शनिवार, मई 19, 2007

'राष्ट्र की रीढ़' : स्वामी विवेकानन्द




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जिनके रुधिर-स्राव से मनुष्यजाति की यह जो कुछ उन्नति हुई है ,उनके गुणों का गान कौन करता है ? लोकजयी धर्मवीर , रणवीर , काव्यवीर , सब की आँखों पर , सब के पूज्य हैं ; परंतु जहाँ कोई नहीं देखता , जहाँ कोई एक वाह वाह भी नहीं करता , जहाँ सब लोग घृणा करते हैं , वहाँ वास करती है अपार सहिष्णुता , अनन्य प्रीति और निर्भीक कार्यकारिता ; हमारे गरीब घर - द्वार पर दिनरात मुँह बंद करके कर्तव्य करते जा रहे हैं ; उसमें क्या वीरत्व नहीं है ? ( विवेकानन्द साहित्य,भाग ८,पृ.१९० )


ये जो किसान , मजदूर , मोची , मेहतर आदि हैं , इनकी कर्मशीलता और आत्मनिष्ठा तुममें से कइयों से कहीं अधिक है । ये लोग चिरकाल से चुपचाप काम करते जा रहे हैं , देश का धन-धान्य उत्पन्न कर रहे , पर अपने मुँह से शिकायत नहीं करते ।(भाग ६, पृ. १०६ ) माना कि उन्होंने तुम लोगों की तरह पुस्तकें नहीं पढ़ीं हैं , तुम्हारी तरह कोट - कमीज पहनकर सभ्य बनना उन्होंने नहीं सीखा , पर इससे क्या होता है ? वास्तव में वे ही राष्ट्र की रीढ़ हैं ।यदि ये निम्न श्रेणियों के लोग अपना अपना काम करना बंद कर दें तो तुम लोगों को अन्न - वस्त्र मिलना कठिन हो जाय । कलकत्ते में यदि मेहतर लोग एक दिन के लिए काम बंद कर देत हैम तो ' हाय तौबा ' मच जाती है । यदि तीन दिन वे काम बंद कर दें तो संक्रामक रोगों से शहर बरबाद हो जाय । श्रमिकों के काम बंद करने पर तुम्हें अन्न - वस्त्र नहीं मिल सकता । इन्हें ही तुम लोग नीच समझ रहे हो और अपने को शिक्षित मानकर अभिमान कर रहे हो ! ( भाग , पृ. १०६-७ )


इन लोगों ने सहस्र सहस्र वर्षों तक नीरव अत्याचार सहन किया है , - उससे पायी है अपूर्व सहिष्णुता । सनातन दु:ख उठाया ,जिससे पायी है अटल जीवनीशक्ति । ये लोग मु्ट्ठीभर सत्तू खाकर दुनिया उलट दे सकेंगे ।ये रक्तबीज के प्राणों से युक्त हैं । और पाया है सदाचार- बल, जो तीनों लोक में नहीं है ।इतनी शांति , इतनी प्रीति , इतना प्यार , बेजबान रहकर दिन रात इतना खटना और काम के वक्त सिंह का विक्रम ! ( भाग ८ , पृ. १६८ )


बड़ा काम आने पर बहुतेरे वीर हो जाते हैं ; दस हजार आदमियों की वाहवाही के सामने कापुरुष भी सहज ही में प्राण दे देता है ; घोर स्वार्हपर भी निष्काम हो जाता है ; परंतु अत्यंत छोटेसे कर्म में भी सब के अज्ञात भाव से जो वैसी ही नि:स्वार्थता , कर्तव्यपरायणता दिखाते हैं , वे ही धन्य हैं -वे तुम लोग हो - भारत के हमेशा के पैरों के तले कुचले हुए श्रमजीवियों ! - तुम लोगों को मैं प्रणाम करता हूँ । ( भाग ८ , पृ. १९० )


ब्राह्मणों ने ही तो धर्मशास्त्रों पर एकाधिकार जमाकर विधि-निषेधों को अपने ही हाथ में रखा था और भारत की दूसरी जातियों को नीच कहकर उनके मन में विश्वास जमा दिया था कि वे वास्तव में नीच हैं । यदि किसी व्यक्ति को खाते , सोते , उठते , बैठते , हर समय कोई कहता रहे कि ' तू नीच है ' , ' तू नीच है ' तो कुछ समय के पश्चात उसकी यह धारणा हो जाती है कि ' मैं वास्तव में नीच हूँ । ' इसे सम्मोहित ( हिप्नोटाइज ) करना कहते हैं । ( भाग ६ , पृ. १४७ )


भारत के सत्यानाश का मुख्य कारण यही है कि देश की संपूर्ण विद्या-बुद्धि राज-शासन और दंभ के बल से मुट्ठी भर लोगों के एकाधिकार में रखी गयी है । ( भाग ६ , पृ. ३१०-३११ )


