शुक्रवार, फ़रवरी 09, 2007

जगतीकरण क्या है ? : किशन पटनायक

सब दल लेकर हैं खड़े , अपने - अपने जाल

हे साधो ! कुछ चेतिए , देश बड़ा बेहाल .(१)

हल्दी ,तुलसी , नीम के , बाद जूट पेटेण्ट

ये भारत की सम्पदा , वो ग्लोबल मर्चेण्ट.(२)

भारत बस बाजार है , विस्तृत और समग्र

सिर्फ मुनाफे के लिए,मल्टीनेशनल व्यग्र.(३)

सम्प्रभुता,गौरव कहाँ,कहाँ आत्मसम्मान

अजी छोड़िए, आइए, करना है उत्थान.(४)

- शिव कुमार 'पराग' के दोहे(साभार-'देश बड़ा बेहाल')

भूमंडलीकरण , वैश्वीकरण ,खगोलीकरण , जगतीकरण आदि कई शब्दों का प्रयोग हो रहा है - अंग्रेजी शब्द , ग्लोबलाइजेशन के लिए । आधुनिक विश्व में तीन प्रकार के जगतीकरण हुए हैं । अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी में प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के द्वारा जगतीकरण का एक ढाँचा यूरोपीय देशों ने बनाया । जब यूरोप का बौद्धिक उत्थान हुआ और समुद्र पर उनकी श्रेष्ठता प्रमाणित हो गयी तो यूरोप के लोगों ने पूरी दुनिया से धन संपत्ति बटोरने के लिए समुद्री यात्राएं कीं । अनेक भूखंडों के मूलवासियों को हटाकर वहाँ पर वे खुद बस गये । दूसरे देशों पर उन्होंने अपना प्रत्यक्ष शासन यानि साम्राज्य स्थापित किया । आधुनिक यंत्र विद्या पहली बार साम्राज्य की केन्द्रीय व्यवस्था बनाए रखने में मददगार हुई । उसके पहले के युगों में जो साम्राज्य होते थे उनकी केन्द्रीय व्यवस्था नहीं हो सकती थी और शीघ्र ही वे बिखर जाते थे । सिकंदर और सीजर से लेकर सम्राट अशोक का यह किस्सा है कि थोड़े से समय के लिए धन बटोरा जाता था । लेकिन यंत्र विद्या केवल यूरोपीय साम्राज्यवाद के केन्द्रीकृत ढाँचे के तौर पर टिकी रही और शताब्दियों तक शोषण का अनवरत सिलसिला चलता रहा । कहावत बन गयी कि " ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य कभी डूबता नहीं है । " दूसरे विश्व युद्ध के बाद इस प्रकार के जगतीकरण का अध्याय समाप्त हुआ ।

दूसरे विश्व युद्ध के बाद दो नये प्रकार के जगतीकरण शुरु हुए । उसकी एक धारा संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा चलायी गयी । संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा में राष्ट्रों की बराबरी मानी गई थी । इसलिए बहुत सारी बातचीत और लेन-देन राष्ट्रों के बीच बराबरी के आधार पर होती थी। सारे विश्व से साधन इकट्ठा कर दुनिया से भूख , बीमारी , अशिक्षा , नस्लवाद , हथियारवाद आदि मिटाने के लिए महत्त्वपूर्ण पहल और कार्रवाइयाँ हुईं । उस समय की अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक सहयोग की संस्थाओं की कार्य प्रणाली भी अपेक्षाकृत ज्यादा जनतांत्रिक थी । अंकटाड और डंकल प्रस्ताव के पहले की गैट संधि इसका उदाहरण है । संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से जिस प्रकार का यह जगतीकरण चला , उससे अमरीका बिलकुल खुश नहीं था।अमरीका ने जब देखा कि उसके साम्राज्यवादी उद्देश्यों में राष्ट्र संघ बाधक बन सकता है , उसने राष्ट्र संघ को चंदा देना बंद कर दिया और राष्ट्र संघ से बाहर ही अंतर्राष्ट्रीय कूटनैतिक कार्यकलापों को बढ़ावा देने लगा । सोवियत रूस के पतन के बाद अमरीका को मौका मिल गया कि राष्ट्र संघ को बिलकुल निष्क्रीय बना दिया जाय । ईराक और युगोस्लाविया पर हमला राष्ट्र संघ की उपेक्षा का ताजा उदाहरण है । राष्ट्र संघ के माध्यम से चलने वाला जगतीकरण इस वक्त पूरी तरह अप्रभावी हो गया है ।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमरीका की अपनी बुद्धि से अन्य एक प्रकार का जगतीकरण भी शुरु किया गया था । उसको उन दिनों वामपंथियों ने आर्थिक साम्राज्यवाद कहा , क्योंकि इस बीच अमरीका ने साम्राज्यवाद की अपनी शैली विकसित की थी । उसमें किसी औपनिवेशिक देश पर प्रत्यक्ष शासन करने की जरूरत नहीं होती है । कमजोर और गरीब मुल्कों पर दबाव डालकर उनकी आर्थिक नीतियों को अपने अनुकूल बना लेना उसकी मुख्य कार्रवाई होती है । उन आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप आत्मनिर्भरता खतम हो जाती है और औपनिवेशिक देश धनी देशों पर पहले से अधिक निर्भर हो जाते हैं । जब कोई बड़ा संकट होता है और धनी देशों की मदद की जरूरत होती है तब धनी देशों के द्वारा नयी शर्तें लगायी जाती हैं जिससे औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को थोड़े समय की राहत मिलती है;लेकिन वह अर्थव्यवस्था अधिक आश्रित हो जाती है,और धनी देशों के द्वारा शोषण के नये रास्ते बन जाते हैं।औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था वाला देश आर्थिक रूप से इतना कमजोर और आश्रित होता है कि उसकी राजनीति को भी आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है ।उपर्युक्त उद्देश्य से १९४५ में ही विश्वबैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष नामक अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थाओं की स्थापना हुई । १९९५ में विश्व व्यापार संगठन बना । ये तीन संस्थायें हैं जो नये जगतीकरण के तीन महत्वपूर्ण स्तंभ हैं । विश्वबैंक विकास के लिए ऋण देकर सहायता करता है और कैसा विकास होना चाहिए उसकी सलाह देता है । कई बार कर्ज लेने वाला देश विश्वबैंक की विकासनीति को अपनी विकास नीति के तौर पर मान लेने के लिए बाध्य होता है । इसलिए सारे गरीब देशों में एक ही प्रकार की विकास नीति प्रचलित हो रही है । यह विश्वबैंक के द्वारा बतायी गयी विकास नीति है ।

