शनिवार, सितंबर 01, 2007

'पूंजी',रोज़ा लक्ज़मबर्ग,लोहिया : ले. सुनील (3)

   

निश्चित रूप से कार्ल मार्क्स का ध्यान इस ओर गया था और उन्होंने अपने ग्रन्थ 'पूंजी' में औपनिवेशिक लूट का विस्तृत वर्णन किया है । लेकिन इस महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य को उन्होंने अपने विश्लेषण का अंग नहीं बनाया । बाद में रोज़ा लक्ज़मबर्ग ने कुछ हद तक इस कमी को पूरा करने की कोशिश की । लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि उपनिवेशों की लूट और शोषण , पूंजीवाद के विकास तथा औद्योगीकरण का एक प्रमुख आधार है , तो दुनिया के गैर - यूरोपीय देशों के लिए तो यह रास्ता खुला ही नहीं है । वे कहाँ के उपनिवेश लाएँगे ? इसलिए भारत सहित एशिया-अफ़्रीका-लातिनी अमेरिका के तमाम देशों के लिए पूंजीवादी विकास और औद्योगीकरण का विकल्प मौजूद ही नहीं है । वहाँ सीमित और अधकचरे किस्म का वैसा ही औद्योगीकरण हो सकता है , जैसा अभी तक हुआ है ।लेकिन आधुनिक औद्योगिकरण की औपनिवेशिक शोषण की अनिवार्यता इतनी गहरी है व अन्तर्निहित है कि इसके लिए भी इन देशों के बाहर उपनिवेश नहीं मिले , तो देश के अंदर उपनिवेश विकसित करने पड़े । इन देशों के पिछड़े इलाके , आदिवासी अंचल , गाँव और खेती आधारित समुदाय , एक प्रकार के ' आंतरिक उपनिवेश ' हैं , जो लगातार उपेक्षा , शोषण , लूट व विस्थापन के शिकार होते रहते हैं । इसलिए खेती और किसानों का दोयम दर्जा , कंगाली व शोषण आधुनिक पूंजीवादी विकास और औद्योगिक व्यवस्था में अंतर्निहित है। वह पूंजी संचय और पूंजी निर्माण का एक प्रमुख स्रोत है । मार्क्सवादी विचार की एक प्रमुख कमी यह है कि एक कारखाने के अंदर मजदूरों के शोषण को ही उसने , अतिरिक्त मूल्य का प्रमुख स्रोत मान लिया लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार , विनिमय एवं पूंजी के जरिये अन्य देशों का शोषण तथा देश के अन्दर अर्थव्यवस्था के अन्य हिस्सों का शोषण इसका ज्यादा बड़ा स्रोत साबित हुआ है । इसी शोषण के कारण पश्चिमी यूरोप के देशों में पूंजीपतियों और मजदूरों दोनों की आमदनी में वृद्धि संभव हुई , दोनों के बीच का टकराव टालना संभव हुआ तथा इन देशों में वह क्रान्ति नहीं हुई , जिसकी भविष्यवाणी मार्क्स और एन्गल्स ने की थी । दुनिया के गैर यूरोपीय देशों की दृष्टि मार्क्स के विचार की यह एक प्रमुख कमी थी , जिसे भारत में डॉ. राममनोहर लोहिया ने' मार्क्स के बाद का अर्थशास्त्र' ( Economics after Marx, 'Marx,Gandhi and Socialism') नामक अपने निबंध में अच्छे ढंग से उजागर किया है ।

    मार्क्स के विश्लेषण में एक कमी और थी । श्रम को उन्होंने उत्पादन और मूल्य सृजन का मुख्य आधार माना । एक मजदूर के श्रम से जो उत्पादन होता है , उसका पूरा हिस्सा उसे न दे कर एक छोटा सा हिस्सा दिया जाता है, और यही अतिरिक्त मूल्य का व मालिकों के मुनाफ़े का का स्रोत बनता है ।यह सही है ,लेकिन इससे तस्वीर पूरी नहीं बनती । पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में औद्योगीकरण का एक प्रमुक आधार बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों का मुफ्त या बहुत कम लागत पर दोहन , शोषण व विनाश भी रहा है । जिस तरह कारखाने के अन्दर एवं देश के अन्दर श्रम का शोषण पूंजीवादी औद्योगिक विकास के लिए पर्याप्त नहीं था , उसी तरह प्राकृतिक संसाधनों की लूट व बरबादी भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुई ।अंतर्राष्ट्रीय व्यापार,विनिमय व अंतर्राष्ट्रीय पूंजी निवेश इसके प्रमुख माध्यम बने । प्राकृतिक संसाधनों का यह शोषण कच्चे माल की निरंतर बढ़ती जरूरतों के रूप में तो है ही , जो खदानों , खेतों , जंगलों और सागरों से प्राप्त होता है ।लेकिन जल , जंगल , जमीन , हवा ,जैविक सम्पदा आदि को सीधे हड़पने , प्रदूषित करने और नष्ट करने की औद्योगिक पूंजीवाद की क्षमता व जरूरत भी जबरदस्त है । यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यदि अमेरिका के दोनों विशाल महाद्वीप व आस्ट्रेलिया महाद्वीप के मूल  निवासियों को नष्ट करके वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों को लूटने तथा एशिया व अफ्रीका के प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने का मौका यूरोप को न मिला होता तो भी औद्योगिक क्रान्ति संभव नहीं होती । चूंकि दुनिया के गरीब एवं कथित रूप से 'अविकसित' देशों में अधिकांश लोगों की जिन्दगी अभी भी प्रकृति एवं प्राकृतिक संसाधनों से जुड़ी है, वहां पर औद्योगिक सभ्यता का दोनों तरह का शोषण  ( श्रम एवं प्राकृतिक संसाधनों का ) काफी हद तक एकाकार हो जाता है । दोनों के विनाशकारी असर को भोगने के लिए वहां की जनता मानों अभिशप्त है ।*

 ( जारी )                                                                                                      

    * दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि पूंजीवादी मुनाफे के साथ एक प्रकार का 'लगान' भी पूंजीवाद का महत्वपूर्ण ( शायद ज्यादा महत्वपूर्ण )अंग है । यह 'लगान' प्राकृतिक संसाधनों पर बलात कब्जे व एकाधिकार से आता है । इसी प्रकार पेटेण्ट - कॉपीराइट कानूनों के जरिये ज्ञान पर एकाधिकार कायम करके कमाई जा रही रॉयल्टी भी इसी तरह की आय है । यह भी कहा जा सकता है कि जमीन एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों से लोगों को बेदखल करके होने वाला 'प्राथमिक पूंजी संचय'  कोई पूंजीवाद का पूर्व चरण या प्रारंभिक चरण नहीं है, बल्कि यह निरंतर चलने वाली पूंजी के विस्तार की पूंजीवाद की महत्वपूर्ण प्रक्रिया है ।

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