बुधवार, मई 16, 2007

हम इस आवाज का मतलब समझें






मेरा यह लेख धर्मयुग , १६ फरवरी १९९१ में छपा था


आज गुजरात के कई गाँवों में 'हिन्दू राष्ट्र नू माणसा गाम'. हिन्दू राष्ट्र का माणसा ( नाम ) ग्राम जैसी तख्तियाँ लगायी गयी हैं । मध्यप्रदेश के बस अड्डों पर ' हिन्दू राज्य ' में आपका स्वागत है !- पोस्टर एक अभियान के तहत लगाये जा रहे हैं । ऐसा एक दौर १९४२ में गांधी जी के समक्ष भी आया था । दिल्ली प्रदेश कंग्रेस कमिटी के तत्कालीन अध्यक्ष आसफ़ अली ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों की बाबत प्राप्त एक शिकायत गांधी जी को भेजी और लिखा था कि शिकायतकर्ता को नजदीकी तौर से जानते हैं , वे सच्चे और निष्पक्ष राष्ट्रीय कार्यकर्ता हैं । ९ अगस्त , १९४२ को हरिजन ( पृष्ट : २६१ ) में गांधी जी ने लिखा :



" शिकायती पत्र उर्दू में है । उसका सार यह है कि आसफ़ अली साहब ने अपने पत्र में जिस संस्था का जिक्र किया है ( राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ) उसके ३,००० सदस्य रोजाना लाठी के साथ कवायद करते हैं , कवायद के बाद नारा लगाते हैं हिन्दुस्तान हिन्दुओं का है और किसी का नहीं । इसके बाद संक्षिप्त भाषण होते हैं जिनमें वक्ता कहते हैं - ' पहले अंग्रेजों को निकाल बाहर करो उसके बाद हम मुसलमानों को अपने अधीन कर लेंगे , अगर वे हमारी नहीं सुनेंगे तो हम उन्हे मार डालेंगे । ' बात जिस ढंग से कही गयी है , उसे वैसी ही समझ कर यह कहा जा सकता है कि यह नारा गलत है और भाषण की मुख्य विषयवस्तु तो और भी बुरी है ।


" ... नारा गलत और बेमानी है , क्योंकि हिंदुस्तान उन सब लोगों का है जो यहाँ पैदा हुए और पले हैं और जो दूसरे मुल्क का आसरा नहीं तक सकते । इसलिए वह जितना हिन्दुओं का है उतना ही पारसियों , यहूदियों , हिंदुस्तानी इसाइयों , मुसलमानों और दूसरे गैर हिंदुओं का भी है । आजाद हिंदुस्तान में राज हिंदुओं का नहीं , बल्कि हिन्दुस्तानियों का होगा , और वह किसी धार्मिक पंथ या संप्रदाय के बहुमत पर नहीं , बिना किसी धार्मिक भेदभाव के निर्वाचित समूची जनता के प्रतिनिधियों पर आधारित होगा ।


" ... धर्म एक निजी विषय है , जिसका राजनीति में कोई स्थान नहीं होना चाहिए , विदेशी हुकूमत की वजह से देश में जो अस्वाभाविक परिस्थिति पैदा हो गयी है , उसी की बदौलत हमारे यहां धर्म के अनुसार इतने अस्वाभाविक विभाग हो गये हैं । जब देश से विदेशी हुकूमत उठ जायेगी तो हम इन झूठे नारों और आदर्शों से चिपके रहने की अपनी इस बेवकूफी पर खुद हंसेंगे । अगर अंग्रेजों की जगह देश में हिंदुओं की या दूसरे किसी संप्रदाय की हुकूमत ही कायम होनेवाली हो तो अंग्रेजों को निकाल बाहर करने की पुकार में कोई बल नहीं रह जाता । वह स्वराज्य नहीं होगा । "


विभाजन के बाद हुए व्यापक सांप्रदायिक दंगों के खिलाफ ' करो या मरो ' की भावना से गांधी जी दिल्ली में डेरा डाले हुए थे । २१ सितम्बर '४७ को प्रार्थना - प्रवचन में 'हिन्दू राष्ट्रवादियों ' के सन्दर्भ में उन्होंने टिप्पणी की ;



' एक अखबार ने बड़ी गंभीरता से यह सुझाव रखा है कि अगर मौजूदा सरकार में शक्ति नहीं है यानी अगर जनता सरकार को उचित काम न करने दे , तो वह सरकार उन लोगों के लिए अपनी जगह खाली कर दे , जो सारे मुसलमानों को मार डालने या उन्हें देश निकाला देने का पागलपन भरा काम कर सके । यह ऐसी सलाह है कि जिस पर चल कर देश खुदकुशी कर सकता है और हिंदू धर्म जड़ से बरबाद हो सकता है । मुझे लगता है ऐसे अखबार तो आजाद हिंदुस्तान में रहने लायक ही नहीं हैं । प्रेस की आजादी का यह मतलब नहीं कि वह जनता के मन में जहरीले विचार पैदा करें । जो लोग ऐसी नीति पर चलना चाहते हैं , वे अपनी सरकार से इस्तीफा देने के लिए भले कहें , मगर जो दुनिया शांति के लिए अभी तक हिंदुस्तान की तरफ ताकती रही है , वह आगे से ऐसा करना बंद कर देगी । हर हालत में जब तक मेरी सांस चलती है , मैं ऐसे निरे पागलपन के खिलाफ अपनी सलाह देना जारी रखूंगा । " ( दिल्ली-डायरी , पृष्ठ ३० )