अक्सर हम विदेशी मदद की बात सुनते हैं । विश्वबैंक ,मुद्राकोष या धनी देशों की सरकारों से कम ब्याज पर जो ऋण मिलता है , उसी को विदेशी मदद कहा जाता है । विदेशी मदद के साथ-साथ विश्वबैंक की सलाह भी मिलती है कि हम अपने विकास के लिए क्या करें ।उनकी सलाह पर चलने का एक नतीजा होता है कि विदेशी मुद्रा की आवश्यकता बढ़ जाती है और उसकी कमी दिखाई देती है । जब विदेशी मुद्रा का संकट आ जाता है तब हमारा उद्धार करनेवाला अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष होता है । उसके पास जाना पड़ता है ।वह मदद देते समय शर्त लगाता है। उसकी शर्तें मुख्यत: दो प्रकार की होती हैं ;

(१) आर्थिक विकास के कार्यों मे सरकार की प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं होनी चाहिए। किसी उद्योग , व्यापार या कृषि को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी अनुदान ,सबसिडी नहीं दी जाएगी ।

(२) देश की आर्थिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों को अधिक से अधिक छूट देनी होगी ।उन पर और उनकी वस्तुओं पर लगने वाली टिकस कम कर दी जाएगी । यानी विकासशील देश की अर्थव्यवस्था में धनी देशों के पूंजीपतियों का प्रवेश अबाध रूप से होगा ।इसके अलावा मुद्राकोष मदद माँगने वाले देश की मुद्रा का अवमूल्यन कराता है। ताकि हमारा सामान उनके देश में सस्ता हो जाए और उनकी वस्तुओं का दाम हमारे लिए महँगा हो जाए ।

सारे विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था विकसित देशों की अर्थव्यवस्था के साथ इस प्रकार जुड़ जाती है । इस प्रकार का जुड़ाव प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद के युग में भी था । फर्क यह है कि उस जमाने में हमारी अर्थनीति और विकासनीति का राजनैतिक निर्णय साम्राज्यवादी सरकार करती थी । आज हम खुद अपनी अर्थनीति को धनी देशों की अर्थनीति के साथ जोड़ने का निर्णय कर रहे हैं ।वे लोग सलाह देते हैं , हमारी सरकार उसी सलाह को निर्णय का रूप देती है। इसलिए इसको जगतीकरण कहा जा रहा है ।

१९४५ से १९९५ तक विकासशील देशों की अर्थनीति को धनी देशों की अर्थनीति का पिछलग्गु बनाने के लिए जितने नियम और तरीके बनाये गए थे , उन सारे नियमों को विश्वव्यापार संगठन कानून का रूप देकर अपना रहा है । विश्वबैंक सलाह देता है ;मुद्राकोष शर्त लगाता है और विश्वव्यापार संगठन कानून चलाता है । यहाँ दन्ड का प्रावधान भी है । यह व्यापार के मामले में विश्व सरकार है । लेकिन इस सरकार के निर्णयों को विकासशील देश अपने हित की दृष्टि से प्रभावित नहीं कर पाते हैं । व्यापार की विश्व सरकार में वे केवल दोयम दर्जे के सदस्य हैं ।

विश्वबैंक , मुद्राकोष और विश्वव्यापार संगठन तीनों अपने - अपने ढंग से काम कर रहे हैं। लेकिन ये एक दूसरे के पूरक हैं ।तीनों में इतना मेल है कि तीनों मिलकर विकासशील देशों एक ही रास्ता दिखाते हैं - एक ही दिशा में ढ़केलते रहते हैं । इसलिए सारे विकासशील देशों की समस्याएं एक ही प्रकार की होती जा रही हैं । इससे जो प्रतिक्रिया होगी , जो असन्तोष होगा,उसको हम एक दिशा में ले जा सकेंगे , तब संभवत: एक नयी यानी चौथे प्रकार का जगतीकरण शुरु होगा । क्योंकि तीसरी दुनिया के सारे देशों की समस्याएं सुलझाने के बजाए जटिल होती जा रही हैं , मौजूदा जगतीकरण की व्यवस्था के खिलाफ़ सारे देशों में गुस्सा और विद्रोह होना चाहिए । धनी देशों पर अपनी निर्भरता खतम कर गरीब देश अगर एकल ढंगसे या परस्पर के सहयोग से आत्मनिर्भर होने का लक्ष्य अपना लेंगे तो प्रचलित जगतीकरण के विरुद्ध एक विश्वव्यापी विद्रोह का माहौल बन जाएगा । विकासशील देशों के परस्पर सहयोग से जो अंतर्राष्ट्रीय संबंध बनेगा , उसके आधार पर नये जगतीकरण का आरंभ होगा । ( जारी, अगला- ' आर्थिक संप्रभुता क्या है ?')

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