रविवार, नवंबर 18, 2007

तेलुगु कहानी : मैं कौन हूँ : पी. सत्यवती :अनुवाद- जे.एल.रेड्डी

[ समकालीन भारतीय साहित्य के जुलाई - सितंबर १९९५ अंक में यह कहानी प्रकाशित हुई थी । आभार सहित यहाँ प्रस्तुत है । ]

    गृहणी बनने से पहले वह एक लड़की थी । सुशिक्षित , चतुर , व्युत्त्पन्नमति । साथ ही चपल और लावण्यमयी भी ।

    उस लड़की का सौन्दर्य और बुद्धिकुशलता और उस के पिता द्वारा दिया गया दहेज खूब पसंद आए तो एक नवयुवक ने उस लड़की के गले में मंगलसूत्र धारण करा कर उसे एक घर की गृहणी बनाया और बोला , ' देखो मेरी प्यारी ! यह तुम्हारा घर है । ' उस गृहणी ने झट से पल्लू कमर में कस लिया , सारे घर को खूबसूरती से लीपा - पोता और रंगोली बनाई । नवयुवक ने फ़ौरन गृहणी के सराहना करते हुए कहा , ' घर को लीपने - पोतने में तुम बड़ी कुशल हो । रंगोली बनाने में तो और भी ज्यादा । शाबाश ! कीप इट अप । 'और अंग्रेजी में भी एक बार और प्रशंसा कर के उसका कंधा थपथपाया ।

    गृहणी फूली नहीं समाई और घर को लीपने-पोतने को ही अपना लक्ष्य बना कर जीवन बिताने लगी । वह हमेशा घर को एकदम सफाई से लीपती-पोतती और रंगोली के रंग-बिरंगे डिजाइनों से सजाती ।इस तरह उस का जीवन पोंछनों और रंगोली की पिटारियों से भरा-पूरा रहा । लेकिन एक दिन घर लीपते - पोतते हुए , उस ने अचानक सोचा , ' मेरा नाम क्या है ? 'और एकदम चौंक पड़ी । हाथ का पोंछना और रंगोली की पिटारी फेंक कर वह खिड़की के पास खड़ी हो गई और सिर खुजाती हुई लगातार सोचती रही । ' मेरा नाम क्या है ?  मेरा नाम क्या है?' सामने के मकान पर टँगे नामपट्ट पर लिखा था - श्रीमती एम. सुहासिनी , एम.ए.,पी-एच.डी. , प्रिंसिपल 'एक्स' कॉलेज । हाँ , इसी तरह मेरा भी कोई नाम होना चाहिए न ?सोच कर वह परेशान हुई । मन में बेचैनी भर गई ।उस ने किसी तरह उस दिन का लीपना-पोतना ख़त्म किया । इतने में कामवाली औरत आ गयी । शायद इस को याद हो , यह सोच कर उसने पूछा, ' क्यों री लड़की! मेरा नाम जानती है ? '

    ' आप यह क्या पूछ रही हैं अम्मा ! मालकिनों के नाम से हमें क्या मतलब ? आप हमारे लिए मालकिन हैं - फलाने सफ़ेद मकान के निचले हिस्से में रहने वाली मालकिन का मतलब - आप ।' उस लड़की ने जवाब दिया ।

    ' ठीक है , तुझ बेचारी को कहाँ से पता होगा ? ' गृहणी ने सोचा ।

    दुपहर को बच्चे खाना खाने स्कूल से आए - गृहणी ने सोचा - बच्चों को शायद याद हो । उस ने पूछा, 'बच्चो ! मेरा नाम क्या है, जानते हो ? ' बच्चे चकित हो कर बोले , ' तुम माँ हो - तुम्हारा नाम माँ ही है । जब से हम पैदा हुए हैं , तब से हम यही जानते हैं । पिताजी के नाम से चिट्ठियाँ आती हैं । उन को सब लोग नाम से बुलाते हैं , इसलिए हम उन का नाम जानते हैं । तुम ने अपना नाम हमें बताया ही कब है ? तुम्हारे नाम चिट्ठियाँ भी तो नहीं आतीं ! ' वह फिर सोच में पड़ गयी - हाँ , ठीक ही तो है , मुझे छिट्ठी लिखता ही कौन है ? माँ और बाबूजी हैं तो , लेकिन वे एक या दो महीने में फ़ोन करते हैं । छोटी और बड़ी बहनें भी हैं तो , लेकिन वे भी अपने अपने घर को लीपने-पोतने में लगी रहती हैं । कभी शादी या महिला-कार्यक्रमों में मिलती हैं , तो रंगोली के नये डिजाइनों या फिर नए पक़वानों के बारे में ही बात करती हैं । चिट्ठी-पत्री कुछ नहीं ।गृहणी निराश हो गयी ।मन में व्याकुलता और बढ़ी । इतने में पड़ोसिन , महिलाओं के किसी कार्यक्रम के लिए न्योता देने आई । कम से कम इसको तो याद होगा , यह सोच कर उस से पूछ तो वह खी-खी करती बोली :

    ' बात यह है कि न मैं ने कभी आप का नाम पूछा न आप ने बताया । दाईं ओर के सफ़ेद मकान वाली या दवाइयों की कंपनी के मैनेजर की बीवी या फिर गोरी और लंबी वाली औरत - इस तरह आपस में हम आपके बारे में बात करते हैं । बस । '

    अब कोई फायदा नहीं । बच्चों के दोस्त भी क्या बतायेंगे ? वे यही जानते हैं कि मैं मैं कमला की माँ हूँ या आंटी हूँ ।  अब एक पतिकी शरण में जाना पड़ेगा -  उन को याद होना चाहिए.......

[ शेष भाग , अगली बार ]

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