मौजूदा चुनाव के लोकतंत्र विरोधी संकेत
उत्तर प्रदेश का जनादेश स्पष्ट है । मुख्यधारा के किसी दल को बहुमत न देने के मामले में जनता भ्रमित नहीं है । १९९३ में सपा - बसपा गठबन्धन को स्पष्ट बहुमत मिलने के बाद हुए सभी चुनावों के परिणामों से मौजूदा चुनाव अलग नहीं हुए हैं ।
प्रदेश के बड़े शहर होने के कारण आगरा , इलाहाबाद में २२ फ़ीसदी और बनारस में २९ - ३० फ़ीसदी मतदान की खबर मीडिया की मुख्यधारा में भी हल्की - फुल्की चर्चा का विषय जरूर बनी । चुनाव आयोग ने इस पर कहा ,
- गत चुनावों से १० - १५ फ़ीसदी ही कम वोट पड़ना चिन्ता की बात नहीं है ।
- चुनाव आयोग ने प्रवासी आबादी का जिक्र किया और कहा कि करीब ११ फ़ीसदी लोग अन्य सूबों में रोजगार या रोजी की तलाश में चले जाते हैं ।
नागालैण्ड और काश्मीर के सरहदी सूबों में कई चुनावों में बहिष्कार के आह्वान के बाद अत्यन्त कम मतदान होते थे । असम में केन्द्र की दमनकारी कांग्रेसी सरकार द्वारा नेल्ली जैसे नरसंहार के बाद कराए गए चुनाव का जनता ने बहिष्कार किया था । ६० वोट , १२२ वोट पाने वाले भी विधायक - मन्त्री बने थे और कांग्रेसी सुश्री अनवरा तैमूर मुख्यमंत्री बनी थीं ।जनता द्वारा इच्छित कम भागीदारी वाले इन चुनावों को लोकतंत्र की कमजोरी और कांग्रेस के फासीवादी रुझान का द्योतक माना गया था ।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव प्रक्रिया की शुरुआत से चुनाव आयोग सिर्फ मतदाता परिचय पत्र के आधार पर मतदान कराने की बहादुरी से घोषणा कर रहा था ।अधिसूचना के बाद तक स्थानीय प्रशासन फोटो पहचान पत्र बनवाने में जुटा था । मतदान के बाद भी स्थानीय प्रशासन इस बार " २० फ़ीसदी हुए मतदान में ७३ या ८१ फ़ीसदी लोगों ने परिचय पत्र दिखा कर वोट दिए " जैसी घोषणा कर फूला नहीं समा रहा था ।
सन २००१ से भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा जारी किए जा रहे फोटो पहचान पत्र संभाल कर रखने वाले जो लोग मतदाता सूची में नाम न होने के कारण मतदान से वंचित रहे उन पर स्थानीय प्रशासन और आयोग मौन है , अखबार और टे.वि. चैनल सरसरी तौर पर जिक्र कर कर्त्तव्य की इतिश्री मान ले रहे हैं तथा चुनावी दल पूरी तरह निश्चिन्त रहते हैं कि जिनके नाम हैं उन्हीं की चिन्ता की जाए ।
यह भी उल्लेखनीय है कि कि रोजगार की तलाश में पूर्वी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों से लोग मुम्बई -दिल्ली जाते हैं , शहरों से कम । जौनपुर और गाजीपुर जिलों की जनगणना रिपोर्ट से प्रवासन साफ झलकता है - इन जिलों में स्त्रियों की आबादी पुरुषों से अधिक है । चुनाव के यह महीने प्रवासियों के गाँव लौटने के भी महीने हैं ।
हिन्सा - मुक्त चुनाव कराने के लिए आयोग और प्रशासन की वाहवाही होना लाजमी है लेकिन मताधिकार से वंचित लाखों लोग जम्हूरियत के कमजोर होने की गवाही देते हैं ।
मतदाता सूची में भारी गड़बड़ियों के अलावा सम्पूर्ण चुनाव प्रक्रिया में ऐसा काफी कुछ था जो हमारे जैसे छोटे राजनैतिक दलों के खिलाफ़ था और भ्रष्टाचार और पूँजीपतियों से किए गए अकूत धन-राशि खर्च करने वाले बड़े दलों के हक में । जनता से संवाद के लिए आयोजित जन सभाओं के के लिए अनुमति देने की बाबत ऐसा ही कुछ हुआ । आयोग द्वारा बड़े दलों के बड़े नेताओं की सूची अपनी वेबसाईट पर डाल दी गयी थी । मुमकिन है कि इन दलों से यह सूची माँगी गयी हो । इस सूची में विश्वनाथ प्रताप - राज बब्बर का जनमोर्चा गौरतलब अपवाद था - मान्यताप्राप्त दल न होने के बावजूद इसके नेता भी सूची में थे । सूची में उल्लिखित नेताओं के सभा के लिए अनुमति दी जाती थी । अन्य दलों को दो चरणों के बीच की अवधि में ही सभा की अनुमति दी गयी । मसलन सातवें दौर ( ८ मई ) के चुनाव के लिए छठे दौर ( ३ मई ) के बाद यानी ३ से ६ मई तक ही सभाओं की इजाजत दी गयी। उसके पहले प्रशासन द्वारा यह कह दिया जाता था कि पुलिस बल की कमी के कारण अनुमति नहीं दी जा रही है ।
