बुधवार, फ़रवरी 07, 2007

बातचीत के मुद्दे : किशन पटनायक

 

शर्मनाक सदी

    भारत के सबसे ज्यादा पतन का समय था अठाहरहवीं शताब्दी का ।इसी शताब्दी में भारत की प्रत्यक्ष गुलामी शुरु हुई , और शताब्दी के अंत तक (१७९९, टीपू सुल्तान की पराजय) भारत के बहुत बड़े हिस्से पर अंग्रेजों का वर्चस्व स्थापित हो गया था । इस शर्मनाक शताब्दी के बारे में एक संक्षिप्त जानकारी सबको होनी चाहिए । इतिहास की किसी अच्छी पुस्तक में साठ-सत्तर पृष्ठ पढ़कर भी इसके बारे में समझ बन सकती है । इस विषय पर सबसे अच्छी किताब शायद पण्डित सुन्दरलाल की " भारत में अंग्रेजी राज " है ।जब हम कहते हैं कि अठाहरवीं शताब्दी में भारत की प्रत्यक्ष गुलामी शुरु हुई , तो कोई यह तर्क न दे कि उसके पहले मुसलमानों का राज हो चुका था । ऐसी चीजों में, दोनों में फरक न करने पर निष्कर्ष निकालने में बहुत बड़ी गलतियाँ हो सकती हैं । मुसलमान आक्रमणों में भारत की पराजय हुई थी ; लेकिन मुसलमानों के शासनकाल में भारत किसी दूसरे देश का गुलाम नहीं था ।

    अठारहवीं सदी के बारे में निम्नलिखित बातें समझने की जरूरत है । अंग्रेजों के शासन में (१९४७ तक) भारत की साधारण जनता की जो आर्थिक दशा हुई,उससे बेहतर अठारहवीं सदी में थी । भारत का व्यापार चोटी पर था ; गाँव का किसान कंगाल नहीं था ।लेकिन भारतीय समाज पंगु हो रहा था ; उसमें पूरी तरह जड़ता आ गयी थी । जाति प्रथा में इतनी संकीर्णता और कठोरता आ गयी थी कि जनसाधारण के प्रति शासक और संभ्रांत समूहों का व्यवहार अमानवीय हो गया था । शासक और संभ्रांत वर्गों में ही औरत की स्थिति सबसे ज्यादा अपमानजनक थी , भारतीय उद्योगों में सामर्थ्य था ; लेकिन उनमें लगे हुए लोगों को शूद्र कहकर उन्हें हीन दृष्टि से देखा जाता था । ऐसा समाज यूरोप की आक्रामक जातियों से लड़ नहीं पाया । उन दिनों राजाओं और नवाबों में कुछ स्वाभिमानी और अदम्य लोग भी थे । लेकिन शासकों और संभ्रांतों का सामूहिक चरित्र कायरतापूर्ण और अवसरवादी था । टीपू और सिराजुद्दौला जैसे लोग अपवाद थे (जैसे आज की राजनीति में कहीं -  कहीं अपवाद मिल जाएंगे) , लेकिन औसत शासक और औसत सामंत चरित्रहीन था । विद्वानों और बुद्धिजीवियों में किताबी ज्ञान था , किंतु समाज और राष्ट्र को प्रेरित करने के लिए साहसिक विचार नहीं थे। पूरे देश के पैमाने पर अंग्रेजों के खिलाफ़ एक रणनीति नहीं बन पाई । १८५७ तक बहुत विलम्ब हो चुका था । भारतीय समाज के चरित्र की दुर्बलताओं को अंग्रेज समझ गये थे और उसीके मुताबिक अंग्रेजों ने अपनी भारत-विजय की रणनीति बनायी । उन दिनों भी भारत और चीन में उन्नीस-बीस का फर्क था । इसी कारण चीन पर यूरोप का आधिपत्य रहा , लेकिन प्रत्यक्ष शासन नहीं हो सका । जितना गुलाम भारत हुआ , उतना पूर्व एशिया के चीन , जापान आदि देश नहीं हुए ।