स्मृति आदि लिखकर , नियम-नीति में आबद्ध करके इस देश के पुरुषों ने स्त्रियों को एकदम बच्चा पैदा करने की मशीन बना डाला है । ( भाग ६ , पृ. १८१ ) फिर अपने देश की दस वर्ष की उम्र में बच्चों को जन्म देनेवाली बालिकाएँ !!! प्रभु , मैं अब समझ रहा हूँ।हे भाई , ' यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' - वृद्ध मनु ने कहा है । हम महापापी हैं ; स्त्रियों को ' , 'नरक का द्वार' घृणित कीड़ा' इत्यादि कहकर हम अध:पतित हुए हैं । बाप रे बाप ! कैसा आकाश-पाताल का अंतर है । 'याथात्थ्य्तोsर्थानं व्यदधात' ।( जहाँ जैसा उचित हो ईश्वर वहाँ वैसा कर्मफल का विधान करते हैं । - ईशोपनिषद ) क्या प्रभू झूठी गप्प से भूलनेवाला है ? प्रभु ने कहा है , 'त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी '( तुम्हीं स्त्री हो और तुम्ही पुरुष;तुम्ही क्वाँरे हो और तुम्हीं क्वाँरी ।( - श्वेताश्वतरोपनिषद) इत्यादि और हम कह रहे हैं , 'दूरमपसर रे चाण्डाल' ( रे चाण्डाल , दूर हट ) , 'केनैषा निर्मिता नारी मोहिनी' ( किसने इस मोहिनी नारी को बनाया है ? ) इत्यादि।( भाग २,पृ. ३३६ )


यह जाति डूब रही है। लाखों प्राणियों का शाप हमारे सिर पर है । सदा ही अजस्र जलधारवाली नदी के समीप रहने पर भी तृष्णा के समय पीने के लिए हमने जिन्हें नाबदान का पानी दिया , उन अगणित लाखों मनुष्यों का , जिनके सामने भोजन के भण्डार रहते हुए भी जिन्हें हमने भूखों मार डाला ,जिन्हें हमने अद्वैतवाद का तत्त्व सुनाया पर जिनसे हमने तीव्र घृणा की , जिनके विरोध में हमने लोकाचार का अविष्कार किया , जिनसे जबानी तो यह कहा कि सब बराबर हैं , सब वही एक ब्रह्म है , परंतु इस उक्ति को काम में लाने का तिलमात्र भी प्रयत्न नहीं किया । ( भाग ५ , पृ. ३२१ )


पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है , जो हिंदू धर्म के समान इतने उच्च स्वर से मानवता के गौरव का उपदेश करता हो , और पृथ्वी पर ऐसा कोई धर्म नहीं है , जो हिंदू धर्म के समान गरीबों और नीच जातिवालों का गला ऐसी क्रूरता से घोंटता हो । ( भाग १ , पृ. ४०३) अब हमारा धर्म किसमें रह गया है ? केवल छुआछूत में - मुझे छुओ नहीं , छुओ नहीं ।हम उन्हें छूते भी नहीं और उन्हें 'दुर' 'दुर' कहकर भगा देते हैं । क्या हम मनुष्य हैं ?( भाग २ , पृ. ३१६ )


पुरोहित - प्रपंच ही भारत की अधोगति का मूल कारण है । मनुष्य अपने भाई को पतित बनाकर क्या स्वयं पतित होने से बच सकता है ? .. क्या कोई व्यक्ति स्वयं का किसी प्रकार अनिष्ट किये बिना दूसरों को हानि पहुँचा सकता है ?ब्राह्मण और क्षत्रियों के ये ही अत्याचार चक्रवृद्धि ब्याज के सहित अब स्वयं के सिर पर पतित हुए हैं ,एवं यह हजारों वर्ष की पराधीनता और अवनति निश्चय ही उन्हीं के कर्मों के अनिवार्य फल का भोग है ।( पत्रावली भाग ९ , पृ. ३५६ )


जिन्होंने गरीबों का रक्त चूसा , जिनकी शिक्षा उनके धन से हुई , जिनकी शक्ति उनकी दरिद्रता पर बनी , वे अपनी बारी में सैंकड़ों और हजारों की गिनती में दास बना कर बेचे गये , उनकी संपत्ति हजार वर्षों तक लिटती रही ,और उनकी स्त्रियाँ और कन्याएँ अपमानित की गयीं । क्या आप समझते हैं कि यह अकारण ही हुआ ? ( पत्रावली ३, पृ. ३२९-३३०)


जारी

3 टिप्‍पणियां:

  1. शिक्षा का नििश्चित लक्ष्य हो - आज की शिक्षा की सबसे बडी खामी यह हैं कि इसके सामने अनुसरण करने के लिये कोई निश्चित लक्ष्य नहीं हैं। एक चित्रकार अथवा मूर्तिकार जानता हैं कि उसे क्या बनाना हैं तभी वह अपने कार्य में सफल हो पाता हैं । आज शिक्षक को यह स्पष्ट नही हैं वह किस लक्ष्य को लेकर अध्यापन कार्य कर रहा है। सभी प्रकार की शिक्षा का एक मात्र उद्धेश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करना हैं इसके लिये वेदान्त के दर्शन को ध्यान में रखते हुए मनुष्य निर्माण की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये।-स्वामी विवेकानन्द जी

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  2. शिक्षा का नििश्चित लक्ष्य हो - आज की शिक्षा की सबसे बडी खामी यह हैं कि इसके सामने अनुसरण करने के लिये कोई निश्चित लक्ष्य नहीं हैं। एक चित्रकार अथवा मूर्तिकार जानता हैं कि उसे क्या बनाना हैं तभी वह अपने कार्य में सफल हो पाता हैं । आज शिक्षक को यह स्पष्ट नही हैं वह किस लक्ष्य को लेकर अध्यापन कार्य कर रहा है। सभी प्रकार की शिक्षा का एक मात्र उद्धेश्य मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करना हैं इसके लिये वेदान्त के दर्शन को ध्यान में रखते हुए मनुष्य निर्माण की शिक्षा प्रदान की जानी चाहिये।-स्वामी विवेकानन्द जी

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