सोमवार, फ़रवरी 19, 2007

निजी जेल कंपनियों के कारनामे : दीपा फर्नाण्डीज़ : प्रस्तुति - अफ़लातून

करेक्शन्स कॉर्पोरेशन ऑफ़ अमेरिका (सी सी ए )

पिछली प्रविष्टी से आगे :कुप्रबन्ध और कलंक के इतिहास के बावजूद निजी जेल उद्योग की कंपनियों को नई जेलों के ठेके लगातार मिलते आए हैं। इनसे जुड़ी समस्याएं भी बदस्तूर जारी हैं ।आप्रवासी बन्दियों के वकील अब भी अपने मुवक्किलों से दुर्व्यवहार का मुद्दा उठाते हैं। इन वकीलों का आरोप है कि कंपनियाँ बन्दी रक्षकों को प्रशिक्षण देने के खर्च से तथा बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के मद में से पैसा बचाती हैं ।सरकार ने इन जेलों के प्रशासन पर निगरानी और नियंत्रण रखने में कोताही बरती है ।जेल प्रशासन द्वारा श्रम-शोषण की कारगुजारियों और बन्दियों को दी जाने वाली टेलिफोन सुविधा में कटौती का सरकार अनुमोदन करती है।

इराक के युद्ध में शामिल रहे पूर्व सैनिक फिलिप लुई जीन दुर्व्यवहार के प्रकरणों को कुछ तफ़सील से बताते हैं ।वे हेटी के मूलनिवासी हैं,पाँच वर्ष कि उम्र से अमेरिका में ही रहे हैं। इन्होंने फौज में काफ़ी शीघ्रता से तरक्की की । युद्ध के दौरान मिली पदोन्नति के आधार पर पुरस्कृत होने के लिए इराक से लौट कर इन्होंने प्रयास किया।उनके अधिकारियों ने उनके सेवा-दस्तावेज खंगालने शुरु किए तब पाया कि कभी उसे सैन्य अदालत द्वारा ३७ दिनों की सजा दी गई थी । सरकार ने इस तथ्य के आधार पर उसके विरुद्ध देश-निकाले का मामला शुरु कर दिया और लुई जीन को सी सी ए संचालित सैन डिएगो 'सुधार गृह' में पटक दिया।वहाँ के हालात और बर्ताव से वह भयभीत हो गए ।

" बन्दी रक्षक हम पर ऐसे चीखते-चिल्लाते थे,मानो हम बच्चे हों ।ऐसा न करने के लिए उन्हे कहने पर वे कुछ दिनों के लिए हमे 'तन्हाई' में रखने की धमकी देते और अक्सर यह धमकी लागू भी कर दी जाती थी । दो लोगों के लिए बने १२ x ७ फ़ुट की कोठरी में तीन लोगों को रखा जाता था ।ऐसा अक्सर होता था जब एक-दो बन्दियों को सबक सिखाने के चक्कर में सभी १०५ - ११५ अन्तेवासियों को खामियाजा भुगतना पड़ता था। कई बार इसके लिए बहाने भी नहीं खोजे जाते थे।

" मुझ से सम्पर्क रखने वाले एक बन्दी ने बताया कि उसके सामान की गार्ड ने चोरी की थी। हमे कम भोजन परोसा जाता था । जब हम रसोई प्रबन्धक से इसकी शिकायत करते तब वह कहती कि यह ही उचित मात्रा है । मेरे हिसाब से हमें दस या ग्यारह साल के बच्चों की खुराक दी जाती थी । कुछ गार्ड हमे कोसते थे।हमें छेड़ने के मकसद से वे टेलिविजन ऐसे रखते कि हमे सुनाई न पड़े ।हमारे मुक्त-समय के दौरान टेलिफोन चालू करने में वे जान-बूझकर देर लगाते ताकि हम अपने स्वजनों से बात न कर सकें। यह सब अपनी क्रूरता दिखाने के लिए वे करते । "

