वामपंथ का व्यामोह (२) : ले. सुनील
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पश्चिम बंग की सरकार जिस प्रकार का औद्योगीकरण कर रही है , उसके खिलाफ यह एक स्पष्ट बयान है । पश्चिम बंग सरकार और माकपा नेतृत्व के इस तर्क को पटनायक अस्वीकार कर देते हैं कि पश्चिम बंगाल के विकास के लिए एवं बेरोजगारी की समस्या हल करने के लिए इस प्रकार का औद्योगीकरण जरूरी है और आज की परिस्थितियों में यह औद्योगीकरण देशी-विदेशी कंपनियों के माध्यम से ही होगा । हालांकि लेख में बाद में यह तर्क भी दिया गया है कि केन्द्र सरकार नव उदारवादी नीतियों को राज्य सरकारों पर कई तरीकों से लाद रही है और उन्हें अपनाने के लिए दबाव डाल रही है । ऐसी हालत में , एक राज्य सरकार के लिए स्वतंत्र एवं अलग राह पकड़ना बहुत मुश्किल है । फिर भी , पश्चिम बंग की स्थिति के प्रति प्रभात पटनायक की शिकायत एवं आलोचन छिपी नहीं रहती । अन्यत्र केरल सरकार की तारीफ़ में लेख लिखते हुए उन्होंने कहा है कि राज्य सरकारों के पास विकल्प हैं ।वे व्यंगपूर्वक कहते हैं , ' भारत में आज यह स्थिति है कि राज्य सरकारों की परियोजनाओं के लिए पूंजीपति एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा नहीं करते , बल्कि राज्य सरकारें पूंजीपतियों को आकर्षित करने के लिए एक-दूसरे से होड़ कर रही हैं । टाटा को सिंगुर में ही जमीन चाहिए , कहीं अन्यत्र नहीं , और यदि नहीं मिली तो वे उत्तराखण्ड जाने की धमकी देते हैं ।'
प्रभात पटनायक यह भी स्वीकार करते हैं कि रोजगार पैदा करने एवं बढ़ाने में असफलता सिर्फ कॉर्पोरेट उद्योगों तक सीमित नही है । समस्या बड़े उद्योगों पर आधारित औद्योगीकरण में ही है । चीन में भी पिछले कुछ सालों में औद्योगिक रोजगार में बढोत्तरी नहीं के बराबर हुई है । पारम्परिक उद्योगों का स्थान बड़े उद्योगों के लेने और तकनालाजी की प्रगति के कारण पैदा होने वाली बेरोजगारी की ओर भी उनका ध्यान है । लेकिन इतना कहने के बाद वे कहते हैं कि इसका मतलब यह नहीं है कि 'औद्योगीकरण' होना ही नहीं चाहिए । बड़े उद्योगों से हमें बहुत सारी चीजें मिलती हैं,जो हमारे दैनन्दिन जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं । बड़े उद्योगों और औद्योगीकरण को जरूर बढ़ावा देना चाहिए, किंतु इस बात का ख्याल रखा जाना चाहिए कि आसपास की आबादी पर इसका विनाशकारी असर कम से कम हो ।किंतु कॉर्पॉरेट औद्योगीकरण में यह ध्यान रखना संभव नहीं है । इसलिए यह औद्योगीकरण सार्वजनिक क्षेत्र में या सहकारिता के माध्यम से होना चाहिए ।यही प्रभात पटनायक का विकल्प है । वे सोवियत संघ का भी उदाहरण देते हैं ,जहाँ एक बाजार-आधारित व्यवस्था के स्थान पर नियोजित अर्थव्यवस्था में बड़े उद्योगों का विकास किया गया , तकनीकी व संरचनात्मक परिवर्तनों पर नियंत्रण रखा गया और इस कारण लोगों को कृषि से निकालकर उद्योगों में लगाया जा सका ।
