गुरुवार, दिसंबर 06, 2007

भारत का कुलीकरण : लेखक - गंगन प्रताप







देश के सबसे होनहार युवा धीरे - धीरे शेष विश्व के लिए टेक्नो-कुली बनते जा रहे हैं । इंफोसिस और विप्रो का चमत्कार यही है कि उन्होंने देश के सबसे होशियार लड़के-लड़कियों को इकट्ठा करके उन्हें उत्तरी अमरीका , युरोप और जापान का टेक्नो-कुली बना दिया है । यह एक ऐसा असंतुलन है जिसके परिणाम घातक हो सकते हैं। इसके चलते वैश्वीकरण कुलीकरण का पर्याय हो जायेगा।इस महत्वपूर्ण मगर उपेक्षित मुद्दे पर कुछ विचारों व प्रतिध्वनियों की बानगी प्रस्तुत है। स्रोत : स्रोत , दिसम्बर २००५


केरल मॉडल


ई. एम. एस. नम्बुदरीपाद की संकलित रचनाओं के २१वें खण्ड में उन्होंने १९५८ के केरल की बुनियादी समस्या को इन शब्दों में पकड़ा था :



" राज्य की बुनियादी समस्या यह है कि वह अपने विशाल मानव संसाधन का उपयोग नहीं करता । राज्य के प्राकृतिक संसाधनों की साज संभाल करने की बजाय केरल के लोग देश भर में क्लर्क और कुली बन रहे हैं ।"


भारतीय मॉडल


ई. एम.एस. ने जो बात केरल के बारे में कही थी , वह आज पूरे देश के बारे में कही जा सकती है । हमारे सर्वोत्तम व सबसे प्रतिभावान लोग ( आई.आई.टी. वगैरह ) दुनिया भर में क्लर्क और कुली बनते जा रहे हैं । भारत की बुनियादी समस्या अपने विशाल मानव संसाधन का उपयोग न कर पाने की हो गयी है । देश के प्राकृतिक संसाधनों को न संभालकर , भारतीय लोग पलायन कर रहे हैं । हमारे देश के सबसे प्रतिभावान युवा ( ७०,००० प्रवासी + २,००,००० एल-१ और एच-१ बी व छात्र वीसाधारी ) देश छोड़कर अमरीका चले जाते हैं ।


हमारे यहां इन्सानों की तरक्की पर चंद बिरले व असाधारण क्षमता वाले लोगों का बोलबाला रहता है। प्रतिभा पलायन एक छन्नी है, जिसके ज़रिए देश के सर्वोत्तम प्रशिक्षित व्यक्ति अन्य देशों में ( आजकल अधिकतर यू.एस.ए) चले जाते हैं। इस लिहाज से देखें, तो हमारे जैसे प्रतिभादानी देशों को इससे भारी नुकसान होता है और इस दान के प्राप्तकर्ता देशों को भरपूर लाभ भी होता है । अर्थात प्रतिभा पलायन एक ऐसी विकट समस्या है, जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।


जूठन की जूठन की जूठन


इन्द्रजीत गुप्त और रामी दत्ता हर्दसमलानी के साथ बातचीत के दौरान एल एण्ड टी के अध्यक्ष ए. एम. नाइक ने सवाल किया था कि "फिर भारत की सड़कें , बंदरगाह और पुल कौन बनायेगा?" एल एण्ड टी में आज ३०,००० कर्मचारी हैं ।निर्माण कार्य में लगी इस कम्पनी में १२,००० इजीनियर्स हैं । इसे हर साल २००० इजीनियर्स की जरूरत होती है ।मगर हर साल २००० इंजीनियर्स कंपनी छोड़कर चले जाते हैं और नए इंजीनियर्स आसानी से नहीं मिलते। कारण यह है कि आज ज्यादातर इंजीनियरिंग स्नातक उत्पादन के क्षेत्र में काम नहीं करना चाहते हैं ।ये सब नई अर्थव्यवस्था की सूचना टेक्नॉलॉजी कम्पनियों में काम करने को उत्सुक हैं ।जब १९६३ में स्वयं नाइक ने स्नातक उपाधि प्राप्त की ह्ती, तब इंजीनियरिंग की तीन पसंदीदा शाखाएं थीं : मेकेनिकल ,इलेक्ट्रिकल और सिविल। आज अधिकांश छात्र कंप्यूटर विज्ञान और इलेक्ट्रॉनिक्स की कतारों में नजर आते हैं। जो मेकेनिकल लेते हैं , वे भी एल एण्ड टी जैसी कम्पनी में २ साल काम करके विशेषज्ञता हासिल करके किसी आई.टी. कम्पनी में जाना चाहते हैं ।


नाइक का मुद्दा सीधा-सा है - देश में किसी को भी प्रतिभा प्लायन की प्रकृति की जानकारी नहीं है । किसी को भी इस बात का अन्दाज़ नहीं है कि विकसित देश भारतीय प्रतिभा भण्डार का कितना लाभ ले रहे हैं । यह सही है कि आज वैश्विक इजीनियरिग कम्पनियाँ शाखाएं भारत में खोल रही हैं मगर वे उत्पादन चीन में करवाती हैं । " यहां हम १७ अरब डॉलर के आउट्सोर्सिंग जॉब्स पर इतरा रहे हैं मगर हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इस कार्य ने अन्य देशों के लिए ३०० अरब डॉलर की जायदाद निर्मित की है ।और देश से बाहर जाने वाली प्रत्येक ३ करोड़ डॉलर की इंजीनियरिंग सेवाओं के कारण देश में १ अरब डॉलर का नुकसान होता है।" यह तर्क नाइक का है। वे आगे कहते हैं - "भारत में प्रतिभा उपलब्ध ही नहीं है। इंजीनियरिंग कॉलेजों से उत्तीर्ण होने वाले करीब ९५ प्रतिशत छात्र यू.एस. और युरोप या दुनिया के अन्य भागों का रुख करते हैं ।हमारे पास तो जूठन की जूठन की जूठन आती है, जो थोड़ा पॉलिश होकर हमें छोड़कर चली जाती है।"


[ जारी ]

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