२००३ में स्वराष्ट्र सुरक्षा विभाग के महानिरीक्षक की एक रपट में विभिन्न जेलों में बन्द आप्रवासियों के प्रति बर्ताव की कड़ी निन्दा की गयी है - रपट का विषय - " ११ सितम्बर के बन्दी : ११ सितम्बर के हमलों की जाँच के दौरान आप्रवासन सम्बन्धी आरोपों में निरुद्ध परदेसियों के प्रति बर्ताव की समीक्षा "।उल्लंघन के मामलों में : बन्दियों के बुनियादी अधिकारों के रोजमर्रा हनन , शारीरिक एवं मानसिक उत्पीड़न , सेहत और चिकित्सा से वंचित किया जाना , जेलों में क्षमता से ज्यादा बन्दियों का होना तथा स्नान-शौचादि की सहूलियत का अभाव गौरतलब हैं ।

समस्याओं की लम्बी फेहरिस्त के बावजूद सी सी ए द्वारा निजीकरण को बढ़ावा देना और नए-नए अनुबन्ध हासिल करना बदस्तूर जारी है। " निजी जेल उद्योग द्वारा अपनी सेवा की माँग बढ़ाने के लिए राज्यों की विधायिका के सदस्यों पर हर तरह का दबाव डाला जाता है ताकि वे जेलों के निजीकरण का निर्णय लें । " ड्यूक विश्वविद्यालय की विधि-शोध-पत्रिका में शैरॉन डोलोविच का उक्त कथन है ।उन्होंने यह भी लिखा है कि - " कंपनियाँ विधायकों के बीच 'लॉबींग' करने तथा निजीकरण के एजेण्डा के हक में विधायकों की गतिविधियों के लिए चन्दा देने में माहिर हैं ।"

कुछ आलोचकों का आरोप है कि कंपनी की सफलता का ताल्लुक निर्वाचित प्रतिनिधियों से उसके प्रगाढ़ सम्बन्धों से है । यह कंपनी १९९७ से लगातार रिपब्लिकन पार्टी चन्दा देती आई है तथा कम्पनी के अधिकारियों और सरकारी अफसरों के काफ़ी अर्थपूर्ण सम्बन्ध हैं । संघीय कारागार ब्यूरो के पूर्व अध्यक्ष जे. माइकल क्विन्लैन पिछले दस वर्षों से सी सी ए के अधिकारी हैं । कंपनी का मुख्यालय जिस राज्य में स्थित है(टेनेसी) वहाँ की कम्पनी की मुख्य लॉबीस्ट की शादी वहाँ के विधानसभाध्यक्ष से हुई है । 'अमेरिकन लेजिस्लेटिव एक्सचेंज काउन्सिल' एक दकियानूसी समूह है जो सजा देने के दिशानिर्देश की नीतियों की बाबत अपना जोर लगाता है- सी सी ए इसका सदस्य है।

सी सी ए का धन्धा अच्छा चल रहा है । अपनी जेलों में वे जितने ज्यादा लोगों को ठूँसेंते हैं उतना धन्धे के लिए अच्छा है । "आप सब जानते हैं,प्रथम १०० बन्दियों में हमें आर्थिक तौर पर नुकसान होता है जबकि आखिरी १०० बन्दियों से हम ढ़ेर सारा पैसा कमाते हैं । ' सी सी ए के मुख्य वित्ताधिकारी ने यह बात २००६ की कंपनी की आम सभा में कही थी ।

