सोमवार, अप्रैल 02, 2007

राजनीति में मूल्य : किशन पटनायक

राजनीति एक व्यवहार है । जैसे-जैसे किसी राजनैतिक व्यक्ति या समूह की क्षमता और प्रभाव बढ़ने लगता है , उसको अपने आदर्श और नीति का कार्यरूप बतलाना पड़ता है । सिद्धान्त और व्यवहार में तालमेल रखना एक कठिन काम प्रतीत होने लगता है । सत्ता से वह जितना दूर रहेगा उतना वह आदर्श और नैतिकता की बात करेगा । प्रभाव बढ़ने पर और सत्ता हासिल करना सम्भव दिखाई देने पर उसकी असली परीक्षा शुरु होती है । आदर्श की चुनौती और स्खलन का आकर्षण - इन दो पाटों के बीच विवेकशील राजनेता सावधान रहता है । सत्ता से दूर रहते समय उसकी जो प्रतिबद्धताएँ और नैतिक संस्कार बन जाते हैं , सत्ताभोग के काल में उसके लिए कवच बनते हैं । इसलिए लम्बे समय तक सत्ता के पदों पर बना रहना अच्छा नहीं है । सफल और प्रभावी राजनेताओं को चाहिए कि वे स्वेच्छा से कुछ अरसे के लिए सत्ता की इच्छा पर संयम रखें । सत्ता की इच्छाविहीन राजनीति में कोई रस नहीं होता है ; मगर सत्ता की इच्छा पर संयम न होने से राजनीति की नैतिक प्रेरणा नष्ट हो जाती है ।

अगर प्रधानमंत्री नेहरू ने अपने १८ साल के प्रधानमंत्रित्व के बीच कभी पाँच या सात साल का सत्ता पद से सन्यास लिया होता तो शायद वे आज भी एक आलोक-स्तम्भ बने रहते । सत्तापद पर चिपके रहने के कारण उनकी क्या दुर्दशा हुई है यह हाल के चुनावों में स्पष्ट हो रहा है । उनकी दौहित्र-वधु सोनिया के कांग्रेस के मुख्य प्रचारक होने के बावजूद उनके भाषण में कहीं यह बात नहीं आती है कि नेहरू की सरकारी नीतियों से देश को सही मार्गदर्शन मिला था । एक व्यक्तित्व के तौर पर इन्दिरा गांधी या राजीव गांधी की कोई तुलना जवाहरलाल नेहरू से नहीं हो सकती है । लालबहादुर शास्त्री से भी नेहरू बहुत बड़े आदमी थे। लेकिन आज के चुनाव में शास्त्री , इन्दिरा , राजीव , इन सबका नाम ले कर वोट माँगा जा सकता है । नेहरू के नाम से कोई वोट नहीं माँगता है । यह कितना विचित्र है ?

राजनीति में व्यवहार का पलड़ा कभी - कभी इतना भारी होता है कि मूल्यों से समझौता न करनेवालों को जनता भी हिकारत भरी नजर से देखती है । मानो बिलकुल शुद्ध होना अव्यावहारिकता है और इसलिए राजनीतिक अक्षमता का परिचायक है । मूल्यों और नैतिकता के बारे में जनसाधारण उतना कठोर नहीं है जितना कि हमलोग अकसर सोचते हैं । जनसाधारण राजनीति से कुछ परिणाम देखना चाहता है । आदर्शवादी व्यक्तियों और समूहों से परिणामों की उम्मीद नहीं जगती है तो आदर्श के प्रति वह उदासीन हो जाता है । जनसाधारण राजनीति से कैसा परिणाम चाहता है ? क्या जनसाधारण राजनीति में नैतिकता का नियामक बन सकता है ? इसका जवाब आज के राजनैतिक अध्ययनों-चिन्तनों से नहीं मिलता है ।

