शनिवार, जुलाई 07, 2007

गीकों की 'गूँगी कबड्डी'

 

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' धुरविरोधी ' के चिट्ठे पर जीतू ने कहा था , 

ये सच है कि पहले भी इस तरह की भाषा का प्रयोग होता रहा है, लेकिन हमेशा हम चुप नही रह सकते। कभी ना कभी तो निर्णय लिया ही जाना था।

ये मेरा आखिरी स्पष्टीकरण है, इसके बाद नारद की तरफ़ से कोई स्पष्टीकरण नही आएगा।

    कल जीतू ने 'आखिरी' के बाद फिर बोला तब हमें  हमारे अंचल में कबड्डी का जो प्रचलित रूप है उसके एक मजेदार किन्तु हिन्सक नियम की याद आ गयी । जब किसी पक्ष का सिर्फ़ एक खिलाड़ी बचा रह जाता तब उसे मौन धारण कर दूसरे पाले में जाने का विकल्प दिया जाता । इस विकल्प के तहत उस खिलाड़ी को 'कबड्डी - कबड्डी' या 'हू-तू-तू' बोलने के बजाय मौन हो कर दूसरे पाले में जाना पड़ता और सामने वाले पक्ष द्वारा पकड़ कर मौन तोड़वाने पर ही वह बाहर होता ।बगैर मौन तोड़े  सामने वाले पक्ष के जितने खिलाड़ियों को छू कर अपने पाले में वापस हो जाने पर उसके पक्ष के उतने खिलाड़ी 'जिन्दा' हो जाते, जितनों को 'गूँगा' छू कर आया होता ।

    काशी में 'कबड्डी-कबड्डी' या 'हू-तू-तू' के अलावा कुछ छन्दमय बोलों का इस्तेमाल भी होता रहा है , जैसे :

छाल कबड्डी आला

हनुमानजी क पाला

गदा घींच-घींच के मारा

गदा घींच- घींच के मारा,

मारा-मारा-मारा .....

अथवा

खटिया कचाऊ ,

हम तोर बाऊ ,

बाऊ-बाऊ-बाऊ....

तो 'गूँगी कबड्डी' में खिलाड़ी का मौन टूटा, यानि उसकी हो गयी हार ।

नारद-टीम के मौजूदा(चन्द्रशेखर जैसे चिर-अध्यक्ष रहे ,भले दल की मान्यता समाप्त हो गयी हो और खुद की सीट भी भाजपा या सपा के समर्थन से ही बचती हो) तथा चिर-समन्वयक जीतेन्द्र चौधरी के फिलवक्त दो सलाहकार हैं : देबाशीष और अनूप । 'नारद' पर चिट्ठों को प्रतिबन्धित करने के पुराने मामलों में वे रोक की अर्थहीनता के विरुद्ध स्पष्ट मत रखते आए हैं । 'मोहल्ला' पर रोक की माँग नामंजूर होने में भी ऐसा कुछ हुआ दिखता है। उस दौरान सुनील दीपक अपनी किसी यात्रा से लौट कर आए तब अनूप के स्टैन्ड को देख कर आश्वस्त हुए थे । उस वक्त नारद - संचालन पर बुनियादी सवाल उठाने वाले भी एक गुमटी दे कर एडजस्ट कर लिए गए । कुछ और काबिल-गीकों को 'सर्वज्ञ' बना लिया गया ।

    बहरहाल , हिन्दी चिट्ठालोक के सभी 'सामूहिक' प्रयासों में  दुकानदारियाँ तजबीजी जा सकती हैं । इन दुकानदारियों के अपने तजुर्बे को पेश कर दूँ । गीकों के अहम के टन्टे गौरतलब हैं :

गूगल-समूह 'चिट्ठाकार' पर मैं 'भाषा पर गाँधी' डाल रहा था । समूह के कई सदस्य अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। अचानक जीतू का प्रादुर्भाव हुआ ,ऐसे :

 

From:
जीतू Jitu - Date:
Sun, Sep 17 2006 9:54 am
Email:
"जीतू Jitu" ...@gmail.com>
साथियों, चर्चा गम्भीर होती जा रही है, आइए परिचर्चा < http://www.akshargram.com/paricharcha> पर इसे आगे बढाएं, यहाँ सिर्फ़ ६ या ७ लोग ही चर्चा कर रहे है, इसलिए चिट्ठाकार फोरम इसके लिए मुफ़ीद जगह नही। इस चर्चा का अगला थ्रेड परिचर्चा पर ही खोलिए, यहाँ मत करिए। धन्यवाद।

