रविवार, सितंबर 02, 2007

औद्योगिक सभ्यता ,गाँधी ,नए संघर्ष : ले. सुनील(४)





पूंजीवादी और औद्योगिक सभ्यता के इस विनाशकारी पहलू का अहसास उन्नीसवीं शताब्दी में मार्क्स सहित यूरोपीय विचारकों को नहीं होना स्वाभाविक था ,लेकिन गांधी ने इसे बहुत पहले ताड़ लिया था ।इसीलिए गांधी ने इसे राक्षसी सभ्यता कहा था । यूरोप - अमेरिका में हाल में दो - तीन दशक पहले , जब प्रदूषण से उनका खुद का जीवन नारकीय होने लगा , तब जाकर इसके विरुद्ध आवाज उठी और ग्रीन्स जैसे आंदोलनों ने जन्म लिया । अब तो ओजोन की छतरी में छेद और दुनिया के बढ़ते तापमान की चिन्ता उन्हें सता रही है । स्वयं के जंगलों को नष्त करके और पूरी दुनिया के जंगलों के नाश के लिए बहुत हद तक जिम्मेदार होने के बाद अब वे जंगलों और जंगली जानवरों की प्रजातियों को बचाने के लिए अभियान चला रहे हैं ।लेकिन इस पर्यावरण चेतना में अभी भी यह बात पूरी तरह नहीं आई है कि सल में इस विनाश का कारण तो औद्योगिक सभ्यता और आधुनिक जीवन शैली है । जब तक उसपर रोक नहीं लगायी जाती ,और उसका विकल्प नहीं ढ़ूँढा जाता , तब तक पर्यावरण और मानवीय दोनों प्रकार के संकट गहराते जाएंगे ।



नन्दीग्राम , सिंगूर ,कलिंगनगर , काशीपुर आदि इस बात के भी द्योतक हैं कि आधुनिक औद्योगीकरण की जल - जंगल-जमीन-खनिज की भूख बहुत जबरदस्त है। यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ रही है कि बड़े उद्योगों , आधुनिक जीवन-शैली और भूमण्डलीकरण के लिए किसानों-मजदूरों का शोषण तथा उससे पूंजी संचय ही पर्याप्त नहीं है , उसे बड़े पैमाने पर जमीन भी चाहिए । इसी प्रकार पानी की उसकी जरूरत भी जबरदस्त है और कई स्थानों पर पानी को ले कर भी झगड़े और संकट पैदा हो रहे हैं । उड़ीसा की महानदी पर हीराकुद बांध चार दशक पहले सिंचाई के लिए बना था,किन्तु अब उसके बगल में ढेर सारे उद्योगों के इस बांध से पानी देने के करार उड़ीसा सरकार ने कर लिये हैं , जिससे किसान आशंकित और आन्दोलित हो गये हैं ।केरल के प्लाचीमाड़ा जैसे आन्दोलन भी बहुचर्चित हैं जहाँ स्वयं पानी एक बाजार में बेचने की वस्तु बनने और उसके अत्यधिक खनन से संकट पैदा हो गया है और पानी पर किसका अधिकार होगा, वहाँ यह सवाल खड़ा हो गया है । इसी प्रकार , उड़ीसा - झारखण्ड-छत्तीसगढ़ में खनिजों को लेकर बड़े पैमाने पर करार हो रहे हैं , जिन्में पोस्को व मित्तल जैसे समझौते भी हैं ।दुनिया के खनिज भण्डार सीमित हैं । अब पूंजीवादी औद्योगीकृत देशों की रणनीति है कि वे अपने खनिज भण्डार सुरक्षित रखकर शेष दुनिया के खनिजों का दोहन करना चाहते हैं ।मुक्त व्यापार और निर्यात आधारित विकास का जो पाठ दुनिया के गरीब ' अविकसित ' देशों को पढ़ाया जा रहा है , वह उनकी इस रणनीति में काफी सहायक साबित हो रहा है । विश्व व्यापार संगठन , विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष इसमें उनके औजार हैं । लेकिन जहाँ इनसे काम नहीं चलता , वे सीधे सैनिक बल का प्रयोग करने से भी नहीं चूकते । इराक और अफगानिस्तान में अमरीका- ब्रिटेन का हमला इसका ताजा उदाहरण है ।



आज भारत में या दुनिया के स्तर पर जो संघर्ष हो रहे हैं या जो विवाद चल रहे हैं , उनके केन्द्र में नव-औपनिवेशिक शोषण , साम्राज्यवादी चालें , अस्मिताओं की टकरहाट एवं प्राकृतिक संसाधनों को लेकर टकराव ही है । मालिक-मजदूरों के संघर्ष या तो अनुपस्थित हैं या नेपथ्य में चले गये हैं । भारत में पिचले तीन दशकों में जो आन्दोलन चर्चा व सुर्खियों में रहे हैं, वे या तो सीधे जल-जंगल-जमीन को लेकर हुए हैं जैसे चिपको , नर्मदा बचाओ, चिलिका,गंधमार्दन,काशीपुर,गोपालपुर,कोयलकारो ,टिहरी , प्लचीमाड़ा , मेंहदीगंज , कालाडेरा,बालियापाल,नेतरहाट,पोलावरम ,कलिंगनगर , लांजीगढ़ , कावेरी जल विवाद , या फिर किसानों के , आदिवासियों के, दलितों के , और क्षेत्रीय अस्मिताओं (असम,झारखण्ड , पृथक तेलंगाना,पंजाब,कश्मीर,उत्तरपूर्व ,उत्तरबंग आदि) के संघर्ष रहे हैं ।वे भी आधुनिक विकास की विसंगतियों ,क्षेत्रीय विषमता और अत्यधिक केन्द्रीकरण से उपजे हैं। दुनिया के स्तर पर भी जो संघर्ष एवं टकराव चल रहे हैं जैसे इराक , अफगानिस्तान , वेनेजुएला , बोलिविया , इरान , नाईजीरिया , फिलीस्तीन आदि, उनके पीछे भी तेल , प्राकृतिक गैस , जमीन ,खनिज जैसे प्राकृतिक संसाधनों का झगड़ा एक प्रमुख कारक है । बींसवीं और इक्कीसवीं सदी की दुनिया की यह एक बड़ी सच्चाई है , जिसकी रोशनी में हमें अपने पुराने सिद्धान्तों और विश्वासों को परखना होगा , नन्दीग्राम-सिंगूर जैसी घटनाओं को देखना होगा तथा आगे की राह खोजना होगा ।



( जारी ) लेख के पिछले भाग : एक , दो , तीन .





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