समझ लेना चाहिए की जनसाधारण की उपस्थिति सार्वजनिक जीवन में एक नियामक का काम नहीं करती है । लोगों की भावना सिर्फ यह होती है कि अनैतिक काम बहुत अधिक नहीं होने चाहिए । अनैतिकता बहुत अधिक दिखाई नहीं देनी चाहिए ।अगर दो प्रतिद्वन्द्वी है और दोनों पराक्रमी हैं और उनमें से एक ज्यादा कलंकित है तो लोग अपेक्षाकृत साफ-सुथरे आदमी को पसन्द करेंगे । इस अर्थ में जनसाधारण की नैतिकता के बारे में एक नियामक भूमिका है । चूँकि जनसाधारण उपस्थित है और राय देने वाला है इसलिए भी राजनेता उसकी नैतिकता सम्बन्धी भावनाओं को अपील करने की कोशिश करते हैं । इसी तरह जनसाधारण एक नियामक है । जनसाधारण की उपस्थिति नहीं रहेगी तो शायद नैतिकता का प्रसंग भी नहीं उठेगा ।इस सीमित दायरे में जनसाधारण सार्वजनिक नैतिकता का नियामक है।

जनसाधारण पहले पराक्रम को देखता है , बाद में नैतिकता को । सामर्थ्य या पराक्रम हासिल करने के नियम और शुद्धता हासिल करने के नियम अलग-अलग होते हैं । शुद्धता के द्वारा कोई पराक्रमी नहीं बन पाता है । गांधीजी पराक्रमी थे , मगर शुद्धता के कारण नहीं ; पराक्रम अर्जन करने के उनके काम अलग थे , और शुद्ध बनने के अलग । नैतिकता और पराक्रम का संयोग उनमें १९१६ से १९४५ तक रहा । १९४५ के बाद उनका पराक्रम कम हो गया ।

पराक्रम प्राप्त करने के महान उपाय भी होते हैं , जोखिम भरे काम होते हैं , लेकिन बहुत छोटे-छोटे रास्ते भी होते हैं । धनी और सम्भ्रान्त लोग राजनीति में जल्द सफल हो जाते हैं।कुछ लोग चोरी करके धनी बनते हैं , धन के सहारे राजनीति करते हैं और सम्भ्रान्त बन जाते हैं । तीसरे कदम पर वे धन और आभिजात्य के बल पर राजनीति की चोटी पर जाने का दाँव लगाते हैं । निर्धनों और शूद्रों के लिए राजनीति में बने रहना बहुत कठिन है।इसलिए भी शूद्र राजनेता नैतिकता के प्रश्न को गौण कर देता है ।

पराक्रमी होने के लिए ये सारे छोटे रास्ते हैं । ये रास्ते प्राचीन काल से हैं । इस पराक्रम से सत्ता प्राप्ति हो सकती है - राष्ट्र या जनता को महान नहीं बनाया जा सकता है ।

राजनीति का स्वर्णयुग यानी पराक्रम और मानवीय मूल्यों का संयोग तब होता है जब किसी राज्य या भूभाग में धर्म , संस्कृति , ज्ञान , अर्थनीति या राजनीति के क्षेत्र में मूल्यों का आन्दोलन होता है । मूल्यों का यह आन्दोलन राजनीति के बाहरी क्षेत्रों में होने पर भी राजनीति इसके द्वारा प्रभावित होती है , नए मूल्यों को राजनीति में स्थापित करने की एक धारा राजनीति के अन्दर भी सबल होने लगती है । भारत के बौद्ध युग और गांधी युग की राजनीति में मानवीय मूल्यों का स्तर अन्य युगों की तुलना में उच्चतर था । जिसको भारत में गांधी युग कहा जाएगा वह विश्व के लिए समाजवादी आन्दोलन के विकास का भी युग था। इस संयोग का प्रभाव इतना अधिक था कि पूँजीवादी और प्रतिगामी विचारों के राजनैतिक दलों को भी कुछ मानवीय तथा प्रगतिशील मूल्यों के अनुकूल अपनी घोषणाएँ करनी पड़ती थीं। नेहरू-इन्दिरा की कांग्रेस अपने को समाजवादी कहती थी , यहाँ तक कि भारतीय जनता पार्टी ( जनसंघ ) ने एक बार अपने को ' गांधीवादी समाजवादी ' घोषित कर दिया था । 'आखिरी आदमी ' - जो गांधीजी का शब्द था , अभी हाल तक राजनैतिक घोषणापत्रों पर मँडराता था । ( अगली प्रविष्टी में जारी ) ( स्रोत - सामयिक वार्ता , फरवरी १९९८ )

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