यानि 'माल' बिकाऊ दिखा तो देबाशीष के 'चिट्ठाकार' से अमित गुप्ता के 'परिचर्चा' पर आने की सलाह दी। 'परिचर्चा' के 'ज्वलन्त मुद्दों' के तहत वह बहस जरूर लोकप्रिय बनी(३१९९ बार देखा गया और ५१ उत्तर आये) लेकिन वहाँ भी दुकानदार की गीक-समझदारी और गीकी-अहंकार प्रकट हुआ ऐसे :

अमित गुप्ता स्वयं उस बहस में इस शैली में प्रकट हुए : रंजीत बाऊ, मुझे आपकी बात का उत्तर देने की कोई आवश्यकता नहीं है, कुछ बोल दिया तो गश खाकर गिर पड़ोगे, क्योंकि दुनिया का सीधा सा उसूल है, दिमाग वाली बातें उन्हीं को समझ नहीं आती जो या तो मूर्ख हैं या दिमाग का प्रयोग नहीं करते। या

'पर वह बाद में, अभी किसी और को यह गाना गाना हो तो गा सकता है, हम तो अभी आराम से बैठे मौज ले रहे हैं, बाद में अपना असला निकालेंगे!!

घुघूती बासूती ने 'अहमदाबाद में प्रेमी-युगलों की पिटाई की थ्रेड शुरु की तो गीकी 'समझदारी' फिर बहस के आड़े आई।यह चर्चा १७३० बार देखी गयी थी और २५ उत्तर आये थे। बहस का संचालन करने में विफल अमित बोले:

 

यह थ्रेड अब अपने विषय और पथ से भटक गया है, इसलिए इसके अब चर्चा के लिए खुले रहने का कोई प्रायोजन नहीं है, इसलिए मैं इसे बन्द कर रहा हूँ।

 प्रियंकर को लिखना पड़ा :

samvaad63
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Re: क्या हमें कुछ नये नियम बनाने चाहिये ?

अमित भाई!
हम सरकार को सेंसरशिप के लिये कोसते हैं पर खुद ऐसा जघन्य काम करते हैं . आपने सिर्फ़ मेरे अकाउंट पर इस थ्रेड को 'रेमूव' करके बेहद शर्मनाक  काम किया है . मैं बहुत सामान्य आदमी हूं . कहीं से भी महान नहीं हूं . और न मुझे अपने अभिजात्य का इतना मुगालता है कि जो सच समझता हूं उसे कहने से हिचकूं . पर आप तो आवाज़ का ही गला घोंट रहे हैं. मेरी ही टिप्पणी पर ही प्रति-टिप्पणियां होंगी और मैं ही उन्हें न तो देख पाऊंगा और न ही जवाब दे पाऊंगा .
अगर ऐसा है तो आप मुझे सीधे कह सकते हैं . आखिर आप इस परिचर्चा के मालिक जो ठहरे . हां एक बात जरूर कहूंगा जब दुकान खोल कर बैठे हैं तो ग्राहक का चुनाव आप पर निर्भर नहीं करता . अब और कोई टिप्पणी नहीं करूंगा . यह लिंक सृजन शिल्पी के जरिये मिला उन्हें धन्यवाद देता हूं . अफ़लातून जी को भी . वरना मुझे तो पता ही नहीं चलता . पर चलिये तकनीकी के जरिये सच को दबाने का एक उदाहरण देख पाया यह क्या कम

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samvaad63
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Re: क्या हमें कुछ नये नियम बनाने चाहिये ?

'ताड पर मत चढो' , 'बेकार की बकबक', 'फालतू बकवास' , 'पता नहीं क्या बीमारी है'  यह तो अमित की खुद की बहस की भाषा का स्तर है . ऊपर से वे प्रबंधक और मंदक और न जाने क्या-क्या हैं . वही सबको नसीहत और चेतावनी देने वाले हैं. वही प्रतिवादी हैं,वही वकील हैं और वही न्यायाधीश भी . अब उनसे क्या कहा जाये .
नये साल की शुभकामनाएँ देता हूँ .


प्रियंकर भाई ने मुझे लिखा :

भाई अफ़लातून जी,

   बद्धमूल और जड़ विचारों वाले लोगों को कैसे समझाया जाए . यह मेरी तो समझ में नहीं आ रहा है . सामान्यतः ऐसे लोग जब तक अति न कर दें  , टिप्पणी नहीं करता हूं . क्योंकि वे बहस नहीं चाहते . खुद चाहे जो लिख देंगे और फ़िर बहस समाप्ति की इकतरफ़ा घोषणा कर देंगे . खुद चाहे जो लिखेंगे और दूसरे पर माहौल खराब करने का आरोप लगाते हुए परिचर्चा का 'थ्रेड' बंद कर देने की घोषणा कर देंगे .

