बुधवार, जून 20, 2007

प्रतिबन्धित पुस्तिकायें,एक किस्सा और एक खेल

यह तीन पुस्तिकायें लिखी गयीं थीं , ’दु:शासन पर्व’ के दौरान । ’तानाशाही को कैसे समझें’ पुस्तिका छपी, बार-बार छपी , तीन भाषाओं (गुजराती,हिन्दी,अंग्रेजी) में छपी । पुस्तिका के लेखक की गिरफ़्तारी के लिए तीन शहरों में गिरफ़्तारी वॉरण्ट जारी हुए । ’सुरुचि छापशाला’ , बारडोली के संस्थापक मोहन परीख ने बहादुरी से सरकारी दबावों का सामना किया और उन्हें कामयाब न होने दिया ।
’तानाशाही को कैसे समझें ?’ में तानाशाही का विवरण था । हर प्रकार की तानाशही में अहंकार , दर्प , हेकड़ी ,अविश्वास,असहिष्णुता हैं ।इन गुणों का प्रतिफल होता है (१) भय फैलाने,आतंक,खूफिया जाल (२) यह भ्रम फैलाना कि वही तारनहार है।(३)कुछ सुधार कार्यक्रम घोषित करना (४) कानून के समक्ष समानता की धज्जी उड़ाना ताकि न्याय निष्पक्ष न रह जाए आदि अपनाता है ।
’अहिन्सक प्रतिकार पद्धतियाँ’ में ईसा पूर्व ५वीं शताब्दी से तब तक की १७८ पद्धतियों का संक्षिप्त निरूपण किया गया है । यह पुस्तिका जीन शार्प के ’ पॉलिटिक्स ऑफ़ नॉन वॉयलन्ट एक्शन’ नामक ग्रन्थ के आधार पर लिखी गयी है । भारतीय उदाहरण भी लिए गए हैं । तीन नमूने देखिए
१७५.जहाँ गुप्त पुलिस या खूफिया एजेन्सी काम करती है , वहाँ उनका परिचय दे देना,नाम़ जारी करना ।नाजियों के विरुद्ध इसका इस्तेमाल हुआ था । चेकस्लोवाकिया में रूसी चमचों के गाडियों के नम्बर घोषित कर दिए गए थे ।
१५६. ’मिल-इन’ यानी घरभरन धरना । किसी आयोजन या मिलन में बडी संख्या में पहुँच जाऍ , वहाँ मौजूद लोगों से चर्चा शुरु करें,घूमें-फिरें,चक्कर लगायें। इस पद्धति में विघ्न डालने की कल्पना नहीं होती परन्तु अपने मुद्दे के प्रति ध्यान आकर्षित करने तथा उसके प्रचार का मकसद होता है ।
१४२. चीन और रूस की सेना में तनावपूर्ण शान्ति के दौर में न के सैनिकों को आदेश मिला कि रूसी सेना की ओर पीठ कर कतारबन्द हो खड़े हो जाँए और पीछा दिखायें । इस अपमान से रूसी तिलमिला गए। कुछदिन जब यह क्रम चलता रहा तब रूसियों को इस अपमान का प्रतिकार स्दूझा।उन्होंने चीनी सैनिकों के सामने चेयर्मैन माओ की बड़ी बड़ी तसवीरें लगा दीं ।
’प्रतिकारनी कहाणी’ में दो प्रसंगों का विस्तृत हवाला है । नाजियों द्वारा बन्दी बनाये गए शिक्षकों द्वारा अदम्य साहस और सूझबूझ से ईजाद किए गए विरोध तथा चेकोस्लोवाकिया में ’टैंक बनाम लोक” की कथा का विवरण है ।
किस्सा
१९७४ के पहले की बात है ,संभवतया ६९ की । पठानकोट में तरुण शान्ति सेना का प्रशिक्षण शिबिर हुआ था । जेपी मौजूद थे।शिबिर के बाद जेपी की आम सभा का प्रसंग है। ’लोकनायक’ बनने के पहले का।
कश्मीर , नागालैण्ड,तिब्बत जैसे मसलों पर जयप्रकाश के विचार , रवैया और कार्यक्रम काँग्रेस,जनसंघ या भाकपा से अलग होते थे । शेरे कश्मीर शेख अब्दुल्लह को नेहरू सरकार ने बरसों जेल में रखा था । विभाजन के तुरन्त बाद सरहद पार से हुए कबीलाई आक्रमण का मुकाबला करने तथा भारत में विलय का विरोध करने वाले जम्मू नरेश हरि सिंह के विरोध में नेशनल कॉन्फ्रेन्स की भूमिका सराहनीय थी । जिन दलों का जिक्र किया गया है वे सभी ’मजबूत-केन्द्र’ के पक्षधर रहे और हैं ।जयप्रकाश ने अपने सहयोगियों को शेरे कश्मीर से संवाद के लिए भेजा था।
जेपी की पहल पर नागालैण्ड शान्ति मिशन कीस्थापना हुई और इस अ-सरकारी प्रयास से पहली बार युद्ध विराम हुआ।
तिब्बत की निर्वासित जनता के हकों के बारे में जेपी को चिन्ता थी। ’६२ के हमले में देश की हजारों वर्ग मील जमीन पर चीन के कब्जे का मामला संसद में लोहिया,मधु किशन उठाते । संसद के बाहर तिब्बती इन्सान की आत्मा का स्वर जेपी द्वारा मुखरित होता था । बहरहाल, पठानकोट की जनसभा में मु्ष्टिमेय गणवेशधारियों ने नारे लगाये , ’ जयप्रकाश गद्दर है ’। लाहौर किले में दस दिन तक अंग्रेजो द्वारा जागा कर रखे गये अगस्त क्रान्ति के नायक जयप्रकाश ने अत्यन्र शान्त किन्तु दृढ़ आवाज में कहा , ’ जिस दिन जयप्रकाश गद्दार हो जाएगा,इस देश में कोई देश भक्त नहीं बचेगा ।’ जनता ने करतल ध्वनि से स्वागत किया । जेपी की आवाज फिर सुनाई दी , ’तालियाँ मत बजाइये’ । गनवेशधारी ने माहुल देख कर धीरे से खिदक लेना बेहतर समझा ।
खेल
’ तानाशाही को कैसे समझें ?’ पुस्तिका से कुछ अलफ़ाज़ नीचे लिए गए हैं । इन्हें अपने वाक्यों में इस्तेमाल कर टिप्पणी के रूप में भेजें ;
अहंकार , दर्प , हेकड़ी , घमण्ड , अविश्वास, शंका , अशिष्णुता , भय, भ्रम, जासूस,द्वेष,दमन और प्रतिकार ।
’खेल’ से अलग टिप्पणियों का भी हमेशा की तरह स्वागत है ।

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