शनिवार, फ़रवरी 10, 2007

आर्थिक संप्रभुता क्या है ? : किशन पटनायक

इतिहास की उथल - पुथल से , युद्ध - संधि , विकास और विद्रोह से राष्ट्रों का निर्माण तथा नवनिर्माण होता है । एक बहुत बड़े उथल - पुथल से भारतीय राष्ट्र का नवगठन १५ अगस्त १९४७ को हुआ । बीसवीं सदी के इस काल खण्ड में आज के अधिकांश विकासशील देशों का नये सिरे से अभ्युदय धरती पर हुआ । ये सारे राष्ट्र आज़ाद हैं । आज़ाद राष्ट्र की संप्रभुता होती है । यानी प्रत्येक राष्ट्र अपनी बुद्धि विवेक से अपनी जनता की सुरक्षा और कल्याण संबंधी नीतियों का निर्णय करता है ।देश के बाहर की कोई शक्ति हम पर यह लाद नहीं सकती है कि हमारी नीतियाँ और कानून क्या होंगे । इसीको राष्ट्र की संप्रभुता कहा जाता है ।

विश्व व्यापार संगठन एक विदेशी शक्ति है । कोई पूछ सकता है कि आपका देश उसका सदस्य है तो वह विदेशी कैसे है ?यह सही है कि हमारी सरकार ने गलत बुद्धि से परिस्थितियों के दबाव में आकर भारत को इसका सदस्य बना दिया है । राष्ट्रों के बीच अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का समन्वय स्थापित करने के उद्देश्य से यह संगठन बना है । लेकिन इसका अधिकार क्षेत्र बहुत ज्यादा है ।संयुक्त राष्ट्र संघ का अधिकार इतना नहीं है जितना इस संगठन का है । यह संगठन हमें निर्देशित करता है कि अमुक कानून बनाओ । उसका निर्देश एक कानून है और हमे वह दंडित कर सकता है । एक व्यापार-सहयोग संस्था को धनी शक्तिशाली देशों ने एक विश्व सरकार का दर्जा दे दिया है । उनकी आपसी सहमति जिस बात पर हो जाती है वह संगठन का कानून बन जाता है ।उसके निर्णयों को विकासशील देश बिलकुल प्रभावित नहीं कर सकते हैं । निम्नलिखित कुछ उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाएगा कि कैसे हमारे ऊपर निर्णय लाद दिये जाते हैं ।

स्वाधीनता के प्रथम दिवस से हमारा लक्ष्य रहा है कि भारत खाद्य के मामले में आत्म-निर्भर बनेगा। शुरु के दिनों मे हमारा खाद्य उत्पादन बहुत कम था और खाद्यान के आयात के लिए अमेरिका के ऊपर निर्भर रहना पड़ता था । हमको अपमान झेलना पड़ता था । बाद में स्थिति बहुत सुधरी और खाद्यान के आयात की जरूरत नहीं रह गयी । यह विश्वव्यापार संगठन अब कहता है कि हम खाद्यान्न आयात करने के लिए बाध्य हैं ।बुनियादी जरूरत की चीजों के लिए किसी भी देश को अन्य देशों पर निर्भर नहीं होना चाहिए । जिसके पास कृषि भूमि है उस देश को अपनी आबादी के प्रति-दिन के आवश्यक भोजन के लिए अन्य देशों पर निर्भर नहीं होना चाहिए । गरीब देश खाद्यान के लिए बाहरी शक्तियों पर निर्भर रहें ताकि उनको दबाया जा सके , अंतर्राष्ट्रीय मामलों में झुकाया जा सके । कोई भी कारण बता कर वे अपना सहयोग बन्द कर सकते हैं । उसका ताजा उदाहरण सामने है। परमाणु विस्फोट का बहाना बना कर अमरीका तथा अन्य देशों ने भारत में पूंजी निवेश पर रोक लगा दी थी । स्वीडेन से बच्चों की शिक्षा के लिए जो पैसा आ रहा था उसको भी स्वीडेन की सरकार ने बंद कर दिया तो राजस्थान में बहुत सारे प्राथमिक स्कूल बन्द होने के कगार पर आ गए थे।

यह एक भयंकर गलती होगी कि हम प्रतिवर्ष खाद्यान्न का आयात करेंगे। इससे हमारी कृषि दिशाहीन और उद्देश्यहीन हो जाएगी । कृषि हमारा सबसे बड़ा उत्पादन का क्षेत्र है ।आबादी का दो-तिहाई हिस्सा इस क्षेत्र में रोजगार ढ़ूँढ़ता है । अंग्रेजों ने देढ़ सौ साल के राजत्व में हमारे देहातों को तहस नहस किया था । कृषि और गाँव को उस दशा से उबारने के लिए कृषि को सबसे अधिक महत्व देना होगा । किसानों को विशेष सहायता देनी होगी ,जिसको अनुदान या सब्सिडी कहा जाता है । भारी सब्सिडी के बल पर ही यूरोप और अमेरिका के देशों में कृषि समृद्ध हुई है । पूंजीवादी देशों में किसानों को सब्सिडी की जरूरत होती है। विश्वव्यापार संगठन हमें निर्देश देता है कि कृषि को अनुदान हम नहीं दे सकते हैं। छोटी पूंजी पर चलने वाले छोटे उद्योगों को भी हम संरक्षण नहीं दे सकते हैं । आधुनिक विशाल पैमानेके उद्योगों के लिए हमें विदेशी सहायता चाहिए क्योंकि इतना अधिक पूंजी निवेश हम नहीं कर सकते हैं । कम पूंजी वाला छोटा उद्योग ही हमारा स्वतंत्र राष्ट्रीय उद्योग हो सकता है । इसमें बहुत सारी देशी तकनीक का प्रयोग हो सकता है । इसको संरक्षण देना हमारा कर्त्तव्य है ।लेकिन विश्वव्यापार संगठन के आदेश के मुताबिक हम इनको संरक्षण नहीं दे सकते हैं ।जो भी संरक्षण पहले मिला था उसको एक-एक करके हटा रहे हैं । हमारे देश में हम अपनी कृषि और लघु उद्योग को संरक्षण देने से वंचित हैं , तो हम आजादी की लड़ाई क्यों लड़े थे ?

उल्टा हमे निर्देश होता है कि विदेशी कंपनियों को हम उतनी ही सुविधा दें , जितना अपने उद्योगों को देते हैं । इसके बारे में विश्वव्यापार संगठन की एक धारा है जिसका नाम है " राष्ट्रीय व्यवहार " । हम को तो करना यह चाहिए कि सबसे पहले हम अपने उद्योगों को संरक्षण दें । उसके बाद प्रतियोगिता के क्षेत्र में हम विकासशील देशों के उद्योगों को ज्यादा सुविधा दें और धनी देशों को कम । पाकिस्तानी उद्योगों को ज्यादा दें और अमरीकी को कम । लेकिन यह सब हम नहीं कर सकते हैं ।अमरीका और यूरोप औपनिवेशिक शोषण के बल पर अपना महान उद्योग खड़ा कर चुके हैं । विकासशील देशों का उद्योग लड़खड़ा रहा है । दोनों के प्रति समान व्यवहार नहीं हो सकता है । हमें यह कहने में लज्जा नहीं होनी चाहिए कि हम प्रतियोगिता में जर्मनी या ब्रिटेन के समकक्ष नहीं हैं । मुक्त व्यापार का जो अर्थ वे लगाते हैं वह हमें मान्य नहीं है ।अपने देश में अपनी कृषि , अपने उद्योग को हम संरक्षण अवश्य देंगे । ( जारी )

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