८ अक्टूबर , '४७ को गांधी जी ने साफगोई से अपनी राय रखी :



' अखबारों का जनता पर जबरदस्त असर होता है । संपादकों का फर्ज है कि वे अपने अखबारों में गलत खबरें न दें या ऐसी खबरें न छापें , जिससे जनता में उत्तेजना फैले । एक अखबार में मैंने पढ़ा कि रेवाड़ी में मेवों ने हिंदुओं पर हमला कर दिया । इस खबर ने मुझे बेचैन कर दिया ।मगर दूसरे दिन अखबारों में यह पढ़ कर मुझे खुशी हुई कि वह खबर गलत थी । ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं ।संपादकों और उप संपादकों को को खबरें छापने और उन्हें खास रूप देने में बहुत ज्यादा सावधानी लेने की जरूरत है । आजादी की हालत में सरकारों के लिए यह करीब - करीब असंभव है कि वे अखबारों पर काबू रखें । जनता का फर्ज है कि वह अखबारों पर कड़ी नजर रखें और उन्हें ठीक रास्ते पर चलायें ।पढ़ी - लिखी जनता को चाहिए कि वह भड़काने वाले या गंदे अखबारों को मदद करने से इनकार कर दें । ( दिल्ली-डायरी , पृश्ठ : ७७)


गत एक वर्ष में काशी विश्वविद्यालय में प्रशासन की अनुमति से परिसर में विश्व हिंदू परिषद के नेताओं के भाषण , विडियो प्रदर्शन , राम शिला पूजन , अस्ति पूजन कराने तथा शाखायें लगाने के अलावा मुस्लिम छात्रों की पीटने , अरबी विभाग में तोड़फोड़ , मुस्लिम शिक्षक , कर्मचारियों को धमकाने की घटनाएं हुई हैं । इस विश्वविद्यालय से जुड़े सर सुन्दरलाल चिकित्सालय में मुस्लिम मरीजों के परिचारकों को पीटा गया । यह अलीगढ़ विश्वविद्यालय की बाबत छपी गलत खबर के बहाने हुआ । महाराज सयाजी राव विश्वविद्यालय वडोदरा के प्रसिद्ध चित्रकार तथा दृश्यकला संकाय के प्रोफेसर गुलाम शेख को विश्वविद्यालय से निकाले जाने की छात्रसंघ द्वारा मांग की गयी क्योंकि उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द के लिए चलाये जा रहे ' वडोदरा शान्ति अभियान ' में हिस्सेदारी की थी । इस सन्दर्भ में गांधी जी २१ जनवरी , १९४२ को काशी विश्वविद्यालय के रजत जन्ती समारोह में दिये गये प्रवचन के उद्धरण मौजू होंगे :



" एक बात और । पश्चिम के हर एक विश्वविद्यालय की अपनी एक-न-एक विशेषता होती है । कैंब्रिज और ऑक्स्फोर्ड को ही लीजिए , इन विश्वविद्यालयों को इस बात का नाज है कि उनके हर एक विद्यार्थी पर उनकी विशेषता की छाप इस तरह लगी रहती है कि वे फौरन पहचाने जा सकते हैं ।हमारे देश के विश्वविद्यालयों की अपनी ऐसी कोई विशेषता होती ही नहीं । वे तो पश्चिमी विश्वविद्यालयों की एक निस्तेज और निष्प्राण नकल भर हैं , अगर हम उनको पश्चिमी सभ्यता का सिर्फ सोख्ता या स्याही-सोख कहें , तो शायद वाजिब होगा । आपके इस विश्वविद्यालय के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि यहां शिल्प - शिक्षा और यंत्र - शिक्षा का यानी इंजिनिरिंग और टेक्नोलॉजी का देशभर में सबसे ज्यादा विकास हुआ है ।और इनका शिक्षा से अच्छा सम्बन्ध है । लेकिन इसे मैं यहां की विशेषता मानने को तैयार नही। तो फिर इसकी विशेषता क्या हो ? मैं इसकी एक मिसाल आपके सामने रखना चाहता हूं । यहां जो इतने हिंदू विद्यार्थी हैं , उनमें से कितनों ने मुसलमान विद्यार्थियों को अपनाया है ? अलीगढ़ के कितने छात्रों को आप अपनी ओर खींच सके हैं ? दरअसल आपके दिल में तो यह भावना पैदा होनी चाहिये कि आप तमाम मुसलमान विद्यार्थियों को यहां बुलायेंगे और उन्हें अपनायेंगे ।


'...जिस तरह गंगा जी में अनेक नदियां आ कर मिलती हैं , उसी तरह इस देसी संस्कृति गंगा में भी अनेक संस्कृति-रूपी सहायक नदियां मिली हैं , यदि इन सबका कोई सन्देश या पैगाम हमारे लिए हो सकता है तो यही कि हम सारी दुनिया को अपनायें और किसी को अपना दुश्मन न समझें । मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि वह हिंदू विश्वविद्यालय को यह सब करने की शक्ति दे । यही इसकी विशेषता हो सकती है - सिर्फ अंग्रेजी सीखने से यह काम नहीं होगा ।'(बनारस हिंदू विश्वविद्यालय रजत जयंती समारोह , पृष्ठ :४१-४७)


जारी...

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