकर्ताओं का चुनाव मैदान से लोप । बहुजन समाज पार्टी में बिना विपुल राशि दिये टिकट पाना नामुमकिन हो गया है।विपुल राशी देने वाले ऐसे व्यक्ति जो राजनीति में थे ही नहीं और नवधनाढ्य तबकों के हैं अचानक चुनाव मैदान में हैं । पूर्वांचल से मुम्बई जा कर सफल व्यवसायी , बिल्डर या ठेकेदार बने लोग चुनाव लड़ने का टिकट खरीद कर आ डटे हैं ।

'संसोपा ने बाँधी गाँठ , पिछड़ा पावे सौ में साठ' के हिसाब से उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति में कर्पूरी , मुलायम सिंह,बेनीप्रसाद वर्मा, रामविलास पासवान,लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे कार्यकर्ता नेता बने । समाज के पिछड़े-दलित तबकों में आई चेतना का नतीजा है कि अब इन दो प्रमुख राज्यों में मुख्य मन्त्री पद के दावेदार और उनके विकल्प भी इन्हीं तबकों से होते हैं ।मायावती ,मुलायम सिंह और कल्याण सिंह प्रदेश के तीन प्रमुख दलों के मुख्य मन्त्री पद के प्रत्याशी हैं।

पिछड़ी जातियों में संख्या के लिहाज से कुछ बड़ी जातियों के अलावा सैंकड़ों अति-पिछड़ी जातियाँ हैं । 'सामाजिक न्याय' के लक्ष्यविहीन दौर में इस चुनाव में ५-६ जाति-आधारित दल चुनाव लड़ रहे हैं और मायावती के सर्वजन-समाज के नारे से प्रेरित हो इन दलों ने भी सवर्णों को टिकट बेचे हैं । ऐसे ही एक दल के एक उम्मीदवार ने अपनी जाति(दल वाली जाति का नहीं) का एक सम्मेलन बलिया में आयोजित किया । सम्मेलन में आये सभी प्रतिनिधियों को एक-एक तलवार और पीला साफा दिया गया ।इसका परिणाम हुआ कि अगले दिन से दल की जाति के कार्यकर्ताओं ने कार्यालय में आना बन्द कर दिया । इन दलों के नेताओं ने सभी बड़े दलों से सौदेबाजी के काफी प्रयास किये लेकिन सफलता नहीं मिली।

जब दलित-पिछड़े और महिला नेतृत्व को राजनीति में आगे लाने, उन्हें चुनावों में ज्यादा संख्या में लड़ाने की बात होती थी तब उसके साथ यह भी निहित रहता था कि दल से जुड़े सवर्णों को खाद बनने की तैय्यारी रखनी होगी। बीज और खाद का सम्बन्ध बिगड़ चुका है।

मेरे दल के प्रान्तीय महामन्त्री साथी जयप्रकाश सिंह के पास 'ठाकुर अमर सिंह' का एक पत्र आया है ।ऐसे पत्र हजारों लोगों को भेजे गये होंगे,अन्दाज है। मँहगे-चिकने लेटर-पैड की पृष्टभूमि में दो तलवारें और ढाल भी बनी हुई है।ऊपर बोल्ड अक्षरों में जो नाम है वह उक्त पैड से उद्धृत है।

भारतीय जनता पार्टी ने अपना दल ,जद(यू) से समझौता किया है और अपना दल के अध्यक्ष ही बनारस के कोलसला क्षेत्र से भाजपा के विरुद्ध चुनाव लड़ रहे हैं ।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश की बोली में कहा जाए ' मूस मोटायी , लोढ़ा होई' तो वह कहावत भी सही ठहरेगी या नहीं इस पर भी विद्वानों में मतभेद होगा।

बेनीप्रसाद वर्मा जैसे अनुभवी नेता ऐन चुनाव के पहले सपा से अलग हुए हैं और बहराइच , बाराबंकी आदि की सीटों पर आरिफ़ मोहम्मद खान का साथ ले कर चुनाव लड़ रहे हैं। बनारस में रहने वाले इनके एक निकट राजनैतिक कार्यकर्ता ने कहा,' नेताजी ने यह काम पाँच साल पहले किया होता तो आज मुख्य मन्त्री के दावेदारों में से होते'। बहरहाल बेनी बाबू चुनाव के बाद केन्द्र में मन्त्री बनने की आशा जरूर ले कर चल रहे होंगे क्योंकि वे सोनिया गाँधी के दरबार में मत्था जरूर टेक आये हैं ।

महाराष्ट्र के किसान नेता शरद जोशी वैश्वीकरण की नीतियों के स्मर्थक हैं और राजग खेमे में हैं । उत्तर प्रदेश के किसान नेता चौधरी महेन्द्र सिंह टिकैत जो अपने संगठन भारतीय किसान यूनियन नाम के साथ ( अराजनैतिक) जोड़ते हैं अपने बेटे की एक सीट के बदले कांग्रेस से समझौता कर चुके हैं ।

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