पोस्टर - बैनर - दिवाल लेखन पर रोक के कारण महीनों पहले से टेलिविजन , राष्ट्रीय पत्रिकाओं और अखबारों में भारी खर्च वाले विज्ञापन ही जनता को दृष्टिगोचर हुए । छोटे कस्बों के संवाददाताओं को स्पष्ट निर्देश था कि बिना विज्ञापन प्रेस विज्ञप्ति न लें , किसी प्रेस वार्ता में भाग न लें ।
चुनावी प्रक्रिया के बुनियादी अवयवों पर रोक का नतीजा लोकतंत्र को कमजोर करने वाले साधनों को सबल करता है । पूर्वी उत्तर प्रदेश के दो प्रमुख माफिया गिरोहों के वास्तविक 'चुनाव खर्च' के तरीकों पर गौर करें । मुख्तार अन्सारी के कारिन्दे ज्यादा से ज्यादा शादियों में ' न्यौता देने ' और धन के अलावा अपने आका का सन्देश भी देते , ' जरूरत पड़ने पर और पैसा दिया जाएगा ' । बृजेश सिंह के भतीजे सुशील सिंह धानापुर के कई हार्वेस्टर कब्जे में ले कर मतदाताओं की मुफ़्त में कटनी करवा कर दिल जातना चाहा ।
चुनाव आयोग अथवा न्यायपालिका द्वारा चुनाव प्रक्रिया में कुछ तब्दीलियाँ की जाती रही हैं। सम्पत्ति और आपराधिक मामलों की बाबत शपथ पत्र देना इनमें प्रमुख है । इन पर आपत्ति करते हुए प्रतिवाद न किए जाने तक इन शपथ पत्रों में उल्लिखित तथ्यों की जाँच नहीं की जाती । सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मुलायम सिंह यादव की सम्पत्ति की जाँच सी.बी.आई. द्वारा कराने का निर्देश एक कांग्रेसी की जनहित याचिका पर हुआ है , आयोग के कहने पर नहीं । यह उल्लेखनीय है कि डॉ. लोहिया की मृत्यु के समय उनके पास पार्टी के दौरों में काम आने वाली एक अटैची और किताबें बतौर निजी सम्पत्ति थीं । लोकसभा हेतु चुने के पहले तक लोहिया का निजी बैंक खाता भी नहीं था।
आपराधिक मुकदमों की बाबत जमा किए शपथ पत्रों की बाबत आयोग की गम्भीरता का उदाहरण लीजिए । वाराणसी के लोकसभा प्रतिनिधि राजेश मिश्रा ने नामांकन के वक्त बाहलफ़ कहा था कि उन पर कोई मुकदमें लम्बित नहीं हैं । उम्मेदवारों के शपथ-पत्र स्कैन कराके आयोग अपनी वेबसाइट पर देता है , इसे देखा जा सकता है । राजेश मिश्रा पर उस समय कम से कम बारह ऐसे मुकदमें लम्बित थे जो मुझ पर भी थे । इन अपराधों में हत्या के प्रयास , एक्स्प्लोसिव एक्ट , क्रिमिनल एमेन्डमेंट एक्ट और आगजनी की धारायें प्रमुख थीं। इन गंभीर अपराधों में हम '८६ - '८७ में लिप्त थे । आज तक इन मामलों की एक भी तारीख पर हम अदालत में नहीं गये और न ही इस वजह से हुसैन की तरह हमारी कुर्की का कभी आदेश हुआ । इसका जिक्र सिर्फ़ इसलिए कर रहा हूँ कि यह स्प्ष्ट हो जाए कि आयोग हलफनामों में दिये तथ्यों की जाँच नहीं करता । भारतीय दण्ड संहिता में राजनैतिक/आपराधिक यह दो भाग नहीं किए गए हैं - सभी मामले अपराध की कोटि में आते हैं । दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा १४४ को तोड़ने पर भा.द.सं की धारा १८८ लगायी जाती है - शायद इसे 'राजनैतिक' माना जा सकता है । आन्दोलनों को दबाने के लिए शासन द्वारा फर्जी मुकदमे दायर किए जाते हैं तथा इनमें भा.द.सं की गम्भीर धारायें ही इस्तेमाल की जाती हैं ।
यह कुछ प्रसंग हैं जिनकी शिनाख्त लोकतंत्र के कमजोर होने के लक्षण के रूप में हम करते हैं ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें