राजनीति में मूल्य (शेष भाग) : किशन पटनायक
पिछली प्रविष्टी से आगे : ऊपर की बातों से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि राजनीति में मूल्यों की प्रबलता का होना एक निरन्तर स्थिति नहीं है । यह भी सोचना गलत है कि साधारण मतदाता या जनसाधारण मूल्यों पर बहुत आग्रह रखता है या जनसाधारण के दबाव से ही राजनीति सही दिशा में प्रवाहित होगी ; इतिहास बताता है कि यह काम आम आदमी का दायित्व नहीं है । मूल्यों और दिशाओं का प्रवर्तन बुद्धिजीवी करते हैं - तब करते हैं जब वे या तो सत्य की खोज करते हैं या लोक के प्रति अपने को उत्तरदायी समझते हैं । एक छोटे समूह के द्वारा संगठित-प्रचार होकर ये मूल्य जनसाधारण का समर्थन प्राप्त करते हैं और व्यापक समाज में हलचल पैदा करते हैं । इसी बिन्दु पर जनसाधारण मूल्यों का संरक्षक भी बनता है ।लेकिन जब बौद्धिक समाज में जड़ता आ जाती है तब जनसाधारण पुन: मूल्यों के बारे में उदासीन हो जाता है ।
उत्तर भारत के मौर्यकाल से हर्षवर्धन तक और गोरे देशों में १७वीं-१८वीं सदी में ज्ञान और धर्म के क्षेत्रों में सांस्कृतिक आन्दोलन की प्रबलता थी । उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के प्रथमार्ध में यूरोप की राजनीति में क्रान्तिकारी मानवीय मूल्य स्थापित हुए और बाद में पूरे विश्व में इन मूल्यों का प्रसार हुआ ।कई औपनिवेशिक देशों में साम्राज्यवाद-विरोधी राजनीति के तहत वहाँ के बौद्धिक समूह सक्रिय हुए । इन देशों की राजनीति में साम्राज्यवाद-विरोधी और पूँजीवाद-विरोधी मूल्यों और आदर्शों की स्थापना हुई । भारत में गांधी और समाजवाद के अपने-अपने बौद्धिक वर्ग बने । जब बौद्धिक वर्ग व्यापक ढंग से और निरन्तरता के साथ राजनीति को मूल्यों के द्वारा प्रभावित करता है तब जनसाधारण भी मूल्यों के बारे में मुखर होता है । हाल के चुनाव में यह कितना हास्यास्पद लगता था कि कुछ बुद्धिजीवी लोग चुनाव घोषित हो जाने और नामांकन हो जाने के बाद भ्रष्टाचारी और अपराधी प्रत्याशियों की पहचान करवाते थे । बुद्धिजीवियों के लिए यह जीवन भर का काम है, चुनाव के दिनों में वे अपना मत ठीक ढंग से दे दें , तो काफी है । प्रसिद्ध व्यावसायिक पत्रिका आउटलुक ने कई नामी-गिरामी बुद्धिजीवियों को लेकर प्रत्याशियों की नैतिकता की जाँच करने की एक टोली बनाई थी । लेकिन इनमें से एक भी आदमी स्पष्ट शब्दों में नहीं बताता कि उदारीकरण और ग्लोबीकरण से भारत की आम जनता को क्या लाभ होगा । इस टोली का कोई भी व्यक्ति यह नहीं बताता कि लगातार बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी को कैसे रोका जाए और बुद्धिजीवियों की वेतनवृद्धि क्यों वांछनीय है ।धन के केन्द्रीकरण का भ्रष्टाचार और अपराध से कोई सम्बन्ध है या नहीं ? अपने युग के ज्वलन्त और बुनियादी सवालों पर जिन बुद्धिजीवियों का कोई स्पष्ट मत नहीं है वे चले हैं चुनाव-राजनीति को प्रभावित करने ! पक्षधर बनकर या अपना खेमा गाड़कर ही कोई बौद्धिक समूह चुनाव को प्रभावित कर सकता है ।
असल में राजनैतिक अनैतिकता की वृद्धि का युग समाज में बौद्धिक पतन का भी युग होता है । पिछले कई सालों में भारत की ज्ञान-संस्थाओं की सबसे बड़ी घटना है प्रोफेसरों और विशेषज्ञों के रहन-सहन और वेतन-भत्तों में अभूतपूर्व वृद्धि । उनकी जड़ता और उदासीनता के कारण देश के साधारण जनों का जो अपना पारम्परिक ज्ञान और विवेक था वह भी नष्ट हो गया है और कोई नया मूल्य भी स्थापित नहीं हो पाया है ।
फिर भी चुनाव के दिनों में मूल्यों की बात इसलिए होती है कि राजनेता या उसका समर्थक - बुद्धिजीवी जब जनसाधारण के पास जाएगा तो मूल्यों के बिना कोई खुला संवाद हो नहीं सकता है । अगर राजनीति में जनसाधारण नहीं होता तो ये लोग मूल्यों की बात पाखंड के स्तर पर भी नहीं करते । यह सत्य है कि राजनैतिक अस्थिरता जनसाधारण को पसन्द नहीं है , देश के लिए अच्छी चीज नहीं है । लेकिन 'स्थिरता' कोई ऐसा मूल्य नहीं है जो कांग्रेस या भाजपा की सरकार बनने से लोगों को प्राप्त हो जाएगा । अस्थिरता की एक प्रक्रिया चल रही है ; इस प्रक्रिया को कहाँ रोका जाएगा ? कहाँ-कहाँ रोकने पर पाँच-दस साल के बाद स्थिरता आयेगी । उन मूल्यों को स्थापि करने का वायेदा कोई भी बड़ा रजनैतिक दल नहीं कर रहा है । चुनाव के बाद दल-बदल आधारित सरकार हम नहीं बनायेंगे - यह वायदा कोई नहीं करता ।तब स्थिरता कैसे लाएँगे ? किसी भी खेमे के घटक यह वायदा नहीं करते कि जिस खेमे की ओर से चुनाव लड़ते हैं , अगले चुनाव तक उसी खेमे में रहेंगे ? अगर खेमा बदलने की भी गुंजाइश है तो स्थिरता कैसे आयेगी ? अन्ततोगत्वा 'राजनैतिक स्थिरता' और 'साम्प्रदायिक शान्ति' आम जनता की आर्थिक सुरक्षा पर ही टिकी रहती है । आर्थिक गैर-बराबरी और असुराक्षा बढ़ती रहेगी और साम्प्रदायिक शान्ति कायम रहेगी , यह कैसे सम्भव है ? करोड़ों लोग बेकार होते जाएँगे , विस्थापित होते रहेंगे तो राजनैतिक स्थिरता का आधार क्या होगा ?
बेरोजगारी , अशिक्षा आदि प्रश्नों का सीधा सम्बन्ध आर्थिक क्षमता से है । मार्च १९९८ के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने १० वर्षों के कुछ लक्ष्य घोषित किए ? बेकारी १० वर्षों में पूरी तरह समाप्त हो जाएगी । इतनी पूँजी और बजट का व्यय कहाँ से आएगा ? वेतन वृद्धि से ५० से १०० हजार करोड़ रु. का जो अतिरिक्त खर्च करना पड़ेगा , वह पैसा कहाँ से आएगा ? क्या इसके बाद भी बजट में में इतना पैसा रह जाएगा जिससे भाजपा सरकार नए रोजगार और सम्पूर्ण प्राथमिक शिक्षा की योजनाएँ बना पाएगी ? वित्तीय इन्तजाम का उपाय बताये बगैर लोककल्याणकारी योजनाओं की घोषणा करना विशुद्ध बेईमानी है । वेतन-वृद्धि को रोककर उसी पैसे को या तो प्राथमिक शिक्षा या रोजगार विस्तार के लिए लगाया जा सकता है । कोई खेमा इसके लिए तैयार नहीं है । यानी उनकी सरकारें न बेरोजगारी दूर करने के बारे में गम्भीर हैं , न प्राथमिक शिक्षा के विस्तार के बारे में ।
जब अच्छाई कहीं भी नहीं होती है , और नए सिरे से अच्छाई पैदा करने की शक्ति मुख्य नायकों में नहीं होती है तब एक तरकीब निकलती है : बुराइयों को छोटी और बड़ी में बाँटने की । वैसे , बुराई से जुड़ना एक मानवीय स्थिति है ।व्यवहार के हर मोड़ पर ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ता है जिसमें किसी न किसी बुराई के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष ढंग से समझौता करना होता है । लेकिन छोटी बुराई का एक अपना दर्शन है ।अगर कोई बड़ी अच्छाई लाने का जोखिम भरा काम करने जा रहे हैं तभी आपका यह नैतिक अधिकार होता है कि किसी छोटी बुराई का सहारा वक्ती तौर पर ले लें ।जहाँ अच्छाई की नयी धारा प्रचलित करने का कोई संकल्प या साधना नहीं है ही नहीं , वहाँ छोटी बुराई की बात केवल अपनी अवसरवादी राजनीति को जारी रखने का बहाना है ।इसका एक दुष्चक्र बनता है । छोटी बुराई का सहारा लेते-लेते छोटी बुराई खुद एक बड़ी बुराई हो जाती है और आप बड़ी बुराई को छोटी समझने लगते हैं ।
१९६७ में कांग्रेस को बड़ी बुराई मानकर गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति अपनाई गई थी । इस रणनीति के प्रवर्तकों ने सोचा था कि समाजवाद की राजनैतिक ताकत को बढ़ाने के लिए यह एक वक्ती कौशल है । जैसे-जैसे समाजवाद का अपना जनाधार सशक्त और व्यापक होता जाएगा , वैसे-वैसे छोटी बुराई और भी छोटी हो जाएगी । समाजवादियों और प्रगतिशीलों को इस रणनीति से बहुत फायदा हुआ ।उनको शक्ति बढ़ाने का बहुत मौका मिला - १९६७ से १९९७ तक , तीस साल का मौका मिला । लेकिन समाजवादियों और प्रगतिशीलों ने इस मौके का इस्तेमाल किया सत्ता-भोग के लिए , जनाधार बढ़ाने के लिए नहीं ।जन संघ उर्फ भारतीय जनता पार्टी ने इस समय का इस्तेमाल जनाधार बढ़ाने के के लिए किया । फलस्वरूप ऐसी स्थिति पैदा हो गयी है कि समाजवादियों और प्रगतिशीलों का खेमा एकदम शक्तिहीन हो गया है । (समाप्त)
स्रोत - सामयिक वार्ता , फरवरी , १९९८.
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