यहीं आकर प्रभात पटनायक भटक जाते हैं । बड़े उद्योगों पर आधारित आधुनिक औद्योगीकरण की रोजगार के सन्दर्भ में असफलता का सही विश्लेषण करने के बाद वे एक गलत निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं । बड़े-बड़े उद्योगों पर आधारित औद्योगीकरण के बारे में कुछ और बातें वे नजरंदाज कर जाते हैं । एक ,इस तरह के औद्योगीकरण के लिए भारी मात्रा में पूंजी चाहिए । पूंजीवादी व्यवस्था हो या सोवियत संघ जैसी साम्यवादी व्यवस्था , कृषि एवं अन्य पारम्परिक ग्रामीण उद्योगों के शोषण एवं विनाश तथा अन्य देशों के शोषण से ही यह विशाल पूंजी जुटेगी । दूसरे शब्दों में , आंतरिक उपनिवेशों तथा बाहरी उपनिवेशों या नव-उपनिवेशों का निर्माण एवं शोषण इस प्रकार के औद्योगीकरण में निहित है । दो , अब यह बात खुलकर सामने आ रही है कि बड़े उद्योगों पर आधारित औद्योगीकरण की प्राकृतिक संसाधनों की भूख भी बहुत जबरदस्त है , जिसके कारण नए-नए संकट पैदा हो रहे हैं । जल-जंगल-जमीन से लोगों की बेदखली , विस्थापन तथा विनाश भी इस में अनिवार्य रूप से निहित है । इसलिए स्थानीय आबादी पर विनाशकारी असर को ज्यादा कम करना संभव नहीं है , चाहे वह पूंजीवादी व्यवस्था हो या साम्यवादी व्यवस्था । इसके लिए तो आधुनिक औद्योगीकरण का ही विकल्प ढूंढना होगा ।
प्रभात पटनायक ने 'पूंजी के आदिम संचय' की नयी स्थितियों का जिक्र किया है , जिसमें उद्योगपति सरकार से रियायत मांगते हैं , लोगों को विस्थापित करते हैं, जमीन बहुत सस्ती दरों पर हासिल करते हैं और जमीन का सट्टात्मक धंधा करके भी विशाल कमाई करते हैं । मार्क्स ने इस शब्दावली का इस्तेमाल इंग्लैंड में बड़े उद्योगों के हितों के लिए बड़े पैमाने पर किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करने की प्रक्रिया को समझाने के लिए किया था। प्रभात पटनायक इसे 'अतिक्रमण के माध्यम से पूंजी संचय' का नाम देना चाहते हैं।लेकिन प्रभात पटनायक हों या मार्क्स के अन्य अनुयायी , उन्हें एक बात अब तक के अनुभव से समझ लेना चाहिए । वह यह कि सरकार की मदद से प्राकृतिक संसाधनों को 'माटी के मोल' हड़पने और उनसे लोगों को बेदखल करने की यह प्रक्रिया औद्योगिक पूंजीवाद में कहीं न कहीं निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है । यह पूंजी का आदिम संचय नहीं, निरंतर चलने वाला बलात संचय है ।पूंजीवाद का विकास इस पर अनिवार्य रूप से टिका है ।
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औद्योगीकरण का अन्धविश्वास : ले. सुनील ,
नारोदनिक,मार्क्स,माओ और गाँव-खेती : ले. सुनील ,
‘पूंजी’,रोज़ा लक्ज़मबर्ग,लोहिया : ले. सुनील (3) ,
औद्योगिक सभ्यता ,गाँधी ,नए संघर्ष : ले. सुनील(४)) ,
औद्योगिक सभ्यता के निशाने पर खेती-किसान : ले.सुनील (५) ,
खेती की अहमियत और विकल्प की दिशा:ले. सुनील(६) ,
आप और आपके परिवार को नव-वर्ष की ढेरों सारी शुभकामना,और बधाई.
जवाब देंहटाएंHindi Sagar
aap ne morcha kol rakha hai.
जवाब देंहटाएंchandrapal