वॉकेनहट

फ्लोरिडा स्थित वॉकेनहट एक प्रमुख सुरक्षा कंपनी है । ११ सितम्बर के न्यू यॉर्क के हमलों के बाद के वर्षों में यह कंपनी भी काफ़ी फली-फूली है । अपने बुरे रेकॉर्ड के बावजूद कई लाभप्रद सरकारी अनुबन्ध पाने में यह सफल रही है । सन २००१ के पहले सी सी ए की भाँति वॉकेनहट कम्पनी भी सब तरह के बन्दी-दुर्व्यवहार काण्डों के केन्द्र में थी : अल्पवयस्क बन्दियों से सेक्स के दौरान बन्दी रक्षक पकड़े गए थे , भीषण दुर्व्यवहारों की घटनाएं आम थीं तथा उनके सुधार गृहों में मृत्यु की घटनाएं असंगत तौर पर अधिक हुई थीं ।दुर्व्यवहार कि इन घटनाओं के प्रति वॉकेनहट के मुख्य कार्यपालक अधिकारी जॉर्ज ज़ोले क रवैया अत्यन्त हल्का और छिछोर रहा है। वॉकेनहट संचालित एक बाल सुधार गृह में एक १४ वर्षीय लड़की से लगातार बलात्कार का मामला सी बी एस टेलिविजन ने उद्घाटित किया था,दो गार्ड मामले में दोषी पाए गए थे। इस पर ज़ोले ने कहा, ' यह एक बेरहम धन्धा है।आखिर इन जेलों में कैद बच्चे किसी धार्मिक पाठशाला के सीधे-सादे विद्यार्थी तो नहीं हैं।" इससे अधिक चिन्ताजनक है कैदियों के आपसी संघर्ष में हुई हत्याओं का वॉकेनहट की जेलों का रेकॉर्ड। १९९८- '९९ में वॉकेनहट की न्यू मेक्सिको की जेलों में प्रति ४०० बन्दियों पर एक हत्या हुई थी जबकि उसी अवधि में अमेरिका की सभी जेलों की सम्मलित दर २२,००० पर एक हत्या की थी ।

इस सब पर कंपनी की सबसे उल्लेखनीय प्रतिक्रिया थी उसके द्वारा अपना नाम बदल कर जी ई ओ ग्रुप कर लेना ।मुखिया जॉर्ज ज़ोले अपने पद पर बरकरार हैं और नए-नए अनुबन्ध मिलना भी ।

जी ई ओ के अधिकारी कंपनी के व्यवसाय में आई सहसावृद्धि से गदगद हैं। सन १९९९ में संघीय सरकार द्वारा कंपनी को तीन प्रतिशत से कम बन्दी-शायिकाएं दी जती थीं,सात वर्ष बाद यह संख्या प्रति पाँच पर एक तक पहुँच गयी है । " व्यवसाय ने उल्लेखनीय करवट लिया है । अपराधी आप्रवासियों और अवैध आप्रवासियों को कैद में रखने के लिए सभी संघीय एजेन्सियाँ अब निजी कंपनियों पर मेहरबान हैं। हमने एक नए युग में प्रवेश कर लिया है ।इसके पहले की श्तिति में यह पूर्वानुमान लगाना भी नामुमकिन था कि संघ-सरकार किस हद तक हमें (निजी जेल कंपनी) गले लगाएगी। बरसों तक हम इसकी बस बातें किया करते थे।अब हम उस कल्पना के हकीकत बनने की सरहद पर पहुँच चुके हैं ।"-जॉर्ज ज़ोले अपनी कंपनी के साथी अधिकारियों से कहते हैं ।

लागत की बचत

इस सुधार उद्योग का हमेशा से तर्क रहा है कि जेलों के निजीकरण से अचानक लागत कम हो जाती है । अमेरिकी सामान्य लेखागार कि १९९६ की एक रपट के निष्कर्ष में हाँलाकि कहा गया है कि इस दावे को पुष्ट करने के स्पष्ट साक्ष्य नहीं पाए गए । जेल-कंपनियाँ अन्य कंपनियों की तुलना में निश्चित फ़ाएदे में रहती हैं । श्रम के मामलों के मद में ये कंपनियाँ ढ़ेर सारा पैसा बचा पाती हैं जो अन्य परिस्थितियों में गैर कानूनी माना जाता।अन्तेवासी-बन्दियों को सभी जेलों में काम के बदले अत्यन्त कम मजदूरी दी जाती है ।इस मामले में आप्रवासियों के लिए बनीं जेलें बत्तर होती हैं।स्वराष्ट्र-सुरक्षा विभाग का दिशा निर्देश है कि गैर-नागरिक बन्दियों को रोज एक डॉलर से अधिक नहीं दिया जाएगा ।इस प्रकार जेल-कंपनियों को नगण्य लागत पर दरबान , सफ़ाई कर्मी , मिस्त्री , धोबी , रसोइए और माली मिल जाते हैं ।