           यह टेक्नोलॉजी के सामाजिकी से दूर जाने का नतीज़ा है .  नये लोगों में तकनीकी ज्ञान तो खूब है पर समाज  के बारे में उनका ज्ञान बहुत सतही और छिछला है . इधर देश / समाज में  नये बनते इंजीनियरों में  भी कमाऊ 'टेक्नोब्रैट'   ज्यादा हैं . यह चलन कैसे रुकेगा, यह  मेरी समझ के बाहर है . उदारीकरण और भूमंडलीकरण के तहत बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इसे और बढा रही हैं . कितने इंजीनियरों ने गांधी की 'हिंद स्वराज' पढी होगी ? शायद नाम भी न सुना हो . तो उनसे क्या आशा करें .

      रहा बचा सब सांप्रदायिक सोच ने समाप्त कर दिया . यानी करेला और नीमचढ़ा .    यही स्थिति है . क्या करें ?

सादर ,

प्रियंकर

पुनश्च : अमित खुद तो अनाप-शनाप टिप्पणियां करता है और दूसरों को नसीहत देता है .  क्या किया जाये . नये बच्चे हैं . आत्मविश्वास से भरपूर पर अनुभव से रहित . अभी जीवन के धरम-धक्के खाये नही हैं इसलिये जोश कुछ ज्यादा है . वक्त सबको सिखा देता है . समीर लाल ने टिप्पणी वापस ले ली है . पंकज ने मुझे मेल किया था,जवाब दे दिया है .

'हिन्दी के लिए आपने क्या किया ?' अहंकार से मत्त गीक जब यह सार्वजनिक तौर पर पूछते हैं , तब क्या वे सोचते हैं कि सामने वाले के माँ या बाप में से कोई अँग्रेज होगा ?

 

From:
जीतू Jitu -Date:
Sat, Sep 16 2006 1:02 am
Email:
"जीतू Jitu" ...@gmail.com>

 

हिन्दी की दुर्दशा पर तो हर कोई रो लेता है, लेकिन अफलातून भाई (निजी तौर पर मत लीजिएगा, सभी पर लागू है), अपने दिल पर हाथ रखकर बताइए, आपने हिन्दी को आगे बढाने के लिये क्या किया?

इसके उत्तर में मुझे लिखना पड़ा :

जीतूजी अब आपकी जिग्यासा पर - पारिवारिक पृष्टभूमि के कारण बचपन से हिन्दी,गुजराती,ऒडिया और बांग्ला पढ ,बोल लेता हूं.लिखता सिर्फ़ हिन्दी में हूं.अनुवाद, लेखों और भाषणों का ,इनसे और अंग्रेजी से करता हूं.'धर्मयुग','हिन्दुस्तान';'जनसत्ता'(सम्पादकीय पृष्ट के लेख) और फ़ीचर सेवाओं के जरिए भी लिखता हूं. १९७७ से १९८९ के विश्वविद्यालयी जीवन में काम काज की भाषा के तौर पर हिन्दी के प्रयोग के लिए आग्रह और १९६७ के 'अंग्रेजी हटाओ,भारतीय भाषा लाओ' की काशी की पृष्टभूमि के कारण इस बाबत कुछ सफलता भी मिलती थी.काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के किसी भी विभाग मे हिन्दी में शोध प्रबन्ध जमा किया जा सकता है.१५ अगस्त २००६ से अब तक चार देशों मे रह रहे मात्र २३ लोगों को इंटरनेट पर हिन्दी पढना और लिखना बताया.

गीकी दम्भ से पीडित हो गिरिराज जैसे संवेदनशील सदस्य बोल उठते हैं :

amit wrote:

छोड़ो यार, किससे बहस कर रहे हो? ऐसे लोगों की कमी नहीं जो अपनी कही बात का विरोध करने वाले को गलत कह तर्कशास्त्र पढ़ाते हैं!!

गिरिराज :

 

आप इसी "कैटेगरी" में आते है अमित भाई, कभी वक्त मिले तो अपनी सारी पोस्ट दूबारा पढ़कर देखना।
सच कहूँ तो साहित्य प्रेम ने बांध रखा है वरना शायद अब तक अलविदा कह चूका होता परिचर्चा को ॰॰॰

मौजूदा प्रकरण में अनामदास ,प्रियंकर, प्रत्यक्षा , मसिजीवी और अभय जैसे परिपक्व लेखकों ने स्पष्ट राय रखी जो इस तरह की घटना के दूरगामी परिणाम देख सकते हैं । जीतेन्द्र चौधरी अब देबाशीष और अनूप जैसे सलाहकारों की राय से हम सब को अवगत करायें ताकि लगे कि अभी भी नारद एक समूह है ।

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