    इतिहास के इस अध्याय की चर्चा हम इसीलिए कर रहे हैं क्योंकि आज भी उसी तरह का नाटक हो रहा है । आजादी के पचास साल बाद भी भारत के शासक और शिक्षित वर्गों ने सामाजिक चरित्र को बदलने की कोशिश नहीं की ।जनसाधारण और शिक्षित वर्ग की दूरी बढ़ती जा रही है ।नव साम्राज्यवादियों के प्रलोभनों और धमकियों के सामने हमारा शासक वर्ग झुकता जा रहा है । इस स्थिति के बारे में देशवासियों को आगाह करना है ।

    पश्चिमी साम्राज्यवाद पहले आर्थिक संप्रभुता को छीनने की कोशिश करता है । अठारहवीं सदी में हम यही पाते हैं । पलासी युद्ध (१७५७) के बाद बंगाल के नवाब मीरजाफ़र ने ईस्ट इंडिया कंपनी को राजस्व वसूलने और जुर्माना लगाने के अधिकार समर्पित कर दिये।राजस्व वसूलना और जुर्माना लगाना सरकार का काम है । सरकारी कामों के निजीकरण की यह पहली मिसाल है । आज हम उदारीकरण नीति के तहत जब जब विद्युत विभाग , बीमा व्यवसाय ,खदानों , रेल , दूरसंचार आदि का निजीकरण करने जा रहे हैं तो उसकी असलियत यह है कि जिन कामों को सरकार करती थी उन कामों को अब विदेशी कंपनियाँ करेंगी । हमारी आर्थिक संप्रभुता का हस्तांतरण हो रहा है ।

    जब ईस्ट इंडिया कंपनी को आर्थिक अधिकार मिलने लगे तब अधिकारों को मजबूत करने के लिए यह जरूरी लगा कि नवाब की गद्दी पर कंपनी का नियंत्रण रहे । गद्दी से किसको हटाना है और गद्दी पर किसको बैठाना है यह खेल कंपनी करने लगी । पहले मीरजाफ़र को बैठाया,फिर मीरकासिम को,फिर मीरकासिम को हटाकर मीरजाफ़र को । इसी तरह पूरे देश के राजाओं और नवाबों की गद्दियों का असली मालिक अंग्रेज हो गया ।

    आज के समय में एशिया , अफ़्रीका , लातिनी अमरीका के देशों की गद्दी पर कौन बैठेगा,कौन हटेगा,इसकी साजिश अमरीका करता रहता है । भारत में एक प्रकार का जनतंत्र है ।जनसाधारण के द्वारा सरकारें चुनी जाती हैं ।विदेशी शक्तियाँ पैसों और दलालों के द्वारा दखल देने की कोशिश करती हैं । लेकिन भारत का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति कौन होगा , इसपर उनका नियंत्रण नहीं है । हांलाकि वित्तमंत्री का पद संदेह के घेरे में आ चुका है । १९९१ से यह स्थिति बनी हुइ है कि अगर कोई व्यक्ति विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष की पसंद नहीं है तो वह वित्तमंत्री नहीं बन सकेगा ।केन्द्रीय सरकार के जो अर्थनीति सम्बन्धी विभाग हैं उनके मुख्य प्रशासनिक पदों पर हमारे ऐसे अफसर स्थापित हो जाते हैं जिनका पहले से विश्व बैंक और मुद्राकोष के साथ अच्छा रिश्ता होता है।ये लोग कभी न कभी विश्वबैंक या मुद्राकोष के नौकर रह चुके हैं।ऐसी बातें खुली गोपनीयता हैं ।इसके बारे में देश के संभ्रांत समूह,शिक्षित वर्ग और प्रमुख राजनैतिक दलों के नेतृत्व से हम ज्यादा आशा नहीं कर सकते हैं । उन्हीं को माध्यम बनाकर साम्राज्यवादी शक्तियाँ आगे बढ़ रही हैं ।लेकिन जो आम शिक्षित लोग हैं,युवा और विद्यार्थी हैं,देहातों और कस्बों के सचेत लोग हैं' उनसे देश की वर्तमान हालत के बारे में अगर पर्याप्त बातचीत और बहस हो सके,तो संभव है कि देश में एक चेतना का प्रवाह होगा । देश-निर्माण के लिए साम्राज्यवाद के विरुद्ध एक राष्ट्रीय स्वाभिमानी चेतना बनाने में हरेक का योगदान होना चाहिए ।जारी,(अगली प्रविष्टी : देश रक्षा और शासक पार्टियाँ )

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