आप्रवासी बन्दियों की जेल-शायिकाओं की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ उन्हें भरने का दबाव भी बढ़ने लगता है - आप्रवासियों के वकील इस हाल से बहुत चिन्तित हैं । मानवाधिकार कार्यकर्ता और अधिवक्ता इसाबेल गार्सिया आप्रवासियों को बन्दी बनाने के अभियान की चर्चा करते हुए कहती हैं , " जेल-उद्योग के ये संकुल 'ड्रग्स के खिलाफ़ जंग' के दौरान पहले-पहल परवान चढ़े थे। "ड्रग्स के खिलाफ़ जंग" अत्यन्त सहजता से "आपवासियों के खिलाफ़ जंग" में तब्दील हो गयी है । आप्रवासियों को कैद रखने में काफ़ी कमाई है ।" गार्सिया आगे बताती हैं कि इस उद्योग की अत्यन्त बलवान-धनवान लॉबी की पहुँच और संघीय सरकार से इनके मजबूत रिश्तों की वजह से इस उद्योग में बहार आई हुई है । गार्सिया को इस बात कि चिन्ता है कि लाभ कमाने की उत्प्रेरणा आप्रवासियों में अपराधीकरण की वृत्ति को बढ़ाएगी ।

राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर स्वदेश सुरक्षा विभाग ने निजी उद्योग की अगुवाई में ऐसी व्यवस्थाएं और प्रक्रिया लागू की हैं जिनके द्वारा यह आभास दिया जा रहा है कि इनसे अमेरिका को भविष्य में होने वाले आतंकी हमलों से सुरक्षा मिलेगी । फिर भी कई मामलों में ऐसे आप्रवासी और गैर-नागरिक इस जाल में फँस जाते हैं जिनका आतंकवाद से कोई सम्बन्ध नहीं होता है ।

1 टिप्पणी:

  1. जेल तो जेल ही होती है। यहां हो या वहां हो। चाहे निजी क्षेत्र में हो या सरकारी हाथों में,जेल का व्‍यक्त्त्वि और चरित्र एक जैसा ही रहता है। फर्क सिर्फ इतना है कि पश्चिमी देशों में मीडिया ज्‍यादा स्‍वतंत्र है और उनके जेलों के बारे में जानकारी आसानी से उपलब्‍ध है। जो कुछ यहां लिखा जा रहा है उसमें देश,शहर और व्‍यक्तियों को भारतीय नामों में परिवर्तित कर दीजिए - बस भारत की किसी भी जेल की कहानी खुदबखुद आपके आंखों के सामने नाचने लगेगी। जेल में जितनी भी घिनौनी
    हरकतों के बारे में लिखा गया है उनको भारत की जेलों में खुलेआम रोजाना दोहराया जाता है। एक और कड़वी बात - भारत की जेलों जब कभी भी दरबान , सफ़ाई कर्मी,मिस्त्री,धोबी,रसोइए और माली की कमी होती है रेलों में बिना टिकट यात्रियों को पकड़ने का अभियान चला कर उनकी पूर्ति कर ली जाती है और यदा कदा जेल प्रशासन द्वारा स्‍थानीय पुलिस से इन लोगों की आपूर्ति हेतु आग्रह कर इन लोगों को बिना किसी अपराध के जेल में बन्‍द कर दिया जाता है। कमोबेश भारत के हर जेल की यही कहानी है। यहीं हम लोग कुछ नहीं कर पा रहे है तो अमरीका की जेलों के बारे में क्‍या सोचना। यह तो ऐसा हुआ कि अपने घर में अंधेरा और मन्दिर में दिया जला रहे हैं।

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